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टेढी पगडंडियाँ - 47

 

टेढी पगडंडियाँ 

 

47

 

माँ मुझे कहानी सुनाओ न । वही सिंड्रैला वाली । बहुत दिन से सुनाई नहीं तुमने । आज तो सुन कर ही सोऊँगा – गुरजप ने मचलते हुए कहा ।
ठीक है । आँखें बंद कर , सुनाती हूँ । सुन । एक थी सिंड्रैला ... । एक दिन उसका भाई उसे मेला दिखाने ले गया ।
ये क्या कह रही हो । सिंड्रैला के भाई तो था ही नहीं । माँ बाप भी नहीं थे । एक सौतेली माँ थी और दो बहनें वे भी सौतेली । तुमने उस दिन तो ऐसे सुनाया था ।
हाँ रे , मैं तो भूल ही गयी । सच में सिंड्रैला की तो सौतेली माँ थी । अच्छा हुआ , तूने याद करा दिया । थोङा सोचने दे । अभी कहानी याद करती हूँ । हाँ एक दिन राजा ने अपने राजकुमार बेटे के लिए दुल्हन चुनने के लिए सारे राज्य की लङकियों को महल में दावत का निमंत्रण दिया । सिंड्रैला की माँ और दोनों बहने सजने संवरने लगी । सिंड्रैला ने माँ से विनती की कि उसे भी दावत में ले चले पर उसकी बहनों ने उसका मजाक बनाया – तू वहाँ क्या करेगी । राजकुमार तो आँख उठाकर भी तुझे नहीं देखने वाला ।
वे तीनों दावत में चली गयी । सिंड्रैला रोने लगी । एक परी को उस पर दया आ गयी । उसने अपने जादू से सिंड्रैला को तैयार किया । नयी ड्रैस पहनाई । नये चमचमाते हुए जूते दिये और जादू की गाङी पर बैठा कर महल भेज दिया । चलते समय उसने हिदायत दी – हर हाल में रात बारह बजे से पहले घर लौट आना । बारह बजे सारा जादू खत्म हो जाएगा ।
ठीक है परी माँ ।
महल में नाचते गाते , खाना खाते हुए उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा । जैसे ही घङी ने बारह बजाए , उसे परी की बात याद आई तो वह वहां से भागी । राजकुमार उसके पीछे पीछे बाहर गेट तक आया । तब तक सिंड्रैला गायब हो चुकी थी । सिंड्रैला का एक सैंडल वहाँ सीढियों में छूट गया था ।
राजकुमार ने सारे शहर में नौकरों को सैंडल देकर उस लङकी को खोजने के लिए भेजा ।
गुरजप की नाक बजने लगी थी । किरण ने पलट कर गुरजप को देखा । वह कहानी सुनते सुनते सो गया था । किरण ने उसे सीधा लिटाकर चादर ओढा दी और खुद भी सोने की कोशिश करने लगी । उसकी अपनी जिंदगी की कहानी भी किसी परी कथा से कम न थी । लहरों पर तैरते तिनके की तरह जिधर धारा बहा ले गयी वह बहती चली गयी । डूबती उतराती लहरों के साथ आगे बढती रही । किनारे के घाट , तट , लोग पीछे छूटते गये । इस बीच कई बार लगा कि बस आज अंत है । अब जीना असंभव है । मौत सामने खङी हंस रही है । वह मझधार में डूब रही है पर अगले ही पल नियति उसे किनारे पर ला पटकती और वह अपनी उखङती हुई सांस संभालती उठ खङी होती ।
गुरनैब सुबह जल्दी उठा और नहा धोकर शहर के लिए निकला । वह शहर के कई कालेजों में गया , लेकिन उसे कोई जानकारी न मिली । वह डी पी आई दप्तर भी गया लेकिन वहाँ भी कुछ हासिल नहीं हुआ । थक हार कर वह गाँव लौट आया पर उसने हिम्मत नहीं हारी । वह अगले दिन फिर गया । उससे अगले दिन फिर । यह उसका नित्य क्रम हो गया । वह रोज सुबह निकलता । शहर के अलग अलग दफ्तरों में जाता । हर रोज कई कई अफसरों से मिलता । इस बीच उसके चंडीगढ , मोहाली , पटियाला के भी कई चक्कर लग गये । आखिर चार पाँच महीने की अनथक मेहनत के बाद वह सारे फार्म भर कर उन्हें जमा करवाने में सफल हो गया । जमा करवाने से पहले उसने कई लोगों से फार्म जँचवा कर पूरी तसल्ली की थी और पूरी तरह से संतुष्ट होकर तब वे कागज दफ्तर में जमा करवाये थे । उस दिन उसने डी पी आई ( कालेज ) के सभी क्लर्कों को दावत दी थी । क्लर्कों का कहना था कि अब पंद्रह दिनों के भीतर भीतर कालेज खोलने की मंजूरी मिल जाएगी । यह सुनकर उसका मन हुआ – अगर इस समय किरण उसके सामने होती तो अभी यह खुशखबरी किरण को सुना डालता ।
लेकिन किरण तो गाँव में है न । और पार्टी खत्म होने तक उसे यहाँ ही रुकना पङना था । तो वह मजबूरी में वहाँ बैठा रहा और सबको पीते खाते देखता रहा । आखिर ग्यारह बजे पार्टी खत्म हुई । होटल का बिल देकर वह जीप में बैठा और जीप दौङाता , दौङाता क्या लगभग उङाता हुआ गाँव की ओर चल दिया । जीप एक झटके से कोठी के सामने रुकी । उसका दिल खुशी के मारे उछला पङा था । बार बार किरण का खुशी से दमकता चेहरा और चमकती आँखें उसके तसव्वुर में आ रही थी । आकिर उसने सांकल बजाई । किरण इस समय सपनों की दुनिया में खोई हुई थी । गुरनैब ने दोबारा सांकल बजाई तो उसकी नींद खुल गयी । उसने साइड में रखी टाइमपीस से समय देखा । घङी इस समय रात के साढे ग्यारह बजा रही थी । इस समय बाहर कौन हो सकता है ?
सोचते सोचते वह उठ कर बैठ गयी । खुले बालों का जूङा लपेटा । पाँव में चप्पल फँसा ही रही थी कि तीसरी बार सांकल बज उठी । इस बार सांकल बजाने वाले ने पूरा जोर लगाकर सांकल बजाई थी ।
ये पक्का गुरनैब होगा – किरण दरवाजे के पास पहुँची । तसल्ली करने के लिए उसने पूछा – कौन है बाहर आधी रात को ।
तू दरवाजा खोलेगी या दरवाजा तोङना पङेगा ।
किरण ने कुंडा खोल दिया ।
इस वक्त सवारी कहाँ से आ रही है और तू था कहाँ इतने महीने से शक्ल नहीं दिखाई
लो एक तो रानी साहिबा खुद ही हुक्म सुनाती है और खुद ही काम देकर भूल जाती है । बंदा भाग भाग थकता रहे । इसकी बला से - गुरनैब ने बच्चों की तरह मुँह फुला लिया ।
अरे रुठना नहीं । अब अंदर तो आ ।
पहले मुँह मीठा करवा तो तुझे खुशखबरी सुनाऊँ ।
यहाँ सङक पर मुँह मीठा करेगा क्या भीतर नहीं आएगा ।
तूने ही दरवाजा खोलने में इतनी देर लगाई । मैंने तो सोचा था आज बेशक दरवाजा तोङना पङे । मुँह मीठा किये बिना मैं यहाँ से जाने वाला नहीं ।
अच्छा खबर तो सुना ।
ऊँ हूँ , पहले मीठा फिर खबर ।
किरण रसोई की ओर चली तो गुरनैब ने उसकी कलाई थाम ली । मिश्री की कटोरियाँ तो यहाँ हैं , तू कहाँ चली ।
रसोई से सिवैयाँ लेने । आज सिवैयाँ बनाई थी । तेरे नाम की बच गयी हैं , वही लेने जा रही हूँ ।
वह भी खा लेंगे । फिलहाल तो यही चखा दे ।
किरण का चेहरा शर्म से लाल हो गया । गुरनैब ने उसे अपनी बाहों में जकङ लिया । किरण छोटी हिरणी की तरह उससे लिपट गयी ।
अब खबर तो सुना दे ।
तेरे कालेज की मंजूरी आनेवाली है । आज उसके सारे कागज पूरे करके जमा करवा आया हूँ ।
सच में । हर्षातिरेक से किरण की आँखों में आँसू आ गये ।
बिल्कुल सच ।
इसी चक्कर में चार पाँच महीने दौङ धूप में निकल गये । पर शुक्र है काम हो गया । स बीच कालेज का काम देखने भी नहीं जाया गया । ठेकेदार से फोन पर ही बात होती रही । मैं गयी थी एक दो बार । दफ्तर वाला हिस्सा बन कर तैयार हो गया है । तीनों दफ्तर पूरे हो गये हैं । चार कलासरूम बन रहे हैं उनकी छत बन गयी है । प्लास्तर हो रहा था ।
चल कल जा आऊँगा । तू सेवियाँ ला रही थी । किरण फटाफट सेवियाँ ले आई । गुरनैब ने चम्मच भर कर सेवियाँ अपने मुंह मे डाली और अगला चम्मच भर कर किरण के मुँह में डाल दिया ।
जब वे दोनों सोने गये , रात के दो बज चुके थे ।

 

 

बाकी कहानी अगली कङी में ...