Achhut Kanya - Part 6 books and stories free download online pdf in Hindi

अछूत कन्या - भाग ६  

यमुना ने तो कुएँ में यह सोचकर छलांग लगाई थी कि उसके इस बलिदान से एक ऐसी क्रांति आएगी जो सवर्ण और छोटी जाति सब को एक कर देगी। लोगों के दिल बदल जाएंगे; लेकिन उसका यह बलिदान कोई क्रांति ना ला सका। अभी भी महिलाओं को सर पर मटकी लाते देखकर उसकी आत्मा भी रोती होगी। सागर और नर्मदा अब तक थक चुके थे। उन्हें इस गाँव  से नफ़रत हो चुकी थी। गंगा-अमृत को देखते ही उन्हें यमुना दौड़ती हुई उस कुएँ में छलांग लगाती दिख जाती। उसकी पायल की मधुर ध्वनि उनके कानों में जाती तो आँखों से आँसू बनकर बाहर निकल आती। रातों को सपनों में भी उन्हें वही दृश्य दिखाई देता। इन्हीं सब कारणों से उन्होंने वीरपुर गाँव को ही छोड़ दिया और एक शहर की तरफ निकल पड़े। यहाँ उनके जीवन का वह अध्याय समाप्त हो गया और अब एक नए अध्याय की शुरुआत होने वाली थी। 

गाँव से दूर एक शहर में जाकर सागर ने नर्मदा से कहा, “नर्मदा मुझे लगता है हमें यहाँ पर ही रुक जाना चाहिए।”

यमुना की यादों में खोई नर्मदा ने कहा, “क्या फ़र्क़ पड़ता है गंगा के बाबू, कहीं भी रहो। दो वक़्त की रोटी मिल जाए बस इतना ही काफ़ी है।” 

“क्यों नर्मदा, क्या हमारी गंगा को हमें पढ़ाना लिखाना नहीं चाहिए?”

नर्मदा शांत थी, अपने आप को नई जगह पर ढालने की कोशिश कर रही थी।

सागर ने कहा, “चलो नर्मदा पास में कुछ झुग्गी झोपड़ी दिखाई दे रही हैं। अपन यहाँ पर ही अपने रहने की व्यवस्था कर लेते हैं। मैं अपनी दुकान का पूरा सामान साथ लाया हूँ, कल से ही काम शुरू कर दूंगा।”

“मैं भी घर का कामकाज ढूँढने की कोशिश करूंगी ताकि तुम्हारा हाथ बटा सकूं। अपने जोड़े हुए पैसों से सागर ने कुछ टीन खरीद कर एक खोली बनवा ली और अपना काम भी शुरू कर दिया। नर्मदा ने आसपास की झोपड़ी में रहने वाली महिलाओं से दोस्ती कर ली वह काम की तलाश में हर रोज़ इधर उधर भटकती पर सभी के घरों में पहले से ही काम करने के लिए कोई ना कोई बाई होती ही थी।”

देखते-देखते एक माह ऐसे ही गुजर गया लेकिन इतने दिनों में नर्मदा यह समझ गई थी कि यहाँ शहर में कोई उन्हें अछूत नहीं समझता। एक दिन शाम को काम ढूँढने के बाद वह निराश होकर सागर के पास आकर बैठ गई। सागर किसी के जूते पोलिश करके चमका रहा था। गंगा भी सागर के पास बैठकर अपने पिता को काम करता हुआ देख रही थी।

नर्मदा को उदास देख कर सागर ने पूछा, “क्या हुआ नर्मदा, आज भी कहीं काम नहीं मिला?”

“हाँ काम तो नहीं मिला गंगा के बापू लेकिन एक सुकून की बात यह है कि यहाँ काम पर रखने से पहले कोई भी जाति बिरादरी नहीं पूछता। बस काम इसलिए नहीं मिल रहा कि कहीं कोई खाली स्थान ही नहीं है।”

“हाँ तुम ठीक कह रही हो। किसी के घर यदि काम वाली नहीं होगी उसी घर में काम मिलेगा। तब तक धैर्य रखना होगा नर्मदा। इस तरह निराश मत हो। मैं हूँ ना, मैं कमा रहा हूँ, तुम ज़्यादा चिंता मत करो।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः