Tom Kaka Ki Kutia - 37 books and stories free download online pdf in Hindi

टॉम काका की कुटिया - 37

37 - कासी की करुण कहानी

रात के दो पहर बीत चुके होंगे। चारों ओर घनघोर अँधियारी छाई हुई है। सड़ी-गली कपास और इधर-उधर फैली टूटी-फूटी चीजों से भरी हुई एक तंग कोठरी में टॉम अचेत पड़ा है। दिन भर अन्न-पानी नसीब नहीं हुआ। इससे उसके प्राण कंठ में आ लगे हैं। इस पर कोठरी में मच्छरों की भरमार। जरा आँखें बंद करने तक का आराम नहीं है।

 टॉम जमीन पर पड़ा पुकार रहा है - "हे भगवान! दीनबंधु! एक बार दीन की ओर आँख उठा कर देखो! पाप और अत्याचार पर विजय पाने की शक्ति दो!"

 तभी उसे अपनी कोठरी की ओर आते किसी के पैरों की आहट सुनाई पड़ी और लालटेन की मद्धिम रोशनी उसके मुँह पर पड़ी।

 टॉम ने कहा - "कौन है? ईश्वर के लिए मुझे एक घूँट पानी पिला दो!"

 कासी ने, जिसके पैरों की आहट सुनाई दी थी, लालटेन को जमीन पर रखकर, अपने साथ लाई हुई बोतल से थोड़ा पानी एक गिलास में निकाला और टॉम का सिर उठाकर उसे पिलाया। बुखार की तेजी के कारण टॉम ने और दो गिलास पानी पिया।

 कासी ने कहा - "जितना चाहो, पानी पी लो। मैं काफी लाई हूँ। जानती थी कि ऐसी हालत में तुम्हें पानी की कितनी जरूरत होगी। तुम्हारी जैसी हालत होने पर मैं कुलियों को अक्सर पानी पिलाने जाती हूँ। आज तुम्हारे लिए पानी लेकर पहली बार नहीं आई हूँ।"

 टॉम ने पानी पीकर कहा - "श्रीमतीजी, आपको बहुत धन्यवाद!"

 कासी दु:खित स्वर में बोली - "मुझे "श्रीमतीजी" मत कहो। मैं भी तुम्हारी तरह एक अभागिन गुलाम हूँ, बल्कि तुमसे भी गई-बीती हूँ।"

 फिर कासी ने वह खाट और बिछौना भी टॉम के सामने रखा, जिन्हें वह अपने साथ लाई थी। उसने एक चादर को ठंडे जल से भिगोकर टॉम की चारपाई पर बिछाया और बोली - "मेरे अभागे साथी, किसी तरह हिम्मत करो और गिरते-पड़ते भी आकर इस खाट पर लेट जाओ।"

 टॉम का सारा बदन लहू-लुहान था। उसमें हिलने-डुलने की तनिक भी शक्ति नहीं थी, परंतु बड़े कष्ट से जैसे-तैसे सरकते-सरकते वह उस ठंडे बिछौने पर जा लेटा। उस पर पहुँचते ही उसे कुछ आराम मालूम हुआ।

 बहुत समय से इस नरक-जैसे अत्याचारपूर्ण स्थान में रहते-रहते कासी घावों की सफाई और उनकी परिचर्या के काम में अनुभवी हो गई थी। वह टॉम के घावों पर अपने हाथ से मलहम लगाने लगी। मलहम के लगते ही टॉम की पीड़ा और कम हो गई। इसके बाद उसने टॉम का सिर ऊँचा उठाकर उसके नीचे थोड़ी-सी रुई रख दी। फिर बोली - "तुम्हारे लिए मैं जो कुछ कर सकती थी, उतना करने की मैंने कोशिश की है।"

 टॉम ने इसके उत्तर में अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट की। कासी अब जमीन पर बैठ गई और दोनों हाथ घुटनों पर लपेटकर तीव्र यंत्रणा व्यंजक भाव से एकटक सामने की ओर देखने लगी। उसके सिर का कपड़ा पीठ पर गिर गया, और उसके लंबे-लंबे काले बाल उदासी भरे मुँह के चारों ओर बिखर गए।

 कुछ देर बाद कासी बोली - "इसका कोई नतीजा नहीं, अभागे साथी, तुम्हारी सारी कोशिशें बेकार हैं। तुमने आज बड़ा विलक्षण साहस दिखलाया है। न्याय भी तुम्हारी ही ओर था, पर यह लड़ाई व्यर्थ है। इसमें तुम्हारी जीत होगी, ऐसा नहीं लगता। तुम अबकी बार साक्षात् शैतान के पंजे में फँस गए हो। वह बहुत ही निर्दयी है। अंत में तुम्हें हारकर आत्म-समर्पण करना होगा-न्याय का पक्ष छोड़ना होगा।"

 न्याय का पक्ष छोड़ना होगा। क्या मेरी मानसिक निर्बलता और शारीरिक यंत्रणा ने भी कुछ देर पहले चुपके से मेरे कानों में यही बात नहीं कही थी? टॉम काँप उठा। जिस प्रलोभन के साथ टॉम आज तक बराबर लड़ता चला आया था, विषाद-भरी कासी उसे उसी प्रलोभन की "जिंदा तस्वीर" जान पड़ने लगी। टॉम आर्त होकर बोला - "हे भगवान! हे परम दयालु पिता! मैं न्याय का पक्ष कैसे छोड़ सकता हूँ?"

 कासी ने स्थिर स्वर में कहा - "ईश्वर से पुकार करने का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। ईश्वर कुछ सुनता-सुनाता नहीं है। मेरा विश्वास है कि ईश्वर है ही नहीं, और यदि है तो वह हम-जैसे लोगों का विरोधी है। लोक और परलोक, सभी हम लोगों के विरोधी हैं। दुनिया की हर चीज हमें नरक की ओर धकेल रही है। फिर हम नरक में क्यों न जाएँ?"

 टॉम ने आँखें मूंद ली। कासी के मुँह से ऐसी नास्तिकता-भरी बातें सुनकर उसका हृदय दहल उठा। कासी फिर कहने लगी - "देखो, यहाँ के बारे में तुम कुछ नहीं जानते, पर मैं यहाँ की हर चीज को जानती हूँ। मुझे यहाँ रहते पाँच बरस बीत गए हैं। मेरे शरीर और आत्मा सब इसी के पैरों के नीचे हैं, फिर भी इस नर-पशु को हृदय से घृणा करती हूँ। यहाँ पर अगर तुम जीवित ही गाड़ दिए जाओ, आग में डाल दिए जाओ, तुम्हारे शरीर की बोटी-बोटी कर दी जाए, तुम्हें कुत्तों से नुचवा डाला जाए, या पेड़ से लटकाकर कोड़ों से तुम्हारी जान तक ले ली जाए, तो भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। किसी अंग्रेज को गवाह बनाए बिना कोई अपराध सिद्ध नहीं किया जा सकता। और यहाँ पाँच-पाँच मील तक कोई अंग्रेज नहीं है। हो भी तो क्या? यह झूठी अंग्रेज कौम क्या किसी भी बुरे काम से परहेज करती है? वे क्या तुम्हारे-हमारे लिए अदालत में सच्ची बात कहेंगे? ईश्वर का या मनुष्य का बनाया ऐसा कोई कानून यहाँ नहीं है, जिससे हम लोगों का कुछ भला हो सके। और यह नराधम! संसार का ऐसा कोई पाप नहीं है, जिसे करने में संकोच करे। मैंने यहाँ आकर जो कुछ देखा है, उसे अगर मैं पूरा-पूरा कह सकूँ तो कोई भी आदमी मारे डर के पागल हो जाएगा। इस पाखंडी की इच्छा के विरुद्ध कोई भी काम करने का कुछ नतीजा नहीं निकलेगा। मैं क्या अपनी इच्छा से इस नीच के साथ रह रही हूँ? क्या यहाँ आने से पहले मैं एक सभ्य महिला नहीं थी? और यह - हे ईश्वर, यह व्यक्ति क्या था और क्या हो गया! फिर भी पाँच साल से इसके साथ हूँ। इन पाँच सालों में मैं दिन-रात हर घड़ी अपने भाग्य को कोसती रही हूँ। लेकिन अब यह पामर पशु मुझे छोड़कर, एक पंद्रह साल की कन्या को पत्नी बनाने को ले आया है। उसी के मुँह से मैंने सुना कि उसकी भलीमानस मालकिन ने उसे बाइबिल पढ़ना सिखाया है और वह अपनी बाइबिल यहाँ भी साथ लाई है - नरक में अपने साथ बाइबिल लेकर आई है!"

 इतना कहते-कहते कासी पागल की तरह हँस पड़ी।

 कासी की बातें सुनकर टॉम की आँखों के सामने अंधकार छा गया। वह हाथ जोड़कर बोल उठा - "हे नाथ, तुम कहाँ हो? क्या हम दीन-दुखियों की सुध एकदम ही बिसार दी? हे पिता, तुम्हारे सहायक हुए बिना निस्तार नहीं है।"

 कासी फिर सूखेपन से कहने लगी - "और तुम्हें क्या पड़ी है जो तुम इन अभागे कुत्तों-जैसे नीच गुलामों के लिए इतना कष्ट सहते हो! इन्हें जरा-सा मौका मिलना चाहिए, फिर ये कभी तुम्हारी बुराई करने से नहीं चूकेंगे। तुम इनमें से किसी को बेंत लगाने के लिए राजी नहीं हो; पर इन्हें मालिक का इशारा मिल जाए तो ये तुरंत तुम्हें पीट डालेंगे। ये एक-दूसरे के लिए बड़े निर्दयी हैं। इनके लिए तुम्हारे कष्ट उठाने का कोई नतीजा नहीं होगा।"

 टॉम बोला - "हाय! ये इतने निर्दयी कैसे हो गए? अगर मैं भी इन्हीं की तरह दूसरे साथियों को बेंत लगाने को तैयार हो जाऊँ, तो मैं भी धीरे-धीरे इन्हीं-जैसा हो जाऊँगा। नहीं-नहीं, मेम साहब, मैं सब कुछ खो चुका हूँ - पत्नी, पुत्र, कन्या, घर-द्वार सब जाता रहा। एक दयालु मालिक मिले थे, सो वे भी परलोक सिधार गए। यदि एक सप्ताह मौत उन्हें और छुट्टी दे देती तो मुझे वह गुलामी से मुक्त कर देते। इस संसार में मेरा अब कुछ नहीं रहा, कुछ नहीं रहा - मैं अपना सब-कुछ खो चुका हूँ। अब मैं अपना परलोक नहीं बिगाडूँगा। नहीं-नहीं, मैं कभी पाप नहीं कमाऊँगा।"

 कासी ने कहा - "यह नहीं हो सकता कि इन पापों को ईश्वर हमारे हिसाब में दर्ज करे। जब हमें मजबूर करके पाप कराया जाता है तो इसके लिए वह हमें अपराधी नहीं ठहराएगा। वह उन्हीं के सिर पाप का बोझा लादेगा, जो हमें दबाकर पाप कराते हैं।"

 टॉम ने कहा - "तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन हाथों से पाप करते-करते हमारा हृदय कलुषित हो जाएगा। अगर मैं सांबो जैसा कठोर हृदय और दुराचारी हो जाऊँ - इससे क्या कि मैं वैसा कैसे हुआ हूँ - मेरा हृदय एक बार भी दुराचारी बना कि फिर दुराचारी ही बना रहेगा। तुम्हारे तर्क से हृदय का दुराचारी होना रोका नहीं जा सकता, मुझे सबसे बड़ा डर इसी का है।"

 टॉम की बातें सुनकर कासी पागल की तरह उसकी ओर देखने लगी। लगा, जैसे सहसा किसी नए विचार ने उसके हृदय पर आघात किया हो। वह ठंडी साँस लेकर बोली - "हे भगवान, मैं भी कैसी पापिन हूँ! टॉम, तुमने सच्ची बात कही है। हाय-हाय-हाय!" … कहते-कहते गहरे मानसिक दुख से कातर होकर वह जमीन पर गिर पड़ी।

 इसके बाद दोनों कुछ देर तक चुप रहे। अंत में टॉम ने क्षीण स्वर में कहा - "मेम साहब कृपा करके…"

 कासी तुरंत उठ खड़ी हुई। उसका मुँह पहले-जैसा ही उदास था।

 टॉम ने कहा - "मुझे पीटते समय उन लोगों ने मेरा कोट इस कोने में फेंक दिया था। उसकी जेब में मेरी बाइबिल है। आपकी बड़ी कृपा होगी, यदि आप उसे उठा दें।"

 कासी कोने में गई और बाइबिल ले आई। टॉम ने बाइबिल को खोला और उसमें अपनी एक निशान-लगी हुई जगह दिखाते हुए कासी से कहा - "मेम साहब, यदि आप कृपा करके मुझे इसे पढ़कर सुना दें तो पानी पीकर मैं जितना सुखी हुआ हूँ, उससे अधिक सुखी होऊँगा।"

 कासी ने सूखे हृदय और अश्रद्धा से बाइबिल को हाथ में लेकर टॉम द्वारा निशान लगाई हुई जगह से आगे पढ़ना शुरू किया। वह पढ़ना-लिखना खूब जानती थी, अत: ईसा को सूली पर चढ़ाए जाने का हाल बड़ी स्पष्टता तथा मधुरता से पढ़ने लगी। पढ़ते हुए बार-बार उसका दिल काँपने लगा। बीच-बीच में वह रुकने लगी। दो क्षण ठहरकर सँभल जाती और फिर आगे पढ़ने लगती। अंत में जब वह पढ़ते-पढ़ते "पिता, इन्हें क्षमा करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं।" - इस वाक्य पर पहुँची तो पुस्तक बंद करके रोने लगी। टॉम भी रो रहा था।

 कुछ देर बाद टॉम ने कहा - "अगर हम लोग ईसा के दृष्टांत का अनुसरण कर सकते, तो क्या इस तरह दु:खों और कष्टों से हार मान लेते? ईसा का यह दृष्टांत तो हमें कठिनाइयों का सामना करना सिखलाता है। मेम साहब, मैं देखता हूँ कि आप खूब पढ़ी-लिखी हैं। हर बात में मुझसे बढ़-चढ़कर हैं, पर एक विषय में आपको इस गँवार टॉम से भी शिक्षा मिल सकती है। आपने कहा है कि ईश्वर गोरों के पक्ष में हम लोगों के विरुद्ध है, नहीं तो हमपर इतना अत्याचार होने पर भी वह इसका विचार क्यों नहीं करता? आपका यह संस्कार गलत बुनियाद पर टिका है। आप ध्यानपूर्वक देखें कि ईसा ने अपनी संतान के लिए कैसे-कैसे भारी कष्ट सहन किए। किस तरह ईसा ने दोनों की भाँति जीवन बिताया, और यहाँ तक कि पापियों ने अंत में उनके प्राण तक ले लिए। लेकिन क्या हममें से किसी की भी दशा उनकी-सी हुई है? निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि ईश्वर हम लोगों को भूले नहीं है। हमें यह नहीं सोच लेना चाहिए कि हमारे दु:ख और कष्ट में पड़े रहने से ईश्वर हमारा सहायक नहीं रहा। उस पर विश्वास रखकर यदि हम अपने को पापों से दूर रख सकें तो अंत में अवश्य हमें स्वर्ग मिलेगा। यह विपत्ति, यह दु:खों और कष्टों के पहाड़, हमें अग्नि में तपाए हुए सोने के समान शुद्ध करके, ईश्वर के साथ रहने योग्य बना रहे हैं।"

 कासी ने कहा - "पर जिस दुर्दशा में पड़ने से हमारे लिए पाप के रास्ते से हटकर चलना मुश्किल हो जाता है, वैसी दुर्दशा में वह हमें क्यों डालता है?"

 टॉम ने उत्तर दिया - "कैसा भी संकट क्यों न हो, मेरी समझ में, हम उसे पार कर सकते हैं। किसी भी दशा में पाप के मार्ग से हटकर चलना हमारे लिए असंभव नहीं है।"

 कासी बोली - "सो तो तुम्हारे सामने आएगा। वे कल फिर तुम्हें सताएँगे, तब क्या करोगे? मैं यहाँ की सब बातें जानती हूँ। तुम्हें वे जैसी-जैसी तकलीफें देंगे, उनका विचार-मात्र करने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी तकलीफें दे-देकर अंत में वे तुम्हें पापकर्म करने पर मजबूर करेंगे।"

 टॉम कुछ क्षण चुप रहा, फिर बोला - "हे भगवान! क्या तुम मेरी रक्षा नहीं करोगे? प्रभो, आप मेरे सहायक हो। देखना, तुम्हारा दास पीड़ा और अत्याचार के डर से कुमार्गी न होने पाए!"

 कासी फिर बोली - "मैं यहाँ पहले ही क्रंदन और कितनी प्रार्थनाएँ सुन चुकी हूँ; पर अंत में होता यही है कि लोगों का संकल्प टूट जाता है। ये पापी उन्हें अपने वश में लाने में सफल हो जाते हैं। देखो न, उधर एमेलिन जी-जान से चेष्टा कर रही है और इधर तुम भी पूरी ताकत से अपनी कोशिश में लगे हो, पर इसका नतीजा क्या होगा- या तो तुम्हें इनकी बात माननी पड़ेगी या तुम कुत्तों से नुचवाए जाओगे।"

 टॉम ने कहा - "अच्छा, तो मुझे मरना ही मंजूर है। उन्हें जी चाहे उतना सता लेने दो। एक-न-एक दिन मरना तो अवश्य ही है। उसे तो कोई टाल नहीं सकता। मार डालने के सिवा वे मेरा कुछ और बिगाड़ ही नहीं सकते। मरने पर इनके हाथों से मुक्त हो जाऊँगा। ईश्वर मेरे साथ है, वही मुझे इस परीक्षा में उत्तीर्ण करेगा।"

 कासी ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह अपनी आँखें गड़ाए पृथ्वी की ओर देखती रही।

 कुछ देर बाद वह आप-ही-आप बुदबुदाने लगी - "यह हो सकता है! पर जो अत्याचार और उत्पीड़न से अधीर होकर आगे बढ़ चुके हैं, उनके लिए तो कोई आशा ही नहीं है, कुछ भी नहीं है। अपवित्रता में पड़े-पड़े हमारा यहाँ तक पतन हो जाता है कि हमें अपने-आप से ही घृणा हो जाती है। मरने की इच्छा होती है, पर आत्महत्या करने का साहस नहीं होता। कोई आशा नहीं है! हाय-हाय! कोई आशा नहीं है! यह बालिका एमेलिन… उस समय ठीक मेरी भी यही उम्र थी।"

 बड़ी शीघ्रता से बोलते हुए, उसने टॉम से कहा - "तुम देखते हो, आज मैं क्या हो गई हूँ। मैं भी कभी ऐश्वर्य की गोद में पली थी। मुझे याद है कि मैं बचपन में गुड़िया की तरह सज-धजकर मौज से खेलती फिरती थी। सभी संगी-साथी और हमारे घर आनेवाले मेरे रूप की प्रशंसा किया करते थे। हमारे यहाँ एक बाग था। उसमें मैं अपने भाई-बहनों के साथ नारंगियों के पेड़ों के नीचे आँख-मिचौनी खेला करती थी। मुझे ग्यारह साल की उम्र में एक पाठशाला में भेजा गया। वहाँ मैंने गाना-बजाना, फ्रेंच भाषा तथा अन्य कितनी ही बातों की शिक्षा पाई। लेकिन पिता की मृत्यु के कारण, मुझे चौदह साल की उम्र में घर वापस आना पड़ा। उनकी मृत्यु अकस्मात् हो गई थी। उनके पीछे जब सारी संपत्ति का हिसाब लगा कर देखा गया, तब मालूम हुआ कि इतने से तो कर्ज भी मुश्किल से चुकेगा। लेनदारों ने जायदाद की सूची बनाते समय मेरा नाम भी उसमें चढ़ा दिया। मैं मोल ली हुई दासी के गर्भ से जन्मी थी, पर मेरे पिता सदा मुझे मन-ही-मन स्वतंत्र कर देने की इच्छा रखते थे। किंतु उन्होंने यह किया नहीं था, इससे मैं भी जायदाद की सूची में चढ़ाई गई। मैं सदा से जानती थी कि मैं कौन हूँ, पर इस संबंध में मैंने कभी अधिक नहीं सोचा। किसी को भी यह आशंका नहीं थी कि ऐसा हट्टा-कट्टा और तंदुरुस्त आदमी इतनी जल्दी मर जाएगा। मेरे पिता की देखते-देखते, हैजे से मृत्यु हो गई थी। उनकी अंत्येष्टि-क्रिया के दूसरे ही दिन उनकी विवाहिता स्त्री सब बाल-बच्चो को लेकर अपने पिता के घर चल दी और मुझे वहीं वकील के जिम्मे छोड़ दिया। उनके इस व्यव्हार से मैं बड़ी चकित हुई, पर इसका कारण मेरी समझ में नहीं आया। जिस वकील को अन्य सब चीजों के साथ मुझे सौंपा गया था, वह हमारे घर के पास-पड़ोस में ही रहता था और नित्य ही एक बार घर आया करता था। मुझसे उसका व्यव्हार बड़ी सज्जनता का था। एक दिन वह अपने साथ एक रूपवान युवक को लाया। वह युवक मुझे इतना सुंदर मालूम हुआ कि वैसा सुंदर आदमी मैंने इससे पहले नहीं देखा था। मैं उस संध्या को कभी नहीं भूलूँगी। मैं बाग में उसके साथ टहली थी। मैं रंज और दु:ख से अकेली मुर्दा-सी पड़ी रहती थी। उसने मेरे साथ ऐसी दया और सज्जनता का व्यव्हार किया कि मैं क्या कहूँ! उसने मुझसे कहा कि मदरसे में जाने से पहले उसने मुझे देखा था और तभी से मुझपर उसका प्रेम हो गया था। अब वह मेरा बंधु और रक्षक बनना चाहता था। असल बात यह थी, यद्यपि उसने मुझसे कही नहीं थी कि उसने मुझे दो हजार डालर में खरीद लिया था, और मैं उसकी संपत्ति थी, फिर भी इच्छा से मैंने उसे आत्म-समर्पण कर दिया, क्योंकि मैं उससे प्रेम करती थी। हाय! मेरा उस पर कितना प्रेम था! अब मेरा उस पर कितना प्रेम है, और जब तक मेरी साँस है तब तक रहेगा भी। वह कितना सुंदर, कितना उदार और कितने महान दिल का था। उसने मुझे दास-दासी, घोड़ा-गाड़ी, बाग-बगीचे, कपड़े-जेवर तथा अन्य प्रकार की सामग्रियों से भरे, एक बहुत सजे हुए मकान में रखा था। धन से जो भी चीजें मिल सकती हैं वे सब उसने मुझे दीं। पर मैं उन चीजों की कुछ भी कदर नहीं करती थी - मैं तो केवल उसी को चाहती थी और उसकी जरा-सी इच्छा पर सर्वस्व वार सकती थी।

 "मेरी केवल एक ही इच्छा थी - मैं चाहती थी कि वह मुझे शास्त्रविधि से ब्याह ले। मैं सोचती थी कि जब वह मुझसे इतना प्रेम करता है, तो विवाह करके वह मुझे अवश्य दासता की बेड़ियों से मुक्त कर देगा। पर जब भी मैं उसके सामने यह बात उठाती, वह कहता कि यह बात लोकाचार और देशाचार की दृष्टि में निषिद्ध होने के कारण असंभव है। वह मुझे समझाता - यदि हम दोनों एक-दूसरे से विश्वासघात न करें, तो, यहाँ न सही, ईश्वर के यहाँ हम दोनों विवाहित ही हैं। अगर यह सच है तो क्या मैं उसकी पत्नी न थी? क्या मैंने उससे कभी विश्वासघात किया था? क्या सात बरस तक मैं उसकी प्रकृति का अध्ययन नहीं करती रही? एक बार उसे मियादी बुखार हो गया था, उस समय लगातार इक्कीस दिन तक मैं उसकी सेवा करती रही। मैंने अकेले अपने हाथ से उसका सारा दवा-पानी और पथ्य आदि सब-कुछ किया। अच्छा होने पर वह मुझे अपनी मंगलकारिणी देवी कहा करता और कहता कि मैंने ही उसकी जान बचाई है। हमारी दो सुंदर संताने हुईं। पहला पुत्र था और पिता के नाम पर उसका नाम हेनरी रखा गया। उसकी सूरत-शक्ल ठीक अपने पिता-जैसी थी। सुंदर नेत्र, चौड़ा और खुला माथा, लटकते घुँघराले बाल सब उसके पिता-जैसे ही थे। रूप के साथ ही उसने अपने पिता का तेज और दूसरे गुण भी पाए थे। छोटी संतान एलिस नाम की कन्या थी, जिसे वह मुझसे मिलती हुई बताया करता था। उसे मुझपर और अपनी दोनों संतानों पर बड़ा गर्व था। वह मुझे और अपने दोनों बच्चो को कपड़ों और जेवरों से खूब सजा-सजाकर अपने साथ खुली गाड़ी पर हवा खिलाने ले जाता था। रास्ते में मिलनेवाले लोग मेरे और मेरी संतानों के रूप की जो प्रशंसा करते, उसे वह हवाखोरी से लौटकर मुझे रोज सुनाता था। वे कैसे सुख के दिन थे! मैं संसार में अपने को सबसे अधिक सुखी मानती थी। पर अचानक ही वह सुख मुझसे छिन गया। दु:ख की घड़ियाँ शुरू हो गईं। उसका एक चचेरा भाई, जिसे वह अपना बड़ा मित्र और संसार भर में एक ही मित्र समझता आया था, वहाँ आया। न जाने क्यों, उसे प्रथम बार देखते ही मुझे डर मालूम हुआ। मुझे मेरी आत्मा ने बताया कि यह हम लोगों पर मुसीबत ढाएगा। वह व्यक्ति हेनरी को रोज घुमाने ले जाता और घर लौटते प्राय: रात के दो-दो तीन बज जाते। इसके लिए मेरा एक शब्द कहने का साहस न होता, क्योंकि मैं जानती थी कि वह बड़ा अभिमानी है। इसी से मुझे बड़ा भय मालूम होता था। वह दुराचारी उसे जुओं के अड्डों की हवा खिलाने लगा और धीरे-धीरे उसे उसमें बिलकुल लिप्त कर दिया। उसका तो स्वाभाव था कि किसी चीज में फँस जाने के बाद उससे निकलना असंभव था। इसके बाद उसने उसका एक और अंग्रेज युवती से परिचय करा दिया। मैंने शीघ्र ही देख लिया कि उसका हृदय मेरे हाथ से निकल गया है। उसने मुझसे खुलकर कभी कहा तो नहीं, पर मैंने सब समझ-बूझ लिया। दिन-दिन मेरी छाती फटती जाती, पर मैं मुँह खोलकर कुछ न कह पाती। इधर जुए में हारते-हारते वह कर्जदार हो गया। तब उस पाजी ने उसे सलाह दी कि वह मुझे मेरी संतानों सहित बेचकर पहले ऋण चुकाए और बाद में उस अंग्रेज युवती से विवाह कर ले। और स्वयं आगे बढ़कर वह हम लोगों को खरीदने को तैयार हो गया। तब हेनरी ने दोनों संतोनों सहित मुझे उस सत्यानाशी के हाथ बेच डाला। एक दिन हेनरी ने मुझसे कहा कि किसी काम से दो-तीन हफ्तों के लिए उसे बाहर जाना है। उसने आज और दिनों की अपेक्षा अधिक प्रेम दिखाया और कहा कि मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा। पर मैं भुलावे में नहीं आई। मैंने समझ लिया कि सत्यनाश का समय आ पहुँचा है। मैं बोल न सकी, आँखों ने आँसू बहाए। उसने मुझे और बच्चो को बार-बार चूमा, फिर बाहर खड़े घोड़े पर सवार होकर चला गया। मैं एकटक उसकी ओर देखती रह गई। उसके आँखों से ओट होते ही मैं अचेत गिर पड़ी।"

 "उसके दूसरे दिन वह पाखंडी बटलर मेरे पास आया और बोला कि मैंने तुम्हें तुम्हारी दोनों संतानों सहित खरीद लिया है। उसने मुझे लिखे हुए कागज भी दिखलाए। मैंने उसे बार-बार शाप देकर कहा कि मैं जीते-जी कभी तेरे साथ नहीं रहूँगी।"

 "बटलर ने कहा, ठीक है! तुम्हारी जैसी इच्छा! पर देख लो। अगर नहीं मानती हो तो मैं तुम्हारी दोनों संतानों को ऐसी जगह बेच डालूँगा, जहाँ तुम फिर कभी उन्हें नहीं देख सकोगी।"

 "उसने आगे कहा कि मुझे मोल लेने के अभिप्राय से ही उसने जाल रचकर हेनरी को कर्जदार बनाया और एक दूसरी स्त्री के साथ उसे लगाकर मुझे बेचने की सलाह दी। वह पाखंडी कहने लगा - "मैं दो-चार बूँद आँसुओं अथवा तिरस्कारों से हटनेवाला नहीं हूँ। तुम मेरी मुट्ठी में हो। मेरी बात न मानने में तुम्हारी भलाई नहीं है।"

 मैंने देखा कि मेरे हाथ-पैर बँधे हैं - मेरी दोनों संतानें उसी के हाथ में थीं। मैं जब उसकी इच्छा के खिलाफ कुछ करती तो वह उन्हें बेच डालने की धमकी देता। संतानों की रक्षा के लिए मैं उसके वश में हो गई। पर वह कैसा घृणित जीवन था। हृदय में दिन-रात मर्मभेदी यंत्रणा की आग धधकती रहती थी। जिस नर-पशु को मैं रोम-रोम से घृणा करती और जिसे देखकर हर समय मेरी क्रोधाग्नि भभक उठती थी, उसी के पैरों में मुझे देह, आत्मा, और सर्वस्व की आहुति देनी पड़ी! हेनरी के सामने मैं सदा खुशी से पढ़ती, नाचती और गाती थी, पर इस व्यक्ति की खुशी के लिए मुझे जो कुछ करना पड़ता था वह मैं बड़े भय और अनिच्छा से करती थी। किंतु जिन दो संतानों के लिए मैं उस पापी के वश में हुई, उनसे वह बड़ा ही रूखा व्यव्हार करने लगा। मेरी कन्या बड़ी भयभीत थी, वह उसके डर से सदा सशंक रहती। पर मेरा पुत्र अपने पिता की भाँति तेजस्वी और स्वाधीनता-प्रिय था। वह सदा उस नीच के साथ लड़ता-झगड़ता रहता था। यह देखकर मैं सदा डरा करती और अपनी दोनों संतानों को सदा उससे दूर रखती। पर मेरे सब कुछ करते रहने पर भी उस निर्दयी ने मेरी दोनों प्रिय संतानों को बेच डाला। कब और किसके हाथ बेचा, यह मुझे मालूम नहीं हो सका। एक दिन वह पापी मुझे साथ लेकर घूमने गया, परंतु फिर घर लौटने पर मुझे अपनी संतान का मुँह देखने को नहीं मिला। पूछते ही उस नर-पिशाच न बिना किसी हिचक-संकोच के कहा कि उन दोनों को बेच दिया गया है। उसने मुझे रुपए-उनके खून के दाग-दिखाए। संतान की बिक्री की बात सुनकर मैं पागल-सी हो गई। मेरा भले-बुरे का ज्ञान जाता रहा, मैं उसे ईश्वर के नाम पर शाप देने लगी और उस पर तरह-तरह की गालियों की वर्षा करने लगी। मेरी यह दशा देखकर वह पाखंडी कुछ भयभीत हुआ। पर जिन्होंने षड़यंत्र, धोखादेही, चालाकी और जालसाजी को ही अपना अस्त्र बना रखा है, उनका हृदय कभी नहीं हारता, कभी नहीं पसीजता। ये लोग ऐसे जाल फैला करके ही लोगों को फुसलाने की चेष्टा करते हैं। वह धूर्त फिर मुझे कौशल द्वारा वशीभूत करने के लिए कहने लगा कि यदि मैं उसकी आज्ञा में नहीं रहूँगी तो मेरी संतानों को और भी बड़ी तकलीफें सहन करनी पड़ेंगी; लेकिन यदि मैं उसके आदेशों को मानकर चलूँगी तो वह कभी-कभी संतानों को देखने का अवसर देगा और वह फिर से खरीदकर भी ला सकता है। किसी स्त्री की संतान को कब्जे में कर लेने के बाद फिर उस स्त्री से आप चाहे जो करा सकते हैं। उस पाखंडी ने इस प्रकार भय दिखाकर और आशा बँधाकर फिर वश में कर लिया। इस प्रकार दो-तीन सप्ताह एक प्रकार से निर्विरोध बीते। फिर एक दिन जब मैं दंड-गृह के पास होकर घूमने जा रही थी, वहाँ भीड़ देखकर तथा एक बालक की चीख-पुकार सुनकर मैं कुछ दूर पर खड़ी हो कर देखने लगी। तत्काल उस घर में से मेरा हेनरी तीन-चार आदमियों को धक्के देकर चिल्लाता हुआ निकला और दौड़कर उसने मेरा कपड़ा पकड़ लिया। वे तीनों-चारों आदमी बड़ी बुरी गालियाँ बकते हुए उसे पकड़ने के लिए दौड़े आए। उनमें एक नर पिशाच-सा अंग्रेज था। वह कहने लगा कि मैं हैनरी को दंड-गृह को ले जा रहा था कि वह हाथ छुड़ाकर भाग आया है और अब उसे चौगुनी सजा दी जाएगी। उस आदमी का चेहरा मुझे जीवन भर न भूलेगा। वह हृदय-हीनता का साक्षात् अवतार लगता था। मैं उस समय अत्यंत विनयपूर्वक उन लोगों से पुत्र हेनरी को छोड़ देने के लिए कहने लगी, पर मेरी कातरता देखकर उलटे वे सब हँसने लगे। हेनरी बड़ी निराश दृष्टि से मेरी ओर देखकर रोने लगा। उसने मजबूती से मेरा कपड़ा पकड़ लिया। दंड-गृह के वे निर्दयी मनुष्य उसे खींच ले जाने के लिए मेरे कपड़े का भी कुछ अंश फाड़कर ले गए। जब उसे जबर्दस्ती ले जाया जाने लगा तो वह "माँ! माँ" कहकर चीखने लगा। मेरे पास एक भलामानस आदमी खड़ा था। मैंने उससे कहा, "मेरे पास जो कुछ रुपए हैं, उन्हें मैं तुम्हें देती हूँ। तुम कृपा करके किसी तरह मेरे पुत्र को बेंत की सजा से बचा लो।" वह सिर हिलाकर बोला, "नहीं-नहीं, जो आदमी इसे यहाँ लाया है, वह किसी तरह इसे माफ नहीं करेगा। वह कहता है कि यह कैसे भी काबू में नहीं आता, कोड़े लगवाने के सिवाय और कोई उपाय इसे काबू में लाने का नहीं है।" मैं दौड़ती-दौड़ती घर आई। पूरे रास्ते हेनरी का क्रंदन और उसकी चीख-पुकार मेरे कानों में आती रही। मैंने घर पहुँचते ही उस नराधम बटलर के कमरे में जाकर बहुत घिघियाते हुए, बड़ी विनय के साथ, हेनरी को इस संकट से बचाने के लिए कहा। वह पामर हँसते हुए बोला, "बहुत ठीक हुआ! हेनरी जैसी शरारतें करता है, वैसा ही नतीजा भी है। बिना कोड़ों के वह दुरुस्त होने का भी नहीं।"

 उस निष्ठुर नीच का यह हृदयहीन व्यव्हार देखकर और उसके मुँह से ऐसे मर्मबेधी वचन सुनकर मैं उन्मत्त-सी हो गई। मुझे लगा, मानो मेरे सिर पर वज्र गिरा हो। मेरा सिर घूम गया। मैंने भयंकर मूर्ति धारण की। इसके बाद क्या हुआ, सो मुझे याद नहीं। केवल इतना याद है कि सामने मेज पर पड़ी छुरी उठाकर मैं उसका सिर धड़ से जुदा कर देने को झपटी थी। इसके बाद मैं बेहोश हो गई और फिर कई दिन तक उसी दशा में पड़ी रही।

 जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि एक अपरिचित सुंदर कमरे में पड़ी हुई हूँ। एक काली स्त्री मेरी सेवा-सुश्रूषा में लगी हुई है। एक डाक्टर मुझे रोज देखने आता है। मेरे लिए बड़ी सावधानी बरती जा रही है। थोड़ी देर बाद मुझे मालूम हुआ कि वह पापी मुझे यहाँ बेचने के लिए छोड़कर चला गया है और यही कारण है कि ये लोग मेरे लिए इतना कष्ट उठा रहे हैं।

 अब मुझे जीने की कोई साध न थी। मैं हमेशा मौत को बुलाती थी, पर उसने मुझे अपनाया नहीं। अनिच्छा होते हुए भी मैं दिन-ब-दिन ठीक होने लगी और अंत में फिर पहले तरह चंगी हो गई।

 इसके बाद वहाँवाले मुझे अच्छे और कीमती वस्त्र पहनने को देते। कई धनी लोग वहाँ आते, मेरे पास आकर बैठते, मेरे शरीर की जाँच करते, मेरे साथ तरह-तरह की बातें करते और वहाँवालों से मेरे मूल्य को लेकर मोल-तोल करते। पर मैं ऐसी उदासीन बनी बैठी रहती कि कोई मुझे खरीदने का आग्रह न करता। यह देखकर वहाँवाले मुझे कोड़े लगाने को तैयार होते और हँसी-खुशी से बातें करने को कहते। अंत में एक दिन कप्तान स्टुअर्ट नाम का एक साहब आया। वह कुछ सहृदय जान पड़ा। उसने समझ लिया कि किसी गहरे शोक के कारण मेरी यह दशा हो गई है। उसने अनेक बार अकेले में भेंट करके मुझसे अपनी दु:खों की कहानी सुनाने के लिए कहा। आखिर उसने मुझे खरीद लिया और वचन दिया कि जहाँ तक होगा, वह मेरी दोनों संतानों की तलाश करके खरीदने की चेष्टा करेगा। हेनरी की तलाश करने पर उसे पता चला कि वह पर्ल नदी के पार किसी खेतिहर के हाथ बेच दिया गया था। इस प्रकार हेनरी को फिर से खरीदे जाने की आशा समाप्त हो गई। पुत्र के संबंध में मैंने वही अंतिम बात सुनी थी, तब से आज अठारह वर्ष हो गए, कुछ नहीं सुना। फिर वह मेरी कन्या की खोज में गया और देखा कि एक वृद्ध स्त्री उसका पालन कर रही है। स्टुअर्ट ने एक बड़ी रकम देकर उसे खरीदना चाहा, किंतु नर-पिशाच दुष्टात्मा बटलर जान गया कि मेरे ही लिए स्टुअर्ट मेरी कन्या को खरीद रहा है, अत: मुझे कष्ट देने की इच्छा से उसे स्टुअर्ट के हाथ नहीं बेचा। कप्तान स्टुअर्ट बहुत ही नरम दिल का था। वह मुझे साथ लेकर अपने कपास के खेतवाले मकान में जाकर रहने लगा। मैं भी वहाँ उसके साथ ही रहने लगी। एक वर्ष के भीतर ही स्टुअर्ट से मेरा एक लड़का पैदा हुआ। ओह! कैसा सुंदर था वह। मैं उसे कितना प्यार करती थी। देखने में वह ठीक हेनरी-जैसा था। परंतु मैंने पहले ही निश्चय कर लिया था कि संतान को पाल-पोसकर बड़ा नहीं करूँगी। पंद्रहवें दिन मैंने उस बालक को बार-बार चूमा, बार-बार उसकी ओर देखा, और तब उसे अफीम खिलाकर छाती से चिपटाकर सो गई। बालक चिरनिद्रा में डूब गया। दो ही घंटे बाद उसकी साँस बंद हो गई। सारी रात मैं उसे छाती से लगाए रही। फिर मैंने कई बार उसका मुँह चूमने के बाद कहा, "बेटा, मैंने तुझे इन पाखंडी गोरों के हाथों से मुक्त कर दिया। अब तुझे दासी के गर्भ से जन्म लेने के कारण कोई कष्ट न उठाना पड़ेगा।" इस तरह अपने ही हाथों अपने पुत्र के मारे जाने से मुझे कोई कष्ट न हुआ, बल्कि उलटे इस खयाल से कि मैंने उसे अत्याचार और उत्पीड़न से बचा दिया, मुझे कुछ संतोष ही हुआ। और यह अच्छा ही हुआ। गुलाम अपनी संतान को मौत के सिवा अधिक सुखदायी और शांतिप्रद दूसरी क्या चीज दे सकते हैं? कुछ दिनों के बाद कप्तान को हैजे की बीमारी हुई और वह मर गया। संसार की कैसी उलटी गति है! जो लोग जीना चाहते हैं, वे मर जाते हैं और मुझ-जैसे अभागे, जो बार-बार मौत माँगते हैं, जीवित रहते हैं।

 "स्टुअर्ट के मरने के बाद, उसके उत्तराधिकारियों ने मुझे बेच डाला। इस प्रकार मैं एक-एक करके कई आदमियों के हाथों में रही। उसके बाद यह नर-पिशाच मुझे खरीद लाया और पाँच बरस से मैं यहाँ हूँ।"

 यह कहते-कहते कासी का कंठ सूख गया, वह और आगे नहीं बोल सकी। मालूम होता है, लेग्री का ख्याल आते ही उसके हृदय में एक विशेष प्रकार का शोक, दु:ख तथा विद्वेष का भाव जाग उठा था।

 यह कहानी सुनाते समय कासी कभी टॉम को संबोधन करके कह रही थी और कभी अपने-आप ही, पागलों की तरह बोलती चली जा रही थी।

 कासी की जीवन-कहानी सुनते-सुनते टॉम अपने शारीरिक दु:ख को एकदम भूल गया। वह अपनी आँखों से एकटक कासी को देखे जा रहा था। उसने अपने हाथों का सहारा लिया हुआ था।

 कुछ देर ठहरने के बाद कासी ने फिर कहा - "टॉम तुम मुझसे कहते हो कि पृथ्वी पर परमेश्वर है और वह सब-कुछ देखता है। हो सकता है कि ईश्वर हो। मैं जब शिक्षाश्रम में थी, तब वहाँ की भगिनियाँ (सिस्टर्स) मुझसे कहा करती थीं कि एक दिन मनुष्यों के पाप और पुण्य का विचार होगा। पर क्या उस दिन गोरों को अपने पापों का नतीजा नहीं भोगना पड़ेगा? क्या वे अपने पापों के लिए दंड नहीं पाएँगे? उनकी समझ में हम लोगों को कोई कष्ट नहीं है। हम लोगों के दिलों में अपने बाल-बच्चो के लिए कुछ दु:ख नहीं होता है। हम लोगों की संतानों को भी कोई कष्ट नहीं होता है किंतु मुझे मालूम होता है कि केवल मेरे हृदय में शोक की जो आग दबी हुई है, उससे ही यह सारा देश भस्म हो सकता है। मैं ईश्वर से यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझ सहित यह सारा देश पृथ्वी के गर्भ में समा जाए, पृथ्वी से आग निकले और यह पूरा देश जलकर खाक हो जाए। वह विचार का दिन शीघ्र आए। जिन अत्याचारी अंग्रेजों ने मेरा और मेरी संतान का सत्यानाश किया है, जिन्होंने न केवल हमारे शरीरों बल्कि आत्माओं तक का निर्मम विनाश किया है, उन लोगों के विरुद्ध मैं राजाधिराज ईश्वर के सामने खड़ी होकर अपील करूँगी, उनसे विनयूपर्वक न्याय करने की प्रार्थना करूँगी।"

 "बचपन में धर्म पर मेरी विशेष भक्ति थी, ईश्वर पर मेरा प्रेम था और मैं उसकी उपासना करती थी। अब तो मेरे शरीर और आत्मा का बिलकुल पतन हो गया है। शैतान सदा मेरे सिर पर सवार रहता है। वह मुझे अपने हाथ से अत्याचारों और कठोरताओं का प्रतिफल देने को उकसाता है। इसी बीच में किसी दिन इस अत्याचार का फल दूँगी। इस नर-पिशाच लेग्री को ठिकाने लगाऊँगी। किसी रात्रि को मौका मिलते ही अपना मनोरथ सिद्ध करूँगी।"

 यह कहकर कासी अकस्मात खिल-खिलाकर हँस पड़ी, और तभी सहसा वह अचेत होकर गिर पड़ी। कुछ देर बाद वह होश में आई और सँभलकर उठ बैठी। फिर टॉम से बोली - "बोलो, तुम्हारे लिए और क्या करना होगा? और पानी दूँ?"

 जब कासी के मुँह से दया की बात निकली, तब तो वह साक्षात दया की देवी जान पड़ती; पर जब वह प्रतिहिंसा से उत्तेजित होती तो ठीक राक्षसी-जैसा रूप धारण कर लेती। इस संसार में सभी मनुष्यों का यही हाल है। वे कभी देव और कभी दानव का स्वाँग करते रहते हैं। जब दया, प्रेम और भक्ति की लहर चढ़ी रहती है तब मनुष्य देवता जान पड़ता है; पर द्वेष और प्रतिहिंसा का भाव आते ही वह दानव की शक्ल में बदल जाता है।

 टॉम ने पानी पिया और दयापूर्ण हृदय तथा व्याकुल नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा - "मेम साहब, मैं चाहता हूँ कि आप उस ईश्वर की शरण लें जो दु:खी, पापी, ज्ञानी, सबको बिना भेद-भाव के शांति का अमृत प्रदान करता है।"

 कासी ने कहा - "टॉम, बताओ, वह ईश्वर कहाँ है? कौन है? मैं उसके पास जाना चाहती हूँ।"

 टॉम बोला - "उसके संबंध में अभी आपने मेरे सामने पढ़ा है।"

 कासी ने कहा - "बचपन में कभी मैंने उसका सिंहासन पर बैठे हुए चित्र देखा था, पर वह यहाँ नहीं है। यहाँ पाप और अत्याचार के सिवा और कुछ नहीं दीख पड़ता है।"

 इतना कहकर कासी छाती पीटने लगी। टॉम ने फिर कुछ कहना चाहा, परंतु कासी ने उसे रोककर कहा - "बस, अब सो जाओ, बातें न करो!"

 यह कहकर उसने पानी का पात्र उसके पास रखा और फिर उसके आराम का इंतजाम करके उस कोठरी से चली गई।

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