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मै तो ओढ चुनरिया - 39

मैं तो ओढ चुनरिया

39


चाचाजी की सगाई ठीकठाक निपट गयी और हम सहारनपुर अपने घर लौट आये । अब शादी में दो महीने बाकी थे तो पिताजी जोरशोर से शादी की तैयारी में जुट गये । ये दो महीने तो नाचते गाते तैयारियाँ करते बीत गये । पिताजी इस शादी के लिए अतिरिक्त उत्साही थे । होते भी क्यों न आखिर इकलौते भाई की शादी की बात थी । माँ इन दिनों चिंता में डूबी नजर आती । पिताजी ने अपनी नौकरी छोङ दी थी । आजकल बाहर की बैठक में मरीज देखा करते । काम कोई खास नहीं था । ऊपर से पिताजी का परोपकारी स्वभाव । जो भी हाथ जोङ लेता – पंडित जी पैसे तो नहीं है , पिताजी उसे मुफ्त में दवा की पुङिया बाँध देते । हाथ में जस था तो मरीज दवा की दो पुङिया खाते ही ठीक होकर अपने काम पर चल देता । धीरे धीरे पिताजी का यश शहर के साथ साथ आसपास के गाँवों में भी फैल रहा था पर पैसे न आते थे । खैर शादी मे तो जाना ही था । ये चाचाजी पिताजी के ताऊजी के लङके थे । पिताजी के अपने पिता यानि कि मेरे बाबा उन्हें पाँच साल की उम्र में छोङ कर गो लोक वासी हो गये थे तब इन्ही ताऊजी के पास वे और उनकी माँ रहे थे । ये संयुक्त परिवारों का जमाना था । हर परिवार में कोई न कोई विधवा औरत और उसके बच्चे पला करते थे । ये विधवा औरतें पूरा दिन घर का काम करती , बदले में जरुरत भर रोटी कपङा उनके बच्चों को मिल जाता । कोई किंतु नहीं न परंतु । तब ताऊजी की अपनी कोई संतान नहीं थी । बाद में एक लङकी हुई और उनके बारह साल बाद ये चाचाजी पैदा हुए । इस तरह ये चाचा पिताजी से करीब बीस बाईस साल छोटे थे और पिताजी से उनका रिश्ता भाई वाला कम और बाप बेटे वाला ही अधिक था । ये चाचा अभी ग्यारह साल के हुए होंगे कि एक दिन ताऊ जी और ताई दो महीने के भीतर भीतर स्वर्ग सिधार गये । अब इन चाचा को मेरी दादी ने पालकर बङा किया । ये चाचा एम एस सी बी एड करके किसी बैंक में अधिकारी हो गये थे ।
धीरे धीरे शादी का दिन पास आ रहा था । माँ ने हवेलीशाह की शाहनी के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई तो उसने अपने बक्से से पाँत सौ रुपया गिनकर पकङा दिया – ले बिटिया तू निश्चिंत होकर शादी देख । शादी से वापिस आकर अपना हार मुझे दे देना । पहले पाँच महीने कोई ब्याज नहीं लगना । इस बीच अगर हो सके तो मेरे पैसे वापिस कर देना । नहीं तो छठे महीने से दो रुपये सैंकङा का ब्याज लगेगा । और माँ इस शर्त को मान कर ऱुपये ले आई थी
इन शाहनी की भी अजब ही कहानी है । गोरी चिट्टी शाहनी अभी आठ साल की हुई थी कि उनका ब्याह एक अमीर खानदान के इकलौते बेटे हवेलीशाह से कर दिया गया । शादी को पाँच साल हो गये और यह बच्ची तेरह साल की होकर रजस्वला होने लगी तो उनके घर वालों को चिंता हुई कि लङकेवाले बहु को गौना कराके लेजाने की जल्दी क्यों नहीं मचा रहे । आकिर एक दिन उनके पिता अमीरचंद अपने कुछ बंधु बांधवों को लेकर समधियाने गये और बेटी का गौना लेने की प्राऱ्थना की । समधन ने पंडित बुलाये । दोनों पंडियों ने पत्रे देखकर फागुन की दस तारीख तय करदी ।अब प्रसन्न मन से ये लोग लौटे और शादी की तैयारी में जुट गये ।नियत समय पर बारात आई तो अमीरचंद ने जामाता के पैर पूजकर चार बैलगाङी दहेज देकर बेटी को विदा किया । इस तरह चंद्रवती छोटी शाहनी बनकर सरगोधा आ गयी । जब सारे नाते रिश्तेदार विदा हो गये तो बङी शाहनी इस बच्ची को भीतर कमरे में ले गयी । गोद में लेकर इस बच्ची को भरपूर प्यार किया फिर आँखों में आँसू भर कर बोली – बिटिया इस घर की लाज अब तेरे हाथ है । हवेली खुसरा है पर हमने इसकी ममता में पङ कर यह बात सारी बिरादरी से छिपाकर रखी है । तुझे इस घर में किसी चीज की कमी नहीं होगी । सारा सुख आराम तेरे कदमों में । बस यह राज किसी पर जाहिर न होने पाये । चंद्रा ने अपनी बङी बङी आँखों से सास को देखा और वचन दे दिया । इस वचन को उसने जीजीन से निभाया । पाकिस्तान में भी और विभाजन के बाद हिदुस्तान आने पर भी । अनछुई कली की तरह वह उसी तरह खूबसूरत बनी रही । शाहजी हिसाब किताब करते और शाहनी लेनदेन ।लोग शाहनी के सब्र और त्याग की मिसालें देते ।
तो इन शाहनी से वे रुपये लेकर माँ ने पिताजी को दिये तो वे अगले ही दिन चलने को तैयार हो गये । एक बक्सा और दो थैलों में सामान भर लिया गया और हम लोग शादी के दिन से सात दिन पहले ही कोटकपूरा के लिए चल दिये । सहारनपुर से कोटकपूरा के लिए तब एक ही ट्रेन चलती थी जो सुबह छ बजे खुलती और रात को सात आठ बजे कोटकपूरा पहुँचती । पूरा दिन गाङी में बैठना होता । गाङी की भी जरनल बोगी । बस जिसने भोगी उसी ने भोगी । बाकी क्या जाने , कैसे कैसे भोगी । पूरी गाङी ठसाठस भरी रहती । दरवाजे गैलरी सौचालय सब जगह लोग ही लोगभरे रहते । तीन सीटों पर फँस कर पाँच छ लोग बैठते । उस पर गोदी में एक दो बच्चे भी रहते । सीटों पर बैठे लोगों के पैरों में चादर या कोई कपङा बिछाकर बच्चों समेत बैठी औरतें अलग ही गंध फैलाए रहती । कहीं पाँव सीधा करने की जगह नहीं । मैं इससे पहले दो चार बार इस रेल गाङी से जा चुकी थी इसलिए पहले से ही घबराहट हो रही थी पर जाना तो था ही । एक दिन पहले ही माँ ने रास्ते के लिए मट्ठियाँ , सक्करपारे , नमकपारे , मटर बनाकर परात भर ली । सुबह न जाने कितने बजे उठी होंगी कि साथ लेजाने के लिए पूरियाँ और आलू भी बना लिए । हम लोग जब सोकर उठे तब वे ये सारा सामान पैक करके थैले में रख रही थी । पिताजी नहाकर अपना पूजा पाठ कर रहे थे । हम दोनों बहन भाई भी फटाफट नहाये और झटपट तैयार हो गये । तब तक पिताजी चौक से रिक्शा ले आये थे । हम सब तुरंत रिक्शा में बैठे और स्टेसन पहुँच गये । रेल प्लेटफार्म पर आ रही थी । जैसे ही हम लोग वहाँ पहुंचे , गाङी लग गयी । सौभाग्य से हमें दो सीट मिल गयी । अब दो सीट पर हम चार लोग फँस कर बैठे । और रेलगाङी एक लंबी सीटी देकर सरकने लगी ।


बाकी कहानी अगली कङी में ...