Anuthi Pahal - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

अनूठी पहल - 9

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प्रभुदास ने जिस सेठ से मकान ख़रीदा था, मकान के पीछे बाज़ार की ओर खुलता उसी सेठ का अहाता था, जो उसने जैन समाज को स्थानक बनाने के लिए दान कर दिया था। इस अहाते में दोमंज़िला स्थानक का निर्माण होने के बाद से चौमासे में जैन साधुओं का ठहरना तथा प्रवचन करना आरम्भ हो गया था। चौमासे के अलावा भी जैन साधु-साध्वियों का आवागमन लगा रहता था। एक रविवार को पार्वती ने प्रवचन सुनकर आने के पश्चात् प्रभुदास को कहा - ‘प्रभु बेटे, स्थानक में एक पहुँचे हुए जैन मुनि आए हुए हैं। वे ‘चौमासा’ यहीं करेंगे। वे बहुत ही विद्वान हैं। बहुत बढ़िया प्रवचन करते हैं। तू भी एक बार ज़रूर उनको सुन।’

‘माँ, जब आप कहती हैं, तो अगले इतवार को आपके साथ मैं भी चलूँगा।’

प्रभुदास जैन मुनि को सुनने के लिए बहुत उत्सुक था। प्रवचन नौ बजे आरम्भ होना था। प्रभुदास और पार्वती पाँच मिनट पहले ही स्थानक में पहुँच गए। सही समय पर मुनिवर मंच पर उपस्थित हुए। सभागार अभी आधे से अधिक ख़ाली था। जैसे ही मुनि जी ने प्रवेश किया, सभी उपस्थित श्रोताओं ने उठकर उनका अभिवादन किया। तत्पश्चात् सामूहिक वन्दना हुई। मुनिवर ने नवकार मंत्र का जाप किया -

णमो अरिहंताणं,

णमो सिद्धाणं,

णमो आयरियाणं

णमो उवज्झायाणं

णमो लोएसव्यसाहूणं

ऐसो पंच णमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।

मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ़म हवइ मंगल।।

मंत्रोच्चारण करने के बाद मुनिवर ने अपना प्रवचन प्रारम्भ किया - ‘परमेश्वर ने हमें यह शरीर भौतिक कर्त्तव्यों के निर्वहन के लिए प्रदान किया है। मनुष्य की भाँति शरीर तो अन्य जीव-जन्तुओं को भी मिला है, लेकिन मनुष्य को शरीर के साथ बुद्धि का वरदान भी मिला है। बुद्धि के कारण ही हम अपना भला-बुरा विचार सकते हैं। भले कर्म करके हम अपना जीवन तो सार्थक करते ही हैं, समाज के लिए भी उपयोगी सिद्ध होते हैं। आज मैं एक ऐसा विषय, एक ऐसा विचार आपके समक्ष रख रहा हूँ, जिसके पालन से आपका कुछ घटेगा नहीं, लेकिन समाज का बहुत भला हो सकता है।

‘आप सभी जानते हैं, संसार के सभी पदार्थ पंचभूतों से बने हैं - पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि। लेकिन ये पदार्थ जड़ रूप में होते हैं। इन्हें सजीवता प्रदान करती है आत्मा अथवा प्राण। जब तक प्राणियों के शरीर में प्राणों का स्पन्दन है, तभी तक वह जीवित है। प्राण-पखेरू शरीर से निकलते ही शरीर मिट्टी में परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति की मृत्यु होते ही परिजन, नज़दीक-से-नज़दीक रिश्तेदार भी मिट्टी को जल्दी-से-जल्दी ठिकाने लगाने की बात करने लगते हैं।

‘आज मैं आप लोगों को बताता हूँ कि आप इस मिट्टी हुए शरीर को किस तरह समाज-हित में लगा सकते हैं? पहली नज़र में आपको आश्चर्य हो सकता है कि मूल्यहीन दिखाई देने वाली मृत-देह भी किसी के लिए अमूल्य हो सकती है? कभी विचार किया है आपने इस विषय पर? कभी किसी के मन में ऐसा विचार आया हो तो हाथ उठाएँ  ……’

मुनि जी ने अपनी बात का असर देखने के लिए वाणी को क्षणिक विराम दिया। जब कोई हाथ नहीं उठा तो उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - ‘चिकित्सा के क्षेत्र में डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले बच्चों को मानव-शरीर की संरचना समझाने के लिए मेडिकल कॉलेजों में अध्यापक मृत-देह को माध्यम बनाते हैं। सिर्फ चिकित्सा की जनरल पढ़ाई-लिखाई में ही नहीं, बल्कि शोध और जटिल ऑपरेशनों में भी बड़े-बड़े डॉक्टर मृत-देह पर प्रयोग करके बहुत-से रोगियों को नई ज़िन्दगी प्रदान करते हैं।

‘अब प्रश्न उठता है कि मेडिकल कॉलेजों को मृत शरीर कहाँ से मिलते हैं? सीधा-सा जवाब है, लावारिस लाशों को पुलिस अथवा म्यूनिसिपल कमेटी वाले मेडिकल कॉलेज के हवाले कर देते हैं। ऐसा भी होता है कि किसी लावारिस व्यक्ति की अस्पताल में मृत्यु हो जाती है तो अस्पताल वाले उस मृत शरीर को मेडिकल कॉलेज में पहुँचा देते हैं। कुछ समय पूर्व मेडिकल कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर से मुझे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि एक डेड बॉडी से मेडिकल कॉलेज में 10-12 विद्यार्थियों को पढ़ाया जा सकता है। उन्होंने यह भी बताया कि पढ़ाने के लिए जितनी डेड बॉडीज की ज़रूरत होती है, उसका दस-पन्द्रह प्रतिशत ही उपलब्ध हो पाती हैं। अब आप देखिए, डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले बच्चों तथा पढ़ाई करवाने वाले प्रोफ़ेसरों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता होगा!

‘यदि हम निश्चय कर लें कि मृत्योपरांत हम अपनी देह, अपने मिट्टी हो चुके शरीर को चिकित्सा जगत् के लिए दान करेंगे और अपने परिवार में किसी भी सदस्य की मृत्यु होने पर उसका शरीर मेडिकल कॉलेज में विद्यार्थियों की पढ़ाई के लिए देंगे तो मेडिकल की पढ़ाई करवाने वाले प्रोफ़ेसरों के लिए भी बहुत सुविधा हो जाएगी।

‘आपके मन में सवाल उठेगा कि इस प्रकार तो शास्त्रों में उल्लिखित मानव-जीवन का अंतिम संस्कार - दाह-संस्कार - नहीं हो पाएगा और शास्त्र की अवहेलना होगी। शास्त्र की अवहेलना होगी, तो व्यक्ति को मुक्ति कैसे मिलेगी? यह हमारी आस्था से जुड़ा प्रश्न है। इसका साधारण-सा जवाब है कि आत्मा तो अजर, अमर, अनश्वर है। भगवान् कृष्ण ‘गीता’ में कहते हैं -

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषति मारुत।।

कहने का अभिप्राय: है कि आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है। न इसे पानी भिगो सकता है, न ही हवा सुखा सकती है। जब आत्मा अजर-अमर है, तो उसकी मुक्ति का सवाल ही कहाँ उठता है? बल्कि माटी हो चुकी देह का दान करके मृत्यु के बाद भी आप पुण्य के भागीदार बनते हैं।

‘आज से डेढ़-दो सौ साल पहले तक अस्पतालों में मृत मानव-शरीरों की उपलब्धता इतनी कम थी कि उसकी आपूर्ति करने के लिए 1800 के आसपास अस्पतालों को मृत शरीर बेचने वाले एक व्यक्ति ने 15 हत्याएँ कर दी थीं। तब जाकर देहदान को लेकर 1832 में अमेरिका में पहली बार क़ानून बना था।

‘हमारे देश में तो देहदान की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। आप में से काफ़ी लोगों ने महर्षि दधीचि का नाम अवश्य सुना होगा, जिन्होंने सृष्टि के कल्याण हेतु अपना शरीर दान कर दिया था। ऋषि-मुनि प्राय: तपस्या में ही लीन रहा करते थे। उनकी तपस्या लोकहित के लिए हुआ करती थी। इसी प्रकार ऋषि दधीचि भी कठोर तपस्या कर रहे थे। देवताओं के राजा इन्द्र बहुत अस्थिर मन के स्वामी थे, उन्हें निरन्तर भय लगा रहता था कि कोई उनसे उनका साम्राज्य न छीन ले। ऋषि दधीचि की कठोर तपस्या का आलोक तीनों लोकों में फैल गया। यह देखकर इन्द्र को लगा, कहीं ये ऋषि उसका इन्द्रासन तो नहीं छीनना चाहते! अत: उसने ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए पहले कामदेव के साथ एक अप्सरा को भेजा, लेकिन जब कामदेव असफल रहा तो इन्द्र ने स्वयं सेना सहित ऋषि की तपस्या भंग करने की योजना बनाई। किन्तु उसका यह प्रयास भी विफल हुआ, क्योंकि उसके अस्त्र-शस्त्र तपस्वी के अभेद्य कवच को भेद न सके। इन्द्र को हताश होकर लौटना पड़ा। दैत्य अपनी अपार शक्तियों से पृथ्वी-लोक में तो अपना आतंक मचाए रखते ही थे, अपना प्रभुत्व जमाने के लिए यदा-कदा देवलोक पर भी चढ़ाई कर देते थे। एक बार वृत्रासुर नाम के राक्षस ने देवताओं को पराजित कर इन्द्र को अपदस्थ कर दिया। पराजित देवता प्रजापति ब्रह्मा की शरण में पधारे। ब्रह्मा जी ने उन्हें सलाह दी कि इस समय दैत्यों को परास्त करने के लिए किसी महान् तपस्वी के बलिदान की आवश्यकता है। देवताओं के पूछने पर ब्रह्मा जी ने बताया कि इस समय महर्षि दधीचि से बड़ा कोई तपस्वी नहीं। यदि वे अपना शरीर त्याग करने को तैयार हो जाएँ तो उनकी हड्डियों से जो वज्र बनेगा, उससे दैत्यों का संहार सम्भव है। इन्द्र दुविधा में पड़ गया। सोचने लगा कि जिस ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए मैंने सेना तक का प्रयोग किया, अब उसे शरीर त्यागने के लिए कैसे कहूँगा। कहावत है कि ज़रूरत के समय गधे को भी बाप बनाना पड़ता है और इन्द्र तो अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने को तैयार था, सो वह देवताओं को साथ लेकर दधीचि ऋषि के आश्रम में पहुँचा। ऋषि तो मन में कलुषता रखते नहीं। उन्होंने देवताओं की यथोचित आवभगत की और पधारने का मनोरथ पूछा। इन्द्र ने झिझकते हुए अपना मन्तव्य ऋषि के सामने रखा। ऋषि ने तत्क्षण कहा - देवेन्द्र, मेरा शरीर लोकहित में काम आता है तो मुझे प्रसन्नता होगी और उन्होंने योग विद्या से शरीर त्याग दिया, क्योंकि वे जानते थे कि शरीर नश्वर है और एक दिन इसे मिट्टी में मिल जाना है।

‘थोड़ी देर पहले मैंने जिस डॉक्टर प्रोफ़ेसर का ज़िक्र किया था, उसने मुझे बताया था कि एक बार अस्पताल में एक युवा मरीज़ आया, जिसका एक्सीडेंट में हाथ कट गया था। सर्जन ने उसका निरीक्षण करने के बाद मेडिकल कॉलेज में रखी मृत-देह पर प्रेक्टिकल करके देखा और नौजवान का ऑपरेशन करके उसे पूरा हाथ देने में सफल हुए। यह इसलिए सम्भव हो सका कि मेडिकल कॉलेज में किसी महादानी ने अपनी देह मेडिकल कॉलेज को दान की थी।

‘आप लोगों की एक शंका की ओर संकेत तो मैंने पहले भी किया है, अब उसका खुलासा करता हूँ। मेडिकल कॉलेजों तथा कुछ अस्पतालों में ऐसे प्रबन्ध किए गए हैं कि देह का दान करने वाले की आत्मा की शान्ति के लिए वे धर्म विशेष की परम्पराओं के अनुसार पाठ-पूजा, यज्ञ और प्रतीकात्मक रूप से फूल चुनने जैसे कार्य भी सम्पन्न कराते हैं। इसलिए मेरा आप से अनुरोध है कि इस विषय पर गम्भीरता से चिंतन करें तथा मरणोपरान्त देह दान करने के लिए आगे आएँ। मुझे पूरा विश्वास है कि आप इस पुण्य कार्य के लिए अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहेंगे। आप सभी स्वस्थ रहें, आपके परिवार में ख़ुशियों का विस्तार हो, समाज में सौहार्द रहे तथा देश उन्नति की ओर अग्रसर हो, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ हम अपनी वाणी को विराम देते हैं।

णमो अरिहंताणं,

णमो सिद्धाणं,

णमो आयरियाणं

णमो उवज्झायाणं

णमो लोएसव्यसाहूणं

………

प्रवचन की समाप्ति पर प्रभुदास ने पार्वती से कहा - ‘माँ, तुम चलो, मैं मुनि जी से कुछ बातें करके आता हूँ।’

उसने जैन समाज के प्रधान पुनीत जैन से अपनी मंशा प्रकट की तो वह तत्काल उसे मुनि जी के पास ले गया। प्रभुदास का परिचय देते हुए उसने कहा - ‘मुनिवर, ये प्रभुदास जी हैं, हमारी मंडी के प्रमुख समाजसेवी। इन्होंने लड़कियों के कॉलेज के लिए ज़मीन दान की है, और अन्य अनेक समाज-कल्याण के कार्यों में बढ़चढ़ कर सहयोग देते रहते हैं। आपके आज के प्रवचन को सुनकर ये इस दिशा में कुछ काम करना चाहते हैं, आपसे मार्गदर्शन चाहते हैं।’

‘प्रभुदास जी, पुनीत की बातें सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि कम-से-कम एक व्यक्ति तो ऐसा है, जो तत्काल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामने आया है। आपको बहुत बहुत बधाई।’

‘मुनिवर, मेरा अभिनन्दन स्वीकार करें। कृपया मुझ नाचीज़ को जी कहकर न बुलाएँ, मैं तो उम्र में भी आपसे छोटा हूँ, आपके ज्ञान और अनुभव के सामने तो मैं बौना हूँ।’

‘प्रभुदास जी, छोटा या बड़ा कोई आयु से नहीं होता। आपके विचार और सोच आपको बड़ा या छोटा बनाती है। इतनी कम आयु में आपने लड़कियों की शिक्षा के लिए कॉलेज खोलने की सोची, और  उस सोच को कार्यान्वित करने के लिए कदम उठाए, यह बहुत ही सराहनीय तथा आपकी प्रगतिशील सोच का द्योतक है। हम आपकी जितनी भी प्रशंसा करें, कम होगी। …. अच्छा बताइए, देहदान के विषय में आप क्या पूछना चाहते हैं?’

‘मुनिवर, कृपया मुझे यह बताएँ कि हम इस छोटी-सी मंडी के निवासी इस यज्ञ की शुरुआत कैसे करें?’

‘अंग्रेज़ी की कहावत है - चैरिटी बिगन्स एट होम अर्थात् शुभ कार्य का आरम्भ स्वयं से करो। पहले सिविल अस्पताल में जाकर देहदान करने का फार्म भरो। इसके बाद अपने सम-विचारक चार-पाँच मित्रों की मंडली बनाओ और मंडी में जिस व्यक्ति की भी मृत्यु हो, उसके घर जाकर उसके परिवार वालों को समझाओ कि माटी हो चुके शरीर को जलाने की अपेक्षा मेडिकल कॉलेज अथवा अस्पताल को देने के क्या फ़ायदे हैं। शुरू में आपको लोगों से सहयोग मिलने की बहुत कम आशा है, बल्कि आपको बुरा-भला भी सुनने को मिल सकता है। लेकिन, यदि आप हतोत्साहित न होकर अपने मिशन में लगे रहे तो, मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन ऐसा आएगा कि लोग स्वयं आपके पास आकर देहदान करने में आपकी सहायता माँगा करेंगे। कॉलेज की स्थानीय कमेटी के आप प्रधान हैं, कॉलेज की प्रिंसिपल के माध्यम से बच्चों में इसके सम्बन्ध में जागरूकता पैदा की जा सकती है। बच्चियाँ अपने-अपने परिवार की सोच बदलने में बहुत कारगर सिद्ध हो सकती हैं। जब लोग इस दिशा में सहयोग करने लगेंगे तो ऐसे परिवारों को सार्वजनिक मंच से सम्मानित किया जा सकता है। मेरे विचार में, यदि आप इतना कर लेंगे तो यह मिशन दूसरे शहरों में भी बहुत जल्दी फैल सकता है।’

‘मुनिवर, आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं और मेरे मित्र इस मिशन को सफल बनाने का पूरा प्रयास करेंगे।’

‘मेरा आशीर्वाद आपके साथ है। कभी कोई सार्वजनिक कार्यक्रम इस विषय पर रखोगे और मुझे याद करोगे तो मैं अवश्य पधारूँगा।’

इस प्रकार मुनिवर से मार्गदर्शन प्राप्त करके प्रभुदास घर न जाकर सीधा रामरतन के घर जा पहुँचा। नमस्ते के आदान-प्रदान उपरान्त प्रभुदास ने जमना को कहा - ‘भाभी चाय पिलाओ’, और जमना के रसोई में जाने पर उसने रामरतन को जैन मुनि द्वारा कही सारी बातें बताईं। देहदान की महत्ता सुनकर वह भी तुरन्त देहदान का फार्म भरने के लिए तैयार हो गया।

……..

प्रभुदास ने रामरतन के अतिरिक्त मंडी में से दो और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को अपने मिशन ‘देहदान’ के साथ जोड़ा और जुट गए मिशन को कामयाब करने के लिए। सर्वप्रथम प्रभुदास ने कॉलेज की प्रिंसिपल से मिलकर किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में सभी विद्यार्थियों के समक्ष देहदान पर भाषण देने के लिए सहमत किया। इसके लिए बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। ‘शिक्षक दिवस’ पर कॉलेज प्रबंधन कमेटी के सदस्यों की उपस्थिति में कॉलेज के हॉल में आयोजित कार्यक्रम में ‘देहदान मिशन’ का शुभारम्भ किया गया। साथ ही अस्पताल, मन्दिर, गुरुद्वारे, स्कूलों तथा सार्वजनिक स्थलों पर बैनर लगाने का काम शुरू किया। इसके साथ ही प्रभुदास तथा उनके मित्रों ने निर्णय लिया कि मंडी में किसी भी परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु का समाचार इनमें से किसी को भी मिलता है तो वह दूसरे साथियों को तुरन्त सूचित करेगा और वे इकट्ठे होकर वहाँ पहुँचेंगे। इस प्रकार वे परिजनों में से किसी एक व्यक्ति, जो सारी व्यवस्था देख रहा होता, से वे बात करते, उसे देहदान करने का महत्त्व समझाते तथा प्रार्थना करते कि मृत शरीर को अग्नि के सुपुर्द करने की बजाय अस्पताल वालों को दे दें। इन लोगों की बातों को कुछ जगह ध्यान से सुना गया, किन्तु उसपर अमल नहीं हुआ। कुछ लोगों ने इनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया। एक-आध जगह इन्हें खरी-खोटी भी सुननी पड़ी, किन्तु इन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी। कहते हैं कि हिम्मत रखने वाले अन्ततः कामयाब होते हैं। इनको भी कामयाबी मिली। आठ-दस महीने के निरन्तर प्रयास स्वरूप मन्दिर कमेटी के प्रधान जगन्नाथ के पिता श्री प्रेमनारायण का जब स्वर्गवास हुआ तो जगन्नाथ ने प्रभुदास की मंडली की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए और अपने रिश्तेदारों के विरोध को दरकिनार करते हुए प्रेमनारायण के पार्थिव शरीर को स्थानीय अस्पताल के मुख्य चिकित्सक डॉ. परमिन्दर सिंह की उपस्थिति में दान कर दिया।

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