BEMEL - 18 books and stories free download online pdf in Hindi

बेमेल - 18

.....श्यामा जो अबतक बिल्कुल चुप थी, ननद की बातों ने उसके शरीर में मानो आग लगा डाला।
“क्यूं जाउंगी इस गांव से?? हाँ!! होते कौन हो तुम मुझे इस गांव से निकालने वाले! कहीं के जमींदार हो? जज-कलक्टर हो? हो क्या तुम!! मैं भी देखती हूँ कौन निकालता है मुझे इस गांव से! कान खोलकर सुन लो तुम सबके सब... मैं कहीं नहीं जाने वाली, कहीं नहीं!!! ...और जाओगे तो तुमसब! चलो निकलो मेरे घर से! भागो यहाँ से.... आएं है बड़ा जमींदारी दिखाने! मनोहर को पागल करार कर सारी धन-सम्पत्ति पर कुंडली जमा बैठे और मुझे आए हैं सही-गलत का पाठ पढ़ाने! आजतक मैं चुप थी क्युंकि ये हमारे परिवार का मामला था! बेइज्जती और मान-प्रतिष्ठा का इतना ही ख्याल है तो जाकर पुछो जरा अपने पति से? जब मुझ अकेली को देखकर उनके भूखे अरमान जागने लगे थे और बहाने से मुझे कमरे में बुलाया था! कहाँ गई थी तुम सबकी जमींदारी!”- श्यामा ने जब गला फाड़कर कहा तो ननद- ननदोईयों की हिम्मत न हुई कि कोई एक शब्द भी बोलता।
ननदों को भी आज समझ आया था कि क्यूं श्यामा ने हवेली आना छोड़ दिया। हालांकि अपने मुंह से उन्होने कुछ न कहा और अपने पतियों संग हवेली वापस लौट आयी।
अपनी बेटी की गोद में श्यामा फुट- फुटकर बिलखने लगी। उससे पाप हुआ था, जिसकी कोई माफी नहीं थी। अपने-आप से भी नज़रें मिलाने लायक नहीं बची थी वह! बड़ी मुश्किल से सुलोचना ने फिर श्यामा को शांत किया। उसे भी सारी बातें समझ में आ चुकी थी। पर यह जीवन है, हुई गलतियां सुधारी नहीं जा सकती। उसपर पश्चाताप के आंसू बहाने के सिवाय मनुष्य के पास दूसरा और कोई उपाय नहीं होता!
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“डॉक्टर साब, मैं हैजे से पीड़ित लोगों की सेवा करना चाहता हूँ। आप जो भी कहिएगा, मैं करने को तैयार हूँ।” – डॉक्टर के सामने खड़े विजेंद्र ने मेडिकल कैम्प में प्रवेश करते हुए कहा।
“पर आप हैं कौन?”- डॉक्टर ने पुछा तो विजेंद्र ने अपना परिचय दिया। मदिरा के नशे में धूत उसने कुकृत्य कर तो डाला था पर होश सम्भालते ही उसने पैरों तले जमीन खिसक गई। उसने खुद को सजा दिया था कि प्राण त्यागने तक वह हैजे से पिड़ित मरीजों की सेवा करता रहेगा।
डॉक्टर को गांव के जवान और होशियार मर्दों की आवश्यकता तो थी ही! वे ही तो थे, जो गांव में जागृति फैला सकते थे। पर विजेंद्र के साथ समस्या यह थी कि गांव में उसके और श्यामा के कुकृत्य के बारे में सभी जान चुके थे। इसलिए उसकी बात मानना तो दूर, कोई उसके सामने खड़ा होना भी पसंद नहीं करता।
विजेंद्र ने इसका उपाय निकाला और चेहरे को ढंक अपने दोस्तों के पास पहुंचा। दोस्तों को भी विजेंद्र के बारे में सब पता चल चुका था। पहले तो उन्होने उससे बात करने से भी इंकार कर दिया और जमकर लताड़ा, पर जब विजेंद्र घूटने टेककर उन सबके आगे नतमस्तक हो गया और अपनी सारी गलती कबूली तो उनका हृदय पिघला। पर हैजे के लिए मदद करने के वे सब कतई खिलाफ थे। काफी मान-मनौवल के बाद कुछ दोस्त माने, वो भी केवल इस शर्त पर कि वे गांववालों को हैजे से बचाव के लिए जागृत करेंगे पर मरीजों के पास कभी न जाएंगे। विजेंद्र ने उनकी बातें मान ली और दोस्तों सग हैजे की रोकथाम में जी-जान से जुट गया। अब अपने चेहरे को ढंककर वह सारा दिन अपने दोस्तों संग गांववालों को जागरुक करता। उन्हे दुषित जल पीने से मना करता। गांववालों को साफ-सफाई बरतने, हैंड पम्प का पानी पीने, दस्त होने पर नमक-चीनी के घोल पीने आदि के उपाय सुझाता। फिर शाम होने पर मेडिकल कैम्प में हैजे के मरीजों की सेवा करता।
कुछ समय लगें और गांववाले अब जान चुके थे कि कैसे हैजे से बचाव किया जाए। गिनती इक्का-दुक्का से ही शुरू हुई और फिर एक-एक करके अधिकांश गांववाले ने जमें हुए तालाब का गंदा पानी बंद कर दिया और साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखने लगे। असर यह हुआ कि हैजे के मामलो में कुछ कमी आयी। हालांकि यह कमी बहुत मामूली थी और अब गांववालों के सामने एक समस्या आन खड़ी हुई थी, वह थी अन्न की कमी। घर में पुरुषों के हैजे की चपेट में आने की वजह से उनका खेत पर जाना बिल्कुल बंद हो चुका था, जिसके वजह से अन्न-धान्य का अभाव होने लगा।
विजेंद्र दिनरात मेडिकल कैम्प में बीमारों की सेवा-सुशुश्रा में लगा था। उसकी निष्ठा देख दोस्तों का भी मन बदला जिससे कई और दोस्त कैम्प में अपनी सेवा देने आगे आये।
वहीं दूसरी तरफ श्यामा सारा दिन अब अपने घर में ही बंद रहती। बेटी सुलोचना के लाख कहने के बावजूद भी वह उसके साथ नहीं उसके ससुराल नहीं गई। कहाँ तो बेटी के ससुराल का पानी पीना भी उसे गंवारा न था और यहाँ तो बात रहने की थी, सो इसके लिए वह बिल्कुल तैयार न हुई। गांववालो ने उससे बातचीत और मेलजोल तक बंद कर दिया। सभी उससे ऐसे व्यवहार करते जैसे वह कोई अछूत हो। उसका लगा-लगाया काम भी उसकी बदनामी की वजह से जाता रहा। भला अपने घर में कोई ऐसी स्त्री को कैसे जगह देता! और भी न जाने क्या-क्या तमगे से गांववाले ने उसे नवाजा। बड़ी मुश्किल से अब उसका गुजारा चलता था। विनयधर ने पास के ही गांव के एक पहचानवाले की फैक्टरी में उसे काम दिलवा दिया ताकि उसका गुजर-बसर चल सके। मशीनी अंदाज में अब वह अपना दिन गुजारती, न किसी से कोई लेना देना और न कोई बातचीत।
पर श्यामा को दो जून की रोटी मिले, किस्मत को यह भी मंजूर न था। कुछ ही दिन में उसे मालूम चला कि वह गर्भ से है। एकदिन सुलोचना जब उसका हाल लेने आयी तो श्यामा ने उसे बताया।
“अब आगे तुमने क्या सोचा है, मां?” – सुलोचना ने पुछा।
“मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी।” – श्यामा ने कहा और अपने गर्भ पर हाथ फेरा।
“पर..समाज क्या इस बच्चे को स्वीकार करेगा?”- अपनी शंका जाहिर करते हुए सुलोचना बोली।
“दुनिया-समाज क्या सोचता है, क्या कहता है- अगर मैं इसकी परवाह करने लगूं तो अबतक मुझे मर जाना चाहिए था। मुझे पता है कि मुझसे गलती हुई है, पर अपना गर्भ गिराकर दूबारा गलती करुं - ऐसा मैं हरगिज नहीं करने वाली। इस बच्चे को मैंने जन्म देने का निर्णय लिया है।” – श्यामा ने दृढ़ता से कहा और सुलोचना की आंखें अपनी मां पर टिकी रही।...