BEMEL - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

बेमेल - 15

...“तुम निफिक़्र होकर जाओ मां! मैं सब सम्भाल लुंगी।” – अभिलाषा ने कहा और घर आए बच्चे संग श्यामा घर से बाहर निकल गयी।
उधर अपने कमरे में लेटा मनोहर खुद में ही बड़बड़ा रहा था। उसकी आवाज सुन विजेंद्र कमरे में दाखिल हुआ।
“यूं अकेले में क्या बड़बड़ा रहे हैं बाबूजी?”- विजेंद्र ने पुछा फिर वहीं बैठ मनोहर के साथ काफी देर तक बतियाता रहा।
घंटे भर बाद जब अभिलाषा ने उन्हे नाश्ते के लिए आवाज लगाया तो दोनों कमरे से बाहर आए।
“ठीक है अभिलाषा...! मैं थोड़ा गांव का चक्कर लगाकर आता हूँ। वैसे भी दिनभर घर में बैठे- बैठे मक्खियां ही तो मारता रहुंगा! थोड़ा बाहर निकलुंगा तो यार-दोस्तों से मुलाकात भी हो जाएगी! बहुत दिन हो गए सबसे मिले हुए!” – विजेंद्र ने कहा और संदूक से खुद के लिए कपड़े तलाशने लगा। थोड़ी ही देर में मटके रंग के कुर्ते-पायजामे में खड़ा वह खुब जंच रहा था।
“ह्म्म....इन कपड़ों में देखकर कोई भी कहेगा कि गांव के पाहुना जा रहे हैं! पर जरा ध्यान से... पूरे गांव में हैजा फैला है! सम्भाल कर जाना और जल्दी वापस आना!”- विजेंद्र के कुर्ते की ऊपरी बटन लगाते हुए अभिलाषा ने मुस्कुराकर कहा और उसके सीने से लग गई। जल्दी आने को बोल विजेंद्र घर से बाहर निकल गया।
काफी देर तक विजेंद्र गांव की गलियों में यहाँ से वहां फिरता रहा। हर तरफ हैजे की विभीषिका ने गांव की रौनक क्षीण कर दी थी। उन्ही गलियों से होता हुआ अपने एक पूराने मित्र के घर पहुंचा तो उसके पैरो तले जमीन ही खिसक गई जब उसका सामना अपने मित्र की बेवा पत्नी से हुआ और उसने रो-रोकर विजेंद्र को सारा हाल बताया कि कैसे हैजे ने उसके पति को अपना ग्रास बना लिया। बड़ी मुश्किल से उसे शांत कर फिर वह बुझे मन से आगे बढ़ा। कुछ दूर चलने के बाद वह गांव की सीमा पर खड़ा था जहाँ उसकी नज़र मेडिकल कैम्प पर पड़ी जो हैजे के मरीजों की इलाज के लिए लगाए गए थे। कुछ सोचकर वह आगे बढ़ा और उसके भीतर दाखिल हुआ।
“जी कहिए, क्या काम है? किसी से मिलना है?”- कैम्प में मौजुद एक डॉक्टर ने विजेंद्र से पुछा।
“ज ज जी, मिलना तो किसी से नहीं है डॉक्टर साब! पर ये सब हो क्या रहा है इस गांव में? एक के बाद एक गांववालों की मौत होती ही जा रही है। हर रोज कभी किसी का पति तो कभी कोई घर का चिराग अपनी आंखे मूंद रहा है। आखिर ये सिलसिला थमने का नाम क्यूं नहीं ले रहा?? आपलोग कुछ करते क्यूं नहीं, डॉक्टर साब??” - विजेंद्र ने कहा जो अभी भी अपने दोस्त के मौत की खबर से भावूक था। उसकी निगाह कैम्प के भीतर हर तरफ हैजे से पिड़ित मरीजों पर टिकी थी जिन्हे देखने से ही जान पड़ता था कि उनका बचना मुश्किल है और जिनकी सेवा में कुछ गिनती की सेविकाएं दिनरात जुटी थी।
“इसके जिम्मेदार हम नहीं, बल्कि इस गांव के लोग और आप जैसे नौजवान पुरुष हैं!”- डॉक्टर ने गम्भीर होते हुए कहा।
“जी? ये कैसी बातें कर रहे हैं, डॉक्टर साब!!”
“मैं बिल्कुल सही कह रहा हूँ! कई बार गांववालो को समझाने का प्रयास किया कि अगर वे चाहें तो हैजे की रोकथाम पूरी तरीके से सम्भव है। पर गांव के लोग अपनी बुरी आदतों के गुलाम बनकर रहे गए हैं! मेरी बात सुनने और मानने को कोई तैयार नहीं! दूषित जल पीने, गंदा और बासी खाना खाने, हैजा होने के बाद भी इलाज के बदले झाड़फूंक में विश्वास रखने का अंजाम मौत नहीं तो और क्या होगा?? और तो और मैंने खुद, इस गांव के नौजवानों से कितनी मिन्नते की कि वे आगे आकर हैजे से जंग में हमारी मदद करें। गांववालों के बीच जागरुकता फैलाए जिससे ये बीमारी महामारी का शक्ल लेने से पहले ही दम तोड़ दे। पर कोई मेरी सुने तब न! बहुत अफसोस की बात है कि एक भी मर्द हमारी मदद के आगे नहीं आया! यहाँ तो सब यही सोचते हैं कि बीमारी और उससे लड़ने का काम केवल डॉक्टर और नर्सों का है! पर जब बीमारी इतनी तेजी से पांव पसार रही है तो आपसब की मदद के बिना हम भी लाचार है। खैर....अब हम सबसे जितना बन पड़ेगा, अपनी तरफ से हर-सम्भव प्रयास करेंगे! आगे भगवान मालिक!”- डॉक्टर ने विजेंद्र से कहा।
“पर डॉक्टर साब... गांववाले तो अपने घर के मर्दों को भेजने से इसलिए डरते होंगे कि कहीं ये बीमारी उन्हे भी न निगल ले!”- डॉक्टर की बातों पर विजेंद्र ने अपना अंदेशा ज़ाहिर करते हुए कहा।
“यही बात तो मैं कबसे गांववालो को समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि ये बीमारी छूने से नहीं बल्कि दूषित जल का सेवन करने और गंदगी से फैलता है! सबको समझा- समझाकर थक गया कि यदि गांव का कोई मर्द आगे आकर सारी बातों का प्रचार-प्रसार करें तो गांववाले शायद उनकी बातों पर जल्दी यकीन कर लें! पर आपलोगों को क्या!! कोई जीए या मरे! सबको केवल अपनी ही पड़ी है!”- डॉक्टर ने कहा और कैम्प के भीतर इलाज के लिए लाए गए हैजे के एक मरीज की जांच करने में व्यस्त हो गया।
डॉक्टर की कही बातें विजेंद्र के मन में काफी भीतर तक उतरी थी। फिर उन्होने सही ही तो कहा था कि गांव में हो रही मौत का एक बड़ा कारण गांववालों की लापरवाही भी तो थी और इसका जीता-जागता उदाहरण अभी कुछ ही देर पहले उसने दिवंगत मित्र के घर पर देखा था जहाँ के लोग तालाब से लाए दुषित जल का सेवन कर रहे थे।
“क्या हुआ? आप गए नहीं अभी तक!”- मरीज से निपटकर डॉक्टर ने विजेंद्र की तरफ देखकर पुछा। पर विजेंद्र ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी निगाहें तो बस कैम्प में जीवन और मृत्यू की जंग लड़ रहे मरीजों पर टिकी थी।
“क्या आप इस बीमारी की रोकथाम और इसकी जानकारी के प्रचार-प्रसार में हमारी मदद करेंगे?” – डॉक्टर ने विजेंद्र से पुछा। पर उनके अचानक से पुछे इस सवाल का जवाब देते विजेंद्र से न बना और वह चुपचाप खड़ा रहा।
“आप जाएं और हमें अपना काम करने दें! कम से कम इतना करें कि मैने जो बातें बतायी हैं उनका ध्यान रखें ताकि आपका और आपके परिवारवालों का जीवन सुरक्षित रहें! अब जाएं यहाँ से आप!”- डॉक्टर ने कहा और विजेंद्र अपना सिर झुंकाए लाचार-सा कैम्प से बाहर निकल आया। पर डॉक्टर की कही बातें उसके दिमाग में कौंधती रही।
“...और विजेंद्र बेटा, कैसे हो? बहुत दिनों बाद दिखे!”- तालाब के तट पर कपड़े धोती एक स्त्री ने कहा जो विजेंद्र के मित्र की मां थी।
“अच्छा हूँ चाची!” – विजेंद्र ने जवाब में कहा। पर उसकी नज़रें तालाब के तट पर टिकी थी जहाँ से गांव की कुछ औरतें अपने-अपने घड़े में पीने के लिए जल भर रही थी। जबकि उसी तालाब के दूसरी छोर पर कुछ बच्चे कूद-कूदकर नहा रहे थे। विजेंद्र को याद आया कि कैम्प के डॉक्टर ने उससे क्या कहा था जिसका पालन ये गांववाले बिल्कुल नहीं कर रहे थे।
तभी अपने सिर पर पानी का मटका डाले विमला काकी पास से गुजरी जिसे देख विजेद्र से रहा न गया। “काकी, इस तालाब का पानी कितना गंदा है!! इसे पीने से हैजा होने का खतरा है। फिर यहीं पास ही तो चापाकल लगा है। आप इससे जल क्यूं नहीं भरती?”- विजेंद्र ने कहा और पास ही लगे चापानल की तरफ इशारा किया जिसका इस्तेमाल करते इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे नहीं तो अधिकतर औरतें तालाब का साफ दिखने वाला दूषित जल ही भरकर ले जा रही थी।...

क्रमशः....