jeevan ke sapt sopan - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

जीवन के सप्त सोपान - 2

जीवन के सप्त सोपान 2

( सतशयी)

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अर्पण-

स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में

सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

आभार की धरोहर-

जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गायत्री शक्ति पीठ रोड़

गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)

मो.9981284867

ईर्ष्या पंक न फंस रहो,गहरा इसको जान।

पाओगे नहीं नाम रस,क्यों भटको अज्ञान।।

एक चित्त होकर जपो,प्रभू के गुणानुबाद।

अमल करो निष्कर्ष पर,ईश प्रेरणा नाद।।

गुरु चरणों में शीश धर,कर गुरु चरणों ध्यान।

चिंता रहे न चित्त में,सच गुरु वाणी जान।।

परमारत की मूर्ती है,श्री सद्गुरु महाराज।

नाम साधना जोड़ मन,सब समझे नहीं राज।।

सर्व व्यापक है प्रभू,है घट-घट में वास।

उनके शरणें जाय से,मिट जावै भव त्रास।।

सदगुरु देते रहे है, नामदान का दान।

ऐसा को दातार है,ओ मन अब भी मान।।

जाहि जनावै गुरु जी, सो जानै सब भेद।

दिव्य कृपा जिसको मिले,नेति-नेति कहै वेद।।

बड़े भाग्य है उसी के,जो गुरु शरणें जाए।

शरण गहे,नहिं मरण है,जीव मुक्त हो जाए।।

भाग्यहीन उनको समझ,जिन प्रभू जाने नाहि।

वे साधारण है कहाँ,ज्ञानी ध्यानी पाहि।।

गुरु धाम वह धाम है,जहाँ न कोई बिकार।

कहीं अंधेरा है नहीं,सभी तरफ उजियारा।।

सद्गुरु आए देश एहि,शिष्य हितों के हेतु।

सिर्फ समर्पण चाहिए,वे बनते जग सेतु।।

रखना था गुरुदेव को,मन मंदिर के बीच।

पर षट् रिपु के बाघ को,रहे आज तक सीच।।

षट् रिपु की खट-पट जहाँ,कहाँ शान्ति को ठौर।

इन्हें बहिष्कृत कीजिए,झुक गुरु चरणों ओर।।

अति से रहना दूर नित,अति भोगन का त्याग।

अति औषधि नहीं खाइए,कर परहेज मन लाग।।

तेरे पावन ह्रदय में,हो गुरु पावन रुप।

रहो किसी भी हाल में,होगे परम अनूप।।

प्रभू प्रार्थना के बिना,स्वाँस न खाली जाए।

हो सचेत रहना सदाँ,शत्रु न घर घुस आए।।

प्रभू महिमा परताप से,ह्रदय अंध मिट जाए।

अंध मिटै सुख ऊपजे,सारा दुख मिट जाए।।

जो अखंड सुख चाहते,गुरु चरणों कर प्रीत।

सत पुरुषों में मन लगा,एही सनातन रीत।।

धोखा मत दे जगत को,बगुला भगत न होएं।

मोह त्याग संसार का,तब ही गुरु मुख होए।।

हट योगी शत वर्ष तक, सहते कष्ट अपार।

क्षण में वह सब मिलत है,ले गुरु चरण अधार।।

स्वच्छ आत्मा को करो,तज के मन के खोट।

मरना तो ध्रुव सत्य है,सद्गुरु की ले ओट।।

सभी अवस्था सुखद है,जब मालिक की मौज।

अंग संग तेरे रहै,लेकर अपनी फौज।।

करम फलों को भोग चल,ले गुरु चरण अधार।

सब कुछ सुखमय लगेगा,यह गुरु का उपहार।।

प्रभू लीला है अगम अति,कठिन जानना होए।

सृष्टि के है रचियता,व्यर्थ समय जिन खोए।

सद्गुरु सेवा भाव से, उपजे प्रेम अन्नय।

आत्म शक्ति बलवान हो,मन विजयी सो धन्य।।

भव अग्नि से वचन हित,कर गुरु पद अनुराग।

सद्गुरु के दरबार में,सब दुख जाते भाग।।

श्री गुरुवर की छवि को,ह्रद सिंहासन धार।

करो विनय कर जोरि कर,निश्चय बेड़ा पार।।

प्रभू का दामन गहि रहो,करो नित्य गुणगान।

है सरायं यह जगत ही,मोह न करो सुजान।।

सुस्ति,आलस त्याग कर,बनों सदां निष्काम।

सस्ता सौदा गुरु मिलन,शब्द सार पहिचान।।

विष घट,अमृत घट नहीं,विष घट ही कहलाए।

खाली कर,अमृत भरो,अमृत घट बन जाए।।

माया बुरी न है कभी,यदि सद् कर्मों जाए।

मान धरोहर प्रभू की,करो खर्च हर्षाय।।

सद गुरु आश्रम जो चलै,कर पूरा विश्वास।

वे संरक्षक आपके,फिर भय का कहाँ बास।।

अति पावन गुरु चरण है,ह्रदय मध्य दो बास।

त्रृकुटि मध्ये ध्यान कर,जहाँ इष्ट का बास।।

अटल प्रभू के वचन है,बधैं प्रेम की ठौर।

प्रेम रतन है आप पर,कौन कमी तब और।।

गुरु अथाह सागर तेरे,प्रेम मीन बन देख।

गोद हिलोरै पाओगे, निर्भय, गहरे लेख।।

साहस कर चलते रहो,थको न मग के बीच।

शुभ दिन निश्चय आएगा,मन बगिया को सींच।।

गुजरा समय न आ सका,फेर किसी के हाथ।

रिक्त हाथ पछताएगा,सीदेगे सब गात।।

हम भूलै,भूलत रहै,प्रभु भूलै न कोय।

सदा निरीक्षण करत है,प्रेम पंथ मिल दोय।।

जिसने श्री गुरु देव को,अपना मन दे दीन।

सारी चिंताएँ मिटत,हो गुरु के आधीन।।

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द्तीय भाग- सदमार्गी पगडण्डी

गुरु चरणों की कृपा से,मन की गति को रोक।

यदि ऐसा नहिं कर सका,व्यर्थ जिया एहि लोक।।

कभी न क्रोधित होईए,रहो धैर्य के साथ।

पर दोषी तेरे चरण,सदाँ नवाँए माथ।।

जो निश दिन जलता रहे,क्रोधाग्नि के ताप।

दुनिया आना व्यर्थ भा,बनी न कोई छाप।।

आत्मिक पथ के शत्रु है,कनक,कामिनी दोए।

इनसे बचकर जो चले,निर्मल जीवन होए।।

बुरी वस्तु को कभी भी,आदत में नहीम लाय।

आपनाना तो सरल है,त्यागन कठिन दिखाय़।।

कामी पीछे काम के,लोभी धन के हेतु।

सिर देने ततपर खड़े,अब भी मनवा चेत।।

बड़े जो बनना चाहते,तो छोटिन कर प्यार।

उन्हें सताते होएगा,जीवन हा-हा कार।।

दीनभाव,गुरु चरण रति,तन-मन का अभिमान।

तज,गुरु चरणों मन लगा सदाँ सुरक्षित जान।।

जो प्रभू को पाना चहो,गुरु चरणों अनुराग।

सब इच्छाओं रहित हो,बड़े भाग्य ही पाव।।

प्रभू रंग में रंगना चहो,धोओ ममता मैल।

सतसंगी सागर सलिल,मंझन करन सुखैल।।

मन त्यागे जब सुदृढ़ हो,विषय विकारी पंथ।

पुरुषारथ से फलित यह,कहते आए संत।।