Gyarah Amavas - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

ग्यारह अमावस - 10



(10)

शांति कुटीर में कुछ मेहमान ‌आए थे। यह एक मध्यमवर्गीय परिवार था। परिवार में निशांत चतुर्वेदी, उनकी पत्नी देवयानी चतुर्वेदी और चौदह साल की बेटी अहाना चतुर्वेदी थी। चतुर्वेदी परिवार अहाना के लिए ही यहाँ आया था। इस कम उम्र में अहाना के साथ कुछ ऐसा हुआ था कि वह एकदम शांत रहती थी। निशांत चतुर्वेदी को जब दीपांकर दास की तकनीक का पता चला तो वह अहाना को दिखाने के लिए लेकर आया था। इस समय तीनों दीपांकर दास के उस कमरे में बैठे थे जहाँ वह सबसे मिलता था। अहाना अपनी नज़रें झुकाए चुपचाप बैठी थी। दीपांकर दास ने कहा,
"अहाना क्या हुआ है तुम्हें ? इस तरह उदास क्यों रहती हो ?"
अहाना ने कोई जवाब नहीं दिया। वह वैसे ही नज़रें झुकाए बैठी रही। देवयानी ने कहा,
"किसी से नहीं बोलती है। हम दोनों भी कितनी कोशिश करते हैं। पर चुप रहती है। आप कुछ कीजिए।"
दीपांकर दास ने हाथ के इशारे से देवयानी को चुप रहने के लिए कहा। अहाना से बोला,
"अहाना अपनी नज़रें ऊपर उठाओ। मेरी तरफ देखो।"
अहाना ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ऐसा लग रहा था जैसे कि वह कुछ सुन ही ना रही हो। दीपांकर दास ने पास खड़े शुबेंदु से कहा,
"अहाना को ज़रा फार्म दिखाकर लाओ।"
शुबेंदु अहाना के पास आया। उसका हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश की। अहाना बगल में बैठे अपने पापा से चिपक गई। निशांत ने उसके सर पर हाथ रख दिया। दीपांकर दास ने कहा,
"अहाना डरो नहीं। तुम जाओ तुम्हें अच्छा लगेगा।"
अहाना निशांत से और अधिक चिपक गई। दीपांकर दास ने देवयानी से कहा,
"आप इसे ले जाइए। मैं निशांत जी से कुछ बातें करना चाहता हूँ।"
देवयानी उठी। अहाना को समझा बुझाकर अपने साथ ले गई। उसके जाने के बाद दीपांकर दास ने निशांत से कहा,
"अहाना किसी बात से बहुत डरी हुई है। कुछ हुआ है उसके साथ। वह आप लोगों के अलावा किसी और पर यकीन नहीं कर सकती है। आप जानते हैं कि क्या हुआ है। बताइए...."
निशांत ने आँखें झुका लीं। दीपांकर दास ने कहा,
"जानना आवश्यक ना होता तो मैं आपसे ना पूछता।"
निशांत ने झिझकते हुए कहा,
"उसके साथ गलत हुआ है।"
"यह समझ आ रहा है निशांत जी पर वह कौन था ? आप लोगों ने उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की ?"
निशांत एकबार फिर चुप हो गया। दीपांकर दास ने कहा,
"कोई बहुत करीबी है। लेकिन जो भी है उसके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। रहा आपकी बच्ची को ठीक करने का सवाल तो पहले उसका यकीन वापस लाना होगा। तब ही वह आगे बढ़ पाएगी। उसमें समय लगेगा।"
निशांत ने कहा,
"मैं कोई बहुत बड़ा आदमी नहीं हूँ। फिर भी अपनी बच्ची के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। आप जितने दिन चाहेंगे मैं उसे लेकर यहाँ रहूँगा।"
दीपांकर दास कुछ देर चुप रहने के बाद बोला,
"निशांत जी जो लोग मेरे पास आते हैं वो इस स्थिति में होते हैं कि मेरी बात सुन सकें। अहाना अभी कुछ सुनने की स्थिति में ही नहीं है। उस हादसे का बहुत गहरा असर हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि अभी उस हादसे को बहुत वक्त नहीं हुआ है।"
"जी बस छह महीने हुए हैं।"
"आप लोगों ने उसे किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया। ना ही उस व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्यवाही की है। मेरी सलाह है कि आप अभी अहाना को वापस ले जाइए। सबसे पहले उस शख्स की पुलिस में रिपोर्ट कीजिए। अहाना को किसी मनोचिकित्सक को दिखाइए। उनके इलाज से लाभ होगा। उसके बाद अगर आवश्यक समझें तो मेरे पास ले आइएगा।"
निशांत यह सुनकर परेशान हो गया। उसने कहा,
"आप कुछ करके देखिए। मैं वहाँ लौटकर नहीं जाना चाहता हूँ। वह बहुत ताकतवर है। लोग भी हमारे साथ नहीं हैं। हम उन लोगों का सामना नहीं कर पाएंगे।"
दीपांकर दास यह सुनकर सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद वह बोला,
"मैं कोई मनोचिकित्सक नहीं हूँ। मैं ध्यान की जो तकनीक सिखाता हूंँ उसके लिए व्यक्ति को स्वयं सीखने को तैयार होना पड़ता है। अहाना इस बात के लिए तैयार नहीं है। मैं उसकी मदद नहीं कर सकता हूँ। रही बात उस आदमी की तो कानून आपकी मदद करेगा। इससे फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे आपका साथ देते हैं या नहीं। मैं अभी कुछ नहीं कर सकता हूँ।"
यह कहकर दीपांकर दास उठकर वहाँ से चला गया। निशांत ने पास खड़े शुबेंदु की तरफ देखा। शुबेंदु ने कहा,
"दीपू दा अगर मदद कर सकते तो निराश करके ना भेजते। आप अपनी बेटी को लेकर जाइए और जैसा दीपू दा ने कहा है कीजिए।"
निशांत कुछ देर चुपचाप बैठा रहा। उसके बाद उठकर चला गया।

निशांत चतुर्वेदी अपनी पत्नी और बेटी को लेकर चला गया था। दीपांकर दास अपने व्यक्तिगत कक्ष में था। इस कक्ष में केवल शुबेंदु जा सकता था। इस वक्त भी वह कक्ष में था। दीपांकर दास गंभीर मुद्रा में बैठा था। उसके दिमाग में रह रहकर कुछ दृश्य उभर रहे थे। अस्पताल के मुर्दाघर में टेबल पर चादर से ढकी एक लाश दिखाई पड़ रही थी। वह उस टेबल के सामने खड़ा था। एक आदमी ने लाश का मुंह खोलकर दिखाया। उसके मुंह से चीख निकल गई।
"कुमुदिनी....."
दीपांकर दास की आंँखों से आंसू बह रहे थे। शुबेंदू ने कहा,
"दादा संभालिए अपने आप को। चलिए ध्यान कक्ष में लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
दीपांकर दास ने अपने आप को संभाला और चुपचाप उठकर ध्यान कक्ष में चला गया।

इस समय ध्यान कक्ष में सिर्फ वो लोग थे जो आरंभ कर रहे थे। इनमें तीन लोग ही बसरपुर के थे। बाकी बाहर से आए हुए थे। दीपांकर दास के पहुँचने पर सबने उसे नमस्कार किया। दीपांकर दास एक आसन पर बैठ गया। उसने कहा,
"पिछले एक हफ्ते से आप लोग सिर्फ इस बात पर ध्यान दे रहे थे कि इस कक्ष में बैठे हुए आपके मन में किस तरह के विचार आ रहे हैं। आप लोगों ने क्या पाया ?"
यह कहकर दीपांकर दास ने कक्ष में नज़र दौड़ाई। दूसरी पंक्ति के मध्य में बैठे लड़के से कहा,
"तुम बताओ...."
वह लड़का उठकर खड़ा हो गया। दीपांकर दास उसकी तरफ देख रहा था। उस लड़के ने दीपांकर दास की तरफ देखा तो एक अजीब सा खिंचाव महसूस किया। उसने कहा,
"मेरे मन में लड़की का खयाल आता है। उसका चेहरा स्पष्ट नहीं होता है। मैं उसके साथ एकांत में हूँ। अचानक वह मुझ पर हंसने लगती है। मैं गुस्से से...."
कहते हुए लड़का चुप हो गया। दीपांकर दास ने उससे कहा,
"इसके अलावा और क्या आता है ?"
उस लड़के ने कहा,
"मुझे गुस्सा आता है तो कई बार सोचता हूँ कि मैं किसी को पीट रहा हूँ। कभी दूसरों पर गुस्सा आता है तो कभी खुद से शर्मिंदगी महसूस होती है।"
दीपांकर दास ने उसे बैठ जाने को कहा। उसके बाद अपने ठीक सामने बैठी लड़की से कहा कि वह अपने विचारों के बारे में बताए। वह लड़की भी खड़ी हो गई। दीपांकर दास की आँखों में देखकर बोली,
"मुझे परस्पर विरोधी खयाल आते हैं। कभी लगता है कि मैं एक बड़े से ईवेंट में स्टेज पर खड़ी हूँ। स्पॉटलाइट मुझ पर है। लोग मेरा नाम ले रहे हैं। तालियां बजा रहे हैं। मैं खुश हूँ। तभी अचानक सब तरफ अंधेरा हो जाता है। यह खयाल बार बार मुझे आता है और डराता है। एक पल मुझे लगता है कि सब ठीक है। दूसरे ही पल मन में डर आ जाता है।"
दीपांकर दास ने उसे भी बैठा दिया। उसके बाद कुछ और लोगों से पूछा कि उन्होंने अपने मन में उठ रहे विचारों को परखते हुए क्या एहसास किया। उसके बाद उसने कहा,
"हमारे अंदर जो कुछ भी होता है वही विचारों के रूप में दिमाग में आता है। हमारा दिमाग कभी भी विचारों से खाली नहीं होता है। हम कई बार ध्यान भी नहीं देते हैं कि मन में एकसाथ कितने विचार चल रहे होते हैं। यह विचार हमारी कमजोरियों और डर का ही रूप होते हैं।"
दीपांकर दास ने उस लड़के की तरफ देखा जिसे पहले बोलने को कहा था। उसने कहा,
"तुम्हारे अंदर खुद को लेकर हीन भावना है। यह भावना कभी दूसरों के लिए गुस्सा बनकर उभरती है तो कभी अपने ऊपर शर्मिंदगी के रूप में।"
उसने लड़की से कहा,
"तुम सफलता पाना चाहती हो पर साथ ही इस बात से डरती हो कि कहीं वह छिन ना जाए। पाने की इच्छा और खो देने का डर एक साथ है।"
दीपांकर दास ने पूरे कक्ष में नज़र डालते हुए कहा,
"सभी के अंदर डर, गुस्सा, चाहत, कमियां हैं। वह किसी ना किसी विचार के रूप में मन में आती हैं और हम परेशान रहते हैं। इसलिए पहला चरण खुद के अंदर उठ रहे विचारों को परखना है। आप सबने यह चरण पूरा कर लिया है। कल से हम दूसरी अवस्था की शुरुआत करेंगे।"
कक्ष में मौजूद सब लोग बाहर चले गए। दीपांकर दास ने शुबेंदु को पास बुलाकर कहा,
"ध्यान रखना कोई गलती ना हो।"
शुबेंदु ने कहा,
"सब ठीक होगा।"
दीपांकर दास भी ध्यान कक्ष से बाहर निकल गया।

गगन बंसीलाल की दुकान पर शाम की चाय पी रहा था। वह जानता था कि थोड़ी देर में सूरज डूबने के बाद यहांँ सबकुछ बंद हो जाएगा। वह अपना सामान लेकर आया था। चाय पीने के बाद वह पालमगढ़ के लिए रवाना होने वाला था। उसकी निगाह चाय पीते हुए एक परिवार पर पड़ी। एक आदमी अपनी तेरह चौदह साल की बेटी को अपने हाथ से चाय पिला रहा था। वह डरी हुई सी लग रही थी। अपनी चाय खत्म करके पास बैठी औरत ने कहा,
"आप अपनी चाय पीजिए। इसे मैं पिला देती हूँ।"
आदमी ने चाय का कप उसे पकड़ा दिया और अपनी चाय पीने लगा। वह आदमी निशांत था। उसने बंसीलाल से कहा,
"पालमगढ़ जाने के लिए बस कहाँ से मिलेगी।"
बंसीलाल ने कहा,
"यहाँ से सीधा जाकर बाईं तरफ मुड़ने पर बस अड्डा दिखेगा। जल्दी करिए बीस मिनट में ही आखिरी बस जाएगी। सूरज डूबने के बाद तो आजकल यहांँ सन्नाटा छा जाता है।"
निशांत ने देवयानी की तरफ देखा और अपनी चाय पीने लगा।