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दार्शनिक दृष्टि - भाग -7 - समुद्र मंथन -भाग २

दोस्तों!
जिन तीन तरह के लोगो का वर्णन हमने आगे देखा ठीक नहीं तीन तरह के लोग इस संसार में विद्यमान है और उन्ही की कार्यशैली के अनुरूप संसार आज भी चल रहा है।
यहां सबसे अधिक धनवान, श्रीमान वहीं होंगे जो त्रिदेव और त्रिदेवीयों के समान कार्यभार देख रहे होंगे। जैसे की किसी बड़ी वैश्विक अथवा राष्ट्र स्तरीय कंपनी के मालिक और अथवा सरकार में उच्चतम पदवी वाले, न्यायालय के उच्चतम पदवी के लोग, गांव आदि के मुखिया अथवा प्रमुख, किसी सामान्य आवश्यक वस्तु आदि के मुख्य निर्माता आदि लोग।
बाकी बचे लोग जो की सरकार में मुख्य निर्णय करता के नीचे किसी तरह से कार्यरत है अथवा किसी कंपनी में मालिक के नीचे के स्तर पर नौकरी करते है वे देवता और दानवों आदि की श्रेणी में समाविष्ट हो जाते है।
दोस्तों!
समुद्रमंथन हिंदू संस्कृति की देन है। जिसमे दिव्यता प्राप्त करने का अभ्यास किया जाता है। श्री यानी लक्ष्मी दिव्य भाव है। इसी दिव्य भाव की प्राप्ति के लिए समुद्रमंथन किया गया था।
लोग श्री अथवा लक्ष्मी को केवल किसी स्त्री अथवा धन स्वरूप ही देखते है। किंतु यह बिल्कुल भी योग्य नहीं। किसी स्त्री को बिना जाने परखे और समझे उसे लक्ष्मी कह देना भी उचित नहीं।

दोस्तों! कईं सारे लोग एक साथ बिना किसी वजह के आए यह कदापि संभव नहीं हो सकता। और विश्वास, सहकार, कार्य की पूर्णता, सबको कार्य के विषय में ज्ञात होना, सबका उस एक कार्य के फल का उपभोग करना यह सब यूं ही नहीं हो जाता। उसके लिए एक अत्यंत ही बड़े और दिव्य हेतु को ले कर कार्य करना पड़ता है। जिसमे तकरीबन हर एक व्यक्ति एक अथवा दूसरी वजह से जुड़ना चाहता है और अपना योगदान देना चाहता है। उसके सामने वह यह अपेक्षा भी करता है की इस कार्य के फल स्वरूप जो भी लाभ मिलेगा उसका वह हिस्सेदार भी होगा।

दोस्तो यही घटना घटती है आज के समय में किसी भी देश, कॉरपोरेट कंपनी में, बड़े छोटे गांव, समाज और परिवार में भी। जहां लोग शेयर मार्केट में किसी कंपनी के उद्देश्य को समर्थन देते हुए एक अथवा अधिक हिस्से (शेयर) का पैसा देता है, क्योंकि वह शारीरिक अथवा मानसिक रूप से अपना सहयोग नहीं दे पाता। और बदले में उस कंपनी से लाभ की अपेक्षा रखता है। कभी किसी कारण वश उस कंपनी के उद्देश्य को आवश्यक सहयोग नहीं मिल पाता तो वह कंपनी नुकसान जेलती है और उस कंपनी में पैसे दे कर जिन्होंने भी हिस्सेदारी करी होती है उन्हें भी यह नुकसान जेलना ही पड़ता है। वजह होती है किसी कारण वश कंपनी की उत्पाद के उपभोक्ताओं में कमी अथवा उनका कंपनी के कार्य से विश्वास चले जाना अथवा कंपनी के कार्य कर्मियो का अपना कार्य छोड़ कर चले जाना। यह विश्वास और सहकार उस कंपनी के लिए श्री और अथवा लक्ष्मी है।
जब किसी एक हेतु अथवा उद्देश्य के लिए लोग जुड़ते नहीं अथवा जुड़े हुए लोग अपना स्थान छोड़ देते है तब वह कार्य विफल हो जाता है। यहीं सत्यता और यथार्थता दिखती है।
आज के समय में देख रहा हूं की लोगो को खास तौर पर मां बाप को अपने पुत्र के कार्य और दृष्टिकोण पर अत्यंत ही संदेह रहता है, वे विश्वास और सहयोग करता नहीं बनते है। यह युवा की और मां बाप के स्वयं के आत्मविश्वास पर संदेह होता है। जिस वजह से वे एक दूसरे के कार्य में आवश्यक सहाय नहीं करते। जिससे श्री और अथवा लक्ष्मी का नाश होता है। विकास अवरूद्ध होता है। ऐसे में युवा को अपने हेतु को पूरा करने के लिए आवश्यक सहाय कहीं और से खरीदनी पड़ती है। जिससे धन लक्ष्मी का नाश होता है। इसके लिए उस युवा को किसी के यहां आत्मसम्मान, अपनी युवा शक्ति, उत्साह, समय दांव पर लगा कर धनराशि इकठ्ठा करनी पड़ती है। जिससे विद्या लक्ष्मी और विजय लक्ष्मी का भी नाश होता है।
जब व्यक्ति नौकर बनता है तो वह किसी अन्य के साथ अपना समय व्यतीत नहीं कर पाता। इसे में वह मित्र और नए लोगो के साथ का विश्वास खो देता है। जिससे वह स्वयं का व्यक्तित्व खो देता है। भिन्न भिन्न प्रकार की कुंठा लोगो के मन में उत्पन्न होने लगती है। इस तरह लक्ष्मी का पूर्ण रूप से नाश होने लगता है।

यही कहलाता है श्री हीनता।

समुद्र मंथन की प्रक्रिया का वर्णन आगे के भाग में।
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#दार्शनिक_दृष्टि
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