Most successful Nari Adalat in Gujarat: Mahila Samakhya Yojana - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

गुजरात में सबसे सफ़ल नारी अदालत : महिला सामाख्या योजना - 2

एपीसोड -2

पुरुषों के विरोध के उत्तर में वे कहतीं हैं "ज़ाहिर है पुरानी मान्यताएं टूट रहीं हैं. पहले पंचायत में स्वयं निर्णय लेकर सरपंच ग्राम पंचायत की सद्स्यायों के दस्तखत करवाने उनके घर भेज देते थे. अब वे कहतीं हैं हमें मीटिंग में बुलवाकर हमारी भी राय लो. पंद्रह अगस्त को पुरुषों ने विरोध किया कि स्त्री सरपंच झंडा आरोहण नहीं करेगी लेकिन वह अपना अधिकार क्यों छोड़ती ? बहुत से गाँवों में ग्राम सभा नहीं होती थी, वह महिलायों ने शुरू करवाई. महिलायों के कारण कागज़ की जगह सच में कम हो रहा है. "

मजदूर औरतों को पुरुष मजदूर से कम मजदूरी मिलती है. इस समस्या व बलात्कार के केस का भी निदान हो रहा है हर स्त्री को उसकी क्षमता के अनुसार प्रगति करने का अवसर दिया जाता है. महिला सामाख्या की जब कोई योजना बनती है तो बहुमत से ही बनायीं जाती है, . कुछ और उपलब्धियां हैं ;

. सहयोगिनों को मुख्यालय से प्रशिक्षण दिया जाता है, वे स्थानीय नेतायों, ब्लोक, पुलिस विभाग व जिले प्रशासन के बीच नेटवर्क बनातीं हैं. 

. सहयोगिने व संघ की सदस्य ग्रामीण स्त्रियों को में सन का काम यानि झोंपड़ी बनाने, हेंड पम्प ठीक करने केलिए प्रशिक्षण देतीं हैं. इन्हें बताया जाता है कि ये बच्चों की, पानी की, जानवरों की समस्या कैसे हल करें. 

. शिक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी शिविर, ट्रिप, में ला व प्रशिक्षण के आयोजन में बच्चे व किशोर भी हिस्सा लेतें हैं. 

इस जाग्रति के कुछ और परिणाम आ रहे है -राधन पुर गाँव के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, कारण ये था वहां का शिक्षक नशे में धुत रहता था, कुछ नहीं पढ़ाता था. संघ की सद्स्यायों ने तालुका कार्यालय व प्राथमिक शिक्षा विभाग में शिकायत करके उसका स्थानांतर करवा दिया. बच्चे नए टीचर से पड़ पढ़ने जाने लगे. 

सन १९९३-१९९४ तक बिहार के मिनी चम्बल यानि चम्पारन में किसी भी औरत का बलात्कार कर दिया जाता था किन्तु महिला सामाख्या के काम करने के पांच वर्ष में स्थिति नियंत्रण में आ गयी. इसे संचालित कर रहीं थीं नाजिरा खातून जिन्होंने स्वयं सेविकायों की फौज को प्रशिक्षण दिया व वापिस गावों में भेज दिया. तब के एक पुलिस अधिकारी के बयान कम चौकाने वाले नहीं थे, "पुलिस तो कानून से बंधी होती है. महिला सामाख्या हमारा या जिलाधीश का घिराव करतीं हैं तो काम जल्दी हो जाता है. "

सुदूर गाँवों में रहने वाली कुछ स्त्रियों के अनुभव समान हैं, "पहले जब हमने संघ की सदस्यता ली तो हमारे पति ने हमें पीट दिया लेकिन जब उन्हें पता लगा कि हम अच्छा काम कर रहीं हैं तो वो हमारी इज्ज़त करने लगे. "

आज स्थिति ये है कि महिला सामाख्या कि कार्यकर्तायों के साथ आंगनवाडी, दूसरी संस्थायों कि महिलाएं इसे सफ़ल  बनाने में एकजुट हो गयीं हैं. गाँवों की महिलायों में अधिक आत्मविश्वास आ रहा है. ये सरकारी विभाग से सहायता लेने में हिचकिचाती नहीं हैं. वेरावल शहर की अनीता को उसके पति ने सताना शुरू कर दिया क्योंकि उसके बच्चा नहीं हो रहा था, उसने बारह वर्ष कष्ट में गुज़ारे तब जाकर नारी अदालत में शिकायत की. उसका पति जब नारी अदालत के बुलाने पर नहीं आया तो इसकी सदस्याएं पुलिस वेन में अनीता, दो पुलिस वालों को लेकर उसके गाँव गयीं व ग्राम पंचायत की सहायता से अनीता को तलाक दिलवाने में सफ़ल  रहीं. 

सन २०११ में मैं अहमदाबाद के महिला सामाख्या के मुख्यालय गई थी सर्वे करने।

"पहले गुजरात में सिर्फ़ चार तालुका में होती थी, अब ये ग्यारह तालुका में होतीं हैं। आज की ये अदालतें अधिक सरल व पारदर्शी हो गयीं हैं , "बता रहीं हैं गुजरात के महिला सामाख्या के अहमदाबाद के मुख्यालय की निदेशक तृप्ति शेठ , "सरकार व एन. जी. ओ. ज की हिस्सेदारी बढ़ी है. जाति भेदभाव कम हुआ है. पहले ये महीने में एक बार होती थी अब इसकी उपयोगिता को देखकर हम इसे महीने में दो बार आयोजित करतें हैं. `

"गावों में फैले इस नेटवर्क से महिलाएं इक्कीस वर्षों में काफी जागरूक बनीं होंगी ?"

"हाँ, उनमें अधिक आत्मविश्वास आगया है. समाज में उनका सम्मान बड़ा है. "

"कभी वे राजनितिक नेतायों के प्रभाव में तो नहीं आ जातीं?"

"इसलिए ऐसा नहीं होता क्योंकि उन्हें राजनितिक पार्टी से जुड़ने की इज़ाज़त नहीं है. "

कभी कभी करिश्मा भी हो जाता है. रामदी गाँव की चंपा बेन को उसके पति ने दो बच्चों सहित घर से बाहर कर दिया था. एक दिन वह लीगल कमेटी की सुधा बेन के संपर्क में आई तो उन्होंने राजकोट के जमकादा गाँव में रजिस्ट्रेशन करवाया. नारी अदालत की बहिनों ने जाति पंचायत, के सदस्यों, पुलिस को बुलवाकर समाधान किया. तब चंपा बेन को शांति मिली. मंजुला बेन को तो तीन बच्चों के साथ बाहर निकला था. इस अदालत के कारण ही उसका पति उसे ठीक से रखने लगा. 

मेरे ज़ेहन में डभोई की देखी अदालत की औरतों की गला फाड़ती आवाज़ अक्सर गूंजती रहती है लेकिन आज की इन अदालतों के बारे में बता रहीं हैं जिला सुरेन्द्र नगर. के ब्लोक मूली की प्रोग्राम को- ऑर्डिनेटर वर्षा भट्ट, एम. ए., बी. एड. जिन्होंने पांच वर्ष तक अहमदबाद की `चेतना संस्था के साथ काम किया, अब सत्रह सालों से महिला सामाख्या से जुडी हुयी हैं, "जब आप डभोई गयीं थीं तब नारी अदालत आरम्भ हुए डेड़ वर्ष ही हुआ था, तब ये शैशवकाल में थी. इसलिए बेनें अनुशासनहीन होकर चीख चीख कर बात करतीं थीं. तबसे स्त्रियाँ अधिक शिक्षित होने लगीं हैं हम लोगों के प्रशिक्षण देने के कारण अब दोनों पक्ष धीरज से बात करतें हैं. "

" सत्रह वर्षों में आपने और क्या बदलाव देखा है ?"

"आज की स्त्री अपने ऊपर या किसी और के ऊपर हुयी हिंसा के विरुद्ध जाति, उम्र, धर्म, शिक्षा क्षेत्रवाद व राजनीति से ऊपर उठकर एकजुट होकर मुकाबला कर रही है. गाँवों की महिलाएं महिला सम्बन्धी मुद्दों के लिए संवेदनशील हो रहीं है, पहले तो समझ ही नहीं पातीं थीं कि उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. "

तृप्ति शेठ बतातीं हैं, "हमने नारी अदालतों की जानकारी की एक सी. डी. अंग्रेजी व गुजरती में बनवा ली है. "

"इसकी उपयोगिता क्या है ?"

"इससे महिलाएं सीख सकतीं हैं कि नारी अदालत कैसे बनायीं जाये, उसके लिए क्या स्टेशनरी चाहिए दूसरा इसे पड़कर नारी अदालतों को और मज़बूत किया जाये. तीसरे इनके बारे में मीडिया को जानकारी देने में सुविधा रहती है. विदेशी भी इनके अध्धयन के लिए आतें रहतें हैं. "

नारी अदालतों की सदस्य एक दूसरे के क्षेत्र में जाकर नारी अदालत देखकर अपने अनुभवों में सम्रद्धि करतीं हैं, गाँवों में ये सह्रदय नारियों की श्रंखला भी बन गयी है. जब मोरबी की नारी अदालत की एक सदस्य का बेटा बीमार पड़ा तो उसके पास बेटे के इलाज के लिए रूपये नहीं थे. तब सभी सदस्यायों ने रूपये इकठ्ठे करके उसका इलाज करवाया. 

मैं तभी अपनी बहुचर्चित कहानी `रिले रेस ` में लिख पाई थी कि शहर में स्त्री संस्थाएं शहरी लोहे जैसी पुरुष व्यवस्था के सामने कसमसाकर रह जातीं हैं। कला प्रदर्शनी करके, नुक्क्ड़ नाटक करके या `हाय, `हाय ` करके रह जातीं हैं जबकि महिला सामाख्या रूट लेवल पर गाँवों में न्याय लेकर मानतीं हैं. मैंने अक्सर गाँव की दूसरे प्रदेशों की महिला सरपंच की ऐसी कहानियां पढ़ीं है जो सिर्फ़ रबर स्टेम्प होतीं हैं जबकि मेरी कहानी `जगत बा `की अंगूठा छाप सरपंच अपनी कर्मठता से गाँव को आदर्श गाँव का पुरस्कार दिलवाती है. 

उत्तराखंड में नैनीताल जिले में थोड़ी बहुत नारी अदालत की कार्यवाही चल रही है. इक्कीस वर्ष में महिला सामाख्या के स्त्रियों को दिए आत्मविश्वास को देहरादून की महिला सामाख्या की को-ऑर्डिनेटर गीता गेरोला के देहरादून की पत्रिका `लोक गंगा` में प्रकाशित लेख की इन पंक्तियों से पहचाना जा सकता है,, " स्त्रियाँ मर्दवादी समाज के देह विमर्श की आड़ में छिपे षणयंत्र को अच्छी तरह पहचान गयीं हैं. देशकाल और परिस्थिति के अनुसार स्त्री की यौनिकिता को परिभाषित करने की आवश्यकता है और ये काम स्त्रियाँ ही करेंगी. आज के युग में स्त्री की यौनिकिता. उसके राजनितिक. सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को एक दूसरे से भिन्न करके नहीं देखना चाहिए, "

कहाँ स्त्री की ऐसी सोच कहाँ झारखण्ड से आयीं ऐसी रपट कि प्रति वर्ष गाँवों में २०. ००० के लगभग औरतें `डाकिन` करार कर दी जातीं है ये सब इसलिए होता है कि वे कुछ गुंडों की हवास का शिकार नहीं बनना चाहतीं या उनके बीमार पति को मारकर उनकी सम्पति हडपने के लिए ये प्रपंच रचा जाता है. उन्हें पानी में डुबोकर, ज़मीन पर घसीटकर मारते हुए गाँव में घुमाकर व अन्य तरह से प्रताड़ित कर कहने पर मजबूर कर दिया जाता है कि वे डाकिन हैं. प्रति वर्ष १००० औरतें इस प्रताड़ना से मर भी जातीं हैं. इन बातों को जानकर लगता है गाँव की स्त्रियों को सुरक्षित करने के लिए जाने कितनी नारी अदालतों की ज़रुरत है, 

गुजरात जैसा नारी अदालत का मॉडल होते हुए भी दुःख ये है कि अन्य प्रदेशों की महिला सामाख्या अपने यहाँ नारी अदालत संचालित नहीं कर पाईं हैं। महिला सामाख्या, अहमदाबाद की वर्तमान निदेशक अनुराधा भट्ट के अनुसार, "गुजरात में नारी अदालत इतनी सफ़ल हुईं हैं कि अब नारी अदालत महिला सामाख्या नहीं महिला आयोग संचालित करता है।"

लेकिन सन २०१२ में अफ़वाह थी की ये योजना बंद होने वाली है। अब भी भट्ट बतातीं हैं कि शायद सन २०२३ में ये बंद हो जायें लेकिन मुझे स्त्री समस्यायों की ख़त्म न होने वाली श्रंखला को देखकर नहीं लगता सरकार इसे बंद करेगी।

-----------------------------------------------------------------

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail. ---rediffmail. com