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तड़प--भाग(२)

शिवन्तिका ने रास्ते में सुहासा से कहा....
अच्छा हुआ जो मोटर चल पड़ी नहीं तो जंगल में रात कैसे बिताते?
वो जो भी रहा हो भगवान उसका भला करें,सुहासा बोली।।
वो सब तो ठीक है लेकिन दादी को कैसे सम्भालूँगी? शिवन्तिका बोली।।
अब ये तो तेरी परेशानी है और तू ही निपट,सुहासा बोली।।
वो घर चलकर ही पता लगेगा क्या अब मेरे साथ क्या होने वाला है? क्योंकि आज फिर देर हो गई,शिवन्तिका बोली।।
जब रोज रोज की बात है तो इतना क्योंं डरती है? सुहासा बोली।।
बस ऐसे ही आदत पड़ गई है दादी से डरने की,इतना कहकर शिवन्तिका हँस दी।।
और ऐसे ही एक एक करके बातों ही बातों में शिवन्तिका की सभी सहेलियाँ अपने घर पर उतरती गई,अब बची अकेली शिवन्तिका,वो भी घर पहुँची....
मोटर को गैराज में खड़ा करके वो लाँन में ही पहुँची थी कि माली काका ने शिवन्तिका को देखा तो बोल पड़े....
भीतर चली जाओ बिटिया! मालकिन घर मा नहीं हैं,बाहर गईं हैं।।
सच! माली काका! शिवन्तिका ने चहकते हुए पूछा।।
हाँ! बिटिया! बिल्कुल सच,माली काका बोले।।
आज तो मन की मुराद पूरी हो गई,शिवन्तिका बोली।।
शिवन्तिका अंदर पहुँची और धनिया से बोली....
धनिया काकी! राजकुमारी शिवन्तिका के लिए गरमागरम अदरक वाली चाय बनवाई जाए और साथ में कुछ खाने को भी लाया जाए।।
आज मालकिन नाही हैं घर मा,एहिसे इत्ता खुश हो,अभी चाय बनवाएं देत हैं,महाराज से कहिके,धनिया काकी बोली।।
हाँ! काकी!पंक्षी को जरा पर फैला लेने दो,शिवन्तिका बोली।।
फिर कुछ ही देर में धनिया काकी चाय और नमकपारे लेकर आ गई और बोली....
लेव! बिटिया! खाइ लेव।।
और शिवन्तिका चाय और नमकपारे का आनन्द उठाने लगी।।
अन्धेरा होने को आया था लेकिन अभी तक चित्रलेखा नहीं आईं थी तो शिवन्तिका को भी अपनी दादी की चिन्ता हो आई कि आखिर क्या हुआ जो दादी अब तक ना लौटीं,तभी दरवाजे पर मोटर के आने की आवाज़ आई और चित्रलेखा ने भीतर प्रवेश किया.....
शिवन्तिका उन्हें एकटक देख रही थी कि शायद दादी अपने देर से आने का कारण उन्हें बताएं लेकिन चित्रलेखा चुपचाप अपने कमरें में चली गई कुछ ही देर में कपड़े बदलकर खाने की टेबल पर आ बैंठीं,तब तक खाना टेबल पर लग चुका था।।
शिवन्तिका ने बिना कुछ कहें ही अपनी प्लेट में खाना परोसना शुरू कर दिया और खाते हुए इन्तज़ार करने लगी कि दादी शायद कुछ बताएं,कुछ बोलें....
और तभी चित्रलेखा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा.....
मुनीमजी हैं ना! तो उनकी तबियत खराब है,उन्हें देखने अस्पताल चले गए थे,शरीर का आधा अंग लकवाग्रस्त हो गया है,बुढ़ापा है क्या पता कब क्या हो जाए?उनका भी तो बुढ़ापा ही था,किसी ने सोचा भी ना होगा कि ऐसा है जाएगा।।
तो क्या उनके ठीक होने के आसार नज़र नहीं आते,शिवन्तिका ने पूछा।
डाक्टरों ने तो जवाब दे दिया है कि अब उनके वश में मुनीम जी का इलाज नहीं रह गया है,चित्रलेखा बोली।।
ओह....तब ये बहुत दुखदायक है उनके लिए,शिवन्तिका बोली।।
यही तो सोच रहें हैं तब से कि हमारे बाद आपका क्या होगा? चित्रलेखा बोली।।
चित्रलेखा ने ये बोला तो फौरन ही शिवन्तिका की पलकें अपनी दादी की ओर उठ गई,शिवन्तिका की पलकें अपनी ओर उठती हुई देख चित्रलेखा बोली .....
आपको क्या लगता है हम आपसे प्यार नहीं करते? हमें हमेशा आपकी चिन्ता लगी रहती है,इसलिए तो आपसे हम हमेशा समय पर घर आने को कहते हैं,आपके सिवाय हमारा है ही कौन?ये कहते कहते चित्रलेखा की आँखें भर आईं।।
मैने आपको आज से ज्यादा इतना निराश कभी नहीं देखा,शिवन्तिका बोली।।
ये शरीर ऊपर से जितना ज्यादा मजबूत दिखता है उतना है नहीं,लेकिन लोंग हमारा फायदा ना उठा सकें,इसलिए सख्ती का मुखौटा लगाना पड़ता है,चित्रलेखा बोली।।
आज आपका ये रूप देखकर कुछ अजीब़ सा लगा,शिवन्तिका बोली।।
इसमें अजीब़ जैसा क्या है?अभी आप ये सब नहीं समझेंगीं,जब हमारी उम्र तक आएगीं तो सब समझने लगेगीं कि जिन्दगी क्या होती है? संघर्ष क्या होता है? चित्रलेखा बोली।।
जी! सही कहा आपने,लेकिन इतना मत सोचिए,नहीं तो आपकी सेहद पर असर पड़ेगा,राजमाता! शिवन्तिका बोली।।
शायद आप सही कह रहीं हैं,वक्त के साथ कुछ ना कुछ बदलता रहता है,चित्रलेखा बोली।।
आप खाना खाइए ना! देखिए ना! आज महाराज ने कितना स्वादिष्ट दमआलू बनाया है,अरबी की भुजिया भी बहुत ही लज़ीज है,ऊँगलियाँ चाटते हुए शिवन्तिका बोली।।
शिवन्तिका की ऐसी बातों से चित्रलेखा को हँसी आ गई तो शिवन्तिका बोली....
बस,ऐसे ही हँसती रहा करें राजमाता! आप हँसते हुए बहुत सुन्दर दिखतीं हैं।।
जिन्दगी में बहुत बुरा दौर देखा है हमने,शायद इसलिए हँसना भूल गए हैं,चित्रलेखा बोली।।
तो आप ये सोचकर हँस लिया कीजिए कि आपको भगवान ने कितनी सुन्दर पोती दी है,शिवन्तिका बोली।।
अब ज्यादा बातें मत बनाइए,चुपचाप खाना खतम कीजिए,चित्रलेखा बोली।।
मैं तो खा ही रही हूँ राजमाता! जरा आप भी अपने खाने पर ध्यान दीजिए,आपने तो जो प्लेट में परोसा वो भी खतम नहीं किया अभी तक,शिवन्तिका बोली।।
और दोनों दादी पोती के बीच ऐसी ही बातें चलतीं रहीं.....

दूसरे दिन शिवन्तिका और सुहासा काँलेज में बैठकर बात कर रही थीं......
तूने शायर गुलफ़ाम की नई वाली शायरी की किताब पढ़ी है,सुहासा ने शिवन्तिका से पूछा।।
नहीं! मुझे शायरी में कोई दिलचस्पी नहीं हैं,शिवन्तिका बोली।।
तू तो बड़ी नीरस है रे! तुझे शेर-ओ-शायरी में दिलचस्पी ही नहीं है,पढ़ी तो मैने भी नहीं है,सुहासा बोली।।
तो मत पढ़ ना! कोई जरूरी है पढ़ना,शिवन्तिका बोली।।
हाँ! पढ़ना जरूरी है,चल ना बुकस्टोर पर लेने चलते हैं ,सुहासा बोली।।
मैं ना जाती,शिवन्तिका बोली।।
चल ना ! किताब भी खरीद लाऐगे और राममनोहर की चाट भी खाकर आऐगें,बुकस्टोर के बगल में ही तो खड़ा होता है राममनोहर,सुहासा बोली।।
राममनोहर की पत्तल वाली चाट खाकर,बस मज़ा ही आ जाता है,बाकी सब तो प्लेट में देते हैं,शिवन्तिका बोली।।
तो सोच क्या रही है चल ना? सुहासा बोली।।
अच्छा चल! ये कहकर शिवन्तिका ,सुहासा के साथ बुकस्टोर की ओर चल पड़ीं....
पहले दोनों चाट खाने के लिए राममनोहर की दुकान पर रूकीं ,जीभरकर दोनों ने चाट खाई और फिर चल पड़ीं बुकस्टोर की ओर...
सुहासा ने बुकसेलर से कहा.....
सुनिए! शायर गुलफ़ाम की नई शायरी वाली किताब आ गई है क्या? बुकसेलर ने नहीं सुना ,वो पीठ पीछे करके किताबें ढ़ूढ़ रहा था।।
सुहासा के एक बार कहने पर जब वो बुकसेलर नहीं बोला तो सुहासा बोली...
सुनिए जी! बहरें हैं क्या आप?
तब भी बुकसेलर उन दोनों की ओर ना मुड़ा और उन दोनों की ओर पीठ करके ही बोला....
जी ! नहीं तो,आप शायद अन्धी हैं,देखतीं नहीं! मैं कोई किताब ढूढ़ रहा हूँ अपने पढ़ने के लिए,बुकसेलर बोला।।
आप तो निहायती बतमीज़ नज़र आते हैं,लगता है आपको त़मीज़ नहीं है कि लड़कियों से कैसे बात की जाती है? आपकी दुकान है आप अपनी किताब तो कभी भी ढ़ूढ़ सकते हैं,पहले आपको अपने ग्राहकों पर ध्यान देना चाहिए,शिवन्तिका बोली।।
मोहतरमा! एक ही पल में आपकी आवाज़ कैसी बदल गई ?बुकसेलर बोला।।
आवाज़ नहीं बदली है ज़नाब!हम दो लड़कियाँ हैं,शिवन्तिका बोली।।
ओहो....अब समझा! बुकसेलर ने उनकी ओर मुड़ते हुए कहा....
तभी सुहासा बुकसेलर को देखकर बोली...
अजी! आप ! किताबें बेचते हैं,
जी! नहीं! ये तो मेरे दोस्त की दुकान है,वो दोपहर का खाना खाने गया है,मैं उससे मिलने आया था तो बोला कि थोड़ी देर के लिए दुकान सम्भाल लें,बैठे बैठे बोरियत हो रही थी इसलिए खुद के पढ़ने के लिए कोई किताब ढ़ूढ़ रहा था,वो शख्स बोला।।
ओहो...तो शायर गुलफ़ाम की किताब है आपके पास,सुहासा बोली।।
वो तो दोस्त ही आकर बताएगा और सुनाइए आपकी मोटर तो ठीक चल रही है ना! शख्स ने पूछा।।
जनाब! मोटर मेरी नहीं थी,इन मोहतरमा की थी,आप इनसे क्यों नहीं पूछते? सुहासा बोली।।
जी! डर लगता है,शख्स बोला।।
किससे डर लगता है? सुहासा ने पूछा।।
इनसे और इनकी बड़ी बड़ी आँखों से,शख्स बोला।।
जनाब!नाम तो बता दीजिए,अपना,नहीं तो ये ऐसे ही डरतीं रहेगी आपसे, सुहासा बोली।।
अच्छा जी ! तो ये बात है,मेरा नाम शिवदत्त है और इनका नाम क्या है? शिवदत्त ने पूछा।।
जी! मेरा नाम सुहासा और इनका नाम शिवन्तिका है,सुहासा बोली।।
बड़ा ही प्यारा नाम है,शिवदत्त बोला।।
जी! मेरा नाम या इनका नाम,सुहासा ने पूछा।।
जी दोनों का,शिवदत्त बोला।।
जनाब! मैं खूब समझती हूँ कि आप क्या कहना चाह रहे हैं?सुहासा बोली।।
जी! कितनी समझदार हैं आप! बिना बोले ही सब समझ जातीं हैं,शिवदत्त बोला।।
जी! आप जैसें आश़िको से आए दिन पाला पड़ता ही रहता है हम दोनों का ,इसलिए सब समझने लगें हैं हम दोनों,सुहासा बोली।।
आपकी सहेली लगता है कम बात करतीं हैं,शिवदत्त ने पूछा।।
जरा अन्जानों से कम बात करती है,सुहासा बोली।।
मैने तो अपना नाम भी बता दिया,अब तो अन्जान नहीं हूँ मैं,शिवदत्त बोला।।
तभी शिवदत्त का दोस्त सियाशरन आ पहुँचा और शिवदत्त से बोला...
ज्यादा परेशानी तो नहीं हुई।।
नहीं यार! बस ये दो लड़कियाँ ना जाने कब से मेरा दिमाग़ खा रहीं हैं? शिवदत्त बोला।।
अच्छा जी! हम दिमाग़ खा रहे हैं,आप ही इतनी देर से हमारे पीछे पड़े हैं और ना जाने कब से बड़...बड़...बड..बड... किए जा रहे हैं,मैं चुप थी इसका मतलब ये नहीं कि मैं बोल नहीं सकती,शिवन्तिका ने चिल्लाते हुए कहा....
शिवन्तिका को ऐसे बोलते हुए देखकर शिवदत्त अपना मुँह खोलकर शिवन्तिका को देखता ही रह गया...
तभी सुहासा ,शिवदत्त के पास जाकर बोली....
मुँह तो बंद कीजिए जनाब! मैने कहा था ना ! कि उलझिएगा मत इनसे।।
आपने बिल्कुल सही कहा था सुहासा जी! मुझे तो एक पल को लगा कि बिजली कड़क रही है,शिवदत्त बोला।।
शुकर कीजिए कि सिर्फ़ बिजली कड़की,गिरी नहीं ,नहीं तो आप झुलस कर रह जाते ,सुहासा बोली।।
लगता है आप बिलकुल ठीक कह रहीं हैं सुहासा जी,शिवदत्त बोला।।
अब तू खड़ी क्या है? इस लफंगे के साथ,चुपचाप अपनी किताब ले और चल यहाँ से,शिवन्तिका बोली।।
तब सुहासा ने सियाशरन से शायर गुलफ़ाम की किताब माँगी,सियाशरन ने किताब दे दी फिर सुहासा ने किताब के दाम दिए और दोनों चलीं गई,शिवदत्त दोनों को जाते हुए बस देखता ही रह गया।।
सियाशरन ने शिवदत्त से पूछा....
यार ! कैसीं लड़कियाँ थीं?जाते समय ना दुआँ ना सलाम,ना शुक्रिया,तू इन्हें जानता है क्या?
कल रास्ते में मैने इनकी मोटर ठीक की थी बस,शिवदत्त बोला।।
अच्छा! तो ये बात है,सियाशरन बोला।।
लेकिन जिसने धानी रंग का सलवार कमीज़ पहना था ना!... और शिवदत्त बोलते बोलते रूक गया....
क्या ? आगें भी बोल,कहीं उसने तेरा चैन तो नहीं चुरा लिया,सियाशरन बोला।।
शायद ऐसा ही कुछ है,शिवदत्त बोला।।

क्रमशः...
सरोज वर्मा....