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अपंग - 10

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दो दिन बीतते न बीतते भानु बहुत मायूस और तनावग्रस्त हो उठी | उसे अपने भारत की याद इतनी शिद्दत से आती कि उसका मन करता वह वहाँ से अभी छलांग भरकर अपने घर, अपनी माँ की गोद में चली जाए | वहाँ पर दिन कैसे गुज़र जाते थे, पता ही नहीं चलता था| बाबुल का प्यार, माँ का आँचल सब छोड़कर वह इस देश में जिसके सहारे चली आई थी उसका तो रवैया ही न जाने क्या और कैसे बदल गया था?

वहाँ उसकी सहेलियाँ होतीं, उनके साथ घूमना-फिरना, कहकहे, शैतानियाँ, क्या नहीं करती रहती थी | यहाँ उसकी कोई ऐसी सहेली भी तो नहीं बनी थी जिससे अपने मन की पीड़ा साझा कर सके | कोई तो हो जो उसके करीब हो, जो उसके सामने अपनी बात साझा कर सके और वह उसके सामने अपनी बात साझा कर सके | बगल के अपार्टमेंट में मिसेज़ गुप्ता रहती थीं, दिल्ली से थीं | कुछ बड़ी ही थीं उससे, कई वर्षों से वहाँ रह रही थीं | उनका लाइफ़-स्टाइल बहुत अजीब था | दोनों पति-पत्नी किसी प्राइवेट फ़र्म में काम करते थे | गई रात लौटते, बड़ी अजीब–अजीब सी हालत में और सुबह साढ़े छह के करीब मिसेज़ गुप्ता की घंटियाँ सुनाई पड़तीं | वह हर रोज़ अपने भगवान को मनाती थीं, न जाने कितनी देर तक वे सुबह-सवेरे घंटियाँ बजा-बजाकर हर रोज़ अपने भगवान को परेशान करतीं |  वो तो ठीक, पड़ौसियों को भी परेशान कर देतीं| पता नहीं उनके भगवान कितना सुनते थे ! कैसा है न, भगवानों का भी बँटवारा होता है, सबके अपने-अपने भगवान ! तमाशा बना दिया है भगवान का भी |

भानुमति से तो यह भी नहीं होता था कि अपने भगवान की पूजा कर लेती | अब तो उसकी स्थिति और भी अजीब सी होती जा रही थी | सुबह तो वह हर रोज़ ही जल्दी जाग जाती थी और राजेश के लिए नाश्ता बनाकर ले आती थी लेकिन जब तक वह आती तब तक राजेश उसे बिना बताए गायब हो जाता| अत: उसने तीसरे दिन नाश्ता बनाने की छुट्टी कर डाली, चाय की ट्रे मेंचाय व कुकीज़ रखकर बैड-रूम में ही ले आई| राजेश वॉशरूम में से निकलकर तौलिया लपेटे अलमारी में से कपड़े निकाल रहा था |

“राजेश, चाय ---”

वह चुप बना रहा | भानु को खीज हो आई, भीतर से वह उबल उठी—

“राजेश मैं तुमसे ही बात कर रही हूँ ---“ उसने बेहद ठहरे हुए, ठंडे स्वर में कहा तो राजेश दृष्टि उठाकर देखने के लिए मज़बूर हो गया|

“बोलो –“ उसके पास आकर अपनी कमीज़ के बटन बंद करते हुए राज बोला |

क्रोध से दाँत पीसने का मन हुआ भानु का लेकिन मन ने सोचा कि उसे विवेक से काम लेना चाहिए|

“पहले चाय ले लो, कितने दिन हो गए तुम्हारे साथ चाय भी नहीं पी पाई---”भानु ने जैसे उससे चिरौरी की | मन तो कर रहा था चाय की ट्रे उसके सिर पर दे मारे किन्तु सहनशक्ति थी उसमें |

“आई डोंट नीड़ –“

“मैं जानती हूँ चाय तुम्हारी ज़रूरतों में है ---“

“ज़रूरतों में तो जाने क्या-क्या है ?तुम पूरी करती हो ? कर सकती हो?” राजेश तो जाने उसको गुनहगार बनाने पर तुला था |

“तुम मेरी सीमाएँ जानते हो, उन सीमाओं में रहकर तुम्हारी सब ज़रूरतें पूरी कर सकती हूँ –यह भी जानते हो –”

“और मेरे सपने ! लेकिन तुम्हें क्या–तुम मेरे वजूद को खिलता हुआ देखना ही नहीं चाहतीं –“

“पता नहीं राज, लगता है हम शुरू से ही भटकते रहे हैं, भटकते क्या रहे हैं, हमारी शुरुआत ही भटकन से रही है, गलत ढंग से हुई है|

“तुम पछता रही हो ---?”

“राजेश तुम नहीं जानते कि मैं तुम्हारे ही सपने के लिए भारत से यहाँ आई हूँ, तुमने एक साल का वायदा किया था ।अब कितने दिन हो गए ?तुम्हें अपने वायदे का भी कुछ ख्याल है या वायदे तो होते ही तोड़ने के लिए हैं –!”

“क्या बक रही हो ?तुम्हें नहीं पता कि मैं अभी कर क्या पाया हूँ ?अभी शुरुआत है मेरे कैरियर की |”

“कौनसा कैरियर राज ? जब तुम कैरियर की बात करते हो, मुझे तो समझ ही नहीं आता कौनसा कैरियर ?आज तक जो भी तुम कमा रहे हो, वह जाता कहाँ है ? मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की, न ही मेरी इच्छा है, पर तुम्हें याद है राजेश कभी तुम मुझसे कहते थे कि तुम्हारा कैरियर मुझसे जुड़ा हुआ है !!जब मुझसे जुड़ा है तो मेरा भी कहीं न कहीं कुछ हिस्सा तो होना चाहिए न ??”

“तुम्हें लगता है, तुम इस लायक हो ?” कितनी बद्तमीजी से बात करने लगा था राज ! उसकी कविता करने की संवेदनशीलता न जाने कहाँ गायब हो गई थी |

‘कोई इतना कैसे बदल सकता है ?’भानु के मन में टीस उठती|

“पहले मैं ही लायक थी, अब मैं ही नालायक हो गई?”उसका क्रोध आँसू बनकर बहने लगा |

“वो पहले की बात थी और अब क्या हो गया ?ये तुम खुद सोचो, मुझे क्यों काँटों में घसीटती हो ?”परफ्यूम लगाते हुए राज ने कहा |भानु के आँसुओं का उस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था |

“मैं टूट रही हूँ राज, ऐसा न हो कि मैं भटक जाऊँ | अभी तक तो किसी तरह मैंने अपने आपको सँभालकर रखा था|”

“मुझे ज़्यादा गुस्सा न आ जाए इसीलिए ज़्यादातर घर से बाहर रहने की कोशिश में ही रहता हूँ| कोई मार-पीट नहीं करता, कुछ कहता नहीं | और चाहिए क्या तुम्हें ?”

“क्या मारने-पीटने का इरादा है तुम्हारा ?और जिस प्रकार का मानसिक संताप तुम मुझे दे रहे हो, क़ैदी बनाकर रख दिया है मुझे तुमने यहाँ लाकर ! पिंजरे में कैद होकर रह गई हूँ मैं!”भानु के गालों पर आँसू फिसलते जा रहे थे |

“कैद में तो तुम अपनी हरकतों की वजह से हो |मैंने तो तुम्हें अपने करीब ही रखने की कोशिश की है |हमेशा स्वतंत्र !जब तुम ही इस लायक नहीं हो तो मैं क्या कर सकता हूँ !और उस दिन –उस दिन तो तुमने मेरी नाक ही काटकर रख दी—---कमाल ही कर दिया तुमने! उसका अफ़सोस है तुम्हें ?”

“उसका मुझे बस इतना अफ़सोस है, इतनी पीड़ा है कि रिचार्ड की जगह तुम मेरी पीड़ा क्यों नहीं समझ सके ?क्यों तुम एक अदनी सी लड़की के लिए मेरा अपमान सहन कर गए ?”