Raaj-Sinhasan - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

राज-सिंहासन--भाग(१०)

ज्ञानश्रुति तो मार्ग में सोनमयी से वार्तालाप करते हुए आया किन्तु सोनमयी अत्यन्त मौन रहीं,वो केवल ज्ञानश्रुति के मुँख की भंगिमाओं को अपने हृदय के भीतर विलय करती रही,एक ही क्षण में सोनमयी का जो ज्ञानश्रुति पर क्रोध था,वो समाप्त हो गया,कदाचित वो क्रोध अब प्रेम में परिवर्तित हो चला था।।
देवी सोनमयी! आप भी तनिक कुछ वार्तालाप कीजिए,तो इतनी पीड़ा नहीं होगी,ज्ञानश्रुति बोला।।
राजकुमार! मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूँ,सोनमयी बोली।।
मुझे ज्ञात है कि आपको असहय पीड़ा हो रही है,किन्तु यदि आप बात करेंगीं तो आपका ध्यान घाव की ओर नहीं जाएगा इस प्रकार कुछ क्षण में ही हम आश्रम पहुँच जाएंगे,जहाँ आपका उपचार प्रारम्भ हो जाएगा,ज्ञानश्रुति बोला।।
आपका आभार राजकुमार! जो आपने मेरी सहायता की,सोनमयी बोली।।
आपको तो आभार प्रकट करना नहीं भाता तो क्यों आप ऐसा कर रहीं हैं? ज्ञानश्रुति ने पूछा।।
ये नियम तो आपके लिए था,मेरे लिए नहीं राजकुमार! सोनमयी हँसकर बोली।।
ऐसी अवस्था में भी आप हँस रहीं हैं देवी! ज्ञानश्रुति ने पूछा।।
तो क्या रोने लगूँ? सोनमयी बोली।।
देखिए तो आपके घाव से रक्त का प्रवाह कम नहीं हो रहा एवं आप हँस रहीं हैं,कितनी साहसी है आप,वो भी एक नारी होकर,ज्ञानश्रुति बोला।।
मुझे ऐसे ही पाला गया है राजकुमार!सोनमयी बोली।।
ये तो अच्छा है ना! देवी सोनमयी आप अपने भ्राताओं की सहायता कर सकतीं हैं उनके संकट के समय,ज्ञानश्रुति बोला।।
जी,मैं सदैव उनकी सहायता हेतु जाती हूँ,आपको भी तो बंदी बनाने उनके संग आई थी जब आप नीलमणी का अपहरण करके ले गए थे,सोनमयी बोली।।
जी! ये तो सत्य है देवी सोनमयी!मुझे गर्व है आप पर,आपके स्थान पर और कोई कन्या होती तो ऐसे घाव से ना जाने अब तक कितने अश्रु प्रवाहित कर देती नयनों से,ज्ञानश्रुति बोला।।
मेरी ऐसी प्रकृति नहीं है राजकुमार! मैने कदापि रोना नहीं सीखा,साहस के संग समस्या का समाधान करना सीखा है,सोनमयी बोली।।
मुझे आपके विषय में बहुत कुछ ज्ञात हो गया,ज्ञानश्रुति बोला।।
क्या ज्ञात हो गया है मेरे विषय में ?मैं भी तो जानू भला! सोनमयी बोली।।
यही कि आप एक अच्छे स्वाभाव की साहसी कन्या है,किन्तु.....ज्ञानश्रुति बोलते बोलते रूक गया।।
किन्तु! क्या राजकुमार! आगें भी कहें,सोनमयी बोली।।
यही कि आपको क्रोध भी अत्यधिक आता है,ज्ञानश्रुति बोला।।
ये सुनकर सोनमयी हँसी और बोली.....
ये भी आपने सत्य कहा राजकुमार!
दोनों का प्रेममयी वार्तालाप अभी समाप्त भी ना हुआ था कि आश्रम आ गया और ज्ञानश्रुति ने आश्रम की ओर अपनी दृष्टि को इंगित करते हुए सोनमयी से कहा....
वो देखिए देवी सोनमयी !आश्रम आ गया,हम पहुँच गए,मैं सहायता हेतु किसी को पुकारता हूँ ....
और इतना कहकर ज्ञानश्रुति ने सहस्त्रबाहु की कुटिया के समीप जाकर उसे पुकारा......
भ्राता सहस्त्रबाहु.....भ्राता सहस्त्रबाहु.....! तनिक बाहर तो आइए,हमें आपकी सहायता की आवश्यकता है....
ज्ञानश्रुति का स्वर सुनकर सहस्त्र और वीर दोनों ही आ पहुँचे एवं सोनमयी की स्थिति देखकर वीरप्रताप पूछ बैठा.....
क्या हुआ ज्ञानश्रुति?सोनमयी को,ये घाव कैसे लगा?एवं ये पूछते हुए वीरप्रताप,सोनमयी को गोद में उठाकर उपचार हेतु अपनी कुटिया में ले आया....
तब ज्ञानश्रुति ने पूर्ण वृत्तांत कुछ इस प्रकार कह सुनाया.....
भ्राता हम जल भरकर लौट रहें,देवी सोनमयी आगें थीं, तभी एक वृक्ष की शाखा पर बैठे एक तेदुएं ने इन पर आक्रमण कर दिया,जब तक मैं सहायता हेतु इनके समीप पहुँचा,तब तक तेंदुआ इनके पाँव पर अपने दन्त गड़ा चुका था,तब मैने उस प्रहार किया और वो भयभीत होकर जंगल की ओर भाग गया,
ओह....ये था पूर्ण वृत्तांत,सहस्त्रबाहु बोला।।
कोई बात नहीं शीघ्र ही मैं सोनमयी का उपचार प्रारम्भ कर देता हूँ,वीरप्रताप बोला।।
सोनमयी के घाव के विषय में ज्ञात होते ही सब उसे देखने आ पहुँचे...
उपचार पाते ही कुछ समय पश्चात ही सोनमयी की पीड़ा कुछ कम हुई और वो सबसे बोली.....
तेदुएं से मेरी रक्षा का पूर्ण श्रेय राजकुमार ज्ञानश्रुति को जाता है,इनके कारण ही मैं आज सुरक्षित हूँ,सोनमयी बोली।।
आपका अत्यधिक आभार राजकुमार! जो आपने मेरी पुत्री की रक्षा की,सोनमयी की माँ केतकी बोली।।
काकी! आप ऐसा क्यों कहतीं हैं?ये तो मेरा कर्तव्य था,ज्ञानश्रुति बोला।।
सोनमयी! अब कैसा लग रहा है?नीलमणी ने पूछा।।
सखी!अब पहले से उत्तम है,पीड़ा भी उतनी नही है,सोनमयी बोली।।
तब वीरप्रताप ने सबसे कहा.....
कृपया! आप लोंग जाइए,अब सोनमयी ठीक है,उसे कुछ समय विश्राम करने दीजिए।।
एवं वीरप्रताप की बात सुनकर सब वहाँ से चले गए,परन्तु ज्ञानश्रुति ना गया.....
तब सोनमयी ने पूछा....
राजकुमार ! आप क्यों नहीं गए?
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि आप को किसी वस्तु की आवश्यकता आन पड़ी तो किसी को पुकारने में कठिनाई ना हो इसलिए मैं आपके समक्ष रूक गया,ज्ञानश्रुति बोला।।
तब उत्तम विचार किया आपने,मैं भी सोऊँगी नहीं ,अभी निंद्रा नहीं आ रही क्योंकि मुझे भूख लग रही है एवं बिना भोजन किए मुझे निंद्रा नहीं आती,वो तो भ्राता ने विश्राम हेतु कहा इसलिए मैने उनकी बात का विरोध नहीं किया,चूँकि वें मेरा उपचार कर रहे हैं इसलिए उनकी बात मानना भी अनिवार्य है,सोनमयी बोली।।
कदाचित !आप अपने भ्राताओं से अत्यधिक प्रेम करतीं हैं,ज्ञानश्रुति बोला।।
जी ! राजकुमार! हम तीनों बाल्यकाल से एक दूसरे का ध्यान रखते आए हैं,सोनमयी बोली।।
इसी प्रकार मैं भी तो अपनी बहन निपुणनिका से अत्यधिक प्रेम करता हूँ,ना जाने कहाँ होगी,इस समय किस संकट में पड़ी होगी? ज्ञानश्रुति बोला।।
आप चिन्ता ना करें राजकुमार! मैं भ्राताओं से इस विषय पर शीघ्र ही वार्तालाप करती हूँ,निपुणनिका जहाँ भी होगीं उसे हम सब मिलकर संकट से उबार लेंगें,सोनमयी बोली।।
मैं आप सबसे ऐसी ही आशा करता हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
जी,आप तनिक धैर्य रखें,सोनमयी बोली।।
जी, आप कदाचित उचित ही कह रहीं हैं,यदि आपको विश्राम करना हो तो मैं जाऊँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
जी,मैने आपसे कहा ना कि भोजन किए बिना बिना मुझे निंद्रा नहीं आती,सोनमयी बोली।।
तो आप कुछ क्षण प्रतीक्षा कीजिए मैं केतकी काकी से भोजन लेकर आता हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
वही तो भ्राता ने मुझे जो औषधियाँ खिलाई हैं उसके उपरांत मुझे भोजन नहीं करना तो आज रात्रि मैं केवल फलाहार और दुग्ध ही लूँगी,सोनमयी बोली।।
तो मैं आपके लिए फलाहार लेकर आता हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
आप ऐसा कीजिए सर्वप्रथम स्वयं भोजन कीजिए उसके उपरांत मेरे लिए फलाहार लाइएगा,सोनमयी बोली।।
किन्तु आपने भोजन नहीं किया और मैं कर लूँ ये तो अनुचित होगा,ज्ञानश्रुति बोला।।
जी,मुझे तो भोजन निषेध हैं किन्तु आपको नहीं हैं ,सोनमयी बोली।।
तो मैं भी आज रात्रि आपके संग फलाहार ही लेता हूँ,क्योंकि मैं भी आपके संग जल लेने गया था,मैं आपके संग संग होता या आपसे आगें होता तो कदाचित तेंदुआ मुझ पर प्रहार करता एवं आपको इतना कष्ट ना सहना पड़ता,ज्ञानश्रुति बोला।।
यदि तेंदुआ आप पर भी प्रहार करता तो आपको भी तो उतनी ही पीड़ा होती जितनी की मुझे हो रही है सोनमयी बोली।।
तो क्या हुआ ? तब आप इस पीड़ा से मुक्त रहतीं ना!,ज्ञानश्रुति बोला।।
क्यों? मैं इस पीड़ा में हूँ तो आपको कष्ट हो रहा है,सोनमयी ने पूछा।।
जी देवी सोनमयी!कष्ट तो हो रहा कि मैं आपकी रक्षा ना कर सका,ज्ञानश्रुति बोला।।
आपने पूर्ण प्रयास तो किया ही था,सोनमयी बोली।।
तभी नीलमणी ने कुटिया में प्रयास करते हुए कहा....
अभी भी आपलोगों के मध्य वार्तालाप चल रहा है...
हाँ! सखी! राजकुमार ज्ञानश्रुति तो वैसे अत्यधिक वार्तालाप करते हैं,सोनमयी बोली।।
मैं आपलोगों का रात्रिभोजन लेकर आई हूँ,ये फलाहार सोनमयी हेतु एवं ये भोजन राजकुमार हेतु,नीलमणी बोली।।
आपने कष्ट क्यों उठाया? राजकुमारी नीलमणी! मैं आ ही रहा था ,ज्ञानश्रुति बोला।।
कष्ट कैसा राजकुमार! अपनों के लिए इतना सेवाभाव तो होना ही चाहिए,नीलमणी बोली।।
तुमने भोजन किया सखी! सोनमयी ने नीलमणी से पूछा।।
हाँ! सखी! तभी तो केतकी माँ ने मुझसे भोजन ले जाने को कहा, सहस्त्र भ्राता एवं वीरप्रताप आपलोगों से कुछ अति आवश्यक वार्तालाप करना चाह रहे थे,वे दोनों भोजन के पश्चात पूर्ण योजना आपलोगों के समक्ष रखेंगें,वे चाहते हैं कि हम सब शीघ्र से शीघ्र राजकुमारी निपुणनिका को खोज लें,नीलमणी बोली।।
मैं भी यही सोच रहा था किन्तु संकोचवश कहने का साहस ना हुआ एवं अब देवी सोनमयी का घाव आड़े आ गया,मुझे लगा कहीं आप सब ये ना समझें कि कितना स्वार्थी है केवल अपने बारें में ही सोच रहा है,ज्ञानश्रुति बोला।।
ऐसा नहीं,आप दोनों भोजन कीजिए,तब तक वें कुटिया में पधारते ही होगें,नीलमणी बोली।।
नीलमणी की बात सुनकर दोनों भोजन करने लगें,दोनों ने अपना अपना भोजन समाप्त किया ही था कि तब तक सहस्त्रबाहु और वीरप्रताप ने कुटिया में प्रवेश किया तब सहस्त्रबाहु ने सोनमयी से पूछा....
प्रिय बहना! अब कैसीं हो?
भ्राता! अब उत्तम है,अब उतनी असहय पीड़ा नहीं है,सोनमयी बोली।।
तो भ्राता सहस्त्र! योजना पर विचार करें,वीरप्रताप बोला।।
हाँ,अवश्य! प्रारम्भ करो,सहस्त्र बोला.....
और वीरप्रताप ने सबके समक्ष अपनी योजना प्रकट करते हुए कहा....
तो सब सुनिए हम राजकुमारी नीलमणी के संग सूरजगढ़ जाऐगें,हम से तात्पर्य है कि मैं ,सहस्त्र भ्राता,ज्ञानश्रुति एवं सोनमयी,हम वहाँ वेष बदल कर जाऐगें, मैं एवं भ्राता सहस्त्रबाहु अश्वशाला की देखरेख करने वाले साधारण से नागरिक एवं राजकुमारी नीलमणी के संग सोनमयी एवं ज्ञानश्रुति उनकी सखियाँ बनकर राजमहल में प्रवेश करेंगीं,राजकुमारी नीलमणी अपने पिता महाराज से कहेंगीं कि राजमहल में उन्हें एकान्त सा लगता है इस कारण वें आश्रम से अपनी दो सखियों को संग ले आईं हैं,
तो क्या मुझे कन्या का वेष धरना पड़ेगा? ज्ञानश्रुति ने पूछा।।
जी,हाँ राजकुमार! क्यो कि वो आपसे परिचित हैं और यही उचित रहेगा,सहस्त्रबाहु बोला।।
अब आगें की योजना कहिए वीर! नीलमणी बोली।।
नीलमणी की मधु समान वाणी सुनकर वीर कुछ लजा सा गया और मुस्कुराते हुए आगें बोला...
ज्ञानश्रुति और सोनमयी राजमहल के रहस्यों के विषय में ज्ञात करेंगें,हो सकता है कि नीलमणी के पिताश्री ने राजकुमारी निपुणनिका को राजमहल के ही किसी रहस्यमयी स्थान पर बन्दी बनाकर रखा हो ,मैं एवं भ्राता राजमहल के बाहरी रहस्यों को ज्ञात करने का प्रयास करेंगें.....
योजना अच्छी है किन्तु देवी सोनमयी का घाव,ज्ञानश्रुति बोला।।
वो तो मैं कल ही वन से अत्यधिक प्रभावशाली जड़ीबूटियाँ लेकर आता हूँ,देखना दो ही दिनों में सोनमयी नृत्य करने लगेगी,वीरप्रताप बोला...
वीरप्रताप की बात सुनकर सब हँस पड़े.....

क्रमशः...
सरोज वर्मा.....