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प्रेमशास्त्र - (भाग-१)

यमुना नदी के किनारें बसा - वृन्दावन नाम लेते ही ऐसा लगता जैसे जिव्हा पर शहद घुल गया हों। मिश्री सी मीठी यादें और उन यादों में माखन से नरम ह्रदय वालें प्यारे बृजवासी , फुलों सी कोमल राधा , नदियों सी निश्छल गोपियां , सागर से शांत नन्द बाबा , वात्सल्यमूर्ति माँ यशोदा औऱ कलकल बहती कालिंदी....

संध्या के समय अस्ताचल की ओर बढ़ते सूर्य को निहारते श्रीकृष्ण महल की छत पर उदास खड़े हुए हैं उनके मुख की दिशा वृदांवन की औऱ हैं ।

बृज की यादें श्रीकृष्ण को विकल कर देतीं हैं
अपनों से बिछड़ने का स्मरण उन्हें विचलित कर देता हैं। श्रीकृष्ण झटके से ब्रज की स्मृतियों से निकलकर वर्तमान में आ गए। उनके कमल सदृश नयनों में अश्रु बूंदे झिलमिला रहीं थीं ।

उनके सामने उनके शिष्य औऱ चचेरे भाई उद्धव खड़े थें । उद्धव हूबहू श्रीकृष्ण के जैसे दिखतें थे , एक सी कदकाठी , एक से बाल , एक सी चाल औऱ एक सा रंगरूप । दोंनो ऐसे जान पड़ते मानों जुड़वा भाई हों । उद्धव ने श्रीकृष्ण की औऱ देखा औऱ चौंकते हुए कहा - माधव ! क्या हुआ..?

कृष्ण चुप रहें । ब्रज की बेतरतीब यादों को अपने मन में सहेजे हुए कृष्ण ब्रज का भ्रमण कर रहें थें।उद्धव के आने की उन्हें खबर ही न थीं। न ही एक बार में उन्हें उद्धव के शब्द सुनाई दिए ।

उद्धव ने फिर से कृष्ण को पुकारा - माधव ! क्या हुआ ?

ब्रज की स्मृतियों से कृष्ण बाहर निकल आए । उद्धव मुख पर चिंता के भाव लिए कृष्ण को ही निहार रहें थें।

कृष्ण हल्के से मुस्कुरा दिए । वहीं टेढ़ी मुस्कुराहट जो गोपियों का मन लुभा लेतीं थीं ,, पर आज इस मुस्कुराहट में पीड़ा छुपी हुई हैं - अपनों से बिछड़ने की पीड़ा।

उदास स्वर में कृष्ण बोलें - उद्धव मैं यहाँ चला तो आया किंतु मेरा मन वृंदावन में ही रह गया । मुझें यहाँ कुछ भी नहीं सुहाता।

उद्धव बोलें - माधव ! यहाँ मथुरा में सब तो हैं , माता-पिता हैं, सभी सुहद हैं , वहीं यमुना हैं जो वृंदावन में बहती हैं । सभी मथुरावासी भी आपकों कितना मान देतें हैं ।

कम समय में ही आपने कितनी ख्याति अर्जित कर ली हैं माधव ..! आपकों वयोवृद्ध भी श्रीकृष्ण कहकर बुलाते हैं। ऐसा मान- सम्मान तो प्रजा अपने महाराज को ही देतीं हैं । मथुरा आपकीं जन्मभूमि हैं माधव ! फिर किस बात का दुःख हैं आपकों..?

उद्धव की बात सुनकर ठंडी सांस छोड़ते हुए कृष्ण ने कहा - " क्या ये यमुना हैं " ..? मुझें तो ये मेरे प्रिय ब्रजवासियों की अश्रुधारा जान पड़ती हैं उद्धव ! जिसमें मैया के , बाबा के , राधा के , गोपियों के , ग्वाल - बालो के , मेरी प्यारी गौओं के अश्रु हैं।

मैं अब श्रीकृष्ण हो गया , कान्हा तो कोई कहता ही नहीं हैं । मैया तो वृंदावन में ही रह गई जिनका मैं कनुआ था । यहाँ तो देवकी माता हैं जिनका मैं कृष्ण हुँ। यहाँ मुझें ख्याति मिली वहाँ मुझें प्रेम मिला । यहाँ मान- सम्मान देतें वहाँ सिर्फ प्रेम। कहते - कहते कृष्ण का गला रुंध गया , उनके नेत्र सजल हो उठे औऱ आंसुओं से उनके कपोल भीग गए।

शेष अगले भाग में.....