Self-pity - Part -2 books and stories free download online pdf in Hindi

आत्मग्लानि - भाग -2

आगे....
बार -बार कोमल का मेरी तरफ देखना वहीं मेरी नजर का इत्तेफाकन उससे टकरा जाना जैसे वह मुझसे कुछ कहना चाह रही हो मगर संकोचवश रूक जाती है फिर जैसे थोड़ी सी हिम्मत कर आग्रहपूर्ण शब्दों में "दीदीजी मेरा हिसाब आज ही कर दीजिये | मेरा घरवाला कह रहा था परसो तक नही रुकेगा | जो भी तेरा काम हो आज के आज निपटा लियो |" आज पहला अवसर था जब कोमल ने खुद तनख्वाह की माँगी की हो , महीना पूरा होने से पहले ही तनख्वाह उसके हाथ मे होती थी | पता नही क्यों पर उसका इस तरह माँगना मुझे तनिक न भाया फिर भी वह अपने पैसे ही तो माँग रही है इसमे बुरा ही क्या है यह सोचकर रह गई | वैसे यह खीज पैसो की माँग की थी ही नही बल्कि यह माँग आर्थिक सक्षमता का आलस्यता की ओर उन्मुख विलासिता के विघ्न से उत्पन्न थी | पहले कोमल जब भी जाती थी पैसो के अतिरिक्त उसे ढेरो समान कपड़े,चप्पले व घरेलू इस्तेमाल की वस्तुएं इत्यादि दिये जाते थे | जो वस्त्र अत्याधिक चलन मे आ जाते उन्हे एक आलमारी मे किसी विशेष अवसर की प्रतीक्षा मे कोमल को दूँगी यह सोचकर आलमारी के एक रोब मे एकत्रित करती रहती | न जाने क्यों आज कुछ भी अतिरिक्त देने की इच्छा नही हुई |
तनख्वाह भी उतनी ही जितने दिन कार्य किया अभी महीना पूरा होने मे चार दिन शेष थे | मुझमे अचानक आये इस परिवर्तन को जैसे वह भॉप गई हो पैसे हाथ मे लेकर कुछ देर यूँ ही खड़ी सोचती रही फिर मेरे नजदीक आकर "दीदीजी आप मुझसे नाजर हो ?" उसके इस तरह पूँछने पर अन्तर छुपे स्वार्थबोध से कुछ देर के लिए स्वंय मे ही शर्मिंदगी का अनुभव तो हुआ मगर अधिक देर स्थाई न रह सका | और सिर हिलाते हुए " नही तो ! नाराज क्यों होऊँगी ! ! तू अपने घर जा रही है | इसमे नाराजगी वाली कौन सी बात है |" कुछ देर यूँ ही खड़ी वह मुझे देखती रही फिर बिना कुछ बोले वहाँ से चली गई | उसके जाने के बाद न जाने क्यों मन अपने ही व्यवहार से खिन्न होने लगा | बात जब निज स्वार्थ की आती है तो हमे दूसरो की खुशी भी खटकने लगती है | कितनी खुश थी आज वह अपने पति अपने घर ही तो जा रही थी | कितना गर्व था आज उसके चेहरे पर उस पराधीनता का | हाँ ! क्या सुख मिलेगा उसे वहाँ जाकर भी पति मे तो इतना भी सामर्थ नही कि उसके
खर्चे पूरे कर सके या पेट भर खिला दे तो पहनने की स्वतंत्रता कहाँ | यहाँ रहकर तो फिर भी रोज नये- नये वस्त्र उसके शरीर पर दिखते , हाँ ! उसके लिए तो नये के ही समान थे | व्यक्ति की परिस्थितियाँ वस्तुओं को मूल्य देंती हैं | हमारे पहने हुए कपड़ों को पाकर वह उन्हें नये से भी ज्यादा तवज्जो देती थी | यह सब वहाँ उसे नसीब होगा भी की नही मगर फिर भी वह आज इतनी खुश न जाने कौन सा खजाना उसे मिल गया हो | यहाँ तो उसे कोई कुछ बोलने वाला भी नही था | पहले कभी - कभार भाई से झड़प हो भी जाया करती थी मगर कई घरो मे काम करते हुए उसने खुद को आर्थिक रूप से सक्षम बना लिया था | अब वह भाई -भाभी किसी के दबाव मे न आती बल्कि नल्ला भाई पैसो की जरूरत के चलते उसके ही आगे पीछे घूमता | आधीनता मे सुख की खोज भला एक औरत के सिवा कौन कर सकता है | अगर यह भावना न होती तो क्या यह संसार , रिश्ते संतुलित हो पाते | इतनी प्रतारणा के पश्चात क्षमादान एक औरत की ही महानता है | यह सब सोचते ही कोमल के प्रति मन आदरभाव से भर गया आज वह नौकरानी नही बल्कि औरत का वह दिव्य रुप सी मालूम हो रही थी जिसकी आभा दैवत्व समेटे थी | जाते समय उसके साथ अपने अप्रत्यक्ष व्यवहार से एक बार फिर आत्मग्लानि हुई | बहुत मशक्कत के बाद सप्ताहान्त एक परिचित की मदद से एक कामवाली बाई मिली | जैसे एक रोगी को दवा मिलने पर राहत ऐसे ही | मगर दो दिन काम करने पर पता चला यह औषधि भी कारगर नही जहाँ एक ओर एक -एक काम को तरीके से करवाने के लिए उसके पीछे लगना पड़ता वहीं धीरे -धीरे आये दिन घर की चीजे गायब होने लगी | कोमल की इमानदारी ने हमे लापरवाह बना दिया था यही वजह थी की वस्तुओं के गायब होने पर भी हमे कामवली पर शक नही हुआ | मगर एक दिन अचानक मैने उसे रंगे हाथो पकड़ लिया | उसके रोने और माँफी माँगने पर मैने उसे घरवॎलो के कहने के पश्चात भी पुलिस को न देकर उसे जाने दिया | उसे छोड़ने की वजह उसकी दो बेटियाँ थी | उसका पति शराबी उसके जेल जाने पर उसकी बेटियाँ जो क्रमशः चौदह और पंद्रह वर्ष की नाजुक अवस्था में जहाँ समाज तो समाज घर पर भी उन्हे सम्भालना जिम्मेदारी थी | भले ही चोर थी मगर थी तो एक माँ भी यदि उसके चोरी वाले अवगुण को एक तरफ रख दिया जाये तो उसमे गुण भी कम नही थे इतने आभाव के बावजूद वह अपनी बेटियों को शिक्षित कर रही थी | मगर चोरी को सही नही कहा जा सकता | कोमल भी गरीब आभाव ग्रस्त थी मेरे पास आने से पूर्व उसने कई दिन बिना भोजन के भी व्यतीत किये मगर उसने कभी ऐसा काम नही किया | सब स्वभाव की बात है | आभाव भी व्यक्ति के श्रेष्ठ आचरण को आसानी से तोड़ नही पाते |