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मैं भूलकर कहीं...

मैं भूलकर कहीं...

कहानी / शरोवन

***

'ज़िन्दगी में कभी अगर मैं भूल कर कहीं अचानक से मिल गया तुमको तो पहचानने की कोशिश तो कर लोगी मुझे?'

'लिपट जाऊंगी तुम से, लेकिन शादी नहीं करूंगी.'

बदली के शब्दों में लाचारी और होठों पर बे-बसी झलकी तो अंबर को ये सोचते देर नहीं लगी कि जिस लड़की को लेकर उसने अपने भविष्य के महल खड़े कर लिए थे, उनके खंडरों के टुकड़े भी बटोरने के लायक उसकी हैसियत ना तो खुद उसके अपने घर में ही रही थी और ना ही वह मसीही बस्ती कि जिसकी हवाओं में हर दिन सांस लेकर वह पला-बढ़ा था.

मन की पवित्र भावनाओं के लिहाफ पर लिखी हुई दो मसीही युवाओं की वह प्रेम कहानी कि जिसके बंधन की इजाजत धर्म, समाज, और ईश्वर तक नहीं दे सका. यदि ये सच था तो इसका जिम्मेदार कौन था? दिल से कुरेद-कुरेदकर मर्म से भरी आहत भावनाओं को जमा करके लिखी गई एक मार्मिक और दर्द-भरी कहानी.

***

बदली एक अरसे के बाद जब भारत भ्रमण पर विदेश से अपने घर मुरादपुर पहुंची तो इतने वर्षों के अंतराल के बाद उसे काफी कुछ बदला-बदला तो नज़र आया ही साथ ही वे लोग उसे अत्यधिक बूढ़े, थके, और ज़िंदगी से परेशान नज़र आये जिनके मध्य वह कभी खेली, पली और बढ़ी थी. शायद इसका कारण ये भी हो सकता था कि उसने इन सबको और साथ के रहने वालों को एक लम्बे अरसे के बाद ही देखा था. फिर सब लोगों से मिलने-जुलने के बाद वह अपनी अन्तरंग सहेली राजी को साथ लेकर पास के ही नीम के पेड़ के तले जाकर बैठ गई. वह जानती थी कि इसी पेड़ के नीचे बैठ कर उसने न जाने कितनी ही ईंट- गुटैयों और गुड़ियों-गुड्डों के खेल खेले होंगे? एक-एक करके अतीत के जब सारे चित्र उसकी आँखों के सामने बनने लगे तो इसी मध्य राजी ने उसके विचारों को तोड़ दिया. वह बोली कि,

'अमरीका से दस वर्षों के पश्चात तू आई है, जाहिर है कि मन में बीते दिनों की ढेरों-ढेर यादें भी साथ भर कर लाई होगी?'

राजी के इस प्रकार से कहने पर बदली ने उसे एक संशय से देखा तो राजी आगे बोली कि,

'तू मुझसे कुछ भी नहीं छिपा सकती है. यदि शादी के इरादे से आई है तो यह तेरे लिए अच्छी खबर नहीं हो सकती.'

'तेरा मतलब?'

'मैं जानती हूँ कि तुझे तो किसी ने कोई भी खबर नहीं दी होगी. मगर. . .'

'मगर क्या?'

'तू जिससे अपना विवाह करना चाहती थी वह तेरे अमरीका जाने के बाद ही इस दुनिया से चल बसा था.'

'क्या कहती है तू. . .? आश्चर्य से बदली के कान खटके तो राजी आगे बोली कि,

'हां, शायद तेरा विछोह उससे बर्दाश्त नहीं हो सका होगा? मृत्यु तो उसकी निमोनिया से हुई थी, लेकिन सुनने में यह आया था कि उसने अपना इलाज जानबूझ कर करवाया ही नहीं था. वह तेरी जुदाई सहन नहीं कर सका था.'

बदली ने सुना तो सुनकर ही उसका जैसे दिल सा बैठ गया. एक बार को उसको राजी की बात पर विश्वास भी नहीं हो सका. मगर वह जानती थी कि राजी कभी भी उससे ऐसी बातों को लेकर मज़ाक नहीं कर सकती थी. सो सारी बात को सच मानकर उसको लगा कि भारत आने का उसका जैसे सारा उत्साह ही समाप्त हो चुका है. राजी ने जो बात कही थी उसका सीधा सा मतलब अंबर से था. वह अंबर कि जिसके साथ उसने कभी अपने विवाह के सपने देखे थे. जिसके साथ-साथ कभी उसने एक साथ जीने-मरने की कसमें खाई थीं. मगर ये शायद उसकी किस्मत की टूटी लकीरों का ही असर था कि जीवन के सुंदर सपनों की आस में उसने फूल चुनने की कोशिश तो बहुत की थी पर किसे मालुम था कि न जाने क्यों दामन में उसके जैसे कैक्टस के फूल आकर भर गये थे?

जीवन की भूली-बिसरी यादें बदली को उसके अतीत के जिए हुए दिनों को दोबारा दोहराने के लिए विवश करने लगीं तो उसने राजी से कहा कि,

'बुरा मत मानना. तू मुझे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दे.'

'मैं तेरे मन की दशा को अच्छी तरह से समझती हूँ. ठीक है तू अभी जाकर आराम कर ले. वैसे भी हवाई जहाज के लम्बे सफर की थकावट कम तो हुई न होगी. मैं शाम को फिर से आ जाऊंगी.'

ये कहते हुए राजी बदली को उसके घर के दरवाजे तक छोड़ने आई, फिर उससे विदा लेकर अपने घर की तरफ मुड़ गई.

बदली अपने घर में आई तो स्वत: ही उसके उम्मीदियों और लालसाओं से थके-थके से कदम अपने कमरे की तरफ मुड़ गये. कमरे में आई तो अमरीका से लाया हुआ तमाम सामान और खुले हुए सूटकेस देखकर उसे लगा कि जैसे सभी के सभी उसको प्रश्नभरी नज़रों से ताक रहे हैं? ऐसे प्रश्नों के भंवरजाल में वह अपने को फंसी हुई महसूस करने लगी कि जिसमें सिवा खुद के एक अपराधबोध की भावना के अतिरिक्त और कुछ भी उसको मिलता प्रतीत नहीं होता था.

फिर बदली जैसे ही अपने बिस्तर पर अधलेटी सी हुई तो इतनी सी देर में उसकी मां अपने हाथ में चाय का प्याला और थोड़े से स्नैक्स लेकर प्रविष्ट हुई तो बदली ने उन्हें मुस्कराकर देखा. देखते ही कहा कि,

' मामा, मैं अमरीका से इसलिए थोड़े ही आई हूँ कि आप मेरी सेवा करें. अब से जब तक मैं यहाँ हूँ, आप किचिन में बिलकुल ही नहीं जायेंगी.'

'चार दिनों के लिए तो तू आई है, विदेश चली गई तो क्या अब इतना भी अधिकार मेरा नहीं रहा है? आखिर मां हूँ तेरी, तेरे अच्छे-बुरे का ध्यान नहीं रखूंगी क्या?'

'ठीक कहती हैं आप. आपने तो सदैव ही मेरे भले का ध्यान रखा है, मगर भला होता तब न . . .' कहते-कहते बदली ने चाय का प्याला पकड़ा तो उसकी मां के हाथ जहां के तहां ही थम गये. वे तुरंत ही बोलीं कि,

' शिकायत कर रही है तू मुझसे?'

'!!'

'अब छोड़िये इन बातों को. बंद कब्रों को फिर से खोदने से लाभ भी क्या? कोई और बात कर लेते हैं. दोनों चन्दा और सूरज कहाँ हैं?' बदली ने अपने दोनों बड़े भाइयों के लिए पूछा तो मां ने कहा कि,

'वे दोनों आज रात में आते ही होंगे. उन्हें तेरे आने की खबर तो पहले ही कर दी थी. मगर तू अंबर की भी बात कर रही है?'

'बात करके अब क्या मिल जाएगा मुझे? हां, उसकी मृत्यु के बारे में कम से कम मुझे बता तो दिया होता?'

'चाहा तो बहुत था मैंने, मगर न जाने क्यों हिम्मत ही नहीं हो सकी थी.'

मां ने कहा तो बदली जैसे फिर से अतीत में खोने सी लगी तभी उसकी मां ने आगे कहा कि,

'अब ज्यादा सोचा-विचारी मत करना. चल चाय पी ले. मैं अभी आती हूँ.'

ये कहते हुए मां फिर से किचिन में चली गई तो बदली ने सूटकेस में से अपना पर्स निकाला और उसे खोलकर अंबर की फोटो को एक नज़र देखने लगी. अंबर की ये वह फोटो थी जबकि वह उसके साथ कालेज में पढ़ा करता था. बदली ने फोटो देखते हुए मन में ही सोचा कि, 'कितना अधिक प्यार करती थी वह अंबर को. कितना अधिक वह आज भी उसके ही बारे में सोचा करती है. इतना अधिक कि विदेश में रंगीन बादलों और चमक-दमक से सजे माहौल में दस वर्षों तक रहने के बाद भी वह अपने मन की भावनाओं को बदल नहीं सकी थी. आज भी अंबर एक साए के समान उसके जीवन के ऊपर सदा मंडराता रहता है. सोचते हुए बदली स्वत: ही अपने अतीत के उन दिनों में लौटने को विवश हो गई जिनमें उसके दुःख-सुख के गिले-शिकवे थे. प्यार-मुहब्बत के वे सपनों के महल थे कि जिनके खंडर करने का वास्तविक मुल्ज़िम कौन था, वह इस कड़वी वास्तविकता के भेद को आज तक नहीं समझ पाई थी.

बदली को मालुम था कि अंबर के साथ उसके प्यार की कोमल भावनाओं के साथ लिखी हुई कहानी तब आरम्भ हुई थी जबकि अंबर ने उसको पहली बार स्पर्श किया था. एक ही कालेज, एक ही जगह के रहनेवाले और एक ही कक्षा में एक साथ पढ़ते हुए भी बदली ने तब तक अंबर को उस दृष्टि से नहीं देखा था कि जिसमें नये-नये प्यार के कोमल अंकुर फूटने लगते हैं. ये सब होने से पूर्व तक अंबर उसके लिए केवल उसका सहपाठी, एक अच्छा पड़ोसी और एक अच्छे मित्र तक का ही रिश्ता रखता था. मगर उस दिन, जबकि कक्षा में पढ़ते हुए बदली अचानक ही धड़ाम से नीचे चक्कर खाकर गिर पड़ी थी. गिर पड़ी तो कक्षा के सभी छात्र हैरान होकर इस नज़ारे को केवल देख ही रहे थे. किसी में भी इतना साहस नहीं हो पा रहा था कि कोई भी उसको नीचे फर्श से उठाकर कहीं उचित जगह पर लिटा दे. इसका मुख्य कारण यही था कि जिस माहौल और वातावरण में वह पढ़ रही थी उसके हिसाब से किसी को भी एक युवा लड़की के बदन से यूँ हाथ लगाने की इजाजत ना तो वहां का समाज देता था और ना ही वह वातावरण कि जिसमें उसकी परवरिश हुई थी. तब ऐसी नाजुक दशा को देखते हुए अंबर ने ही बदली को गोद में उठाया और लाकर वहीं कक्षा में पड़ी एक बैंच पर लिटा दिया था. कुछेक छात्रों ने पानी आदि लाकर सहायता की तो थोड़ी ही देर में बदली को होश आ गया था. बाद में वह फिर अपने घर भी अंबर के साथ ही रिक्शे में बैठ कर आ गई थी.

दूसरे दिन रविवार था. सूरज उग आया था. चर्च की सर्विस की घंटियाँ कब बजी और कब आराधना समाप्त भी हो गई, बदली जब सोकर उठी थी तब तक धूप काफी चढ़ आई थी. यूँ भी पिछले दिन की हुई दुर्घटना के कारण अभी भी उसके सारे शरीर में काफी दर्द भरा हुआ था. वह अभी अपना हाथ-मुहं धोने ही जा रही थी कि उसको पता चला कि अंबर चर्च की आराधना के पश्चात सीधा उससे ही मिलने आया है. सो वह जैसे ही उसके सामने आई अंबर उससे मुस्कराते हुए बोला,

'गुड मोर्निंग ! अब कैसी तबियत है?'

'अच्छी हूँ.'

'कोई गड़बड़ तो नहीं है?' अंबर कहकर हल्का सा मुस्कराया तो बदली के जैसे सारे होश अचानक ही उड़ गये. वह आश्चर्य से, अपना मुहं फाड़ते हुए बोली कि,

'तुम्हारा कहने का मतलब ?'

'मतलब . . .यही . . . कि . . .' कहते-कहते अंबर थमा तो बदली ने उसे टोक दिया. फिर वह थोड़ी कठोरता से उससे बोली,

'बेकार की बात मत करो. हाथ में बाइबल है और तुम्हें शर्म नहीं आती ऐसी बात करते हुए? तुम खुद लड़की होते तो पता चलता कि एक लड़की को युवा होते ही कैसी-कैसी जिस्मानी और मानसिक परेशानियां उठानी पडती हैं?'

'तुम तो अपने आपको बड़ी तीसमारखां समझती थीं. एक छोटी सी 'नेचरल' परेशानी क्या आई तो बेहोश होकर गिर पडीं?'

'नही, तुम्हें ज़रा सा बुखार आता है तो मैय्या-दैय्या करने लगते हो. उसमें बड़ी बहादुरी है?'

'अच्छा अब मुझ पर और नाराज़ मत होओ. मैं तो केवल तुम्हारा हाल-चाल पूछने और यह बताने आया था कि कल जब कालेज जाओ तो अपने आपको पहले से तैयार करके ही आना.'

'मतलब ?'

'यही कि, क्लास के सारे स्टूडेंट्स तुम्हारे बारे में तरह-तरह की बातें करने लगे हैं.'

'करने दो. मुझे उनकी परवा नहीं है. मैंने कोई पाप थोड़े ही किया है.'

'पाप तो किया है . . .लेकिन . . .' कहते हुए अंबर ने व्यंग से अपने होठ काटे तो बदली ने संशय से उसे देखते हुए पूछा कि,

'कैसा पाप . . .?'

'अब देखो, सारी क्लास के सामने मैंने एक युवा लड़की को छुआ, उसे गोद में उठाया और . . .'

'शटअप !' अंबर ने अभी अपनी बात भी पूरी नहीं की थी कि बदली ने उसे आगे बोलने को मना कर दिया तो वह फिर से बोला कि,

'सौरी ! नाराज़ मत होओ. अब जाता हूँ. लेकिन इतना याद रखना कि जब भी गिरोगी तो कोई तो एक है जो तुम्हें उठाने के लिए हरदम तैयार है.' कहकर अंबर चला गया तो बदली उसको जाते हुए मन ही मन मुस्कराते हुए देखती रही. वह जानती थी कि अंबर का स्वभाव ही व्यंग करने का है. अक्सर ही वह उसको समय-असमय व्यंग से छेड़ दिया करता था.

फिर दोनों के कालेज जीवन की इसी प्रकार की नोंक-झोंक तथा आपस की छेड़ा-छाड़ी में कब दोनों एक-दूसरे के इसकदर करीब आ गये कि अब दोनों ही अपने भविष्य के घरोंदे बनाने के सपने देखने लगे थे. इस प्रकार कि कोई भी समय होता या फिर दोनों कभी भी अपना अतिरिक्त समय निकालकर अवसर पाते ही एक-दूसरे का हाथ थाम लेते थे. सो जब दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा और उन दोनों की चाहतों की बातें जब हवाओं में बहने लगीं तो सबसे अधिक परेशानी बस्ती के रहनेवालों को तो हुई ही, साथ ही बदली के मां-बाप दोनों ही के कान और आँखें भी सतर्क हो गईं. बदली का रंग-ढंग देख कर उन्हें ये समझते देर नहीं लगी कि लड़की के कदम मुहब्बत की उन राहों पर चल पड़े हैं कि जिन पर वे खुद भी कभी चले थे. मगर बदली के पिता ने फिर भी इस बात पर कोई अधिक चिंता प्रगट नहीं की. उनका ख्याल था कि यदि बदली अंबर को पसंद करने लगी है तौभी अंबर जैसा लड़का उनका देखा-भाला ही है. वह पढ़ने में होशियार और समझदार भी है. कोई भी गलत आदत और बात वे उसमें नहीं देखते हैं. साथ ही एक ही जाति और मसीही भी है. फिर जब खुद एक दिन उन्होंने अपना विवाह अपनी मर्जी और पसंद से किया था तो क्या हर्ज़ है कि बेटी भी अपना जीवन-साथी अपनी इच्छानुसार चुन ले. सो अपनी बेटी की पसंद को ध्यान में रखते हुए वे समय-समय पर अंबर का मार्गदर्शन भी करने लगे थे. बदली जब भी अपनी पिता का ऐसा सहयोगी रवैया देखती थी तो मन ही मन खुशी के कारण फूली नहीं समाती थी. इसका कारण था कि उसके पिता ने सचमुच एक इमानदार मसीही मनुष्य का आदर्श उसके सामने रख दिया था. उन्होंने किसी भी उंच-नीच और छोटाई-बड़ाई को अपने सामने विरोध करने के लिए नहीं आने दिया था. जबकि संसार की नज़रों में अंबर का पिता एक प्रकार से बदली के पिता का नौकर ही था. वह उसके घर पर उसके पिता का ड्राईवर था. जब कि बदली के पिता एक अच्छी, बड़ी नौकरी के माननीय पद पर कार्य किया करते थे. वे स्थानीय मसीही अस्पताल में मैनेजर के पद पर आसीन थे.

सो इस प्रकार से एक ओर बदली के पिता को बदली और अंबर के प्रेम-प्रसंगों की तरफ से कोई भी परेशानी नहीं हो सकी थी मगर बदली की मां के आचरण में बदली की तरफ से अवश्य ही एक अजीब ही प्रकार का बदलाव जाहिर होने लगा था. इस प्रकार कि उनका स्वभाव अंबर की तरफ से तो बिलकुल ही बदल चुका था. अक्सर ही वे कठोर लहजे में बात करने लगीं थीं. साथ जब-तब वे बदली को भी डांटने-डपटने लगी थीं. जब कभी वे बदली को अंबर से बात करते देख लेती थीं तो मौक़ा पाते ही किसी न किसी बहाने बदली को कोई न कोई काम आदि बताकर उससे अलग कर लिया करती थीं.

लेकिन जब उन्होंने ये देखा कि उनके इस प्रकार के रवैये से बदली पर कहाँ रोक लगनेवाली थी. और फिर सबसे बड़ी बात ये कि बदली को उसके पिता का पूरा सहयोग मिल रहा था. एक-दो बार उन्होंने बदली के पिता से इस सम्बन्ध में बात भी की थी. बातों-बातों में उन्होंने बदली और अंबर के रिश्ते को अ-समान भी बताना चाहा, मगर फिर भी जब कोई लाभ नज़र नहीं आया तो उन्होंने सोच लिया कि अब समय आ गया है कि बदली को वास्तविकता बता देनी चाहिए कि उसका और अंबर का रिश्ता धर्म, समाज और ईश्वर; हर तरह से नाजायज़ ठहरता है. यदि ऐसा वे कह देती हैं तो कम से कम वे दूसरा पाप करने से तो बच जायेंगी. एक गलती तो वे पहले ही कर चुकी हैं. एक ऐसी गलती कि जिसका सिला उनकी आँखों के सामने स्पष्ट दिखाई देने लगा है.

तब एक दिन अवसर पाते ही बदली की मां ने अपनी बात बदली के सामने रख दी. घर पर उस समय बदली और उसकी मां के सिवा कोई तीसरा नहीं था. उसके दोनों भाई पहले ही से होस्टल में रहते हुए दूसरे शहर में पढ़ा करते थे. उसके पिता भी अपनी नौकरी के किसी काम से शहर के बाहर गये हुए थे. ऐसे ही में बदली की मां ने उससे कहा कि,

'तू अंबर के साथ जो सपने देखती फिर रही है, उनको अब देखना बंद कर दे. उससे तेरी शादी कभी भी नहीं हो सकती है.'

'?' - बदली को जैसे अचानक ही सांप सूंघ गया. अपनी सगी मां के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात को सुनकर बदली के जैसे कान ही खड़े हो गये. इस प्रकार कि वह अपना मुंह फाड़कर, एक असमंजस से मां का मुख देखने लगी.

'ऐसे घबराकर मत देख मुझे? मैंने कहा है कि उससे तू शादी करेगी तो कहीं की भी अपना मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगी. अंबर के अतिरिक्त तू चाहे किसी से भी अपना विवाह कर ले, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी.'

'?' - खामोशी.

बदली की समझ में नहीं आया कि उसकी मां सच कह रही है या फिर झूठ. वह चुप ही बनी रही तो उसकी मां ने बात आगे बढ़ाई. वे आगे बोली,

'अब आगे ये मत पूछना कि अंबर से तेरी शादी क्यों नहीं हो सकती है? तू यदि पूछेगी भी तो मैं कोई भी उत्तर तुझे नहीं दे पाऊँगी.'

यह कहकर मां ने अपनी बात समाप्त कर दी तो बदली ने भी उनसे कुछ भी नहीं कहा. फिर कहकर वह कर भी क्या सकती थी? मां ने उसको अपना फैसला सुना दिया था. अब कारण चाहे कुछ भी रहा हो, मगर फिर भी मां के शब्दों और कहने के ढंग से यह बात तो स्पष्ट हो चुकी थी कि अंबर और इसके रिश्ते में जो अड़चन आ रही है वह कोई छोटी-मोटी बात नहीं हो सकती है. जरुर कोई तो भेद ऐसा है कि जिसको उसकी मां अपने सीने में छुपाये हुए है?

तब इस प्रकार मां ने उसे अंबर से मिलने-जुलने से रोक तो लिया था, लेकिन असली बात भी स्पष्ट नहीं की थी. ऐसी कोई विशेष बात तो थी ही कि जिसके कारण मां ने उसके सारे सपनों पर पानी फेर दिया था. इतना सब कुछ हुआ तो बदली का तो जैसे सारा संसार ही उजड़ गया. दिन उसके काले हो गये. रातें बे-मतलब ही उसे डसने लगीं. अंबर से उसने मिलना-जुलना बंद तो नहीं किया था, हां कम अवश्य ही कर दिया था. ऐसे में वह करती भी क्या? चुपचाप अपनी उम्मीदों के कफ़न हर रोज़ ही जमा करने लगी. फिर ये सब एक साथ घटित हुआ तो फिर उसके चेहरे की रंगत भी उड़ते देर नहीं लगी. चेहरे की सारी आभा ही समाप्त हो चली. उसने हंसना, मिलना, जुलना सब कुछ छोड़ दिया. घर से वह बाहर ही नहीं निकलती. अब तक उसने अंबर को कुछ भी नहीं बताया था. न बताने का कारण था कि वह भी अपनी मां का बदला हुआ रवैया गहराई से देख लेना चाहती थी. आश्चर्य तो उसे था ही, साथ ही एक चिंता भी, उसे सताने लगी थी. आश्चर्य इसलिए था कि आज तक उसकी मां ने उसकी मर्जी के विरुद्ध कोई भी काम नहीं किया था. बचपन से लेकर आज तक हरेक बात और इच्छा उसकी वह पूरी करती आई थी. घर में भी वह सबकी चहेती और लाडली थी. दो भाइयों में सबसे छोटी अपने घर की अकेली लड़की और बहन थी. नाजों से वह पली-बढ़ी थी. फिर भी जब उसकी ज़िंदगी के मांझी के चुनाव की बात सामने आई तो सबसे पहले उसकी मां ही सामने आ गई? चिंता का विषय था कि वह नहीं समझ पा रही थी कि अचानक उसकी मां के सामने ऐसी कौन सी बात आ गई है कि वह अंबर को हरगिज़ ही स्वीकार नहीं करना चाहती है?

बेटी की हसरतों के सजाये हुए सपनों के महल पर अचानक ही तबाहियों के बादल घिरने लगे तो उसकी उदासी और निराशा को देख कर बदली की मां भी चिंतित होने लगी. उसने सोचा कि अभी ज़रा सा विरोध भर किया है तो बदली के चेहरे की मुस्कानें ही रुखसत हुई हैं, यदि कहीं और बात जब आगे बढ़ी तो इसका प्रभाव उसकी ज़िंदगी पर भी आ सकता है? पली-पलाई जवान लड़की की मज़ार पर वह कैसे हमेशा की रुखसती के फूल रख सकेंगी? गलती तो खुद उन्होंने ही की है. अपनी बदकारियों की सज़ा वह संतान को जीते-जी क्योंकर मिलने दें? अभी तो समय है. सब कुछ तरीके से बतलाकर समझाया जा सकता है. जब असलियत बदली के सामने आयेगी तो कुछ दिन तो उसे बुरा लगेगा ही मगर बाद में वह अपने आपको समझा भी लेगी. सो एक दिन बड़ा ही साहस और हिम्मत जुटाकर उन्होंने बदली को अपने पास बुलाया. प्यार से उसके सिर पर अपना हाथ रखा. अपनी ममता का वास्ता दिया. तब वे उससे आगे बोलीं कि,

'मुझसे नाराज़ रहने लगी है तू? बात भी करना बंद कर दिया है तूने अब तो मुझसे? ज़रा सोच तो, मां हूँ मैं तेरी. तुझको जन्म दिया है मैंने. आँख देखे तुझे विष तो नहीं खाने दे सकती हूँ मैं.'

'?' - उनकी इस बात पर बदली चुप ही रही. वह कुछ भी नहीं बोली तो उसकी मां ने आगे कहा कि,

'तू जानना चाहती है कि मैंने क्यों अंबर से तेरे रिश्ते के लिए मनाही की है? तू सुनेगी तो अब चाहे मुझे कितनी भी गालियाँ दे लेना, चाहे कितना ही बुरा-भला कह लेना, मगर जो सच है उसको मैं अपने साथ लेकर कहीं भी नहीं जा सकती हूँ. तू जिस अंबर के साथ अपनी शादी के सपने सजाये बैठी है वह तेरा भाई है. वह न जाने कौन सी घड़ी थी कि मैं अपना होश-ओ-हवाश खो बैठी थी और तू अंबर के पिता की सन्तान बनकर मेरी कोख़ में आ गई. अपनी ज़िंदगी का ये काला भेद मैंने आज तक केवल अपने पास ही तक सीमित रखा था. यदि तू रास्ते में नहीं आती तो शायद मेरा ये भेद मेरी कब्र तक मेरे साथ ही जाता. अंबर के पिता को भी नहीं मालुम है कि तू उसकी लड़की है.'

'?'

बदली के सारे नंगे बदन पर जैसे काला नाग लोट कर चला गया? आँखों के सामने लाल-पीले सितारे नाचने लगे. उसे लगा कि जैसे अचानक ही कहीं से ढेरों-ढेर अबाबीलें आईं और उसके बदन से चिपक कर उसको नोंचने-खानें लगी हैं. उसके मन में धक् सी होकर रह गई. वह सोचकर ही रह गई कि क्या होता तब जब कि उसके कदम अंबर के साथ कहीं सीमा से आगे बढ़ चुके होते? वह तो तब कहीं की भी नहीं रह पाती. ऐसा पल भर को जैसे ही बदली ने सोचा तो सोचने ही मात्र से उसका अंग-अंग काँप गया.

अपनी मां के मुख से ऐसी अजीबो-गरीब, भेद-भरी रहस्यमयी बात को सुनकर बदली कुछ भी नहीं कह सकी. केवल ऐसे में जो वह कर सकती थी, उसने वही किया. वह कटी हुई टहनी के समान अपनी मां की गोद में उससे लिपटकर केवल फूट-फूटकर रोने लगी.

दिन बदले, हवाओं का रुख कुछ नर्म हुआ तो वास्तविकता एहसास होते ही बदली ने तब मन ही मन अंबर से अपने प्यार के रिश्ते मज़मून बदलकर उससे किनारा कर लिया. इस प्रकार कि वह अब उसको अपने भाई के रिश्ते से देखने लगी. प्यार की जमी हुई हसरतों में कसक और ललक के स्थान पर सम्मान और आदर्श के चिन्ह पनपने लगे. प्यार की दूरियां इस प्रकार से तब्दील हुईं कि ज़रा सी आहत पाते ही वह सचेत रहने लगी. अब हांलाकि, अंबर की जुदाई का दर्द पवित्र प्यार के कोमल एहसास में बदल तो गया था मगर फिर भी वह जब भी उसको देखती थी तो केवल तड़प कर ही रह जाती थी. इस प्रकार कि जानते और समझते हुए भी वह अंबर से कुछ कह नहीं सकती थी. बदली को तो मालुम था कि उसके मन के परिवर्तन के साथ प्यार के रिश्ते का ये अनोखा बदलाव केवल उस तक ही सीमित है, पर तौभी अंबर तो उसको अभी भी उन्हीं प्यारभरी निगाहों का निमंत्रण दिया करता था कि जिनके एहसास मात्र से ही उसके बदन में कंपकंपी होने लगती थी. उसके इस अनोखे बदलाव का एहसास जब अंबर ने खुद महसूस कर लिया तो एक दिन उसने बदली से इस बारे में पूछ ही लिया. वह बोला कि,

'बदली ! क्या एक बात मैं पूछूं?'

'क्या ?' बदली ने एक संशय से उसकी तरफ देखा तो वह आगे बोला कि,

'तुम्हारा नाम 'बदली' है, कहीं सचमुच ही तुम बदलने तो नहीं लगी हो?'

'ऐसा तुम कैसे कहने लगे हो?'

'तुम्हारे अंदर बहुत सारे परिवर्तन एक साथ देख रहा हूँ. अब काफी कटी-कटी सी रहने लगी हो तुम मेरी तरफ से?' अंबर के शब्दों में अपने प्रति वफ़ा की शिकायत सुनकर बदली कुछ कह नहीं सकी. बदली जब चुप ही रही तो उसकी खामोशी देखते हुए अंबर की जिज्ञासा बढ़ गई. उसने आगे कहा कि,

'तुमने कुछ उत्तर नहीं दिया? कहीं मैं जो कह रहा हूँ वह सब सच तो नहीं है?' अंबर ने फिर से अपना प्रश्न दोहराया तो बदली ने ज़मीन की तरफ निगाहें गड़ाते हुए धीरे से कहा कि,

'मान लो यदि यह सच है तो . . .?'

'?' - अंबर पल भर को बदली का मुख ही ताकता रह गया. उसे लगा कि किसी ने उसकी सारी प्यार की बसाई हुई आस्थाओं को निचोड़कर उसके मुहं पर ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया है. वह बदली का मुख ऊपर उठाते हुए उसकी आँखों में अपनी आँखें डाल कर उससे बोला कि,

'मुझसे आँखें मिलाकर ज़रा फिर से एक बार दोहराना जो तुमने अभी कहा है?'

'नहीं. मैं कुछ नहीं बता सकती हूँ. सच अंबर, मैं कुछ भी नहीं बता सकूंगी. सिवाय इसके कि जो सपने मैंने और तुमने देखे हैं वे कभी भी पूरे नहीं हो सकते हैं.'

'तुम नहीं बता सकती हो लेकिन मैं तो समझ चुका हूँ.'

'क्या समझ चुके हो?'

'मैं ही किसकदर बेवकूफ और पागल हो चुका था. इस धरती पर रहकर आसमान की बुलंदियों में ऊंचा उड़ना चाह रहा था. आखिरकार हमारे और तुम्हारे सामने आ ही गया वही ऊंच-नीच का पुराना सवाल. कहाँ मैं एक ड्राईवर का लड़का और तुम एक मेडीकल डायरेक्टर की लड़की . . .?' कहते-कहते अंबर का गला भर आया तो बदली भी बिफर पड़ी. वह जैसे पक्षी की भांति अपने पंख फड़-फड़ाते हुए बोली,

'ऐसा मत बोलो अंबर. प्लीज मत कहो. तुम नहीं समझ सकोगे मेरी मजबूरियों को.'

'कैसी मजबूरियां?'

'यही कि मैं तुम्हारे सपने तो देख सकती हूँ लेकिन उन सपनों को साकार नहीं कर सकती हूँ. मैं तुमको प्यार तो करूंगी पर उस प्यार में दैहिक एहसास नहीं भर सकती हूँ. तुम्हारा आदर और सम्मान करूंगी मगर तुम्हारा जीवन-साथी बनकर एक कदम भी साथ नहीं चल सकूगी.'

बदली के इस कथन पर अंबर फिर आगे कुछ भी नहीं कह सका. बड़ी देर तक वह चुप ही बना रहा. बदली भी उदास और खामोश बनी रही. दोनों की कहा-सुनी में, ज़रा सी देर में उनके बीच का वातावरण भी जैसे उदास हो चुका था. दोनों के मध्य में निगरानी करती हुई हवाओं की मौजूदगी बोझिल हो गई थी. केवल आपस की मौनता एक तीसरे अनदेखे बजूद के समान उनके बीच में अपना अस्तित्व बनाये हुए थी.

तब काफी देर की चुप्पी के पश्चात आपस की मनहूसता को तोड़ते हुए अंबर ने जैसे अपनी अंतिम बात बदली से कही. वह भरे गले से बोला,

'एक बात बता सकोगी मुझे?'

अपनी हांमी में बदली ने भरी-भरी सी आँखों से अंबर को देखते हुए अपना सिर हिलाया तो उसने कहा कि,

'ज़िंदगी में कभी अगर 'मैं भूलकर कहीं' अचानक से तुमको मिल गया तो पहचानने की कोशिश तो कर लोगी मुझे?'

'लिपट जाऊंगी तुमसे. लेकिन शादी नहीं करूंगी.'

बदली के शब्दों में लाचारी और होठों पर बे-बसी झलकी तो अंबर को ये सोचते देर नहीं लगी कि जिस लड़की को लेकर उसने अपने भविष्य के महल खड़े कर लिए थे उनके खंडरों के टुकड़े भी बटोरने के लायक उसकी हैसीयत ना तो खुद उसके अपने घर में ही रही है और ना ही वह बस्ती कि जिसकी हवाओं में हर दिन साँस लेकर वह पला-बढ़ा था.

अंबर से इस मुलाक़ात के पश्चात फिर बदली उससे अपनी उन प्यार की भावनाओं के साथ कभी भी नहीं मिली जैसा कि वह पहले मिल लिया करती थी. एक ही बस्ती में रहते हुए वह अंबर को हर रोज़ देखा तो करती थी मगर फिर भी उसके नज़दीक जाने का साहस वह कभी भी नहीं कर सकी. वह मन ही मन घटती रही. अपने आपको जलाती रही. मगर फिर भी अपनी जलन से उसने किसी को वाकिफ भी नहीं होने दिया. अपने प्यार की समस्त हसरतों की अर्थी बनाकर उसने चुपचाप कब्रिस्थान में सदा के लिए दफ़न कर दिया.

उसकी मां ने उसकी परेशानी को समझा, जाना और महसूस किया, तब विचार किया कि यदि बदली यहाँ रही तो वह एक दिन घुट-घुटकर मर ही जायेगी. सो बदली के स्नातक की परीक्षा पास करते ही उन्होंने उसको आगे की शिक्षा के बहाने विदेश भिजवा दिया. अमरीका आने के पश्चात बदली ने इतनी समझदारी तो की कि अंबर से आवश्यकता से अधिक सम्बन्ध भी नहीं रखा. विदेश आने के बाद उसने अंबर को पत्र तो लिखा था लेकिन जब उसका कोई भी उत्तर उसे नहीं मिला तो फिर उसने भी कोई अधिक कोशिश फिर से सम्बन्ध बनाने की नहीं की थी. तब इस प्रकार से विदेश में अपनी पढ़ाई पूरी करते हुए उसने डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल कर ली. कितनी जल्दी और कब दस वर्ष यूँ ही व्यस्तता में व्यतीत हो गये, कुछ पता ही नहीं चला. और आज जब वह वापस अपने देश आई थी तो केवल दिल में एक हसरत भर थी कि कम से कम वह अपने उस अंबर से एक बार जरुर मिलेगी तो अवश्य ही कि जिसके साथ उसने कभी अपने प्यार के सिलसिले को आरम्भ करके उसके एहसास को भाई की पवित्रता के रिश्ते में बदल भी लिया था. मगर कौन जानता था कि बदली के सामने ऐसा दिन फिर कभी नहीं आ सका था. जाने वाला अपने मन में अपने अधूरे प्यार के सपनों की राख़ को ज़माने की धुंध में उड़ाकर कब का संसार की रीति पर कूच कर चुका था . . .'

सोचते-सोचते बदली की आँखों से आंसू किसी माला के मोतियों के समान टूट-टूटकर बिखरने लगे. वह समझ नहीं पाई कि उसकी आँखों से निकले हुए ये आंसू उसके किसी पश्चाताप के थे या फिर अपने प्यार की हसरतों के उजड़े हुए चमन की बर्बादी देख कर? उसके सपनों का वह चमन जो कभी उसने अंबर के साथ मिलकर महकाया था, आज वास्तविकता के सामने आते ही अपने हर किसी फूल की खुशबू का मोहताज़ हो चुका था. उसके प्यार की राहों में बिखरे हुए फूल उसकी ज़िंदगी के दुःख-दर्द और पश्चाताप के कांटे बनकर रह गये थे. ज़िंदगी के प्यार में मिला हुआ ऐसा मलाल कि जिस पर मजबूरियों का कफ़न डाल देने में ही आनेवाले दिनों में जीने की कोई राह निकल सकती है. वैसे अपने दुखों पर रो लेने में ही समझदारी है वरना, यूँ तो हर किसी को अपने घाव गहरे नज़र आया करते हैं.

समाप्त.