Cursed Rangmahal-Part (2) books and stories free download online pdf in Hindi

श्रापित रंगमहल-भाग(२)

श्रेयांश ने राजमहल के बारें में सुनी बातों पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए अपनी चित्रकारी पर ध्यान देना ज्यादा उचित समझा इसलिए वो पुराने महल को बहुत ध्यान से देखने लगा,तभी शम्भू काका बोले.....
मेरे एक दोस्त का पास ही खेत है वो वहीं पर होगा मैं जरा उससे मिल आऊँ,अगर आप भी चलना चाहें तो चल सकते हैं....
शम्भू काका की बात सुनकर श्रेयांश बोला.....
शम्भू काका ! आप ही चले जाओ,मैं जब तक महल की बारिकियों को देख लेता हूँ,चित्र में कोई भी कमी नहीं होनी चाहिए...
ठीक है चित्रकार बाबू ! तो आप यहीं ठहरें,मैं होकर आता हूँ लेकिन याद रहें महल के ज्यादा नजदीक मत जाइएगा,मैनें कहा ना कि यहाँ रूहों का वास है,आपको कोई नुकसान ना पहुँचा दें,मैनें पानी भरी सुराही और पूरी आलू उस पेड़ के पास रख दिया है,भूख लगें तो खा लीजिएगा और इतना कहकर शम्भू अपने दोस्त से मिलने चला गया फिर श्रेयांश पुराने महल की बारिकियों को देखने लगा, उन बारिकियों को समझने के लिए वो पुराने महल के नजदीक जाने लगा लेकिन तभी उसे शम्भू काका की बात याद आई और उसने वहीं अपने कदम रोक दिए,
वो वहीं से ही उस महल को बड़े गौर से देखने लगा,तभी उसे एहसास हुआ कि कोई महल के झरोखें से झाँक रहा है,शायद कोई लड़की थी क्योकिं उसके लम्बे बाल खिड़की से बाहर लटक रहे थे और वो पीठ किए खड़ी थी और उसका दुपट्टा हवा में लहराता हुआ उड़ रहा था,
श्रेयांश को ये दृश्य देखकर कुछ यकीन सा ना हुआ इसलिए उसने अपनी आँखों को मसल कर फिर से उस ओर देखा लेकिन तब तक वहाँ से वो लड़की गायब हो चुकी थी,श्रेयांश को कुछ अजीब सा लगा,उसने सोचा शायद ये कोई उसका वहम हो लेकिन ये वहम कैसे हो सकता है,उसने तो सच में वहाँ लड़की देखी थी.....
वो काफी देर तक इस विषय में सोचता रहा लेकिन जब उसे कुछ समझ नहीं आया तो वो फिर से उस महल को देखने लगा लेकिन इस बार उसे वहाँ कोई नहीं दिखा तो उसने सोचा शायद ये वहम ही था,कुछ देर तक वो महल को हर ओर से निहारता रहा,फिर उसे भूख का एहसास हुआ तो वो पेड़ के नीचे पहुंँचा और वहाँ बिछी चादर पर बैठकर उसने आलू पूरी खोली और खाने लगा,
फिर उसने सुराही से गिलास में पानी निकाला और पीने लगा तभी उसे एहसास हुआ कि शायद झाड़ियों में कोई है,उसने वही दुपट्टा देखा जो उसने खिड़की पर खड़ी लड़की के पास देखा था,वो कुछ डरा लेकिन दूसरे ही पल बड़ी फुर्ती से खड़ा होकर उस झाड़ी के पास जा पहुँचा और जैसे ही उसने झाड़ी को टटोल कर देखा तो उसे वहाँ कोई भी नज़र नहीं आया,अब तो श्रेयांश कुछ हैरान सा होकर झुँझला उठा,लेकिन तब तक शम्भू काका उसके पास आ चुके और उन्होंने पूछा.....
क्या हुआ चित्रकार बाबू ?कुछ परेशान से नज़र आ रहे हैं।।
जी ! कुछ नहीं,बस ऐसे ही,श्रेयांश बोला।।
अगर कोई बात है तो बता दीजिए,क्योंकि जो रात में हुआ था वो आपको काफी डरा गया था,शम्भू काका बोले ।।
मैं ने एक लड़की को महल की खिड़की पर देखा,श्रेयांश बोला।।
सच! कहते हैं आप,एक लड़की...शम्भू चौंकते हुए बोला।।
जी!मुझे पहले ऐसा लगा कि जैसे कोई मेरा वहम है लेकिन फिर मैनें झाड़ियों के पीछे फिर से वही दुपट्टा देखा,श्रेयांश बोला।।
तो फिर आपका कोई वहम ही होगा,कभी कभी गाँव की लड़कियांँ भी यहाँ अपने खेतों से घूमने के लिए आ जातीं हैं,शायद वहीं होगीं,शम्भू बोला।।
हाँ! शायद कोई गाँव की लड़की ही होगी,श्रेयांश बोला।।
लेकिन शम्भू काका ने श्रेयांश से झूठ बोला था क्योंकि अगर वें ऐसा ना कहते तो श्रेयांश डर के कारण शायद अपना चित्र बनाना छोड़ देता,शम्भू ने झूठ तो बोल दिया लेकिन वो भी इस बात से डर गया था क्योकिं कल रात भी श्रेयांश ने किसी लड़की की परछाईं देखीं थीं और आज फिर से उसने एक लड़की को देखा....
शाम होने को आई थी इसलिए शम्भू काका ने श्रेयांश से कहा कि अब मुखिया जी के घर लौट चलते हैं,वो हम दोनों का इन्तजार करते होगें,श्रेयांश भी काफी थक चुका था इसलिए उसने भी घर चलने के लिए हाँ कर दी,जब दोनों मुखिया जी के घर पहुँचे तो शम्भू ने अकेले में जाकर मुखिया जी से कहा कि पुराने महल की खिड़की पर चित्रकार बाबू ने किसी लड़की को देखा,ये बात सुनकर मुखिया जी भी सोंच में पड़ गए।।
फिर कुछ देर बाद रात का खाना हुआ,खाने के बाद सब सोने चले गए,आज रात भी शम्भू श्रेयांश के कमरें में ही सोया,तभी आधी रात के समय श्रेयांश को कुछ जलने की बदबू आई,बदबू इतनी बुरी थी कि श्रेयांश की एकाएक आँख खुल गई,उसने अपने आसपास देखा तो सब ठीक था,कुछ भी नहीं जल रहा था लेकिन बदबू अभी भी आ रही थी,इसलिए उसने शम्भू को जगाकर कहा....
शम्भू काका!उठो देखो ना कुछ जलने की बदबू आ रही है।।
शम्भू काका श्रेयांश के जगाने पर जाग उठे और बोलें....
क्या हुआ? चित्रकारबाबू!
काका!देखो ना कुछ माँस जैसे जलने की बदबू आ रही है,श्रेयांश बोला।।
माँस जैसे जलने की बदबू आ रही है लेकिन मुझे तो कोई बदबू नहीं आ रही,शम्भू बोला।।
अरे! बाहर जाकर देखो कहीं कुछ जल तो नहीं रहा,श्रेयांश बोला।।
अभी बाहर जाकर देखता हूँ और इतना कहकर शम्भू बाहर चला गया...

शम्भू बाहर से आकर बोला....
चित्रकार बाबू! मैनें तो बाहर कुछ भी नहीं देखा और ना ही मुझे वहाँ कोई बदबू आई.....
ऐसा कैसे हो सकता है ?लेकिन मुझे तो वो बदबू आ रही थी,श्रेयांश बोला।।
चित्रकार बाबू! ऐसा लगता है कि आपको कोई धोखा हुआ है,शम्भू काका बोले।।
नहीं! काका! मुझे कोई धोखा नहीं हुआ है ये मेरा कोई वहम नहीं है ऐसा सच में हुआ था,श्रेयांश बोला।।
लेकिन आप अब सो जाइए बहुत रात हो चुकी है कोई दिक्कत हो तो मैं तो यही आपके ही पास सोया हुआ हूँ,शम्भू काका बोले।।
और फिर दोनों अपने अपने बिस्तर पर लेट गए और रातभर ऐसी कोई बात नहीं हुई जिससे श्रेयांश को कोई परेशानी हुई हो,सुबह हुई जब शम्भू ने मुखिया जी को सारी बात बताई तो उनके होश उड़ गए,तब उन्होंने श्रेयांश से कहा....
हो ना हो ये वही शाकंभरी की आत्मा है जो सालों से उस पुराने श्रापित रंगमहल में वास कर रही है।।
कौन शाकंभरी? उसकी आत्मा क्यों वहाँ वास कर रही है?श्रेयांश ने पूछा।।
बहुत लम्बी कहानी है,मुखिया जी बोले।।
तो फिर सुनाइए ना! श्रेयांश बोला।।
पहले आप स्नान ध्यान करके नाश्ता कर लीजिए इसके बाद में शाकंभरी की सारी कहानी आपको सुनाऊँगा,मुखिया जी बोले।।
कुछ ही देर में श्रेयांश के साथ साथ मुखिया जी और शम्भू काका भी स्नान ध्यान करके नाश्ता कर चुकें तो श्रेयांश बोला....
मुखिया जी! अब आप मुझे शाकंभरी की कहानी सुनाइए.....
तब मुखिया जी ने शाकंभरी की कहानी कहनी शुरु की......
बहुत समय पहले की बात है उस रंगमहल में एक राजा रहता था जिसका नाम मोरमुकुट सिंह था,राजा बहुत ही निर्दयी और विलासी प्रवृत्ति का था,उसने अपने भोग-विलास के लिए एक अलग कक्ष बनवा रखा था,राज्य की कोई भी कन्या एवं युवती उसकी कुदृष्टि से नहीं बच पाती थी,जो भी कन्या या युवती राजा मोरमुकुट को भा जाती तो वो उसे साम-दाम-दण्ड के जरिए अपने रंगमहल में बुलवा लेता ,अगर कोई भी कन्या राजा की इच्छा के विरूद्व रंगमहल आने के लिए मना कर देती तो राजा उसका अपहरण कर लेता और विवश होकर उसे राजा के सामने घुटने टेकने ही पड़ते ।।
राजा की तीन रानियाँ थी जिनका नाम इन्दूमती,बिन्दूमती एवं सिन्धूमती था,ये नाम राजा ने ही उनको दिए थे,इन रानियों से राजा को पाँच पुत्र और एक पुत्री हुई,राजा के पुत्र भी राजा की भाँति भोग-विलासी थे और मदिरा मेँ ही डूबे रहते थे,परन्तु राजकुमारी अत्यधिक दयालु प्रवृत्ति की थी और उसे सादा जीवन ही ब्यतीत करना भाता था,परन्तु राजा मोरमुकुट सिंह को ये बात कतई पसंद नहीं थी कि उनकी बेटी सादा जीवन जिएं,वे उसका विवाह एक ऊँचे राजघराने में करना चाहते थे,परन्तु राजकुमारी जलकुम्भी एक साधारण व्यक्ति से विवाह करना चाहती थी।।
इसी तरह एक दिन जलकुम्भी अपनी सखियों के संग वन-विहार को गई और वन में तितलियों के पीछे पीछे भागते हुए दूर निकल गई फिर अपनी सखियों से विलग हो गई,कुछ समय पश्चात जलकुम्भी को ध्यान आया कि उसकी सखियाँ कहाँ हैं,उसने मार्ग खोजने का अत्यधिक प्रयास किया किन्तु उसे मार्ग से निकलने का मार्ग नहीं मिला इसलिए वो एक वृक्ष के तले बैठकर रोने लगी,जलकुम्भी की आवाज़ सुनकर एक ऋषि कन्या उस ओर आई और उसने जलकुम्भी के समीप आकर पूछा.....
देवी! आप क्यों रोतीं हैं?
जी! मेरी सखियाँ मुझसे बिछड़ गईं हैं,मुझे उनके समीप जाने का मार्ग भी नहीं मिल रहा है,जलकुम्भी बोली।।
आप ब्यथित ना हो देवी! मैं आपकी सहायता करूँगी,ऋषिकन्या बोली।।
जी! क्या मैं आपका परिचय ज्ञात कर सकती हूंँ?जलकुम्भी ने पूछा।।
जी! अवश्य! मैं अरण्य ऋषि की पुत्री शाकंभरी हूँ,इसी वन में समीप ही मेरा निवास स्थान है,आप वहाँ मेरे संग प्रस्थान कीजिए,क्योंकि सूर्यास्त भी होने वाला है और वन में वन्यजीवों का खतरा बढ़ जाता है,आप मेरी कुटिया में सुरक्षित रहेगीं,शाकंभरी बोली।।
आपका अत्यधिक धन्यवाद देवी! जलकुम्भी बोली।।
सर्वप्रथम तो आप मुझे देवी ना कहें मैं तो आपकी सखी हूँ,आप मुझे मेरे नाम से ही पुकारे एवं इसमें धन्यवाद कैसा?आप तो मेरी अतिथि हैं,शाकंभरी बोली।।
और ऐसे ही वार्तालाप करते करते दोनों निवासस्थान की ओर चल पड़ी....तब जलकुंभी बोली...
आपने मेरी सहायता की इसके लिए धन्यवाद सखी!
आप आभार प्रकट करेगीं तो मैं आपसे क्रोधित हो जाऊँगी,शाकंभरी बोली।।
अच्छा!ठीक है अब ना कहूँगी,जलकुम्भी बोली।।
वैसे आपकी वेषभूषा एवं आभूषणों से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि आप कहीं की राजकुमारी हैं,शाकंभरी बोली।।
जी! मेरे पितामहाराज का नाम मोरमुकुट सिंह है और मैं उन्हीं की पुत्री हूँ,जलकुम्भी बोली।।
वैसे राजा मोरमुकुट सिंह के विषय में अत्यधिक सुन रखा है लेकिन आपका स्वभाव तो उनके विपरीत है,शाकंभरी बोली।।
जी! मुझे भी अपने पिता महाराज का वो रूप बिल्कुल नहीं पाता,मैं इस बात के लिए आपसे क्षमा माँगती हूँ,जलकुम्भी बोली।।
आप क्षमा क्यों माँगतीं हैं सखी! इसमें आपका कहाँ दोष है? आप तो मुझे संस्कारों वाली प्रतीत होतीं हैं,शाकंभरी बोली।।
ये संस्कार तो मुझे मेरी माताश्री से मिले हैं,जलकुम्भी बोली।।
सच!तब तो आपकी माताश्री अत्यधिक ज्ञानी हैं,शाकंभरी बोली।।
सबकी माताएं ज्ञानी होती हैं,जलकुंभी बोली।।
किन्तु मेरी तो माता ही नहीं है,शाकंभरी बोली।।
मुझे अत्यधिक दुख हुआ ये जानकर,जलकुंभी बोली।।
एवं इसी वार्तालाप के बीच शाकंभरी का निवासस्थान भी आ पहुँचा,शाकंभरी जलकुम्भी को कुटिया के भीतर ले गई और अपने पिताश्री से मिलवाते हुए बोली....
सखी!ये मेरे पिताश्री अरण्य ऋषि और पिताश्री ये मेरी सखी जलकुम्भी महाराज मोरमुकुट सिंह जी की पुत्री,शाकंभरी बोली।।
जलकुम्भी ने शीघ्रता से अरण्य ऋषि के चरण स्पर्श किए तो ऋषिदेव ने उसे आशीर्वाद दिया....
सदैव प्रसन्न रहो पुत्री!
इसके उपरान्त बोले.....
पुत्री शाकंभरी! अपनी सखी का सत्कार करो,वें रात्रि में यहीं विश्राम करेगीं तो उनके लिए उचित ब्यवस्था करो।।
जी! पिताश्री!शीघ्र ही ब्यवस्था करती हूँ,शाकंभरी बोली।।
इसके पश्चात शाकंभरी ने जलकुम्भी के हाथ पैर धुलवाकर उसे अपने स्वच्छ वस्त्र पहनने के लिए दे दिए और बोली.....
सखी! तुम यहीं भोजनालय में बैठो,मैं तब तक कुटिया के पीछे से सूखी लकड़ियाँ लेकर आती हूँ और इतना कहकर शाकंभरी चली गई.....
तब तक जलकुम्भी के पीछे से कोई आया जलकुम्भी के वस्त्र देखकर उसने समझा शाकंभरी है और उसके केशों को जोर से झटक दिया,जलकुम्भी के केशों में पीड़ा हुई और वो चीख पड़ी एवं शीघ्रता से पलटकर देखा तो वहाँ एक नवयुवक खड़ा था,उस नवयुवक ने जैसे ही जलकुम्भी को देखा तो देखता ही रह गया।।
इतने में शाकंभरी बाहर से सूखी लकड़ियाँ लेकर भीतर आई और बोली......
भ्राता! आप आ गए ये देखिए मेरी सखी जलकुम्भी! आज रात्रि ये हमारी कुटिया में ही विश्राम करेगीं।।
सखी! ये मेरे अग्रज पुष्पराज।।
जी! अत्यधिक प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर,जलकुम्भी बोली।।
जी मुझे भी,पुष्पराज बोला।।
तभ पुष्पराज ने शाकंभरी से कहा.....
शाकंभरी! तुमने बताया ही नहीं कि तुम्हारी जलकुम्भी नाम की कोई सखी भी है।।
भ्राता!मैं भी आज ही इनसे मिली हूँ,ये मार्ग भूल गई थीं इसलिए मैं इन्हें अपने संग यहाँ ले आई,शाकंभरी बोली।।
ये तुमने अत्यधिक सुन्दर कार्य किया,मेरी प्रिय बहन! पुष्पराज बोला।।
और उस रात जलकुम्भी अरण्य ऋषि की कुटिया में ठहरी.....

क्रमशः......
सरोज वर्मा.....