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गुरुदेव - 4 - (लालकोठी)

चाँदन से आने के पश्चात मैं बाड़मेर में मित्र नेणु जी कीता के पास चला गया। करीब दो महीने वहाँ अध्ययन करने के पश्चात सोचा कि एक बार कोचिंग करनी भी जरूरी है। आज के इस प्रतियोगिता के समय में कोचिंग एक अच्छा सहारा होता है। हालांकि उसके बिना भी सफल हो सकते है लेकिन एक भय मन में रह ही जाता है कि कोचिंग के बिना शायद बेड़ा पार न हो सकेगा। लेकिन अधिकतर नोरे के मित्र तो जयपुर जा चुके थे और अपने -अपने रूम में सेट हो चुके थे। मैं किसके साथ जाऊं और किनके साथ रहूंगा। यही टेंशन में कुछ दिन लिए बैठा था। फिर याद आई गुरुदेव की, लेकिन उनको कैसे कहूँ की मुझे अपने साथ ले चलना , अगर आप जाओ तो। लेकिन आखिरकार हिम्मत कर के उनसे बात कर ही ली और समाधान तो होना ही था। लेकिन इससे अधिक मुझे इस बात का अनुभव हुआ कि गुरुदेव उसी सहजता और प्रेम से मुझे साथ चलने का बोले, जब वो चाँदन चलने पर बोले थे।
आखिरकार मैं चल पड़ा गुरुदेव के संग गुलाबी नगरी में और वह ट्रैन का सफर आज भी याद है। उस एक्सप्रेस ट्रेन के लोकल डिब्बे में हमें सीट तो नहीं मिली लेकिन जगह मिल गयी। जैसे अंधेरे में दीपक अपनी लौ से आसपास उजाला कर देता है वैसे ही कुछ व्यक्ति अपनी सकारात्मक ऊर्जा से अपने आसपास के माहौल में भी उसी ऊर्जा को प्रवाहित कर लेते है और वैसा ही गुरुदेव ने किया। उन अनजान लोगों के मध्य में पहचान बनाना और नीरस सफर को आनंद से भर देना । पूरे सफर में लगभग बारह घंटो के सफर में हमें सीट नहीं मिली पर एक पल के लिए भी ऐसा नहीं लगा कि कितना बेकार और उबाऊ सफर है। दो घंटे में सफर से ऊब जाने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को पहली बार इतना लंबा सफर आनंद से पूर्ण लगा।

इस बेहतरीन सफर के बाद प्रातः जल्दी ही हम जयपुर के गांधीनगर रेलवे स्टेशन पर पहुंचे जहाँ हमारा गन्तव्य स्थान था। ट्रैन से उतरने के पश्चात सबसे पहले हमारा ठिकाना था भूराराम जी सांकड़ा का रूम। थोड़ी देर विश्राम और फिर प्रातः के भोजन के पश्चात कुछ अध्ययन और कोचिंग संबंधित बाते प्रारंभ हूई। भूराराम जी और अन्य साथी जो रूम में रहते थे उनकी तैयारी देख के एक बार दिल में घबराहट सी होने लगी। बिखरी हुई किताबें, नोट्स, और दीवार पर चिपकाई हुई कुछ पर्चियां जिसमें महत्वपूर्ण अध्ययन सामग्री थी। कमरे के भौतिक वातावरण के अलावा वहाँ का सामाजिक वातावरण भी अध्ययन से लबालब था। वो मजाक भी करते तो कोई जीके का प्रश्न होता। ऐसा लग रहा था उनकी नसों में खून की जगह जीके बह रहा था।

कमरे के बाद जब दिन में कोचिंग संस्थान के लिए डेमो क्लास अटेंड करने गए। लेकिन जब वहाँ से वापस आये तो मेरा मन और ज्यादा डर गया। उस समय जयपुर की अधिकांश कोचिंग संस्थान लालकोठी में थी और लालकोठी ज्ञान का पर्याय बन गया था। स्टूडेंट्स की इतनी भीड़ और कोचिंग के लिए होड़ व परीक्षा की दौड़ और चारो ओर बेरोजगारी का शोर। इतनी भीड़ में ,मैं सबसे कम भीड़ वाले जैसलमेर से आया नया -नया विद्यार्थी था और इस भीड़ के साथ दौड़ करने और आगे निकलने के तनाव से ही मेरी शुरुआत हुई।
लेकिन इस युद्ध में मेरे साथ स्वयं श्रीकृष्ण जैसा सारथी था जिसे मैं भूल ही गया था। गुरुदेव के साथ तभी शुरू होता है मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण सफ़र।