Tom Kaka Ki Kutia - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

टॉम काका की कुटिया - 16

16 - टॉम का नया मालिक

यहाँ से टॉम के जीवन के इतिहास के साथ और भी कई व्यक्तियों का संबंध आरंभ होता है। अत: उन लोगों का कुछ परिचय देना आवश्यक है।

 अगस्टिन सेंटक्लेयर के पिता लुसियाना के एक रईस और जमींदार थे। इनके पूर्वज कनाडा-निवासी थे। अगस्टिन के पिता जन्मभूमि छोड़कर लुसियाना चले आए और वहाँ कुछ जमीन लेकर बहुत से गुलामों से काम लेने लगे और धीरे-धीरे एक अच्छे जमींदार हो गए। अगस्टिन के चाचा वारमंट में जा बसे और वहाँ खेती करने लगे।

 अगस्टिन की माता का जन्म हिउग्नो संप्रदाय के एक फ्रांसीसी उपनिवेशी के घर हुआ था। अगस्टिन का शरीर जन्म से ही अपनी माता की भाँति दुर्बल था। वारमंट की जलवायु बड़ी अच्छी समझी जाती थी, इससे बहुत बचपन में ही अगस्टिन को अपने चाचा के यहाँ भेज दिया गया था।

 अगस्टिन सेंटक्लेयर में बचपन से ही कोमलता, उदारता और दयालुता के चिह्न स्पष्ट झलकते थे। ज्यों-ज्यों सेंटक्लेयर की उम्र बढ़ती गई, उसके इन गुणों में भी वृद्धि होती गई। उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी। उदारता और महत्ता उसके हृदय के स्वाभाविक गुण थे। क्षुद्रता और नीचता आदि भाव उसके पास नहीं फटकने पाते थे। काम-काज में उसका मन नहीं लगता था। इससे उसके पिता ने सारे काम का भार अपने दूसरे लड़के अलफ्रेड पर डाल दिया था।

 अगस्टिन की विश्वविद्यालय की पढ़ाई शीघ्र ही समाप्त हो गई। फिर उसके जीवन में उस लहर का संचार हुआ, जो एक बार सबके हृदयों को चंचल बना देती है। उस लहर से उसका प्रेमी हृदय नवीन अनुराग से उमड़ उठा, उसके जीवन-सरोवर में नया कमल खिल गया। जो हो, रूपक जाने दीजिए, संक्षेप में सुनिए, क्या बात थी। सेंटक्लेयर एक बुद्धिमती, रूप-गुणशीला रमणी के विशुद्ध प्रेम का पात्र हो गया। दोनों का विवाह तय हो गया। युवक अपने घर बड़े उत्साह से विवाह की तैयारियाँ करने लगा। इसी बीच उसकी प्रेमिका के अभिभावक का पत्र आया। लिखा था:

 "यह पत्र तुम्हारे पास पहुँचने के पहले ही तुम्हारी मनोनीता कुमारी किसी दूसरे की पत्नी हो जाएगी।"

 इसी के साथ सेंटक्लेयर के वे सब प्रेम-पत्र भी वापस आए, जो समय-समय पर उसने अपनी प्रेमिका कुमारी को भेजे थे।

 इस पत्र को पाकर सेंटक्लेयर दु:ख और आहत अभिमान से पागल-सा हो गया। हृदय की अनिवार्य यंत्रणा के वेग से अधीर होकर उसने निश्चय किया कि अब सारी पिछली बातों को हृदय से एकदम भुला देगा। अदम्य अभिमान के कारण उसने इस बेढंगी कार्रवाई का कारण भी न पूछा। उस पत्र के पाने के दो सप्ताह के भीतर ही उसी नगर के एक धनवान वणिक की अति रूपवती कन्या से उसका विवाह ठीक हो गया। यह संसार एकमात्र खरीद-फरोख्त का बाजार है। विशुद्ध प्रेम और अकृत्रिम परिणय का सौदा इस बाजार में बहुत कम होता है, शायद ही कभी होता हो। अगस्टिन इसका अपवाद न था। उसे लाचार होकर संसार-प्रचलित क्रय-विक्रय की प्रथा का अवलंबन करना पड़ा। देखते-देखते उसका विवाह हो गया। जिस स्त्री से सेंटक्लेयर का विवाह हुआ था, उसकी जमा-पूँजी बस रुपया और सौंदर्य, यही दो चीजें थीं।

 विवाह के उपरांत नव-दंपति इष्ट-मित्रों के बीच हँसी-खुशी में दिन बिताने लगे।

 किंतु एक महीना भी न होने पाया था कि एक दिन अगस्टिन के नाम एक पत्र आया। पत्र के सिरनामे पर वही परिचित अक्षर थे। पत्र देखकर सेंटक्लेयर का मुँह पीला पड़ गया। काँपते हाथों से उसने पत्र लिया। जिस समय सेंटक्लेयर को पत्र मिला था, उस समय मित्रों से उसका घर भरा हुआ था। वह एक आदमी से हँस-हँसकर बातें कर रहा था। ज्यों-त्यों अपनी बातें समाप्त करके वह चुपके से निकल पड़ा। एकांत में जाकर उसने पत्र खोला। हाय! आज इस पत्र को पढ़ने से ही क्या लाभ है?

 वह पत्र सेंटक्लेयर की पूर्व प्रेमिका के पास से आया था। उसे पढ़कर विवाह का पूरा रहस्य मालूम हो गया।

 पहले जिस अभिभावक का उल्लेख किया गया है, उस नर-पिशाच ने अपनी अधीनस्थ इस कुमारी को अपने पुत्र के साथ ब्याहने की बड़ी चेष्टा की; पर जब कन्या किसी तरह राजी न हुई तब वह उस पर मनमाने अत्याचार करने लगा। इससे भी जब सफलता न मिली, तो इस दगाबाज ने ऊपरवाली चाल चलकर सेंटक्लेयर से उसका पवित्र नाता तोड़ दिया। इधर सेंटक्लेयर का पत्र न पाने के कारण वह दिन-पर-दिन चिंतित रहने लगी। पत्र पर पत्र लिखे, पर उत्तर न मिला। हजार बार सोचा, पर कोई कारण समझ में नहीं आया। धीरे-धीरे उसके मन में तरह-तरह के संदेह और आशंकाएँ उठने लगीं। इसी सोच में वह दिन-पर-दिन सूखने लगी। अंत में एक दिन उस पापी अभिभावक की शठता उसे मालूम हो गई। वह जान गई कि इस नराधम ने उनके पारस्परिक प्रेम में बाधा डालने की कुचेष्टा की है।

 पत्र पढ़कर सेंटक्लेयर को सब बातों का पता चला। पत्र का अंतिम भाग आशापूर्ण वाक्यों और प्रेमोक्तियों से भरा हुआ था। रमणी ने लिखा था- "मैं जीते-जी तुम्हारी ही हूँ।" अभागा युवक उसे पढ़कर छटपटाकर रह गया। उसे मौत से भी अधिक दु:ख हुआ। पर क्या करता! सोचा, अब दु:ख करने से पुरानी बात नहीं लौटती। उसने तुरंत उत्तर दे दिया। लिखा:

 "तुम्हारा पत्र मिला, किंतु समय पर नहीं। अब मिलना न मिलना दोनों बराबर है। मुझे जो खबर मिली थी, उसे मैंने सच मान लिया। मैं उस समय पागल-सा हो गया था। मेरा विवाह हो गया। जो कुछ होना था, हो गया। कुछ भी बाकी नहीं रहा। अब सब बातें मन से भुला दो। जो हो गया सो हो गया।"

 इस घटना से सेंटक्लेयर का सुख-स्वप्न भंग हो गया। उसका प्रेमी हृदय शुष्क हो गया। उस काल्पनिक सुख-शांति-पूर्ण संसार को कल्पना से बिना कर देने पर सेंटक्लेयर को प्रकृत संसार-पथ का पथिक होना पड़ा। वह कल्पनानुरंजित संसार यथार्थ संसार से कितना भिन्न है, इसका अनुभव उस संसार में प्रवेश किए बिना नहीं हो सकता।

 उपन्यासों में प्रणय-निराशा और मृत्यु मानों एक साथ ही डोर में बँधे रहते हैं। ज्यों ही कोई प्रणय से निराश होता है, तुरंत मृत्यु महारानी पहुँचकर उसके भग्न हृदय की दारुण जलन को सदा के लिए ठंडा कर देती है।

 परंतु प्रकृत जीवन और उपन्यास में बड़ा भेद है। प्रकृत जीवन में उपन्यास की भाँति मृत्यु इतनी पास नहीं खड़ी रहती। संसार में नित्य कितने ही लोगों का प्रणय टूटता है, पर कितने आदमी हैं, जो उसके लिए प्राण देते हैं? जीवन चारों ओर से दु:खों और यंत्रणाओं से घिर जाता है, सारी आशाओं पर पानी फिर जाता है। हृदय घोर निराशा में डूब जाता है। इतने पर भी मनुष्य नहीं मरता। जैसे समय पर पहले खाता-पीता था, काम करता था, सोता-घूमता था, वैसे ही अब भी सारे-के-सारे काम करता है। अगस्टिन के हृदय को बहुत गहरी चोट लगने पर भी संसार की इसी गति के अनुसार उसे काम करने पड़ते थे। किंतु उसकी पत्नी मेरी योग्य होती तो उसका अंधकारमय जीवन फिर भी प्रकाशमान हो सकता था, पर मेरी की अदूरदर्शी दृष्टि अगस्टिन के हृदय तक न पहुँचती थी। उसने यह बात जानने की कोशिश तक नहीं की कि उस हृदय पर कोई घाव लगा है। हम पहले ही कह आए हैं कि विपुल संपत्ति और रूप-लावण्य के सिवा मेरी में और कोई भी गुण न था। पर इन दोनों में एक भी गुण जी की जलन को ठंडा नहीं कर सकता था, हृदय के घाव को नहीं भर सकता था।

 पत्र पाने के बाद अगस्टिन एक निर्जन कमरे में जाकर लेट गया। बड़ी देर के बाद पत्नी ने आकर पूछा - "तुम्हें क्या हो गया है?"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "मेरा सिरदर्द कर रहा है।"

 बुद्धिमती मेरी ने इसी को सच मान लिया, फिर कोई और बात न पूछकर औषधि की व्यवस्था कर दी। किंतु वह सिरदर्द क्या एक दिन का था? उसके बाद अक्सर सेंटक्लेयर को उसी प्रकार सिरदर्द हुआ करता था। जब देखते-देखते कई दिन बीत गए, तब एक दिन मेरी ने कहा - "विवाह के पहले नहीं जानती थी कि तुम ऐसे रोगी हो। मैं देखती हूँ कि तुम्हें तो बराबर ही सिरदर्द हुआ करता है। मेरे फूटे भाग! अभी हाल में हम लोगों का विवाह हुआ है और अभी से मुझे लोगों के घर अकेले घूमने जाना पड़ता है। तुम साथ नहीं जा सकते। मुझे बड़ा नागवार मालूम होता है।"

 पत्नी की मोटी बुद्धि देखकर पहले-पहल तो सेंटक्लेयर मन-ही-मन संतुष्ट हुआ, परंतु जब विवाहित जीवन के कुछ आरंभिक दिन बीत गए और आदर-सत्कार का बंधन कुछ ढीला पड़ने लगा, तब सेंटक्लेयर ने देखा कि रूप और गुण दोनों एक साथ नहीं रहते और लावण्य तथा सौंदर्य मनुष्य को अधिक दिनों तक सुख नहीं दे सकते। उनका आनंद शीघ्र ही फीका पड़ जाता है। उसने अनुभव किया कि ऐश्वर्य की गोद में पली हुई और पिता की लाडली सुंदरी से इस जीवन-यात्रा में सुख पाने की कोई संभावना नहीं है। जिसे लोग प्रेम कहते हैं, उस प्रेम की मात्रा मेरी के हृदय में एक तो थी ही बहुत थोड़ी, और जो नाममात्र को थी भी वह तो अपने ही ऊपर थी, दूसरों पर नहीं। मेरी अपने पिता की इकलौटी बेटी थी। पिता के घर नौकर-चाकरों तथा कुटुंबियों पर हुकूमत करती आई थी। उसे जब जिस बात की चाह होती थी, वह तुरंत पूरी होती थी। उसने जब चाहा, वह सुलभ हो या दुर्लभ, पिता ने उसे देकर राजी किया। दास-दासियों पर वह जैसा रौब-दाब रखती थी और दबाव डालती थी, उसका ठिकाना न था। वे बेचारे हर घड़ी मालिक की लड़की को खुश करने की चिंता में लगे रहते थे। कहीं जरा-सी भी भूल हो जाती थी, तो वह उन्हें बड़ा कठोर दंड देती थी। ऐसी दशा में पलकर मेरी का हृदय केवल अहमन्यता और स्वार्थपरता का घर हो गया था। अपने सुख के सिवा उसे और कुछ सुहाता ही न था। अपनी बात के सामने उसे पल भर के लिए भी दूसरे की बात का ध्यान न आता था। साथ ही उसे अपने परम सुंदरी होने का पूरा भान था।

 उसका विचार था कि यदि वह असामान्य रूपवती न होती तो लुसियाना प्रदेश के असंख्य नवयुवक उससे विवाह करने के लिए इतनी व्याकुलता क्यों दिखाते? पर मूल कारण कुछ और ही था। असल बात यह थी कि उससे विवाह करने की इच्छा रखनेवाले युवक यह सोचकर उसके आगे शीश झुकाते थे कि जो उससे विवाह करेगा, वही उसके पिता के अपार धन का मालिक होगा। मेरी अपने लज्जा का बड़ा सौभाग्य समझती थी कि उसे उस जैसा स्त्रीरत्न मिला। लज्जा के साथ व्यव्हार में भी उसका यह आंतरिक विश्वास पग-पग पर झलकता था। कभी-कभी वह बातों-बातों, में बड़े साफ शब्दों में, लज्जा से यह कह भी डालती थी।

 ऐसी स्त्री के साथ रहकर गृहस्थी चलाना सेंटक्लेयर के लिए बड़ा कठिन हो गया। एक ओर तो वह अपनी पूर्व प्रेमिका को अपने हाथों दिए आघात का स्मरण करके दु:खी हो रहा था, अपने को मन-ही-मन बराबर धिक्कारता था और दूसरी ओर इसी समय श्रीमती मेरी महारानी के वचन-बाण उसके हृदय को बेंधते थे। इससे वह प्राय: काम का बहाना करके घर से चला जाया करता था। पर ऐसी स्वार्थ-परायण स्त्री सदा लज्जा के अंदर का सारा प्रेम सोखने की इच्छा किया करती है। जो स्त्री लज्जा को प्यार करना नहीं जानती, वह उतना ही अधिक लज्जा का प्रेम चाहती है। अत: सेंटक्लेयर को घर से भागकर भी छुटकारा नहीं मिलता था।

 विवाह के एक साल बाद मेरी को एक कन्या हुई। इस कन्या का मुख-कमल देखते ही दयालु सेंटक्लेयर का हृदय गंभीर संतान-वात्सल्य से भर गया। वह कन्या ज्यों-ज्यों बढ़ने लगी, सेंटक्लेयर का प्रेम भी उस पर बढ़ता गया। किंतु सेंटक्लेयर का इस कन्या को प्राणों से अधिक प्यार करना उसकी स्त्री मेरी को असह्य हो गया! वह मन-ही-मन विचार करने लगी कि सेंटक्लेयर के हृदय में एक तो यों ही प्रेम नहीं है, फिर मुश्किल से जो थोड़ा बहुत था भी, सो वह इस कन्या ने ले लिया। मैं तो अब लज्जा के प्रेम से बिलकुल ही खाली रह गई। यह सब सोचकर वह कन्या का जैसा चाहिए, वैसा लालन-पालन नहीं करती थी। कन्या के जन्म लेने के उपरांत मेरी को प्राय: सिरदर्द बना रहता था। वह सदा पलंग पर पड़ी रहती थी। कन्या के पालन-पोषण का भार दास-दासियों के जिम्मे कर दिया गया। बीच-बीच में सेंटक्लेयर स्वयं उसको सँभाल लिया करता था।

 चार-पाँच वर्ष की हो जाने पर बालिका के प्रत्येक कार्य और आचरण से विशेष दया, स्नेह और ममता का भाव प्रकट होने लगा। सेंटक्लेयर ने कन्या की ऐसी कोमल प्रकृति और सहृदयता देखकर अपनी माता के नाम पर उसका नामकरण किया। सेंटक्लेयर की जननी बड़ी दयालु थी। दूसरे का जरा भी दु:ख देखकर उसका हृदय भर आता था। अगस्टिन अपनी माता पर असीम श्रद्धा और भक्ति रखता था। उसकी माता का नाम इवान्जेलिन था। इससे उसने अपनी कन्या का भी वही नाम रखा।

 इधर मेरी की हालत सुनिए। उसे नित्य एक नया मन गढ़ंत रोग होने लगा। दिन भर अलहदी की तरह पलंग पर पड़े-पड़े शरीर में पीड़ा होने लगती थी और वह सोचती थी कि उसे कोई नया रोग हो गया है। उन रोगों की चिकित्सा और सेवा उसकी इच्छा के अनुकूल नहीं होती, इसकी उसे सदा ही शिकायत बनी रहती और इसके लिए वह सदैव लज्जा पर चिड़चिड़ाया करती। कभी-कभी अभिमान के वशीभूत होकर रोने लगती और कभी अपने भाग्य को कोसती। वह अपने मन में इसे केवल विधि की विडंबना ही समझती थी कि जो उसकी-सी रूपवती, गुणवती, पुण्यवती और बुद्धिमती नारी को ऐसी दुरवस्था में पड़ना पड़ा। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि किसी-किसी मनोकल्पित रोग के कारण वह लगातार तीन-तीन, चार-चार दिन तब बिस्तर न छोड़ती थी। इसलिए घर का सब काम दास-दासियों के ही भरोसे था। इसके सिवा इवा का भी लालन-पालन अच्छी तरह न होने के कारण वह भी कुछ दुबली हो गई थी। यह देखकर सेंटक्लेयर घर के प्रबंध एवं इवा के लालन-पालन के लिए वारमंट से अपने चाचा की लड़की मिस अफिलिया को लाने के लिए वारमंट रवाना हो गया। जहाज में सेंटक्लेयर के साथ जिस महिला की बात पहले कही गई है, वह मिस अफिलिया ही थी। उसे साथ लेकर अगस्टिन इस जहाज में घर लौट रहा था।

 चलते-चलते जहाज नवअर्लिंस आ पहुँचा। इन लोगों के उतरने के पहले मिस अफिलिया के संबंध में दो-एक बातें कहना उचित जान पड़ता है। मिस अफिलिया की अवस्था 45 वर्ष की है। घर के कामकाज में वह बड़ी होशियार है। उसके हर काम से उसकी सहनशीलता और फुर्तीलेपन का परिचय मिलता है। उसके सारे काम और व्यव्हार नियमपूर्वक तथा उत्कृष्ट प्रणाली एवं परिपाटी के होते हैं। काम के लिए यदि वह कोई नियम बना लेती है तो उसे कभी नहीं तोड़ती। नियम की तो वह बड़ी ही पक्की है। असावधानी को वह बहुत बड़ा पाप समझती है। वह औरों को भी किसी काम में लापरवाही करता देखकर बड़ी झुँझलाती और उनपर घृणा प्रकट किया करती है। कर्त्तव्य-पालन में वह बड़ी कठोर है। जिस काम को वह अपना कर्त्तव्य समझती है, उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं रखती। वह सदा विवेक से काम लिया करती है। यदि उसे "विवेक की दासी" कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।

 वास्तव में अंग्रेज-ललनाओं में बहुतेरी विवेक के वश में होती हैं, पर उनका वह विवेक-यंत्र अंकुश की भाँति उन्हें चलाता है। मनुष्य-समाज में दो तरह के प्राणी दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल कर्त्तव्य मानकर विवेक के आदेश का पालन तो करते हैं, पर उसका पालन करने से उनके हृदय में आनंद की धारा नहीं बहती। कुछ ऐसे होते हैं, जो हृदय के वेग में पड़कर विवेक के आदेश पालन करने में उन्मत्त हो जाते हैं। पहली प्रकार के विवेक का आदेश लोहे के चने चबाने से भी कठिन काम है। जो लोग पहली प्रकार के विवेक के आदेश पर काम करते हैं, उन्हें दुनियाँ कर्त्तव्य-परायण कहती है। पर दूसरी प्रकार का विवेक मनुष्य को कर्त्तव्य-प्रमत्त बना देता है। ऐसी दशा में विवेक और आवेग इन दोनों में कोई भेद नहीं रह जाता। महाराजा जयसिंह को कर्त्तव्य-परायण कहा जा सकता है, पर वह कर्त्तव्य-मत अथवा कर्त्तव्य-नेता कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते। दूसरी पवित्र श्रेणी में बुद्ध, ईसा और चैतन्य आदि के पवित्र नाम गिनाने योग्य हैं। कर्त्तव्य-परायण मनुष्य मशीन की भाँति कर्त्तव्य के अनुरोध का पालन करता है, परंतु कर्त्तव्य-मत्त व्यक्ति हृदय के उमड़े हुए वेग से तन्मय होकर कर्तव्य को पूरा करता है।