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टेढी पगडंडियाँ - 42

टेढी पगडंडियाँ

42

अब तक आप लोगों ने पढा कि गाँव के सबसे अमीर जमींदार के खानदान के चिराग निरंजन और गुरनैब वैसे तो चाचा भतीजा हैं पर दोनों हमउम्र होने के चलते भाई और दोस्त ज्यादा है । एक दिन बठिंडा घूमते हुए वे बस स्टैंड पर किरण को देखते हैं । किरण बीङतलाब के चमारटोले से कालेज पढने आती है । दोनों किरण की खूबसूरती देख ठगे रह जाते हैं । उसके ललकारने से जोश में आकर निरंजन उसे जबरदस्ती कार में बैठा लेता है और दोनों उसे अपने घेर में ले आते हैं । इकबाल सिंह किरण के लिए अलग कोठी बनवा देते हैं । निरंजन के साले एक रात निरंजन का कत्ल कर देते हैं । उसके मरने के बाद किरण को पता चलता है कि वह माँ बननेवाली है । गुरनैब इस दौरान उसका पूरा ख्याल रखता है । समय आने पर किरण ने बेटे को जन्म दिया ।
अब आगे ...

इन लोगों ने गुरद्वारे के भीतर जाकर माथा टेका और हाथ जोङकर कीर्तन सुनने बैठ गये । गुरघर के चार दरवाजे सब धरम , सब जातियों के लिए खुले थे । कोई भी आकर यहाँ गुरुसाहब की हजूरी में हाजिर हो सकता था । सब अल्लाह , राम , रहीम के बंदे । सब एक बराबर । न कोई बड़ा न छोटा । कोई राजा नहीं , कोई रंक नहीं । एक नूर तो सब जग उपजया कौन भले को मंदे , की जीती जागती मिसाल थे ये गुरद्वारे ।
गुरद्वारे में इस समय रागी भाई हारमोनियम संभाले बैठे थे । कीर्तन शुरू हो गया था ।
जो मांगे ठाकुर अपने ते सोई सोई देवै ।
नानक दास मुख ते जो बोले इहाँ उहाँ सच होवै ।।
यह पद खत्म होते ही भाई ने दूसरा राग छेङा –
तू मेरा राखा सबनि थाईं , ता भऊ केहा ताङा जिऊ ।
अर्थात तू ईश्वर सब जगह मेरा रखवाला है और जब तू मेरे साथ है तो मन को भय की क्या बात । सब आँखें बंद किये कीर्तन सुन रहे थे । किरण की सोच फिर उसे बीङ की गलियों में ले गयी । बीड जहाँ वह पैदा हुई थी । बीड जहाँ उसके माँ बापू , भाई बीरा रहते थे । अगर उसकी शादी ढंग से हुई होती तो आज उनमें से कोई न कोई जरूर यहाँ होता । हालांकि निरंजन जब तक जिया , उसकी हर जरूरत पूरी करता रहा और यह गुरनैब यह तो पितु मात सहायक स्वामी सखा सब कुछ है । बिना कहे उसकी हर बात पता नहीं किस जादू से जान जाता है । फिर भी मायका तो मायका होता है जो उससे पूरी तरह छूट गया था । सिर्फ उसकी यादों में बस रहा था और जब तब आँखों के सामने साकार हो जाता था ।
किरण को याद आया , उसके पड़ोस में रहने वाली बिंदिया भाभी के जब बेटा हुआ था तो वह कितनी खुश थी । जब तब उस नवजात बच्चे को देखने उनके घर पहुँच जाती । माँ उसे डाँटती । अभी चिल्ले में है माँ बेटा और तू जा पहुँचती है । हाथ धो के लगाया कर उन्हें । ओपरी कसर हो जाती है बच्चे को । बीमार हो जाएगा बेचारा । पर उस पर कोई असर ही न होता , स्कूल से लौटते ही सीधे बिंदिया भाभी के पास पहुँच जाती । बच्चे को गोद में लिए उस बच्चे का मुस्कुराना देखती रहती । तेरहवें दिन उसने चाची के साथ लगकर प्रशाद के लिए हलवा पूरी बनवाई थी । कसार तैयार की थी । बिंदिया नहा धोकर तैयार होने लगी तो उसकी चोटी बनाई । पैरों में महावर लगाया था । पीलिया ओढे बिंदिया के चेहरे पर अनोखा नूर था उस दिन । वह सबसे अलग और सबसे खूबसूरत लग रही थी । उसकी गोद में बिट्टू था और चाची ने पूजा की थाली पकङी हुई थी । तब तक मुहल्ले की लड़कियां और औरतें भी आ गई थी । फिर वे सब गोल बना कर नाचती गाती कुआँ पूजने चल पड़ी । गलियों से होती हुई वे कुएँ पर पहुँची । चाची ने थाली में से चावल और गुड़ बहु को दिया । भाभी ने चावल और गुङ कुएँ के जगत पर चढाए । रोली अर्पित की । लड्डू चढाए । फिर कुएँ से पानी की बाल्टी खींची और पानी कुएँ के आसपास उडेल दिया । दूसरी बाल्टी भरी और गागर में डाली । गागर भर गयी । तब तक दया मिरासी को किसी ने खबर कर दी थी तो वह भी अपना ढोल लिए कुएँ पर पहुँच गया । तक धुङ तकधिङ तक तक धा , ढोल बजने लगा । लड़कियों ने ढोल की धुन पर नाचना शुरु कर दिया । दया झूम झूम कर ढोल बजाता रहा और लड़कियां मस्त होकर नाचती रही । वे तो शाम तक नाचती रहती कि चाची और ताई दोनों ने पुकारा , चलो लङकियों , घर चलो । बिंदियाँ और मुन्ना नहाये हुए हैं । इन्हें ठंड लग जाएगी । ताई ने जल का छींटा सबको दिया । सबको दो दो लड्डू मिले । सब वापिस मुड़े । रास्ते भर ढोल बजता रहा और सुहागिनें गीत गाती रही ।
किरण इन यादों के जंगल में न जाने कितनी देर गुम हुई रहती कि आनंद साहब का पाठ शुरु हो गया । सब लोग खडे हो गये । फिर अरदास हुई । भाईजी ने गुरुग्रथ साहब से वाक लिया और बच्चे को नाम दिया गुरजप सिंह । गुरजप सिंह । इकबाल सिंह ने बच्चे को पुकारा । गुरनैब सिंह ने पुकारा गुरजप सिंह । किरण ने मन ही मन नाम लिया और प्रशाद लेकर ये लोग घर की ओर चल पडे ।
घर पहुँच कर चन्नकौर ने गुरनैब की लाई हुई चूड़ियां और ग्यारह सौ रुपए के साथ लड्डुओं का डिब्बा किरण को पकङाया । साथ ही गुरजप के लिए लाये हुए कपङे और चाँदी के कड़े , चाँदी का गिलास और चम्मच दिये । किरण ने झुक कर दोनों के पैर छू लिए । सुरजीत ने तब तक बरामदे में चारपाइयाँ बिछा दी थी और चाय का पानी चढा दिया था ।
बैठो बीजी ।
नहीं किरण । अब बैठना नहीं । घर पर सारा काम बिखरा पङा है । बस चलते हैं ।
पर बीजी , एक कप चाय तो पीते जाओ । चढा रखी है । किरण ने मिन्नत तरला किया पर वे रुके नहीं , काम की बात कहते हुए चले गये । गुरनैब भी नहीं रुका – मैं भी चलता हूँ , शाम को फिर आता हूँ ।
और वे सब बाहर चल दिये । किरण वहीं खङी रह गयी ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...