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श्रीमत् अष्टावक्रगीता का हिन्दी अनुवाद - भाग 2

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का ग्रन्थ है जो ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में है। भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के सामान अष्टावक्र गीता अमूल्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का सविस्तार वर्णन है।महापंडित एवं विद्वान अष्टावक्र की बुद्धिमत्ता से हम सब भली भॉति परिचित है। जनक की सभा मे उन्होने बंदी से शास्त्रार्थ करके अपनी विद्वता का परिचय दिया था। और बंदी को उनके अहंकार के बारे मे ज्ञात करवाया था। उन्ही के द्वारा रचित महागीता का यहाँ दूसरा अध्याय प्रस्तुत है।

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द्वितीयोंः अध्यायः
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श्रीमत् अष्टावक्रगीता
का हिन्दी अनुवाद
॥ श्रीः ॥

अथः

यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनो तथा जगत्।
अतो मम जगत्सर्वम- थवा न च किंचन॥२-२॥

जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार इस विश्व को भी। अतः मैं यह समस्त विश्व ही हूँ अथवा कुछ भी नहीं॥२॥

As I illumine this body, so I illumine the world. Therefore, either the whole world is mine or nothing is.॥2॥

सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाऽधुना।
कुतश्चित् कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते॥२-३॥

अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है॥३॥

Now abandoning this world along with the body, Lord is seen through some skill.॥3॥

यथा न तोयतो भिन्नास्- तरंगाः फेन बुदबुदाः।
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ॥२-४॥

जिस प्रकार पानी लहर, फेन और बुलबुलों से पृथक नहीं है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग नहीं है॥४॥

Just as waves, foam and bubbles are not different from water, similarly all this world which has emanated from self, is not different from self.॥4॥

तंतुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारितः।
आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम्॥२-५॥

जिस प्रकार विचार करने पर वस्त्र तंतु (धागा) मात्र ही ज्ञात होता है, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आत्मा मात्र ही है॥५॥


On reasoning, cloth is known to be just thread, similarly all this world is self only.॥5॥

यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम्॥२-६॥

जिस प्रकार गन्ने के रस से बनी शक्कर उससे ही व्याप्त होती है, उसी प्रकार यह विश्व मुझसे ही बना है और निरंतर मुझसे ही व्याप्त है॥६॥

Just as the sugar made from sugarcane juice has the same flavor, similarly this world is made out from me and is constantly pervaded by me.॥6॥

आत्माऽज्ञानाज्जगद्भाति आत्मज्ञानान्न भासते।
रज्जवज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद्भासते न हि॥ २-७॥

आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है, आत्म-ज्ञान होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है। रस्सी अज्ञानवश सर्प जैसी दिखाई देती है, रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं देता है॥७॥

Due to ignorance, self appears as the world; on realizing self it disappears. Due to oversight a rope appears as a snake and on correcting it, snake does not appear any longer.॥7॥

प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः।
यदा प्रकाशते विश्वं तदाऽहंभास एव हि॥ २-८॥

प्रकाश मेरा स्वरुप है, इसके अतिरिक्त मैं कुछ और नहीं हूँ। वह प्रकाश जैसे इस विश्व को प्रकाशित करता है वैसे ही इस "मैं" भाव को भी॥८॥

Light is my very nature and I am nothing else besides that. That light illumines the ego as it illumines the world.॥8॥

अहो विकल्पितं विश्वंज्ञानान्मयि भासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा॥ २-९॥

आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई देता है जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में सर्प और सूर्य किरणों में पानी॥९॥

Amazingly, this imagined world appears in me due to ignorance, as silver in sea-shell, a snake in the rope, water in the sunlight.॥9॥

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति।
मृदि कुम्भो जले वीचिः कनके कटकं यथा॥ २-१०॥

मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है॥१०॥

अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे।
ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्तं जगन्नाशोऽपि तिष्ठतः॥ २-११॥

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी जिसका विनाश नहीं होता, जो तृण से ब्रह्मा तक सबका विनाश होने पर भी विद्यमान रहता है॥११॥

Amazing! Salutations to me who is indestructible and remains even after the destruction of the whole world from Brahma down to the grass.॥11॥

अहो अहं नमो मह्यं एकोऽहं देहवानपि।
क्वचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः॥ २-१२॥

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, मैं एक हूँ, शरीर वाला होते हुए भी जो न कहीं जाता है और न कहीं आता है और समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित है॥१२॥

Amazing! Salutations to me who is one,who appears with body, neither goes nor come anywhere and pervades all the world.॥12॥

अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीह मत्समः।
असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम्॥२-१३॥

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जो कुशल है और जिसके समान कोई और नहीं है, जिसने इस शरीर को बिना स्पर्श करते हुए इस विश्व को अनादि काल से धारण किया हुआ है॥१३॥

Amazing! Salutations to me who is skilled and there is no one else like him, who without even touching this body, holds all the world.॥13॥

अहो अहं नमो मह्यं यस्य मे नास्ति किंचन।
अथवा यस्य मे सर्वं यद् वाङ्मनसगोचरम्॥२-१४॥

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जिसका यह कुछ भी नहीं है अथवा जो भी वाणी और मन से समझ में आता है वह सब जिसका है॥१४॥

Amazing! Salutations to me who either does not possess anything or possesses anything that could be referred by speech and mind.॥14॥

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवं।
अज्ञानाद् भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः॥ २-१५॥

ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं, यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है वह निष्कलंक मैं ही हूँ॥१५॥

Knowledge, object of knowledge and the knower, these three do not exist in reality. The flawless self appears as these three due to ignorance.॥15॥

द्वैतमूलमहो दुःखं नान्य- त्तस्याऽस्ति भेषजं।

दृश्यमेतन् मृषा सर्वं एकोऽहं चिद्रसोमलः॥ २-१६॥

द्वैत (भेद) सभी दुखों का मूल कारण है।
इसकी इसके अतिरिक्त कोई और औषधि नहीं है कि यह सब जो दिखाई दे रहा है वह सब असत्य है।
मैं एक, चैतन्य और निर्मल हूँ॥१६॥

Definitely, duality (distinction) is the fundamental reason of suffering.
There is no other remedy for it other than knowing that all that is visible, is unreal, and that I am one, pure consciousness.॥16॥

बोधमात्रोऽहमज्ञानाद् उपाधिः कल्पितो मया।
एवं विमृशतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम॥ २-१७॥

मैं केवल ज्ञान स्वरुप हूँ, अज्ञान से ही मेरे द्वारा स्वयं में अन्य गुण कल्पित किये गए हैं, ऐसा विचार करके मैं सनातन और कारणरहित रूप से स्थित हूँ॥१७॥

I am of the nature of light only, due to ignorance I have imagined other attributes in me. By reasoning thus, I exist eternally and without cause.॥17॥

न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्तिः शान्तो निराश्रया।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्॥२-१८॥

न मुझे कोई बंधन है और न कोई मुक्ति का भ्रम। मैं शांत और आश्रयरहित हूँ। मुझमें स्थित यह विश्व भी वस्तुतः मुझमें स्थित नहीं है॥१८॥

For me there is neither bondage nor liberation. I am peaceful and without support. This world though imagined in me, does not exist in me in reality.॥18॥

सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितं।
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना॥२-१९।

यह निश्चित है कि इस शरीर सहित यह विश्व अस्तित्वहीन है, केवल शुद्ध, चैतन्य आत्मा का ही अस्तित्व है। अब इसमें क्या कल्पना की जाये॥१९॥

Definitely this world along with this body is non-existent. Only pure, conscious self exists. What else is there to be imagined now?॥19॥

शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा।
कल्पनामात्रमेवैतत् किं मे कार्यं चिदात्मनः॥ २-२०॥

शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष और भय ये सब कल्पना मात्र ही हैं, इनसे मुझ चैतन्य स्वरुप का क्या प्रयोजन है॥२०॥

The body, heaven and hell, bondage and liberation, and fear, these are all unreal. What is my connection with them who is conscious.॥20॥

अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम्॥२-२१॥

आश्चर्य कि मैं लोगों के समूह में भी दूसरे को नहीं देखता हूँ, वह भी निर्जन ही प्रतीत होता है। अब मैं किससे मोह करूँ॥२१॥

Amazingly, I do not see duality in a crowd, it also appear desolate. Now who is there to have an attachment with.॥21॥

नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित्।
अयमेव हि मे बन्ध आसीद्या जीविते स्पृहा॥ २-२२॥

न मैं शरीर हूँ न यह शरीर ही मेरा है, न मैं जीव हूँ , मैं चैतन्य हूँ। मेरे अन्दर जीने की इच्छा ही मेरा बंधन थी॥२२॥

I am not the body, nor is the body mine. I am consciousness. My only bondage is the thirst for life.॥22॥

अहो भुवनकल्लोलै- र्विचित्रैर्द्राक् समुत्थितं।
मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते समुद्यते॥ २-२३॥

आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु उठने पर ब्रह्माण्ड रूपी विचित्र तरंगें उपस्थित हो जाती हैं॥२३॥

Amazingly, as soon as the mental winds arise in the infinite ocean of myself, many waves of surprising worlds come into existence.॥23॥

मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति।
अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः॥ २-२४॥

मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु के शांत होने पर जीव रूपी वणिक का संसार रूपी जहाज जैसे दुर्भाग्य से नष्ट हो जाता है॥२४॥

As soon as these mental winds subside in the infinite ocean of myself, the world boat of trader-like 'jeeva' gets destroyed as if by misfortune.॥24॥

मय्यनन्तमहांभोधा- वाश्चर्यं जीववीचयः।
उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः॥२-२५॥

आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें उत्पन्न होती हैं, मिलती हैं, खेलती हैं और स्वभाव से मुझमें प्रवेश कर जाती हैं॥२५॥

 

अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।
एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडंबितः॥१॥

अन्वय:- अहो अहम् निरंजनः शान्तः प्रकृतेः परः बोधः ( अस्मि ) अहम् एतावंतम् कालम् मोहेन विडंबितः एव ॥१॥

श्रीगुरु के वचनरूपी अमृत पानकर तिस से आत्मा का अनुभव हुआ, इस कारण शिष्य अपने गुरु के प्रति आत्मानुभव कहता है कि, हे गुरो बड़ा आश्चर्य दीखने में आता है कि, मैं तो निरंजन हूं, तथा सर्वउपाधिरहित हूं, शान्त अर्थात् सर्वविकाररहित हूं तथा प्रकृतिसे परे अर्थात् माया के अंधकार से रहित हूं, अहो ! आज दिनपर्यंत गुरु की कृपा नहीं थी इस कारण बहुत मोह था और देह आत्मा का विवेक नहीं था तिस से दुःखी था अब आज सद्गुरु को कृपा हुई सो परम आनंद को प्राप्त हुआ हूं॥१॥

यथा प्रकाशयाम्ये को देहमेनं तथा जगत् ।
अतोमम जगत् सर्वमथवा न च किंचन॥२॥

अन्वय:- यथा ( अहम् ) एक: (एव) जगत् प्रकाशयामि तथा एनम देहम् (प्रकाशयामि) अतः सर्वम् जगत मम अथवा च किंचन न ॥२॥

ऊपर के श्लोक में शिष्यने अपना मोह गुरु के पास वर्णन किया । अब गुरु को कृपा से देह आत्मा का विवेक प्राप्त हुआ तहां समाधान करता है कि, हे गुरो! मैं जिस प्रकार स्थूल शरीर को प्रकाश करता हूं तिस ही प्रकार जगत् को भी प्रकाश करता हूं, तिस कारण देह जड है तिस ही प्रकार जगत् भी जड है. यहां शंका होती है कि, शरीर जड और आत्मा चैतन्य है तिन दोनों का संबंध किस प्रकार होता है ? तिस का समाधान करते हैं कि, भ्रांतिसे देह के विषय में ममत्व माना है यह अज्ञानकल्पित है, देह को आदिलेकर बंधा जगत् दृश्य पदार्थ है, तिस कारण मेरे विषय में कल्पित है, फिर यदि सत्य विचार करे तो देहादिक जगत् है ही नहीं, जगत् की उत्पत्ति और प्रलय यह दोनों अज्ञानकल्पित हैं, तिस कारण देह से पर आत्मा शुद्ध स्वरूप है॥२॥

सशरीरमहोविश्वं परित्यज्य मयाऽधुना।
कुतश्चित्कौशलादेवपरमात्माविलोक्यते॥३॥

अन्वय:- अहो अधुना सशरीरम् विश्वम् परित्यज्य कुतश्चित कौशलात् एव मया परमात्मा विलोक्यते ॥३॥

शिष्य आशंका करता है कि, लिंगशरीर और कारण शरीर इन दोनों का विवेक तौ हुआ ही नहीं फिर प्रकृतिसे पर आत्मा किस प्रकार जाना जायगा ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, लिंगशरीर, कारणशरीर, तथा स्थूलशरीर सहित संपूर्ण विश्व है तहां गुरु शास्त्र के उपदेश के अनुसार त्यागकर के और उन गुरु शास्त्र की कृपा से चातुयता को प्राप्त हुआ हूं तिस कारण परम श्रेष्ठ आत्मा जानन में आता है अर्थात् अध्यात्म वेदान्तविद्या प्राप्त होती है ॥३॥

यथानतोयतोभिन्नास्तरङ्गाःफेनबुद्धदाः ।
आत्मनोनतथाभिन्नविश्वमात्मविनिर्गतम् ॥ ४॥

२ अन्वय:- यथा तोयतः तरङ्गाः फेनवुद्धदाः भिन्नाः न तथा आत्मविनिर्गतम् विश्वम् आत्मनः भिन्नम् न ॥ ४॥

शरीर तथा जगत् आत्मा से भिन्न होगा तो द्वैतभाव सिद्ध हो जायगा, ऐसी शिष्य की शंका करनेपर उस के उत्तर में दृष्टांत कहते हैं कि, जिस प्रकार तरंग, झाग बुलबुले जल से अलग नहीं होते हैं परंतु उन तीनों का कारण एक जलमात्र है तिस ही प्रकार त्रिगुणात्मक जगत् आत्मा से उत्पन्न हुआ है आत्मा से भिन्न नहीं है जिस प्रकार तरंग, झाग और बुलबुलों में जल व्याप्त है तिस ही प्रकार सर्व जगत् में आत्मा व्यापक है, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं है ॥४॥

तंतुमात्रोभवेदेवपटोयद्विचारितः ।
आत्मतन्मात्रमेवेदंतद्विश्वविचारितम् ॥५॥

अन्वय:- यदत विचारितः पटः तंतुमात्रः एव भवेत् तद्वत् विचारितम् इदम् विश्वम् आत्मतन्मात्रम् एव ॥५॥

सर्व जगत् आत्मस्वरूप है तिस के निरूपण करने के अर्थ दूसरा दृष्टांत कहते हैं कि, विचारदृष्टि के बिना देखे तो वस्त्र सूत्र से पृथक् प्रतीत होता है, परंतु विचारदृष्टि से देखनेपर वस्त्र सूत्ररूप ही है, इसी प्रकार अज्ञानदृष्टि से जगत् ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है, परंतु शुद्धविचारपूर्वक देखन से संपूर्ण जगत् आत्मरूपहीं है, सिद्धांत यह है कि, जिस प्रकार वस्त्र में सूत्र व्यापक है, तिसी प्रकार जगत् में ब्रह्म व्यापक है॥५॥

यथैवेक्षुरसेकृप्तातेनव्याप्तवशकरा ॥तथा
विश्वमयिकृप्तमयाव्याप्तनिरन्तरम् ॥६॥

अन्वय:- यथा इक्षुर से क्लृप्ता शर्करा तेन एव व्याप्ता तथा एक मयि कृप्तम् विश्वम् निरन्तरं मया व्याप्तम् ॥ ६ ॥

आत्मा संपूर्ण जगत् में व्यापक है इस विषय में तीसरा दृष्टांत दिखाते हैं, जिस प्रकार इक्षु (पौंडा) के रस के विषय में शर्करा रहती है और शर्करा के विषय में रस व्याप्त है, तिसी प्रकार परमानंदरूप आत्मा के विषय में जगत् अध्यस्त है और जगत के विषय में निरंतर आत्मा व्याप्त है, तिस कारण विश्व भी आनंदस्वरूप ही है। तिस कर के “अस्ति, भाति, प्रियम्, “ इस प्रकार आत्मा सर्वत्र व्याप्त है ॥६॥

आत्माज्ञानाजगद्भातिआत्मज्ञानानभासते।
रज्ज्वज्ञानादहिभांतितज्ज्ञानाद्भासतेनहि ७॥

अन्वय:- जगत् आत्माज्ञानात् माति आत्मज्ञानात् न भासते हि रज्ज्वज्ञानात् अहिः भाति तज्ज्ञानात् न भासते ॥ ७ ॥

शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! यदि जगत् आत्मा से भिन्न नहीं है तो भिन्न प्रतीत किस प्रकार होता है ? तहां गुरु उत्तर देते हैं कि, जब आत्मज्ञान नहीं होता है, तब जगत् भासता है और जब आत्मज्ञान हो जाता है, तब जगत् कोई वस्तु नहीं है, तहां दृष्टांत दिखाते हैं कि, जिस प्रकार अंधकार में पड़ी हुई रज्जु अम से सर्प प्रतीत होने लगता है और जब दीपक का प्रकाश होता है तब निश्चय हो जाता है कि, यह सर्प नहीं है ॥७॥

प्रकाशोमेनिजरूपनातिरिक्तोऽस्म्यहंततः।
यदाप्रकाशतेविश्वंतदाहंभासएवहि ॥८॥

अन्वय:- प्रकाशः मे निजम् रूपम् अहम् ततः अतिरिक्त न आस्मि । हि यदा विश्व प्रकाशते तदा अहं भासः एव ॥८॥

जिस को आत्मज्ञान नहीं होता है उस को प्रकाश भी नहीं होता है, फिर जगत् की प्रतीति किस प्रकार होती है ? इस प्रश्न का उत्तर कहते हैं कि, नित्य बोधरूप प्रकाश मेरा (आत्मा का ) स्वाभाविक स्वरूप है, इस कारण मैं (आत्मा) प्रकाश से भिन्न नहीं हूं, यहां शंका होती है कि, आत्मचैतन्य जब जगत् का प्रकाश है तो उस को अज्ञान किस प्रकार रहता है ? इस का समाधान यह है कि, जिस प्रकार स्वप्न में चैतन्य अविद्या की उपाघि से कल्पित विषयसुख को सत्य मानते हैं, तिस से चैतन्य में किसी प्रकार का बोध नहीं होता है, आत्मचैतन्य सर्वकाल में है परंतु गुरु के मुख से निश्चयपूर्वक समझे बिना अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती है और आत्मा सत्य है यह वार्ता वेदादि शास्त्रसंमत है, अर्थात् जगत् को आत्मा प्रकाश करता है यह सिद्धांत है॥८॥

अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयिभासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरेयथा ॥९॥

अन्वय:- अहो यथा शुक्तौ रूप्यम् रजौ फणी सूर्यकरे वारि ( तथा ) अज्ञानात् विकल्पितम् विश्वम् मयि भासते ॥९॥

शिष्य विचार करता है कि, मैं स्वप्रकाश हूं तथापि अज्ञान से मेरे विषें विश्व भासता है, यह बड़ा ही आश्चर्य है, तिस का दृष्टांत के द्वारा समाधान करते हैं कि, जिस प्रकार भ्रांतिसे सीपी में रजत की प्रतीति होती है, जिस प्रकार रज्जु में सर्प की प्रतीति होती है तथा जिस प्रकार सूर्य की किरणों में जल की प्रतीति होती है तिसी प्रकार अज्ञान से कल्पित विश्व मेरे विषेभासता है ॥९॥

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति।
मृदि कुम्भोजले बीचिकनकेकटकं यथा ॥ १०॥

अन्वय:- इदम् विश्वं मत्तः विनिर्गतम् मयि एव लयम् एष्यति यथा कुम्भः मृदि वीचिः जले कटकम् कन के ॥ १०॥

शिष्य आशंका करता है कि, सांख्यशास्त्रवालों के मतानुसार तो जगत् माया का विकार है इस कारण जगत् मायासकाश से उत्पन्न होता है और अंत में माया के वि ही लीन हो जाता है और आत्मा सकाश से उत्पन्न नहीं होता है ? इस शंका का गुरु समाधान करते हैं कि, यह मायासहित जगत् आत्मा के सकाश से उत्पन्न हुआ है और अंत में माया के विष ही लीन होगा, तहां दृष्टांत देते हैं कि, जिस प्रकार घट मृत्तिका में से उत्पन्न होता है और अंत में मृत्तिका के विष ही लीन हो जाता है और जिस प्रकार तरंग जल में से उत्पन्न होते हैं और अंत में जल के वि ही लीन हो जाते हैं तथा जिस प्रकार कटक कुण्डलादि सुवर्णमे से उत्पन्न होते हैं और सुवर्णमें ही अंत में लीन हो जाते हैं। तिसी प्रकार मायासहित जगत आत्मा के सकाश से उत्पन्न होता है और अंत में माया के वि ही लीन हो जाता है, सोई श्रुतिमेभीकहा है “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति “ ॥१०॥

अहो अहंनमो मह्यं विनाशीयस्य नास्तिमे।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तंजगन्नाशेपितिष्ठतः॥११॥

अन्वय:- अहो अहम् ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तम् ( यत् ) जगत् ( तस्य ) नाशे अपि यस्य मे विनाशः न अस्ति ( तस्मै ) मह्यम् नमः ॥ ११॥

शिष्य आशंका करता है कि, यदि जगत् का उपादान कारण ब्रह्म होगा तब तो ब्रह्म के विषें अनित्यता आवेगी, जिस प्रकार घट फूटता है और मृत्तिका बिखर जाती है, तिसी प्रकार जगत् के नष्ट होनेपर ब्रह्म भी छिन भिन्न (विनाशी) हो जायगा ? इस शंका का समाधान करते हुए गुरु कहते हैं कि, मैं ( आत्मा ब्रह्म ) संपूर्ण उपादान कारण हूं, तो भी मेरा नाश नहीं होता है यह बड़ा आश्चर्य है. सुवर्ण कटक और कुण्डल का उपादान कारण होता है और कस्क कुंडल के टूटनेपर सुवर्ण विकार को प्राप्त होता है, परंतु मैं तो जगत् का विवर्ताविष्ठान हूं अर्थात् जिस प्रकार रज्जु में सर्प की भ्रांति होनेपर सर्प विवर्त कहाता है और रज्जु अधिष्ठान कहाता तिसी प्रकार जगत् मेरे (आत्माके) विषें प्रतीति मात्र है, जिस प्रकार दूध का दधि वास्तविक अन्यथाभाव (परिणाम) होता है, तिस प्रकार जगत् मेरा परिणाम नहीं है, मैं संपूर्ण जगत् का कारण और अविनाशी हूं, तिस कारण मैं अपने स्वरूप (आत्मा) को नमस्कार करता हूं। प्रलयकाल में ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यंत संपूर्ण जगत् नाश को प्राप्त हो जाता है परंतु मेरा (आत्माका) नाश नहीं होता है, इस विषय में श्रुति का भी प्रमाण है “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म “ अर्थात् ब्रह्म सत्य है, ज्ञानरूप है और अनंत है ॥११॥

अहो अहंनमोमह्यमेकोऽहंदेहवानपिावचिन्न
गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः॥१२॥

अन्वय:- अहो अहम् ( तस्मै ) मह्यम् नमः । ( यत् ) देहवान् अपि एकः अहम् विश्वम् व्याप्य अवस्थितः न ववित् गन्ता न आगन्ता ॥ १२॥

शिष्य आशंका करता है कि, सुखदुःखरूपी देहयुक्त आत्मा अनेकरूप है, तिस कारण जाता है और आता है, फिर आत्मा की सर्वव्यापकता किस प्रकार सिद्ध होगी, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, मैं बड़ा आश्चर्यरूप हूं उस कारण मैं अपने (आत्मा) को नमस्कार करता हूं। तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, क्या आश्चर्य है ? तिसे गुरु उत्तर देते हैं कि, मैं (आत्मा) नाना प्रकार के शरीरों में निवास कर के नाना प्रकार के सुख दुःख को भोगता हूं, तथापि में एकरूप हूं, तहां दृष्टांत दिखाते हैं कि, जिस प्रकार जल से भरे हुए अनेक पात्रों में भरे हुए जल के विषें शीत, उष्ण सुगंध, दुर्गंध, शुद्ध, अशुद्ध इत्यादि अनेक उपाधियां रहती है और उन अनेकों पात्रों में भिन्न सूर्य के प्रतिबिंब पडते हैं, तथापि वह सूर्य एक ही होता है और जल की शीत उष्णादि उपाधियों से रहित होता है इसी प्रकार में संपूर्ण विश्व में व्याप रहा हूं, तथापि जगत् की संपूर्ण उपाधियों से रहित हूंअर्थात् न कोई जाता है न कोई आता है और जाता है आता है इस प्रकार की जो प्रतीति है सो अज्ञानवश है, वास्तव में नहीं है ॥ १२॥

अहोअहंनमोमह्यं दक्षोनास्तीहमत्समः ।
असंस्टश्यशरीरेणयेनविश्वचिरंधृतम्॥१३॥

अन्वय:- अहम् अहो ( तस्म ) मह्यम् नमः इह मत्तमः (कः अपि ) दक्षः न अस्ति येन शरीरेण असंस्पृश्य (मया) चिरम् विश्वम् धृतम् ॥ १३ ॥

शिष्य शंका करता है कि, जिस आत्मा का देह से संग है, वह असंग किस प्रकार हो सकता है, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, मैं आश्चर्यरूप हूं इस कारण मेरे अर्थ नमस्कार है, क्योंकि इस जगत् में मेरी समान कोई चतुर नहीं है, अर्थात् अघट घटना करने में मैं चतुर हूं, क्योंकि में शरीर में रहकर भी शरीर से स्पर्श नहीं करता हूं और शरीरकार्य करता हूं जिस प्रकार आम धृत के पिंड में लीन न होकर भी घृतपिंड को गलाकर रसरूप कर देता है, उसी प्रकार संपूर्ण जगत् में मैं लीन नहीं होता हूं और संपूर्ण जगत् को चिरकाल धारण करता हूं ॥१३॥

अहोअनमोमायस्यमेनास्तिकिञ्चन।
अथवायस्यमसवैयद्राङ्मनसगोचरम् ॥ १४॥

अन्वय:- अहो अहम् यस्य मे (परमार्थतः ) किञ्चन न अस्ति अथवा यत् वाङ्मनसगोचरम् ( तत् ) सर्वम् यस्य मे ( सम्बधेि अस्ति अतः ) मह्यं नमः ॥ १४॥

शिष्य आशंका करता है कि, हे गुरो! संबंधक बिना जगत् किस प्रकार धारण होता है ? भीत गृह की छत आदि को धारण करती है परंतु काष्ठ आदि से उस का संबंध होता है, सो आत्मा बिना संबंध के जगत् को किस प्रकार धारण करता है इस का गुरु समाधान करते हैं कि, अहो मैं बड़ा आश्चर्यरूप हूं इस कारण अपने स्वरूप को नमस्कार करूं हूं, आश्चर्यरूपता दिखाते हैं कि, परमार्थदृष्टि से तो मेरा किसी से संबंध नहीं है, और विचारदृष्टि से देखो तो मुझ से भिन्न भी कोई नहीं है और यदि सांसारिकदृष्टि से देखो तो जो कुछ मन वाणी से विचारा जाता है वह सब मेरा संबंधी है परंतु वह मिथ्या संबंध है, जिस प्रकार सुवर्ण तथा कुंडल का संबंध है, इसी प्रकार मेरा और जगत् का संबंध है अर्थात् मेरा सब से संबंध है भी और नहींभो है, इस कारण आश्चर्यरूप जो मैं तिस मेरे अर्थ नमस्कार है ॥ १४॥

ज्ञानज्ञेयंतथाज्ञातात्रितयं नास्तिवास्तवम्।
अज्ञानाद्भातियत्रेदंसोऽहमस्मिनिरञ्जनः ॥१५॥

अन्वय:- ज्ञानम ज्ञेयम् तथा ज्ञाता (इदम् ) त्रितयम् वास्तवम् न अस्ति यत्र इदम् अज्ञानात् भाति सः अहम् निरञ्जनः अस्मि॥१५॥

त्रिपुटीरूप जगत् तो सत्यसा प्रतीत होता है फिर जगत् का और आत्मा का मिथ्या संबंध किस प्रकार कहा, इस शिष्य को शंका का गुरु समाधान करते हैं कि, ज्ञान ज्ञेय तथा ज्ञाता इन तीनों का इकट्ठा नाम “त्रिपुटी” है, वह त्रिपुटी वास्तविक अर्थात् सत्य नहीं है, तिस त्रिपुटी का जिस मेरे ( आत्मा के ) वि मिथ्या संबंध अर्थात् अज्ञान से प्रतीत है, वह मैं अर्थात् आत्मा तो निरंजन कहिये संपूर्ण प्रपंच से रहित हूं ॥१५॥

द्वैतमूलमहोदुःखंनान्यत्तस्यास्तिभेषजम् ।
दृश्यमेतन्मृषासमेकोऽहंचिद्रसोऽमलः ॥ १६॥
अन्वय:- अहो ( निरञ्जनस्य अपि आत्मनः ) द्वैतमूलम् दुःखम् (भवति ) तस्य भेषजम् एतत् दृश्यम् सर्वम् मृषा अहम् एकः अमल: चिद्रसः ( इति बोवात् ) अन्यत् न अस्ति ॥ १६॥

शिष्य शंका करता है कि यदि आत्मा निरंजन है तो दुःख का संबंध किस प्रकार होता है, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, सुखदुःख भ्रांतिमात्र है, वास्तविक नहीं, निरंजन आत्मा के विषें द्वैतमात्र से सुखदुःख भासता है वास्तव में आत्मा के विषें सुखदुःख कुछ भी नहीं होता है तहां शिष्य प्रश्न करता हे कि, हे गुरो! द्वैतभ्रम को औषधि कहिये जिस के सेवन करने से द्वैतभ्रम की निवृत्ति होती है ! तिस का गुरु उत्तर देते हैं कि, हे शिष्य ! मैं आत्मा हूं, अमल हूं, माया और माया का कार्य जो जगत् तिस से रहित चिन्मात्र अद्वितीयरूप हूं और दृश्यमान यह संपूर्ण संसार जड और मिथ्या है, सत्य नहीं है, ऐसा ज्ञान होने से द्वैतभ्रम नष्ट हो जाता है, इस के बिना दूसरी द्वैत भ्रम से उत्पन्न हुए दुःख के दूर करने की अन्य औषधि नहीं है ॥१६॥

बोधमात्रोऽहमज्ञानाडुपाधिः कल्पितोमया।
एवंविमृशतोनित्यनिर्विकल्पेस्थितिर्मम ॥१७॥
अन्वय:- अहम् बोधमात्रः मया अज्ञानात् उपाधिः कल्पितः एवम् नित्यम् विमृशतः मम निर्विकलो स्थितिः (प्रजाता)॥१७॥

शिष्य प्रश्न करता है कि, आत्मा के विषें द्वैतप्रपंच का अध्यास किस प्रकार हुआ है और वह कल्पित है या वास्तविक हे तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, मैं बोधरूप चैतन्यस्वरूप हूं परंतु मैंने अपने विषें अज्ञान से उपाधि (अहंकारादि द्वैतप्रपंच) कल्पना किया है अर्थात् मैं अखंडानंदब्रह्म नहीं हूं किंतु देह हूं यह माना है. इस कारण नित्य विचार कर के मेरी निर्विकल्प अर्थात् वास्तविक निज स्वरूप (ब्रह्म) के विषें स्थिति हुई है ॥ १७॥

नमेबन्धोऽस्ति मोक्षा वा भ्रान्तिःशान्ता निराश्रया ।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्॥१८॥

अन्वय:- मे बन्धः वा मोक्षः न अस्ति अहो मयि स्थितम् (अपि) विश्वं वस्तुतः मयि न स्थितम् (इति विचारतः अपि) निराश्रया भ्रान्तिः ( एव ) शान्ता ॥ १८॥

शिष्य शंका करता है, कि, हे गुरो ! यदि केवल विचार करने ही से मुक्ति होती है तब तो मुक्ति का विनाश होना चाहिये क्योंकि जब विचार नष्ट होता है तब मुक्ति का भी नाश होना चाहिये और यदि कहो कि विचार के बिना ही मुक्ति हो जाती है तब तो गुरु और शास्त्र के उपदेश को प्राप्त न होनेवाले पुरुषोंकी भी मुक्ति होना चाहिये ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, यदि शुद्ध विचार की दृष्टि से देखो तो मेरे बंध नहीं है और मोक्ष भी नहीं है अर्थात् विचारदृष्टि से न आत्मा का बंध होता है, न मोक्ष होता है, क्योंकि मैं (आत्मा) नित्य चित्स्वरूप हूं, तहां शिष्य शंकित होकर प्रश्न करता है कि हे गुरो ! वेदान्तशास्त्र विचार का जो फल है सो कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि भ्रांति की निवृत्ति ही वेदांतशास्त्र के विचार का फल है क्योंकि बड़ा आश्चर्य है जो मेरे विषें स्थित भी जगत् वास्तव में मेरे विषें स्थित नहीं है इस प्रकार विचार करनेपर भी भ्रांतिमात्र ही नष्ट हुई, परमानंद की प्राप्ति नहीं हुई इस से प्रतीत होता है कि, भ्रांति की निवृत्ति ही शास्त्रविचार का फल है, तहां शिष्य कहता है कि, हे गुरो ! भ्राति कैसी थी जो विचार करनेपर तुरंत ही नष्ट हो गई, तिस का गुरु उत्तर देते है कि, भ्राति निराश्रय अर्थात् अज्ञानरूपथी सोविचार से नष्ट हो गई ॥१८॥

स शरीरमिदंविश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम् ।
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिकल्पनाधुना॥१९॥

अन्वय:- इदम् शरीरम् विश्वं किञ्चित् न इति निश्चितम् आत्मा व शुद्धचिन्मात्रः तत् अधुना कल्पना कस्मिन् ( स्यात् ) ॥ १९॥

शिष्य शंका करता है कि उस मुक्त पुरुष के वि भी प्रपंच का उदय होना चाहिये, क्योंकि रज्जु होती है तो उस में क भी अंधकार के विषें सर्प की भ्रांति हो ही जाती है, तिसी प्रकार अधिष्ठान जो ब्रह्म है तिस के विषें द्वैत (प्रपंच ) की कल्पना हो जाती है इस शंका का गुरु समाधान करते हैं कि, यह शरीरसहित संपूर्ण जगत् जो प्रतीत होता है सो कुछ नहीं है अर्थात् न सत् है, न असत् है, क्योंकि सब ब्रह्मरूप है, सोई श्रुतिमें भी कहा है “ नेह नानास्ति किञ्चन “ अर्थात् यह संपूर्ण नगत् ब्रह्मरूप ही है, आत्मा शुद्ध अर्थात् मायारूपी मलरहित और चित्स्वरूप है, इस कारण किस अधिठान में विश्व की कल्पना होती है ? ॥ १९॥

शरीरंस्वर्गनर को बन्धमोक्षोभयंतथा।
कल्प-नामात्रमेवैतत्किमेकाचिदात्मनः॥२०॥

अन्वय:- शरीरम् स्वर्गनर को बन्धमोक्षौ तथा भयम् एतत् कल्पनामात्रमेव चिदात्मनः मे एतैः किम् कार्यम् ॥ २० ॥

शिष्य शंका करता है कि, हे गुरो! यदि संपूर्ण प्रपंच मिथ्या है, तब तो ब्राह्मणादि वर्ण और मनुष्यादि जाति भी अवास्तविक होंगे और वर्णजाति के अर्थ प्रवृत्त होनेवाले विधिनिषेध शास्त्र भी अवास्तविक होंगे, और विधिनिषेध शास्त्रों के विषें वर्णन किये हुए स्वर्ग नरक तथा स्वर्ग के विषेप्रीति और नरक का भय भी अवास्तविक हो जायगे और शास्त्रों के विषें वर्णन किये हुए बंध मोक्ष भी अवास्तविक अर्थात् मिथ्या हो जायँगे ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! तेने जो शंका की सो शरीर, स्वर्ग, नरक, बंध, मोक्ष तथा भय आदि
संपूर्ण मिथ्या हैं, तिन शरीरादि के साथ सच्चिदानंदस्वरूप जो में तिस मेरा कोई कार्य नहीं है, क्योंकि संपूर्ण विधिनिषेधरूप कार्य अज्ञानी पुरुष के होते हैं, ब्रह्मज्ञानी के नहीं ॥२०॥

अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।
अरण्यभिवसंवृत्तंकरतिकरवाण्यहम् ॥२१॥

अन्वय:- अहो न दैतम् पश्यतः मम जनसमूहे अपि अरण्यम् इव संवृत्तम् अहम् क रतिम् करवाणि ॥२१॥

अब इस प्रकार वर्णन करते हैं कि, जिस प्रकार स्वर्ग नरक आदि को अवास्तविक वर्णन किया तिसी प्रकार यह लोक भी अवास्तविक है इस कारण इस लोक में मेरी प्रीति नहीं होती है, बडे आश्चर्य की वार्ता है कि, मैं जनप्तमूह में निवास करता हूं, परंतु मेरे मन को वह जनसमूह अरण्यसा प्रतीत होता है, सो मैं इस अवास्तविक कहिये मिथ्याभूत संसार के विषें क्या प्रीति करूं ? ॥२१॥

नाहंदेहो न मेरेहोजीवो नाहमहंहि चित् ।
अयमेवहिमेबन्धआसीद्याजीवितेस्टहा२२॥

अन्वय:- अहम् देहः न मे देहः न अहम् जीवः न हि अहम् चित् मे अयम् एव हि बन्धः या जीविते स्पृहा आसीत् ॥ २२॥

शिष्य शंका करता है कि, हे गुरो ! पुरुष शरीर के विषें मैं हूं मेरा है इत्यादि व्यवहार कर के प्रीति करता है इस कारण शरीर के विषें तो स्पृहा करनी ही होगी, तिस का समाधान करते हैं कि, देह मैं नहीं हूं, क्योंकि देह जड है और देह मेरा नहीं है, क्योंकि मैं तो असंग हूं और जीव जो अहंकार सो मैं नहीं, तहां शंका होती है कि, तु कौन है ? तिस के उत्तर में कहते हैं कि, मैं तो चैतन्यस्वरूप ब्रह्म हूं तहां शंका होती है कि, यदि आत्मा चैतन्यस्वरूप है, देहादिरूप जड नहीं है तो फिर ज्ञानी पुरुषोंकी भी जीवन में इच्छा क्यों होती है ? तिस का समाधान करते हैं कि, यह जीवने की जो इच्छा है सोई बंधन है, दूसरा बंधन नहीं है, क्योंकि, पुरुष जीवन के निमित्तहो सुवर्ण को चोरी आदि अनेक प्रकार के अनर्थ कर के कर्मानुसार संसारबंधन में बँधता है और सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होनेपर पुरुष की जीवन में स्पृहा नहीं रहती है ॥२२॥

अहोभुवनकल्लोलैविचित्र क्समुत्थितम् ।
मय्यनन्तमहाम्भोधौचित्तवातेसमुद्यते॥२३॥

अन्वय:- अहो अनन्तमहाम्भोधौ मयि चित्तवाते समुद्यते विचित्रः भुवनकल्लोलैः द्राक्समुत्थितम् ॥ २३ ॥

जब पुरुष को सब के अधिष्ठानरूप आत्मस्वरूप का ज्ञान होता है, तब कहता है कि, अहो ! बडे आश्चर्य की वार्ता है कि, मैं चैतन्यसमुद्रस्वरूप हूं और मेरे विषें चित्तरूपी वायु के योग से नानाप्रकार के ब्रह्मांडरूपी तरंग उत्पन्न होते हैं अर्थात् जिस प्रकार जल से तरंग भिन्न नहीं होते हैं, तिसी प्रकार ब्रह्मांड मुझ से भिन्न नहीं है ॥२३॥

मय्यनंतमहाम्भोधी चित्तवातेप्रशाम्यति ।
अभाग्याज्जीववणिजोजगत्पोतोषिनश्वरः ॥ २४ ॥

अन्वय:- अनन्तमहाम्भोधौ मषि चित्तवाते प्रशाम्यति (सति) जीववणिजः अभाग्यात् जगत् पोतः विनश्वरः ( भवति ) ॥ २४ ॥

अब प्रारब्ध कर्मों के नाश की अवस्था दिखाते हैं कि मैं सर्वव्यापक चैतन्यस्वरूप समुद्र हूं, तिस मेरे विषें चित्तवायु के अर्थात् संकल्पविकल्पात्मक मनरूप वायु के शांत होनेपर अर्थात् संकल्पादिरहित होनेपर जीवात्मारूप व्यापारी के अभाग्य कहिये प्रारब्ध के नाशरूप विपरीत पवन से जगत् समुद्र के विषें लगा हुआ शरीर आदिरूप नौका का समूह विनाशवान होता है ॥२४॥

मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यजीववीचयः।
उद्यन्तिघ्नन्तिखेलन्तिप्रविशन्तिस्वभावतः॥ २५ ॥

अन्वय:- आश्चर्यम् ( यत् ) अनन्तमहाम्भोधौ मयि जीवबीचयः स्वभावतः उद्यन्ति प्रन्ति खलन्ति प्रविशन्ति ॥ २५ ॥

अब संपूर्ण प्रपंच को मिथ्या जानकर कहते हैं कि, आश्चर्य है कि, निष्क्रिय निर्विकार मुझ चैतन्यसमुद्र के विषें अविद्याकामकर्मरूप स्वभाव से जीवरूपी तरंग उत्पन्न होते हैं और परस्पर शत्रुभाव से ताडन करते हैं और कोई मित्रभाव से परस्पर क्रीडा करते हैं और अविद्याकाम कर्म के नाश होनेपर मेरे विलीन हो जाते हैं अर्थात् जीवरूपी तरंग अविद्या बंधन से उत्पन्न होते हैं, वास्तव में चिद्रूप हैं जिस प्रकार घटाकाश महाकाश में लीन हो जाता है, तिस प्रकार मेरे विषें संपूर्ण जीव लीन हो जाते हैं, वही ज्ञान है ॥२५॥

इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितं शिष्येणोक्तमात्मानुभवोल्लासपञ्चपञ्चविशतिकं नाम द्वितीयं प्रकरणं समाप्तम् ॥२॥

 

ततो व्यैच्छत् व्येवास्मा उच्छति । अथो तम एवापहते ।
ऋग्वेदमस्या आद्यात्पादादकल्पयत् । यजुर्द्वितीयात् ।
साम तृतीयात् । अथर्वाङ्गिरसश्चतुर्थात् यदष्टाक्षरपदा
तेन गायत्री । यदेकादशपदा तेन त्रिष्टुप् ।
यच्चतुष्पदा तेन जगती यद्द्वात्रिंशदक्षरा तेनानुष्टुप् ।
सा वा एषा सर्वाणि छन्दांसि । य इमां सर्वाणि छन्दांसि वेद ।
सर्वं जगदानुष्टुभ एवोत्पन्नमनुष्टुप्प्रतिष्ठितं
प्रतितिष्ठति यश्चैवं वेद ॥ ५॥

षष्ठः खण्डः

(स्त्रीपुरुषमिथुनसृष्टिः)

अथ यदा प्रजाः सृष्टा न जायन्ते प्रजापतिः कथं
न्विमाः प्रजाः सृजेयमिति चिन्तयन्नुग्रमितीमामृचं
गातुमुपाक्रामत् । ततः प्रथमपादादुग्ररूपो देवः
प्रादुरभूत् एकः श्यामः पुरतो रक्तः पिनाकी स्त्रीपुंसरूपस्तं
विभज्य स्त्रीषु तस्य स्त्रीरूपं पुंसि च पुंरूपं व्यधात् ।
उभाभ्यानंशाभ्यां सर्वमादिष्टः । ततः प्रजाः प्रजायन्ते ।
य एवं वेद प्रजापतेः सोऽपि त्र्यम्बक इमामृचमुद्गाय-
न्नुद्ग्रथितजटाकलापः प्रत्यो अग्ज्योतिष्यात्मन्येव रन्तारमिति ।

(इन्द्राख्यायिका)

इन्द्रो वै किल देवानामनुजावर आसीत् । तं प्रजापतिरब्रवीद्गच्छ
देवानामधिपतिर्भवेति । सोऽगच्छत् । तं देवा ऊचुरनुजावरोऽसि
त्वमस्माकं कुतस्त्वाधिपत्यमिति । स प्रजापतिमभ्येत्योवाचैवं
देवा ऊचुरनुजावरस्य कुतस्तवाधिपत्यमिति । तं प्रजापतिरिन्द्रं
त्रिकलशैरमृतपूर्णैरानुष्टुभाभिमन्त्रितैरभिषिच्य तं
सुदर्शनेन दक्षिणतो ररक्ष पाञ्चजन्येन वामतो द्वयेनैव
सुरक्षितोऽभवत् । रौक्मे फलके सूर्यवर्चसि मन्त्रमानुष्टुभं
विन्यस्य तदस्य कण्ठे प्रत्यमुञ्चत् । ततः सुदुर्निरीक्षोऽभवत् ।
तस्मै विद्यामानुष्टुभीं प्रादात् । ततो देवास्तमाधिपत्यायानुमेनिरे ।
स स्वराडभूत् । य एवं वेद स्वराड् भवेत् । सोऽमन्यत पृथिवीमपि
कथमपां जयेयमिति । स प्रजापतिमुपाधावत् ।
तस्मात्प्रजापतिः कमठाकारमिन्द्रनागभुजगेन्द्राधारं
भद्रासनं प्रादात् । स पृथिवीमभ्यजयत् । ततः स
उभयोर्लोकयोरधिपतिरभूत् । य एवं वेदोभयोर्लोकयोरधिपतिर्भवति ।
स पृथिवीं जयति ।

(परमात्मप्रतिष्ठासाधनम्)

यो वा अप्रतिष्ठितं शिथिलं भ्रातृवेभ्यो
वसीयान्भवति यश्चैवं वेद यश्चैवं वेद ॥ ६॥

सप्तमः खण्डः

(एतद्विद्याऽध्ययनफलम्)

य इमां विद्यामधीते स सर्वान्वेदानधीते । स सर्वैः क्रतुभिर्यजते ।
स सर्वतीर्थेषु स्नाति । स महापातकोपपातकैः प्रमुच्यते । स
ब्रह्मवर्चसं महदाप्नुयात् । आब्रह्मणः पूर्वानाकल्पाऽश्चोत्तरांश्च
वंशान्पुनीते । नैनमपस्मारादयो रोगा आदिधेयुः । सयक्षाः
सप्रेतपिशाचा अप्येनं स्पृष्ट्वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा
पापिनः पुण्यांॅल्लोकानवाप्नुयुः । चिन्तितमात्रादस्य सर्वेऽर्थाः
सिद्ध्येयुः । पितरमिवैनं सर्वे मन्यन्ते । राजानश्चास्यादेशकारिणो
भवन्ति । न चाचार्यव्यतिरिक्तं श्रेयांसं दृष्ट्वा नमस्कुर्यात् ।
न चास्मादुपावरोहेत् । जीवन्मुक्तश्च भवति । देहान्ते तमसः परं
धाम प्राप्नुयात् । यत्र विराण् नृसिंहोऽवभासते तत्र खलूपासते ।
तत्स्वरूपध्यानपरा मुनय आकल्पान्ते तस्मिन्नेवात्मनि लीयन्ते । न च
पुनरावर्तन्ते ।

(एतद्विद्यासम्प्रदानविधिः)

न चेमां विद्यामश्रद्दधानाय ब्रूयान्नासूयावते
नानूचानाय नाविष्णुभक्ताय नानृतिने नातपसे नादान्ताय
नाशान्ताय नादीक्षिताय नाधर्मशीलाय न हिंसकाय नाब्रह्मचारिण
इत्येषोपनिषत् ॥

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं
ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण-
मस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

 

शास्त्रीय अद्वैत वेदांत के लिए, ब्रह्म सभी वस्तुओं और अनुभवों के आधार पर मौलिक वास्तविकता है। ब्रह्म को शुद्ध अस्तित्व, शुद्ध चेतना और शुद्ध आनंद के रूप में समझाया गया है। अस्तित्व के सभी रूप एक जानने वाले स्वयं को मानते हैं। ब्रह्म या शुद्ध चेतना, जानने वाले आत्म का आधार है। अद्वैत विचारधारा के अनुसार चेतना, अन्य वेदांत विद्यालयों के पदों के विपरीत, ब्रह्म की संपत्ति नहीं है, बल्कि इसकी प्रकृति है। ब्रह्म भी एक सेकण्ड के बिना, सर्वव्यापी और तत्काल जागरूकता है। इस पूर्ण ब्रह्म को  निर्गुण ब्रह्म, या ब्रह्म "बिना गुणों" के रूप में जाना जाता है, लेकिन आमतौर पर इसे "ब्राह्मण" कहा जाता है। यह ब्रह्म हमेशा अपने आप में जाना जाता है और सभी व्यक्तियों में वास्तविकता का गठन करता है, जबकि हमारे अनुभवजन्य व्यक्तित्व की उपस्थिति का श्रेय  अविद्या को दिया जाता है।(अज्ञान) और  माया (भ्रम)। इस प्रकार ब्रह्म को व्यक्तिगत स्व से अलग एक व्यक्तिगत वस्तु के रूप में नहीं जाना जा सकता है। हालांकि, इसे परोक्ष रूप से अनुभव की प्राकृतिक दुनिया में एक व्यक्तिगत भगवान के रूप में अनुभव किया जा सकता है, जिसे  सगुण ब्राह्मण या गुणों के साथ ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है। इसे आमतौर पर  ईश्वर (भगवान) के रूप में जाना जाता है। बहुलता का आविर्भाव भ्रम या अज्ञान की प्राकृतिक अवस्था से उत्पन्न होता है ( अविद्या .)), अधिकांश जैविक संस्थाओं में निहित है। अज्ञान की इस प्राकृतिक स्थिति को देखते हुए, अद्वैत अस्थायी रूप से व्यक्तिगत स्वयं, मानसिक विचारों और भौतिक वस्तुओं की अनुभवजन्य वास्तविकता को अज्ञान की इस प्राकृतिक अवस्था के संज्ञानात्मक निर्माण के रूप में स्वीकार करता है। लेकिन पूर्ण दृष्टिकोण से, इनमें से किसी का भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है बल्कि ब्रह्म पर आधारित है। इस मौलिक वास्तविकता के दृष्टिकोण से, व्यक्तिगत मन के साथ-साथ भौतिक वस्तुएं भी दिखावे हैं और उनमें कोई स्थायी वास्तविकता नहीं है। ब्रह्म अपनी रचनात्मक शक्ति, माया के कारण अनुभव की विविध वस्तुओं के रूप में प्रकट होता है  । मायावह है जो अनुभव के समय वास्तविक प्रतीत होता है लेकिन जिसका अंतिम अस्तित्व नहीं है। यह शुद्ध चेतना पर निर्भर है। ब्रह्म एक आंतरिक परिवर्तन या संशोधन के बिना कई गुना दुनिया के रूप में प्रकट होता है। ब्रह्म कभी भी दुनिया में नहीं बदलता है। संसार तो एक विवर्तन है, ब्रह्म पर अध्यारोपण। जगत् न तो पूर्णतः वास्तविक है और न पूर्णतः असत्य। यह पूरी तरह से असत्य नहीं है क्योंकि यह अनुभव किया जाता है। यह पूरी तरह से वास्तविक नहीं है क्योंकि यह ब्रह्म के ज्ञान से उच्चीकृत होता है। संसार के अस्तित्व और ब्रह्म के बीच के संबंध को स्पष्ट करने के लिए कई उदाहरण दिए गए हैं। दो प्रसिद्ध उदाहरण हैं एक बर्तन में अंतरिक्ष बनाम पूरे ब्रह्मांड में अंतरिक्ष (वास्तव में अविभाज्य, हालांकि मनमाने ढंग से बर्तन की आकस्मिकताओं द्वारा अलग किया जाता है जैसे कि दुनिया ब्रह्म के संबंध में है), और स्वयं बनाम प्रतिबिंब स्वयं का (स्वयं के अलावा कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होने वाला प्रतिबिंब जैसे कि दुनिया की वस्तुएं ब्रह्म पर पर्याप्तता के लिए निर्भर करती हैं)। एक व्यक्तिगत  जीव का अस्तित्वऔर दुनिया एक शुरुआत के बिना है। हम यह नहीं कह सकते कि वे कब शुरू हुए, या पहला कारण क्या है। लेकिन दोनों का अंत है, जो ब्रह्म का ज्ञान है। शास्त्रीय अद्वैत वेदांत के अनुसार, अनुभवजन्य दुनिया के अस्तित्व की कल्पना एक ऐसे निर्माता के बिना नहीं की जा सकती जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो। संसार की उत्पत्ति, पालन-पोषण और  प्रलय ईश्वर द्वारा ही देखे जाते हैं । ईश्वर ब्रह्म की शुद्धतम अभिव्यक्ति है। माया की  रचनात्मक शक्ति वाला ब्रह्म ईश्वर है । माया के व्यक्तिगत ( व्यष्टि ) और ब्रह्मांडीय ( समष्टि ) दोनों पहलू हैं। ब्रह्मांडीय पहलू एक ईश्वर से संबंधित है  , और व्यक्तिगत पहलू,  अविद्या, कई  जीवों के अंतर्गत आता है । लेकिन अंतर यह है कि ईश्वर को माया द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है  , जबकि  जीव पर  अविद्या का अधिकार होता है । माया संसार के निर्माण के लिए उत्तरदायी है। अविद्या स्वयं और गैर-स्व के बीच के विशिष्ट अस्तित्व को भ्रमित करने के लिए जिम्मेदार है। इस भ्रम के साथ,  अविद्या ब्रह्म को छुपाती है और दुनिया का निर्माण करती है। परिणामस्वरूप जीव एक सीमित दुनिया के कर्ता ( कर्ता ) और भोक्ता ( भोक्ता ) के रूप में कार्य करता है। शास्त्रीय चित्र की तुलना अद्वैत वेदांत के दो उप-विद्यालयों से की जा सकती है जो शंकर के बाद उत्पन्न हुए:  भामतीऔर  विवरना । इन दो उप-विद्यालयों के बीच प्राथमिक अंतर  अविद्या और  माया के लिए अलग-अलग व्याख्याओं पर आधारित है । शंकर ने  अविद्या को अनादि बताया। उन्होंने माना कि अविद्या की उत्पत्ति की खोज करना  ही अविद्या पर आधारित एक प्रक्रिया है  और इसलिए यह निष्फल होगी। लेकिन शंकर के शिष्यों ने इस अवधारणा पर अधिक ध्यान दिया, और इस प्रकार दो उप-विद्यालयों की उत्पत्ति हुई। भामाती स्कूल का नाम वाकास्पति मिश्रा (नौवीं शताब्दी) शंकर के  ब्रह्म सूत्र भाय्य पर टिप्पणी के लिए है , जबकि  विवरण स्कूल का नाम पद्मपद की पंचपदिका पर प्रकाशमान (दसवीं शताब्दी) की टिप्पणी के नाम पर रखा गया है  , जो स्वयं शंकर के  ब्रह्म सूत्र भाय्य पर एक टिप्पणी है । प्रमुख मुद्दा जो  भामती और  विवरण स्कूलों को अलग करता है, वह है अविद्या की प्रकृति और स्थान पर उनकी स्थिति  । भामती विचारधारा के  अनुसार  जीव अविद्या का ठिकाना और उद्देश्य है  । विवरण विचारधारा के अनुसार  अविद्या का ठिकाना ब्रह्म है  । भामती विचारधारा का  मानना ​​है कि ब्रह्म कभी भी  अविद्या का ठिकाना नहीं हो सकता, बल्कि इसका नियंत्रक है ईश्वर । जीव ,  तुला - अविद्या , या व्यक्तिगत अज्ञानता से संबंधित  दो कार्य करता है - ब्रह्म को ढकता है, और प्रोजेक्ट ( विक्षेप ) एक अलग दुनिया। मूल - अविद्या ("मूल अज्ञान") सार्वभौमिक अज्ञान है जो  माया के बराबर है, और ईश्वर द्वारा नियंत्रित है  । विवरण विचारधारा का  मानना ​​है कि चूंकि केवल ब्रह्म ही अस्तित्व में है, ब्रह्म  अविद्या का ठिकाना और उद्देश्य है । ज्ञानमीमांसा संबंधी चर्चाओं की सहायता से ब्रह्म और संसार के बीच द्वैत की अवास्तविकता स्थापित होती है। विवरण _ स्कूल ब्राह्मण के अस्तित्व के बारे में "शुद्ध चेतना" और "सार्वभौमिक अज्ञान" दोनों के रूप में सवाल का जवाब देता है, यह दावा करते हुए कि वैध अनुभूति ( प्रमा )  रोजमर्रा की दुनिया में अविद्या मानती है, जबकि शुद्ध चेतना ब्रह्म की आवश्यक प्रकृति है।

अस्तित्व के तीन मान
शास्त्रीय अद्वैत वेदांत के अनुसार अस्तित्व के तीन विमान हैं: पूर्ण अस्तित्व का विमान ( परमार्थिका सट्टा ), सांसारिक अस्तित्व का विमान ( व्यावहारिका सत्ता ) जिसमें यह दुनिया और स्वर्गीय दुनिया शामिल है, और भ्रामक अस्तित्व का विमान ( प्रतिभासिका अस्तित्व) . अस्तित्व के दो बाद के  स्तर माया के कार्य हैं और इस प्रकार कुछ हद तक भ्रामक हैं। एक  प्रतिभासिक:अस्तित्व, जैसे कि मृगतृष्णा में प्रस्तुत वस्तुएं, सांसारिक अस्तित्व से कम वास्तविक नहीं हैं। हालांकि, इसकी संगत असत्यता उस से अलग है जो बिल्कुल न के बराबर या असंभव की विशेषता है, जैसे कि आकाश-कमल (आकाश में उगने वाला कमल) या बांझ महिला का पुत्र। एक मृगतृष्णा और दुनिया का स्वतंत्र अस्तित्व, जो दोनों एक निश्चित कारण की स्थिति के कारण होते हैं, एक बार कारण स्थिति बदलने के बाद समाप्त हो जाते हैं। कारण स्थिति  अविद्या , या अज्ञान है। संसार का स्वतंत्र अस्तित्व और अनुभव ब्रह्म के ज्ञान की प्राप्ति के साथ समाप्त हो जाता है। ब्रह्म के ज्ञान की प्रकृति यह है कि "मैं शुद्ध चेतना हूँ।" जीव का आत्म-अज्ञान (व्यक्तिगत स्व) कि "मैं सीमित हूं" को ब्रह्म-ज्ञान द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है कि "मैं सब कुछ हूं," साथ ही पारलौकिक ब्रह्म के साथ स्वयं की पुन: पहचान। ब्रह्म को जानने वाला हर चीज में एक ही गैर-बहुवचन वास्तविकता को देखता है। वह अब दुनिया के स्वतंत्र और सीमित अस्तित्व को एक पूर्ण वास्तविकता नहीं देता है, बल्कि दुनिया को शुद्ध चेतना की रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करता है। जाग्रत ( जाग्रत ), स्वप्न ( स्वप्न ) और गहरी नींद ( सुसुप्ति ) की सभी अवस्थाएँ चौथी अनाम अवस्था  तुरीय की ओर इशारा करती हैं।, शुद्ध चेतना, जिसे सच्चे स्व के रूप में महसूस किया जाना है। शुद्ध चेतना न केवल शुद्ध अस्तित्व है बल्कि परम आनंद भी है जो आंशिक रूप से गहरी नींद के दौरान अनुभव किया जाता है। इसलिए हम तरोताजा होकर उठते हैं।

3. ज्ञानमीमांसा
अद्वैत परंपरा सत्य के तीन कम परीक्षण सामने रखती है: पत्राचार, सुसंगतता और व्यावहारिक प्रभावकारिता। इसके बाद सत्य की चौथी परीक्षा होती है: ज्ञान-मीमांसा-निरर्थकता ( अध्यात्त्वम् या बधाताहित्यम )। वेदांत परिभण (अद्वैत वेदांत का एक शास्त्रीय पाठ) के अनुसार  "वह ज्ञान वैध है जिसके उद्देश्य के लिए कुछ ऐसा है जो अप्रमाणित है।" गैर-उपलब्धता को वैध ज्ञान के लिए अंतिम मानदंड माना जाता है। ज्ञान-मीमांसा-निरर्थकता का मास्टर परीक्षण एक और बाधा को प्रेरित करता है: आधारभूतता ( अनाधिगतत्वम, जलाया। "पहले से ज्ञात नहीं")। सत्य का यह अंतिम मानदंड उच्चतम मानक है कि वस्तुतः सभी ज्ञान के दावे विफल हो जाते हैं, और इस प्रकार यह निरपेक्ष, या अयोग्य, ज्ञान का मानक है, जबकि पूर्व मानदंड सांसारिक, सांसारिक ज्ञान के दावों के लिए उत्तरदायी हैं। अद्वैत वेदांत के अनुसार, एक निर्णय सत्य है यदि वह अनसुलझा रहता है। आमतौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला उदाहरण जो ज्ञान-मीमांसा-निरर्थकता को दर्शाता है, वह रस्सी है जो दूर से सांप के रूप में दिखाई देती है (भारतीय दर्शन में एक स्टॉक उदाहरण)। अद्वैत वेदांत के अनुसार इस परिस्थिति में एक सांप को देखने का विश्वास गलत है क्योंकि सांप की मान्यता (और एक सांप की दृश्य प्रस्तुति) इस निर्णय में निहित है कि जो वास्तव में देख रहा है वह एक रस्सी है। केवल गलत संज्ञान ही सबलेट किया जा सकता है। नींव की स्थिति स्मृति को ज्ञान के साधन के रूप में अयोग्य बनाती है। स्मृति पहले से ज्ञात किसी चीज का स्मरण है और इस प्रकार व्युत्पन्न है और आधारभूत नहीं है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, आत्मा का केवल वास्तविक ज्ञान ही नींव की परीक्षा पास करता है: यह तत्काल ज्ञान से पैदा होता है (अपरोक्ष ज्ञान ) और स्मृति नहीं (स्मृति ) । जानने के छह प्राकृतिक तरीकों को अद्वैत वेदांत द्वारा ज्ञान के वैध साधन ( प्रामाण ) के रूप में स्वीकार किया जाता है: धारणा ( प्रत्यक्ष ), अनुमान (अनुमान ), मौखिक गवाही ( शब्द ), तुलना ( उपमान ), आसन ( अर्थपट्टी ) और गैर-आशंका ( अनुपलब्धि ) ) प्रमाण एक दूसरे का खंडन नहीं करते हैं और उनमें से प्रत्येक एक अलग तरह का ज्ञान प्रस्तुत करता है । ब्रह्म का निराधार ज्ञान किसी भी माध्यम से  श्रुति के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, जो वेदों के रूप में अलौकिक रूप से प्रकट पाठ है (जिनमें से उपनिषद सबसे दार्शनिक भाग हैं)। अनुमान और ज्ञान के अन्य साधन निश्चित रूप से ब्रह्म के सत्य को स्वयं प्रकट नहीं कर सकते। हालांकि, अद्वैत मानते हैं कि श्रुति के अलावा, ब्रह्म के ज्ञान को साकार करने के लिए युक्ति (कारण) और  अनुभव (व्यक्तिगत अनुभव) की  आवश्यकता होती  है। मोक्ष(मुक्ति), जिसमें जीवन और मृत्यु के चक्र की समाप्ति शामिल है, व्यक्तिगत स्वयं के कर्म द्वारा शासित, ब्रह्म के ज्ञान का परिणाम है। चूंकि ब्रह्म सार्वभौमिक स्व के समान है, और यह आत्मा हमेशा आत्म-चेतन है, ऐसा लगता है कि ब्रह्म का ज्ञान आत्म-ज्ञान है, और यह आत्म-ज्ञान हमेशा मौजूद है। यदि ऐसा है, तो ऐसा लगता है कि अज्ञानता असंभव है। इसके अलावा,  अध्यास भाय्य में ( ब्रह्म सूत्र पर भाष्य की उनकी प्रस्तावना) ) शंकर कहते हैं कि शुद्ध विषय-वस्तु-आत्मा या ब्रह्म- कभी भी ज्ञान का विषय नहीं बन सकता, जैसे विषय कभी विषय नहीं हो सकता। इससे पता चलता है कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए जो आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है, वह असंभव है। इस समस्या के प्रति शंकर की प्रतिक्रिया ब्रह्म के ज्ञान के संबंध में है जो कि मुक्ति के लिए आवश्यक है, शास्त्र से प्राप्त, ब्रह्म की आत्म-चेतना से अलग होना, बल्कि एक व्यावहारिक ज्ञान जो अज्ञान को दूर करता है, जो कि प्रकाश के लिए एक बाधा है। ब्रह्म की सदा-वर्तमान आत्म-चेतना जो नींव की परीक्षा पास करती है। अज्ञान, बदले में, उनके खाते में परम स्व की विशेषता नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत स्वयं की एक विशेषता है जो अंततः असत्य है। बाहरी धारणा में चार कारक शामिल होते हैं: भौतिक वस्तु, इंद्रिय अंग, मन (अंतःकरण ) और आत्मज्ञानी ( प्रमाता )। केवल ज्ञेय आत्म ही आत्म-प्रकाशमान है और शेष तीन कारक चेतना से रहित आत्म-प्रकाशमान नहीं हैं। यह मन और इंद्रिय अंग है जो ज्ञेय स्व को विषय से जोड़ता है। केवल आत्मा ही जानने वाला है और शेष ज्ञान की वस्तुओं के रूप में जानने योग्य हैं। साथ ही मन का अस्तित्व निर्विवाद है। यह मन ही है जो विभिन्न धारणाओं के बीच अंतर करने में मदद करता है। शुद्ध चेतना के स्व-प्रकाश ( स्वत-प्रकाश ) स्वरूप के कारण ही विषय को जाना जाता है और विषय को जाना जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद के भाष्य में , शंकर कहते हैं कि "चेतना स्वयं की प्रकृति है और इससे अविभाज्य है।" ज्ञेय स्व, ज्ञात वस्तु, विषय-ज्ञान और ज्ञान के वैध साधन ( प्रामाण ) अनिवार्य रूप से एक शुद्ध चेतना की अभिव्यक्तियाँ हैं

 

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##मैं पिछले20 वर्षो से थाइराइड,डायबेटिक,हार्ट संबंधित रोग,लीवर आदि प्रमुख बीमारियों का खानपान में परिवर्तन कर शतप्रतिशत इलाज का प्रयास कर रहा हू, सही आहार एंव न्युनतम होम्योपेथिक दवाओं से पूर्णतया बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है ऐसा मेरा यह मानना है, तथा मैने शतप्रतिश हजारो लोगों में तथा हर आयुवर्ग में सफल प्रयोग किया है, न्युनतम व्यय- प्राय हम हम जो सात्विक भोजन पर व्यय करते है उसी के अनुरूप ही व्यय है को किया जाकर हमारी दैनिक आदतों में बीमारी से लड़ने तथा ठीक होने के प्रयास मोजूद है । यह  कि आहार में प्रमुख परिवर्तन करके ही बीमारियों से लड़ा जा सकता है तथा बीमारियों से निजात पाई जा सकती है ।

लाईफ यानि की जीवन! मूल्यों और अनुशासन पर भी आश्रित ही रहना चाहिए, केवल कल्पना और ठोस प्रयास के अभाव में जीवन केवल ट्रक की लाईट के पीछे भटका बाईक सवार जो शायद रास्ता पार ही लगाये । हमेशा ईवी स्कूटर की तरह जीवन जीये, संतुलित सहज,शान्त और निरन्तर प्रतिदिन चार्ज डिस्चार्ज । पर गतन्व पर धीरे पर अवश्य पहुच निश्चित!
केवल मल्टीग्रेन का इस्तेमाल खाने में करे स्वस्थ रहे सभी प्रकार की बीमारियों को भगाये! मल्टीग्रेन में जौ,ज्वार,मक्का,बाजरा,चना,मूंग और मोठ का इस्तेमाल रितु के अनुसार लेवें इसी मल्टीग्रेन में 90प्रतिशत मोटे अनाज है एंव 10 प्रतिशत दाले है । रोटी,दलिया का उपयोग चार बार अवश्य करे । संतुलित भोजन स्वस्थ जीवन।

 

//PL USE THE BARLEY,SHORGUM,MILLET,GRAM,MAIZE LENTIL LIKE MOONG AND MOTH//

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For the last 20 years, I am trying to cure 100% of the major diseases like thyroid, diabetic, heart related diseases, liver etc. It is, and I have done 100% successful experiment in thousands of people and in every age group, the minimum expenditure - usually the expenditure we spend on sattvik the whole grain 8-9 type coarse gains- the veg food is the same as it should be done in our daily habits to fight disease and get cured. The effort exists. That only by making major changes in the diet, diseases can be fought and diseases can be overcome.

Benefits of Multigrain-Health.gov's 2015-2020 Dietary Guidelines for Americans suggests that you eat 6 ounces of grain daily and get at least half of that from whole grains,

Benefits of Multigrain - How can We are diet plan with whole grains,bean and lentils Present study was undertaken for development of gluten free processed products i.e. cookies and pasta by incorporation of gluten-free ingredients in different proportions. Gluten free raw ingredients i. e. finger millet (FM), pearl millet (PM), soya bean (SB) and ground

contd part 3