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Reality Of Logic

लेखन और लेखक के संबंध में

मेरी अभिव्यक्ति केवल मेरे लियें हैं यानी मेरी जितनी समझ के स्तर के लियें और यह मेरे अतिरिक्त उनके लियें भी हो सकती हैं जो मुझ जितनी समझ वाले स्तर पर हों अतः यदि जो भी मुझें पढ़ रहा हैं वह मेरी अभिव्यक्ति को अपने अनुभव के आधार पर समझ पा रहा हैं तो ही मुझें पढ़े क्योंकि समझ के आधार पर मेरी ही तरह होने से वह मेरे यानी उसके ही समान हैं जिसके लियें मेरी अभिव्यक्ति हैं और यदि अपनें अनुभवों के आधार पर नहीं समझ पा रहा अर्थात् उसे वह अनुभव ही नहीं हैं जिनके आधार पर मैं व्यक्त कर रहा हूँ तो वह मेरे जितने समझ के स्तर पर नहीं हैं, मेरे यानी उसके जितनें समझ के स्तर पर जिसके लियें मेरी यह अभिव्यक्ति थी है और अनुकूल रहा तो भविष्य में भी रहेगी। मेरी अभिव्यक्ति के शब्द मेरी उंगलियाँ हैं जो मेरे उन अनुभवों की ओर इशारा कर रही हैं जिन अनुभवों के आधार पर मैं अभिव्यक्ति करता हूँ यदि पढ़ने वाले के पास या सुनने वालें के पास वह अनुभव ही नहीं हैं या उनकी पहचान ही नहीं हैं तो जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं तो वह खुद के अनुभवों से तुलना नहीं कर पायेगा जिनकी ओर मैंने इशारा किया हैं जिससें मेरी अभिव्यक्ति उसकी समझ से परें होगी नहीं तो फिर वह अनुभवों का ज्ञान नहीं होने से जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं वह उसके किन्ही अन्य अनुभव से तुलना कर वह ही समझ लेगा जिनकी ओर मैं इशारा ही नहीं कर रहा यानी मुझें गलत समझ लेगा।

Reality Of Logic

किसी को भी जितना श्रेष्ठता से सही सिद्ध किया जा सकता हैं ठीक उतनी ही श्रेष्ठता से गलत भी सिद्ध किया जा सकता हैं इसका अर्थ स्पष्ट हैं कि कुछ भी जितना सही हैं यदि केवल उसे सही ही कहा जायें तो वह गलती होगी क्योंकि जो जितना सही या सत्य हैं ठीक उतना ही असत्य भी हैं इसके विपरीत जो भी जितना गलत हैं उसे केवल गलत ही कहा जायें तो वह भी गलती होगी क्योंकि जो जितना गलत हैं वह उतना ही सही भी तो हैं अतः निष्कर्ष यह निकलता हैं कि यदि कोई भी सही हैं तो वह ही जो यह मानें कि उसनें आज तक किसी को भी यदि केवल सही बताया हैं तो वह आधा सही हैं, वह यह मानें कि जितना उसनें किसी को आज तक गलत बताया वह उतना ही गलत भी कह रहा हैं; जितना कि सही इनके अलावा केवल दूसरा वह सही हैं जो कहता हैं कि न ही कुछ सही हैं और न ही गलत यानी वास्तविकता वही हैं जो शून्य अर्थात् निराकारता हैं।

पीछें जो भी मैंने कहा उसके साथ-साथ जो भी मैंने किसी भी उद्धरण में या कही भी केवल सत्य कहा मैं तो स्वीकारता हूँ कि वह यदि सही हैं तो जितना सही हैं उतना का उतना गलत भी हैं; यदि आप उसे केवल सही ही समझतें हैं तो यह भी उसी तरह आपकी संकुचिचता या संकीर्णता का परिणाम हैं जैसे कि आपके गलत समझनें के परिणाम स्वरूप हैं अतः वास्तविकता यानी सत्य यही हैं कि जो जितना सही हैं वह उतना ही गलत भी हैं और इसके अतिरिक्त वास्तविकता सत्य भी नहीं हैं और गलत भी नहीं अर्थात् वह सब कुछ हैं या कुछ भी नहीं हैं। मैं या कोई भी मैंने या किसी नें भी जिसे भी केवल सत्य सिद्ध किया या कहा जब तक उसे जितना मैंने का उनने सही साबित किया उतना ही गलत नहीं कह दूँ या गलत साबित नहीं कर दूँ वह अर्ध सत्य हैं अर्थात् करनें के पश्चात ही पूर्ण सत्य अर्थात् वास्तविकता होगी तथा मैंने या किसी ने भी जब तक किसी को भी ऐसा नहीं कहा कि वह सही भी नहीं हैं और गलत भी नहीं हैं तब तक मैं या कोई भी अनुचित ही कह रहा हैं।

निष्कर्ष यह निकलता हैं कि यदि वास्तविकता हैं तो यह साकारता यानी कल्पना हैं और यदि वह नहीं हैं तो निराकारता अर्थात् शून्यता या चेतन्यता हैं।

अब जो भी मैंने कहाँ यही अनंत की अर्थात् हर आकार की और शून्य अर्थात् निराकारता की वास्तविकता हैं; यह यदि सही हैं तो गलत भी हैं और यदि सही नहीं तो गलत भी नहीं हैं।

- Rudra S. Sharma (aslirss)
( Time/Date - 19:43 / Wed. 08 June )