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मेरी अर्थी तेरे फूल


मेरी अर्थी तेरे फूल
एक, बेहद दर्दभरी, मार्मिक प्रेम कहानी




शरोवन














समर्पित

कौसानी की गगनचुम्बी
सुंदर पर्वत छटाओं को,
जिन्होंने मुझे सदैव ऊंचाइयों
पर चढ़ने की प्रेरणा दी.
-शरोवन

















मेरी अर्थी तेरे फूल

प्रथम परिच्छेद-
1
कौसानी.

पहाड़ी इलाका. पर्वत ही पर्वत. पत्थरों का देश. जिधर भी निगाहें मोड़ों उधर ही चट्टानों पर चांदनी जैसे नृत्य कर रही थी. हर तरफ चीड़ और चिनार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष खामोश खड़े थे. अभी कुछ देर पहले ही बादल अपना मुहं दिखाकर भाग गए थे. संध्या के करीब सात बजे होंगे, और चन्द्रमा एक पहाड़ी के पीछे से झाँकने लगा था. फिर भी वातावरण में एक चुप्पी छाई हुई थी. सन्नाटे समान.
कौसानी के इस डाक बंगले के बरामदे में खड़ी हुई एक मानव छाया बहुत ही चुपचाप दूर छितिज को ताक रही थी. खामोश. बहुत ही निराश. थकी-हारी. दुर्बल, ज़िन्दगी से निराश. मानो उसके जीवन के घोर संघर्षों ने उसे असहाय बना दिया था. शरीर बिलकुल मरियल हो चुका था. समय से पहले ही वह झुक कर चलने लगा था. आँखों के स्थान पर नाम मात्र को गड्ढे रह गए थे. दशा भी भिखारियों समान हो चुकी थी. उसे देखते ही किसी को भी तरस आता था. कौसानी के आस-पास के रहनेवाले लोग जानते थे कि ये अनजान मानव छाया पिछले कई वर्षों से इस डाक बंगले की शरण लिए हुए थी. जब से ये मानव छाया यहाँ आयी हुई थी तो लगता था कि जैसे अपने साथ ढेरों उदासी भी साथ लाई थी. ऐसी भरपूर, जीवन की समस्त खुशियों से महरूम उदासी, जिसके कारण लगता था कि जैसे कौसानी का हंसता-मुस्कराता, चहकता सा, सारा वातावरण भी उदास रहने लगा है. इसी के कारण चमकता चाँद बुझने लगता. चांदनी फीकी पड़ जाती, उसके दिल के दर्द का बोझ जानकर चिनार भी अपना मुहं लटका लेते. ऐसा प्रतीत होता था कि इस मानव छाया के खुद के दर्द से यहाँ के वातावरण से जैसे कोई कभी भी न टूटनेवाला रिश्ता जुड़ा हुआ था. उसकी आँख में छिपे हुए आंसुओं से यहाँ की हरेक वस्तु से कई डोर बंधी हुई है.
दिन के उजाले में ये मानव छाया कहाँ चली जाती थी, ये कोई नहीं जानता था. परन्तु जैसे ही साँझ घिर आती, और थोड़ी देर बाद जब चन्द्रमा भी किसी पहाड़ी की ओर से चिनार की पत्तियों पर जाली बुनने का प्रयास करने लगता, तभी ये छाया भी डाक बंगले के आस- पास दिखाई देने लगती थी. हर रात, हर दिन और पिछले कई वर्षों से ऐसा ही हो रहा था. लोग इस मानव छाया के बारे में केवल इतना ही जानते थे. उसके दिल में क्या था? वह कौन सी यादों में भटका हुआ था? क्यों आया है वह? क्यों इस तरह से भटकता फिर रहा है? ऐसे छिपे हुए प्रश्नों के उत्तर भी केवल उसी तक सीमित थे. कौसानी का कोई भी मनुष्य उसके बारे में शायद कुछ भी नहीं जानता था.
अचानक ही डाक बंगले में एक बस आकर रुकी. फिर उसमें से लड़कियों का एक समूह हँसता, खिलखिलाता और तितलियों समान उड़ता हुआ सा बाहर आया तो डाक बंगले के आस-पास का चुप्पी सी साधे हुए सारा वातावरण जैसे गूँज उठा. इस प्रकार कि युवा कॉलेज की लड़कियों के महकते हुए वस्त्रों से खुशबू के साथ उनकी गुनगुनाहट हरेक वस्तु को स्पर्श करती चली गई. थोड़ी ही देर में सारी बस खाली हो गई और सारी लड़कियां एक एक , दो दो और तीन के समूह में डाक बंगले के चारों तरफ बिखर गईं. लड़कियों का ये कॉलेज ग्रुप यहाँ कौसानी में सुबह की सनराइज का मोहक दृश्य देखने आया था. ग्रुप कि सारी लड़कियां फूलों पर मंडलाती हुई तितलियों के समान कौसानी की इस ख़ूबसूरत छटा को निहारती हुईं चारों तरफ चहकती फिर रहीं थीं. कुछेक वहीँ पत्थरों पर बैठ कर यात्रा की थकान को मिटाने लगी थीं.
शाम डूब चुकी थी और चारों तरफ से रात का आलम अपनी चादर फ़ैलाने लगा था. कौसानी के इस बेहद ख़ूबसूरत और मनमोहक इलाके में सारे शहर की विद्दुत बत्तियां भी मुस्कराने लगीं थीं. कॉलेज की बस में आई हुईं लड़कियां अभी भी अपने स्थानों पर बैठी हुईं बातों में मग्न थीं. तभी अचानक से चन्द्रमा ने अपना मुख किसी बादल में छुपाया तो पलक झपकते ही सारा आलम एक घटाटोप अंधकार की चादर में सिमट गया. फिर थोड़ी ही देर में हवाएं भी चलने लगीं तो खामोश खड़े हुए चिनारों के शरीरों में जैसे धड़कने आ गईं. देखते ही देखते आकाश में बादल छा गए. हवाएं तेज हुईं तो बैठी हुईं लड़कियों के बदन सर्दी के कारण कंपकंपाने लगे. वर्षा होने वाली थी. तभी बादल दन दनाकर गरज़े, फिर अचानक से दूर क्षितिज में कहीं बिजली बड़े ही ज़ोरों से कौंधती हुई चीखी तो बैठी हुई लड़कियों की अचानक से एक डरावनी सी चीख निकल गयी. लड़कियों की इस चीख के साथ ही कौसानी का सारा इलाका पल भर के लिए बिजली के प्रकाश में जगमगाया और फिर से अंधकार में लिपट गया. शीघ्र ही लड़कियां भागती हुई डाक बंगले के बरामदे में जाकर एकत्रित हुईं और बारिश के कारण बिगड़े हुए वातावरण के रोद्र रूप को भय के कारण एक दूसरे से लिपटकर देखने लगीं. बारिश और तेज हुई तो उसकी बूँदें भी शोर मचाने लगीं. पहाड़ों पर वर्षा का पानी बड़ी तीव्रता के साथ अथाह गहरी घाटियों में ढुलकता जा रहा था. डाक बंगले में आईं हुईं सभी लड़कियां यूँ अचानक से आयी हुई वर्षा के प्रकोप को दिल थामे हुए, सहमी सी, देखे जा रही थीं. मगर इन सब से दूर एक कोने में वह मानव छाया दुबकी-सिमटी हुई एक गठरी समान बैठ गयी थी- बहुत चुपचाप. लड़कियां अभी तक उस मानव छाया की किसी भी उपस्तिथि से बिलकुल ही अनभिग्य थीं. बिलकुल अनजान.
अचानक ही उस मानव छाया को बड़े ही ज़ोरों की खांसी आई तो लड़कियों की फिर एक भय से चीख निकल गयी. वे फिर से एक दूसरे से लिपट गयीं और सब ही एक संशय से कोने में बैठी हुई उस मानव छाया को देखने और पहचानने का प्रयास करने लगीं.
‘कौन?’
तभी एक लड़की ने साहस करते हुए पूछा.
‘?’- उत्तर में वह अनजान मानव छाया फिर से खांसने लगी तो सभी लड़कियां धीरे-धीरे उसके करीब आयीं. उनमें से एक लडकी ने उससे पूछा ,
‘कौन हो तुम?’
‘मैं, खों... खों...’ आगे वह शरीर से कमजोर, बीमार सा मनुष्य कुछ भी नहीं कह पाया. खांसी ने फिर जोर पकड़कर उसके सारे शब्द ही निगल लिए थे.
‘कोई भिखारी मालुम पड़ता है?’
‘होगा कोई?’
‘वर्षा के कारण शरण ले ली है.’
‘अरे जाने दे यार.’
लड़कियों के जितने मुहं, उतने ही विभिन्न विचार और अनुमान भी थे. कहती हुईं सारी लड़कियां डाक बंगले के अन्दर कमरों में चली गईं. फिर जब डाक बंगले का रात का चौकीदार आया तो लड़कियों ने उससे उस अनजान भिखारी के बारे में पूछा. तब चौकीदार ने उन सबको समझा दिया. वह बोला,
‘कोई भिखारी है. यहीं रहता है. बड़े ही दुःख का मारा है. दिन भर भटकता हुआ न जाने किसे खोजता फिरता है और शाम पड़ते ही यहाँ रात गुज़ारने आ जाता है. मैं भी उससे कुछ नहीं कहता हूँ. आप सब परेशान न हों.’ चौकीदार की इस बात पर फिर किसी भी लड़की ने उस भिखारी कि उपस्थिति पर एतराज़ नहीं किया. शायद सभी के दिल उस भिखारी के बारे में सुनकर एक सहानुभूति से भर चुके थे.
वर्षा के कारण मौसम सर्द हो चुका था. चौकीदार ने बाहर बरामदे में एक बरौसी में आग जला दी थी. लड़कियों ने आग देखी तो कुछेक आकर वहां आग तापने लगीं. वो मानव छाया अभी भी वहीं कोने में दुबकी पड़ी थी. कभी-कभी उसकी खांसी की आवाज़ निकलकर बाहर होती वर्षा के शोर में जाकर विलीन हो जाती थी. सर्दी के कारण उसका भी शरीर जैसे गठरी बन चुका था. बिगड़ी हालत, कमज़ोर शरीर, उस पर बारिश के कारण वातावरण की कड़ाकेदार सर्दी, उस भिखारी का ठिठुरना बहुत स्वाभाविक ही था.
रात हर पल गहरी होती जा रही थी. वर्षा अभी तक हो रही थी, जबकि अब हवाएं सुस्त हो चुकी थीं. आकाश में अभी भी बिजली कभी-कभार कौंध कर कौसानी के सारे इलाके को पलभर के लिए रोशनी से भर देती थी. कॉलेज की आई हुईं लडकियों की अभी तक बातें हो रहीं थीं. उनकी खिलखिलाहट और अल्हढ़ हंसी की आवाजें दरवाज़े की दरारों से निकलकर बाहर वर्षा के शोर में जाकर समाप्त हो जाती थीं. उनकी चुलबुलाहटें, चंचल मुस्कानें, और खुशियों से भरे दिलों का अंदाज़ा बाहर बरामदें में खड़े होकर ही लगाया जा सकता था. सर्दी के कारण सिमटी हुई वह मानव छाया भी कभी-कभार उन लड़कियों की बातें सुन लेती थी.
सहसा ही लड़कियों के मध्य चुप्पी छा गई. सब ही मौन थीं. शायद खाना आदि खाने लगी हों? बैठे सुकड़े ही उस मानव छाया ने अनुमान लगाया. उसके कुछेक क्षण इसी सोच-विचार में खो गए. फिर कुछेक पलों के बाद ही दरवाज़े की दरारों का सीना चीरता हुआ एक पतला, मीठा स्वर निकलकर बाहर आया. अपनी सुरीली, रसीली आवाज़ के साथ. ऐसा कि जो भी सुन ले तो अपनी जगह पर ही खड़ा होकर रह जाये. किसी लडकी ने अपनी शहद भरी आवाज़ में गाना शुरू कर दिया था,
‘पहाड़ों से गिरते हैं झरने . . .’
अचानक ही उस अनजान मानव छाया ने इस गीत को सुना तो उसके कान अपने ही स्थान पर ठिठक गए. इस प्रकार कि जैसे कोई घोड़ा अचानक से सूखे पत्तों की खड़-खड़ाहट पर ठिठक जाता है. गीत के पहले बोल को सुनते ही उस मानव छाया का वर्षों से मारा-फिरता दिल अचानक ही बड़े ही ज़ोरों से अपने ही स्थान पर धड़क गया. उसकी धड़कनों पर जोर पड़ गया. इस प्रकार कि उसे एक बार अपने कानों पर विश्वास भी करना मुश्किल हो गया. वह पहले से भी और अधिक संभलकर बैठ गया. पल भर में ही उसकी सारी सर्दी जाती रही. फिर वह मानव छाया अपना दिल थामकर उस गीत को सुनने लगी. और वह अनजान लडकी अपनी मीठी आवाज़ में गाती रही;
‘पहाड़ों से गिरते हैं झरने,
झरनों में बहता पानी,
बागों में फूल प्यारे,
फूलों में अपनी कहानी,
चिनारों से लिपटते बादल,
करते हैं बातें प्यारी,
कलियों पे बैठी शबनम,
सुनती है धड़कन हमारी,
पहाड़ों से गिरते हैं झरने,
झरनों में बहता पानी ...’
गीत की समाप्ति पर सभी लड़कियों ने जब ज़ोरदार तालियां बजाईं तो उनकी गड़-गड़ाहटों ने कोने में दुबकी उस बूढ़ी मानव छाया के कानों के पर्दे चीर कर रख दिए. इस प्रकार कि वह फ़ौरन ही अपने स्थान पर खड़ी हो गई. गीत के बोल को सुनकर ही उसके मरियल शरीर में जैसे बिजली के करेंट दौड़ चुके थे. बूढ़ी और सर्द आँखों में उसकी भूली-बिसरी यादों का कोई चित्र बन चुका था. ऐसा चित्र कि जिसकी छवि को देखते ही उसका सारा चैन पल भर में ही हवा हो गया. होठ किसी की यादों में दो बोल बोलने के लिए तड़पने लगे. दिल का वर्षों से सोया हुआ दर्द उसकी आँखों में उसके अतीत के दुःख और क्षोभ के ढेर सारे आंसू लेकर उपस्थित हो गया. इस तरह कि उसकी ज़िंदगी का बीता हुआ अतीत उसके मन और आत्मा में किसी तेज धारदार चाकू के समान अन्दर तक उतर कर रह गया. उसे अपने पर और इस सारी वास्तविकता पर एक बार विश्वास भी करना कठिन हो गया. वह समझ नहीं पाया कि ये कैसा संयोग था? उसकी कैसी किस्मत थी? ये कौन सा चमत्कार था? ये गीत? गीत के बोल तो स्वंय उसके ही लिखे हुए हैं? उसका ये लिखा हुआ गीत कहीं छपा भी नहीं हैं. इस गीत को कभी खुद उसने ही बनाया था. खुद ही लिखा था. वह ही तो वर्षों पूर्व इस गीत को गाया करता था. गाकर सुनाया करता था. उसके अतिरिक्त कोई दूसरा इस गीत के बारे में जानता तक नहीं है. उसी का गीत है. वही उसके बोल हैं. उसके गीत, जिसे उसने कभी खुद बहुत खुशियों भरे दिल के साथ इसी डाक बंगले में, यहीं इन्ही कौसानी की वादियों में बैठ कर लिखा था. जिसको वह कभी बहुत प्यार के साथ बैठ कर गाया करता था. तब उसके साथ उसके सारे जीवन का सार, उसकी सारी उम्मीदें, उसके सागर जैसे मांझी में तैरती हुईं उसके भावी जीवन की तमाम खुशियों की वह कतरनें थीं जिनको वह एक बार में ही समेटकर अपने दामन में भर लेना चाहता था. वह खूब जानता है कि जिस चेहरे और जिस पर्वती ख़ूबसूरत बाला को अपने जीवन का सब कुछ मानते हुए उसने इस गीत की रचना कर डाली थी वह केवल इस गीत को सुन ही सकती थी, गा नहीं सकती थी. क्योंकि उसको विधाता ने सब कुछ दिया था. रूप, रंग, हुस्न की वह मलिका थी. मगर आवाज़ से महरूम थी. इस गीत के बारे में वह जानता है, और अगर कोई दूसरा जानता है तो वह है रोमिका. होठों पर ये नाम आते ही उसके होठ तड़प कर रह गए. रोमिका- उसका दिल रो पड़ा. उसके मन में एक आह सी उठी -रोमिका. आँखों में आंसू छलक आये- रोमिका. कितनी सुन्दर थी वह. किसकदर? पहाड़ों की राजकुमारी. सुन्दरता की एक बहुमूल्य भेंट. नीली झील सी गहरी आंखोंवाली, कूल्हे से भी नीचे लहराते हुए उसके लम्बे बाल. कहाँ चली गई है वह उसे अकेला छोड़ कर? बगैर बताये. बगैर कोई भी सूचना दिए हुए? उसका प्यार- रोमिका. उसके दिल की अपार धड़कनों का मधुर भण्डार-रोमिका. उसकी आँखों के आंसू- रोमिका. रोमिका- रोमिका- रोमिका. वह तड़प उठा. इतना अधिक कि, सोचने ही मात्र से उसकी आँखों में आंसू भर आये. होठों पर सिसकियाँ आ गईं.
कहाँ चली गई है वह उसे अकेला छोड़ कर? उसकी रोमिका? बताये बगैर कोई भी सूचना दिए हुए? कहाँ विलीन हो गई? रोमिका- उसका भविष्य. उसका प्यार. उसके जीवन का चैन. उसकी आत्मा. उसका जीवन- रोमिका. जिसकी आवाज़ को सुनने के लिए वह कितना अधिक तरस गया है? वह प्यारी, सुंदरता की बे-मिसाल, पर्वतों की भेंट- रोमिका, जिसकी केवल यादों की एक हल्की सी लकीर तक को वह इतने ढेर सारे वर्षों के अंतराल के बाद भी नहीं भुला पाया है. सोलह साल- पूरे सोलह वर्षों का एक पूरा युग. एक जीवन. कितना लम्बा अरसा समाप्त हो चुका है? उसके सोलह साल पहले का वह अतीत. वे प्यारे-प्यारे दिन. वे कीमती पल. सुंदर और हसीन स्मृतियाँ. ज़िन्दगी के सबसे अधिक खुशियों भरे दिन. तब वह भी कभी यहां पर आया था. आज से सोलह वर्ष पूर्व. यहीं कौसानी के वादियों में. अपने कॉलेज के छात्रों के समूह के साथ. गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए. पहाड़ों की ठंडी हवाओं में आनंद भरे, मौज-मस्ती के दिन गुज़ारने के लिए. तब उसके संगी-साथी उसको नितिन के नाम से जाना करते थे. नितिन- तब वह अपने कॉलेज की क्रिकेट की टीम का एक होनहार खिलाड़ी था. श्यामला रंग, गठीला बदन, सुंदर लम्बाई, कॉलेज की जो भी लड़की उसको एक बार देख लेती थी, अपनी नज़रें थामकर ही रह जाती थी. तब कॉलेज के अच्छे छात्रों में नितिन का नाम गिना जाता था.
'. . .सोचते-सोचते, उसकी आँखों के सामने एक पर्दा आया और उस पर उसके जिए हुए दिनों के ढेर सारे चित्र अंकित होने लगे. स्वत: ही. . . . .’
.....नितिन, अपने कालेज के दिनों में किर्केट का माना हुआ खिलाड़ी था. श्यामला रंग, सुन्दर लम्बाई, कालेज के अच्छे लड़कों में उसका नाम गिना जाता था. अखिल भारतीय किर्केट टूर्नामेंट में अपने कॉलेज को विजय दिलाने के कारण कॉलेज की ओर से सभी खिलाड़ियों को इन् पहाड़ों पर भ्रमण करने का सुअवसर मिला था. इसीलिए नितिन भी गर्मी की छुट्टियों में अपने सभी साथियों के साथ, अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथोरागढ़, भुवाली आदि स्थानों के बाद कौसानी आया हुआ था.
नई सुबह का दिन था. वातावरण में ठंडक का असर था. चिनार के वृक्षों, चट्टानों और प्रकृति की हरेक वस्तु पर छोटी-छोटी ओस की बूँदें नए दिन के उजाले का स्वागत कर रहीं थीं. रात भर बादल बरसते रहे थे, इसलिए शायद मौसम खुला हुआ था और आकाश में बादलों के काफ़िले बगैर कहीं भी ठहरने का विचार लिए हुए मटरगस्ती करने में जैसे बहुत ज्यादा व्यस्त हो चुके थे. नितिन सुबह बहुत शीघ्र ही उठ कर, बगैर नाश्ता किये हुए इन बादलों के साथ पहाडी सौंदर्य को देखने के लिए अपने कैमरे के साथ बाहर निकल आया था. वह अभी फ़ोटो खींचने में व्यस्त ही था कि तभी अचानक से उसकी पीठ पर एक छोटे से पत्थर का टुकड़ा आकर लगा तो वह सहसा ही चौंक गया. उसने एक संशय के साथ आश्चर्य करते हुए अपने पीछे घूम कर देखा तो वह पहले से भी अधिक और ज्यादा चौंक गया- अपने यौवन के बोझ से लापरवाह, एक पहाड़ी लड़की उसी की तरफ निहार रही थी. नितिन कुछेक पलों तक उसको यूँ ही देखता रहा. मगर वह लड़की अपने ही स्थान पर खड़ी रही. निश्चिंत, बेधड़क, निसंकोच. फिर नितिन उसके पास आया. आकर उसे करीब से देखा. सुन्दर गोल दूध से धुला हुआ उसका सुन्दर मुखड़ा, नीली-गहरी आँखें, पहाड़ी वस्त्र, उसकी कमर में लगी हुई एक छोटी सी कटार और उसका सबसे बड़ा आकर्षण, उसके कमर से भी नीचे बे-फिकरी से झूलते हुए लम्बे खुले, बाल. नितिन उसे देखते हुए ये निर्णय नहीं ले सका कि वह इस लड़की से क्या कहे और क्या नहीं? वो लड़की अभी तक नितिन को देखे जा रही थी- अपलक, बगैर किसी भी भय के, निश्चिन्त.
‘समझ में नहीं आता है कि क्या कहूं आप से? बहुत ख़राब आदत हो सकती है ये आपकी, जो एक अजनबी पर यूँ पत्थर मारती हैं?’
‘!!’
उत्तर में उस लड़की के होठ खुले, फिर बंद हो गए. आवाज़ मुख के अन्दर ही जैसे कैद होकर रह गयी थी. उसने चुपचाप अपनी गर्दन नीचे झुका ली.
नितिन ने समझा कि वह चाह कर भी कुछ कह नहीं सकी है.
‘आप बता सकती हैं कि आपने मुझे यूँ पत्थर क्यों मारा है?’ नितिन ने फिर से पूछा.
-खामोशी.
वह लड़की फिर भी खामोश ही रही. विवश होकर वह अपने हाथ की अँगुलियों को ही तोड़ने लगी. नितिन ने उसकी दशा को परखने की कोशिश की. सोचा, विचारा, फिर बोला,
‘देखो, मैं यहाँ यू. पी. से आया हूँ. तुम्हारे देश में एक अजनबी हूँ, कुछ दिनों का मेहमान हूँ. आपको यदि मेरा यहाँ आना पसंद नहीं है तो मैं खुद ही यहाँ से चला जाऊँगा. लेकिन मुझसे कोई भी ऐसी-वैसी उम्मीद मत रखो.’ कहते हुए वह पीछे लौट पड़ा.
मगर वह दो कदम ही चला होगा कि फिर उसके एक छोटा पत्थर आकर लगा. लड़की ने उसे फिर से रोकना चाहा था.
‘?’
नितिन फिर से वापस लौटा. लड़की के पास आकर उसके सामने खड़ा हुआ. एक बार उसकी नीली आँखों में झाँका. उस लड़की का मंतव्य समझने की चेष्टा की, फिर बोला,
‘बोलो. क्या चाहती हो मुझसे?’
नितिन की इस बात पर वह लड़की बोली तो कुछ नहीं, पर अपने साथ उससे अपने पीछे आने का इशारा किया तो नितिन कुछ सहमते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगा. थोड़ी देर बाद वह लड़की एक बड़े से पत्थर के पास आकर रुक गई. वहां पर एक बड़ा सा लकड़ी का गट्ठर बंधा हुआ रखा था. तब उस लड़की ने पहले तो नितिन की ओर देखा, फिर एक हाथ से उस लकड़ी के गट्ठर की तरफ इशारा किया, फिर वही अपने हाथ का संकेत अपने सिर की ओर किया, फिर चुपचाप अपने दोनों हाथ जोड़ लिए. नितिन ने उसकी बात का अर्थ समझा. वह लड़की उस लकड़ी के गट्ठर को अपने सिर पर उठवाकर रखवाने के लिए उससे सहायता मांग रही थी.
‘इस बात को अगर आप अपने मुख से कह देतीं तो मैं क्यों इतना सशोपंज में पड़ता और तुम्हे भी गलत क्यों समझता? मैं इस सहायता के लिए मना तो नहीं कर देता?’
- उत्तर में उस लड़की ने अपना मुख खोला और जुबान दिखाते हुए हाथ के इशारे से नहीं में सिर को हिला दिया.
‘?’-
अचानक ही नितिन की इस बेकार सी सोच को एक झटका सा लगा. सब कुछ समझते ही नितिन का मुख मारे शर्म और लज्जा के नीचे झुक गया. वह लड़की बोल नहीं सकती थी. मगर नितिन ने उसकी सारी दशा को देखते हुए उससे एक बात और कही. वह बोला,
‘लेकिन, मेरे एक बात समझ में नहीं आई. आप यूँ अकेले, बगैर किसी भी सहारे और साथ के इन जंगलों में घूमती फिरती हो, आपको डर नहीं लगता है. लड़की हो, सुन्दर हो, कोई भी उंच नीच..’
- नितिन की इस बात पर उस लड़की ने तुरंत ही अपनी कमर से खुखरी निकालकर उसे दिखाई तो नितिन जैसे सहमते हुए बोला,
‘ठीक है. ठीक है. इस हथियार का इस्तेमाल मुझ पर करने की आवश्यकता नहीं है. मैं बहुत सीधा-सादा इन्सान हूँ. चलो आप अपनी लकड़ियाँ उठवायें और जाएँ.’
तब उस लड़की ने मुस्कराते हुए अपने दांत दिखाए. नितिन ने लकड़ियाँ उसके सिर पर रखवाईं और फिर उसे जाते हुए देखता रहा. बड़ी देर तक. अपलक और हैरान सा. 




















2

नितिन, अभी यह सब सोच ही रहा था कि, तभी उसके कंधे पर किसी ने पीछे से अपना हाथ रखा. नितिन ने चौंक कर पीछे देखा. उसके समूह के की लड़के उसकी तरफ देखते हुए हंस-मुस्करा रहे थे. तभी उनमें से एक ने उसकी तरफ मुस्कराते हुए कहा कि,
'यार ! वह तो चली गई. अब तुम क्यों खड़े हो?'
'क्या खूब पर्वतों की मलिका ढूंढी है?'
'तेरी तो किस्मत ही खुल गई, पहाड़ पर आकर'
'क्या तीर मारा है, भई ?'
जितने उसके साथी थे, उससे कहीं अधिक उनके कटाक्ष थे. जब सब ही उस पर व्यंग कसने लगे तो नितिन चुपचाप, कुछ भी कहे-सुने, उनके साथ हो लिया. नितिन को छोड़कर सभी आपस में बातें कर रहे थे. हंस रहे थे. खिल-खिला रहे थे. एक प्रकार से पर्वतों की इन हसीन वादियों में आकर उसकी खुबसूरती का पूरा-पूरा लाभ उठा रहे थे; परन्तु उनकी इन सारी बातों से बिलकुल ही बे-खबर, अपने ही विचारों में बे-सुध सा नितिन का तो ध्यान ही कहीं अन्यत्र था. वह हर पल खामोश ही रहा. उसका किसी अन्य बात में मन ही नहीं लगा. वह अभी भी उस अपार सुन्दरी, हिमबाला सी, पर्वती लड़की के बारे में सोचे जा रहा था, जो एक अद्धभुत तरीके से उसको आ मिली थी. वह लड़की जिससे उसकी भेंट भी एक अजीब ही ढंग से हुई थी. वह लड़की जो अभी भी उसके लिए हर तरह से अपरिचित और अजनबी ही थी. लेकिन फिर भी अपने सौंदर्य की वह एक एक अनोखी मिसाल बन कर उसके दिल-ओ-दिमाग में आकर बस चुकी थी.
उस सारे दिन नितिन खामोश ही रहा. खोया-खोया सा, अपने में ही गुम और भटका हुआ सा. फिर जब दिन डूबने लगा और सांझ ढले पहाड़ों पर रुके हुए बादलों के होठ सुर्ख हो गये तो नितिन बिना किसी को बताये हुए, चुपचाप, बहुत खामोशी से, अपने डाक बंगले से बाहर आ गया. बाहर आकर वह बड़ी बे-ख्याली से, एक बोल्डर पर बैठ कर दूर नीचे घाटियों में, इठलाते हुए बादलों को निहारने लगा. घाटी के गर्भ में, बादलों के छोटे-छोटे लावारिस से टुकड़े, अपनी नाजुकता से लापरवा बने मानों घाटी में किसी कैद से छूटे हुए कैदियों के समान स्वतंत्र हो गये थे. सूर्य का गोला, दिन भर का थका-थकाया, प्रत्येक पल एक पहाडी के पीछे अपना लाल मुख छिपाता जा रहा था. वातावरण शीतल था. सौंदर्य के भार से लदा हुआ, पर्वतों का ये इलाका, मानो सुन्दरता की एक अनुपम भेंट समान सभी का मन अपनी ओर आकर्षित कर रहा था.
परन्तु, नितिन? उसे शायद इन सब में से किसी का भी होश नहीं था. वह तो सभी से विमुख बनकर, बार-बार दूर ख्यालों में, भटक जाता था. लेकिन, हर बार इधर-उधर से निराश हुई उसकी बोझिल आँखें, दूर उस घाटी की तरफ जाकर थम जाती थीं, जहां पर आज प्रात: ही वह अनजान लड़की उसकी आँखों से ओझल होकर चली भी गई थी. नितिन की आँखों में जैसे उस लड़की के वापस आ जाने का इंतज़ार था. किसी की प्रतीक्षा थी. होठों पर उसके लिए बे-आवाज़, बे-स्वर कोई पुकार थी. वह नहीं थी तो नितिन के दिल में मानो कोई कमी आ चुकी थी. ये कैसी खामोशी थी? किस तरह ध्वनि से महरूम कोई पुकार थी? कोई नहीं था, फिर भी वह जैसे सन्नाटों में आवाज़ दिए फिरता था. कौन सी आवाज़ थी? दिल में क्यों, किसी के लिए छाई हुई दीवानगी थी? ऐसा इंतज़ार, ऐसी प्रतीक्षा कि, जिसमें किसी से कोई वायदा नहीं था, कोई विश्वास नहीं, फ़िर भी बैठा हुआ था? उसके दिल की कौन सी धड़कन थी, जो उस अनजान लड़की के एहसास मात्र से ही, अपनी गति तेज कर लेती थी. कैसे होठ थे, जो बे-आवाज़ बनकर उस बे-आवाज़, अजनबी लड़की को अनायास ही पुकारने लगते थे? आँखों की दृष्टि, क्यों बार-बार एक आस से, उस मूक घाटी की ओर ताकने लगती थी?
बैठे-बैठे, नितिन को बहुत देर हो गई. सांझ डूबकर काली पड़ने लगी. घाटियों का मनोरम दृश्य दिखता हुआ हल्का पड़ता गया और दूर पर्वतों के पीछे से चन्द्रमा भी झाँकने लगा. परन्तु, वह लड़की, वह अनजान सुन्दरता की पर्वती बाला, नहीं आई. नहीं आई, नहीं दिखी तो नितिन का मन उदास हो गया. वह निराश हो गया. फिर उदासी को अपने दिल से लपेटकर, नितिन मन मारकर चुपचाप डाक बंगले पर आ गया. उसके मित्र पहले ही से उसके वापस आने की राह तक रहे थे. फिर उसने सबके साथ, बे-मन से, बैठ कर शाम का खाना खाया. भोजन आदि से निवृत होकर, चुपचाप अपने बिस्तर पर जाकर लेट गया. बहुत खामोशी से उसने अपनी आँखें भी बंद कर लीं. सोने का प्रयत्न किया, बहुत कोशिश की कि, नींद आ जाए, पर वह तो जैसे उससे रूठ चुकी थी. यूँ, भी मनुष्य का अगर दिल परेशान हो, मन के अंदर पचासियों विभिन्न तरीके के विचार हों तो नींद तो सबसे पहले ही भाग जाती है.
तब रात में नितिन को बड़ी देर तक नींद ही नहीं आई. वह करबटें बदलने पर विवश हो गया. सारी रात वह उस अनजान और अपरिचित लड़की के बारे में ही सोचता रहा. उसके कोमल ख्यालों में खोया रहा. रात हर पल बढ़ रही थी. पहाड़ी वातावरण था, इसकारण रात भी ठंडी हो चुकी थी. मौसम सर्द हो गया था. कमरे में कभी-कभार, कोई बादल का भटका हुआ टुकड़ा खिड़की के रास्ते अंदर आकर शरण ले लेता था. नितिन के अन्य साथी अब तक गहरी नींद में जैसे बे-सुध हो चुके थे.
नितिन को जब बहुत देर तक नींद ही आई तो, वह अपने साथियों से नज़रें चुराते हुए, चुपचाप कमरे के बाहर आ गया. डाक बंगले के बरामदें में आकर वह खड़ा हो गया. एक नज़र उसने सारे माहोल पर डाली; बाहर पहाड़ों की चट्टानों और सारी वनस्पति पर चांदनी का दूध जैसे बुरी तरह से लुढ़क चुका था. भरपूर, अपने यौवन से लदी चांदनी थी. चांदनी का झाग मानो उफना जाता था. भरे-पूरे चाँद की जवानी जैसे फट पड़ी थी. चांदनी रात में यूँ भी पहाड़ों का मौसम बड़ा प्यारा लगता ही है.
नितिन, अब तक चुपचाप पहाड़ों पर बरसती हुई चांदनी को बे-सुध सा देख रहा था. उसके इन्हीं ख्यालों और सोचों में काफी पल खो गये. हर तरफ खामोशी थी. पर्वत मूक थे. चांदनी भी केवल इशारों में ही जैसे अपना बयाँ कर रही थी. गगन को चूमते हुए चिनारों की पत्तियाँ भी अपना सिर झुकाए हुए चुपचाप सो चुकी थी. हर बढ़ती हुई रात खामोश थी. कौसानी का वह सारा इलाका खामोश था, परन्तु नितिन की खामोशी में फिर भी कोई आवाज थी. एक पुकार थी. उसका दिल जैसे चुपचाप किसी को बुला रहा था. उस अनजान लड़की की स्मृति मात्र से ही उसका दिल धड़क उठता था. धड़कनें बेचैन हो जाती थीं. वह अपरिचित लड़की जिसने अपनी बेबसी एक अनोखे ढंग से उसके सामने ज़ाहिर की थी. वह लड़की, जो एक खामोशी लेकर उसके सामने आई थी, मगर उसके होठों की सारी आवाज़ लेकर चली भी गई थी. साथ ही उसे बहुत कुछ अपने बारे में सोचने पर मजबूर भी कर गई थी. नितिन को जब चैन नही पड़ा तो वह डाक बंगले से निकलकर बाहर आ गया और एक पत्थर की चट्टान पर आकर बैठ गया. बड़ी देर तक वह बैठा ही रहा. बैठा-बैठा वह बहुत चुपचाप कभी दूर क्षितिज को देखता तो कभी उसकी नज़रें, अपने आस-पास के मौन वातावरण को देख कर यूँ ही निराश भी हो जातीं थी.
नितिन, अभी तक बैठा ही था कि, अचानक ही एक, मीठी और सुरीली आवाज़ ने उसके कानों को चौंका दिया. दूर, उसी घाटी की गोद से, बहुत ही मधुर बांसुरी की प्यारी आवाज़ ने पहाड़ों पर ठहरी हुई खामोशी को भंग कर दिया था. नितिन, कुछेक पलों तक बांसुरी के मीठे संगीत को सुनता रहा. बांसुरी बजती रही. बजाने वाला, बजाता रहा. बजती हुई बांसुरी की आवाज़, पहाड़ों पर भटकती हुई, ऐसी प्रतीत होती थी कि, जैसे कोई प्रेम की दासी बहुत उदास होकर, अपने खोये हुए प्रीतम को ढूंढती फिर रही है. वर्षो से अपने मधुर-मिलन की चाह में उसको पुकार रही हो.
नितिन, जब अपने दिल की बढ़ती हुई जिज्ञासा को सम्भाल नहीं सका तो उसके कदम स्वयं ही बांसुरी की ध्वनि की ओर बढ़ने लगे. वह पथरीली चट्टान से उठकर, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता, उफनती हुई इस चांदनी रात की रोशनी में, बांसुरी की आवाज़ के सहारे, बजाने वाले की तरफ बढ़ता गया. वह चलता रहा. आगे ही आगे कदम बढ़ाता रहा. कुछेक पलों के अंतर में ही डाक बंगला पीछे छूट गया. उसके कदमों में अजीब ही शक्ति का आकर्षण था. आँखों में, बजाने वाले की कोई धूमिल छवि थी और दिल में दबी हुई कोई खामोशी की आवाज़ थी कि, जिसके कारण वह कदमों को रोक भी नहीं पाया था.
ऊंची-नीची, चट्टानों को पार करता हुआ वह शीघ्र ही उसके नज़दीक पहुंच जाना चाहता था. रात्रि के इस प्रथम पहर में, केवल चन्द्रमा ही अपनी मद्धिम रोशनी से, उसका मार्गदर्शन कर रहा था. पास पहुंचकर, घाटी की ढलान में नीचे उतरने से पहले नितिन ने एक पल चारो तरफ के माहोल को देखा- बांसुरी का प्यारा संगीत घाटी के गर्भ में, अब भी गूँज रहा था. उसकी सुरीली आवाज़ बार-बार उसके दिल की गहराईयों में उतरती चली जाती थी. नीचे घाटी की जोखिम-भरी ढलान थी. उसी ढलान में पहाड़ी ग्रामवासियों के थोड़े से मकान बने हुए थे. एक छोटा सा पारिवारिक गाँव जैसा आलम प्रतीत होता था. कुछेक मकानों से अभी भी अंदर जलने वाले दियों का हल्का प्रकाश बाहर आता दिखाई दे रहा था. नितिन, बहुत ही सम्भल-सम्भल कर नीचे घाटी की ढलान में उतरने लगा. उसके पग आगे बढ़ने लगे. रात खामोश थी और पहाड़ों पर पसरी हुई खामोशी उसको चुपचाप निहारती रही, इस प्रकार कि जैसे कोई चोर अब चोरी करने ही वाला हो?
अचानक ही बांसुरी का स्वर अपने ही स्थान पर थम गया. नितिन ने उस ओर देखा, जिस तरफ से अचानक ही बांसुरी की आवाज़ आनी अब बंद हो चुकी थी. आवाज़ बंद हुई तो नितिन भी एक सशोपंज में पड़ गया. वह सोचने लगा कि, अब वह किधर जाए? किस तरफ मुड़कर देखे? वह अभी ऐसा सोच ही रहा था कि, अचानक ही उसका पैर किसी पत्थर की बड़े टुकड़े से टकरा गया. उसने सम्भलना चाहा, मगर संतुलन बिगड़ गया. वह गिर पड़ा. नीचे, उसके पहाड़ की लम्बी ढलान किसी बल खाई नदी के समान उतरती चली जाती थी. संतुलन बिगड़ने के कारण उसका शरीर एक साथ, कई करबटें खा गया और वह लुढ़कता हुआ नीचे जा पड़ा. पहाड़ की यह ढलान लम्बी तो थी फिर भी कोई अधिक खतरनाक नहीं थी. नीचे जाकर समतल हो गई थी. नितिन लुढ़कते हुए जब एक स्थान पर आकर रुका तो, उसके होठों ने किसी की गर्म-गर्म साँसों का स्पर्श महसूस किया. कोई उसके चेहरे को बहुत करीब से देख रहा था. यद्दपि, उसकी चेतना खोई नहीं थी, फिर भी काफी ऊंचाई से लुढ़कने से उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था. शरीर के कई एक स्थानों पर हल्की चोटें और खरोंचे भी आ चुकी थीं. चेहरे पर, छोटे पत्थरों के टुकड़े लगने से, वहां पर अब रक्त झलकने लगा था. गर्म साँसों के एहसास मात्र से नितिन ने अपनी आँखें खोल दीं. कोई मानव छाया, बड़ी हैरानी के साथ, झुकी हुई उसके मुखड़े को जैसे पहचानने का असफल प्रयास कर रही थी.
चेहरे पर आती हुई गर्म-गर्म साँसे, अनजान, अपरिचित, पर्वती इलाका, अनजान जगह और अजनबी लोग भी- और वह अकेला घायल अवस्था में? कुछ भी हो सकता था? सोचते ही नितिन को अपनी मूर्खता पर क्रोध सा आ गया. उसने उठने का प्रयास किया, तो उस अनजानी मानव छाया ने अपना हाथ का सहारा देकर, उसे उठने में सहायता प्रदान की. वह बड़ी कठिनाई से उठ कर खड़ा हो पाया. दर्द के कारण उसके शरीर का जोड़-जोड़ तक दुखने लगा था. मगर, फिर भी वह उस मानव छाया को चांदनी रात के इस मद्धिम प्रकाश में पहचानने की कोशिश करने लगा. उसने देखा- भोला मुखड़ा, चेहरे पर दो गहरी-गहरी नीली आँखें, आँखों में उसके प्रति अपार सहानुभूति, लम्बे घनेरे बाल, इतने लम्बे कि, उसके कूल्हों से भी नीचे झूम रहे थे. यह तो वही है? वही लड़की- उसके खड़े होने का अंदाज़ भी वही? वैसी ही उसकी खामोशी? बिलकुल वही, जैसी उसने पिछली सुबह ही देखी थी? इसी लड़की के कारण तो उसके सारे दिन का चैन खो गया था? बिलकुल वही थी, जिसकी तलाश में वह आज दिन भर भटकता फिरा था. उसे ढूंढता रहा था. इसी की तो उसने आज सारे दिन न जाने क्यों प्रतीक्षा की थी? 



3

नितिन की भेंट, दोबारा से उस अनजान और सुंदर पहाड़ी लड़की से हुई इस प्रकार से हुई तो क्षण भर में ही वह अपनी चोटों और दर्द को भूल गया. नितिन ने उसको एक बार फिर से देखा- वह उसी को देख रही थी. लगातार- एक टक. फिर उस लड़की ने अपने हाथ के इशारे से नितिन को अपने स्थान से उठने का संकेत दिया. तब नितिन ने उठने का प्रयास किया तो वह थोड़ा सा उठा और फिर से अपने स्थान पर बैठ गया. उसके बदन में दर्द के जैसे हथोड़े चल रहे थे. वह लड़की तुरंत ही मनोदशा समझ गई तो उसने नितिन को उठने में अपने हाथों का सहारा दिया. तब नितिन किसी प्रकार से उठ कर खड़ा हो गया. खड़ा हुआ तो उस लड़की ने उसे हाथ के इशारे से अपने साथ, अपने पीछे आने को कहा. तब नितिन चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगा. थोड़ी ही देर में, वह लड़की एक घर के सामने आकर ठहर गई. एक छोटा सा घर था- छोटी सी जगह, परन्तु किसी भी अतिथि के लिए अपने सीने में ढेरों-ढेर मेहमानबाजी बसाए हुए जैसे नितिन का भरपूर स्वागत कर रही थी. घर के अंदर से किसी दीप का मटमैला प्रकाश, दरवाज़े की दरारों से झाँक-झाँक कर बाहर फ़ैली हुई चांदनी को मुंह चिढ़ा रहा था. नितिन, अभी तक खामोश ही खड़ा हुआ था कि उस लड़की ने घर का दरवाज़ा खोलकर उसको हाथ के इशारे से अंदर आने को कहा. नितिन ने पहले आस-पास, फिर घर के अंदर देखा, फिर वह प्रविष्ट हो गया. घर के अंदर मिट्टी के तेल का एक छोटा सा दिया, छाये हुए अन्धकार को, भगाने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर रहा था.
वह लड़की नितिन को एक छोटे से कमरे में, लेकर आई और वहां पर पड़ी एक चारपाई पर उसे बैठने को हाथ के इशारे से कहा. क्योंकि, नितिन को गिरने के कारण कुछ चोटें आई थीं और उसका शरीर भी अभी उनके कारण दुःख रहा था; इस कारण वह चुपचाप बिस्तर पर लेट गया. नितिन के लेटते ही वह लड़की घर के दूसरे कमरे में चली गई. इस तरह कुछेक पल खामोशी में व्यतीत हुए. नितिन को आराम मिला तो अचानक ही नितिन की आँखें बंद होने लगीं. फिर थोड़ी ही देर में उसे झपकी भी आ गई. तब नींद के प्रथम झोंके में ही उसने एक सपना देखा;
छोटा सा सपना. एक पहाड़ी झरना है. वहां पत्थर-पत्थर हैं. चिकने, गोल अंडाकार, पर्वती जल की तीव्र धाराओं से तराशे हुए पत्थर. हवाएं तेज हैं. चिनार झुके पड़ते हैं. वर्षा होने वाली है और वह बुरी हालत में भटक रहा है- कहीं भी सुरक्षित शरण पाने के लिए. ना तो कहीं रास्ता दिखाई देता है, ना मंजिल का कोई ठिकाना. भटकते हुए उसकी दशा बहुत दयनीय हो चुकी है. वस्त्र भी फट चुके हैं, दशा भिखारियों समान. पेट भी भूख के कारण अंदर धंस चुका है, उसके गालों में गड्ढ़े पड़ गये हैं और वह ना जाने किसकी खोज में, प्यार में कहाँ-कहाँ मारा फिर रहा है? अपनी प्रीतम की तलाश में ना जाने कहाँ से कहाँ चला जा रहा है? तभी अचानक से, उसकी प्रयेसी, उसको इस भयंकर आंधी-तूफ़ान में नज़र आ जाती है. लेकिन वह किसी धनी युवक के हाथ में हाथ थामें हुए बढ़ी हुई कहीं चली जा रही है. मगर, अपने चेहरे पर, दुनिया भर का क्षोभ और विषाद का दर्द लिए हुए. मानो जीती-जागती लाश बनकर, इस संसार में अपना बोझ उठाये हुए फिर रही है. नितिन, जब उसको इस अनजान युवक के साथ देखता है तो, उसे देखते ही उसके दिल पर छाले पड़ जाते हैं. होठों पर आहें फट पड़ती हैं. आँखों में आंसू आ जाते हैं. वह उसको पुकारता है, तो उसकी प्रीतम, उसको अचानक से सामने पाकर खिल उठती है. तब वह खुशियों के बहाव में बहती हुई, सीधी भागती हुई आती है और उसके शरीर में समा जाती है. वह उसको अपनी धडकनों से लगा लेता है. दोनों की आँखों में इस मिलन के भरपूर आंसू आ जाते हैं- खुशियों के आंसू. दोनों मौन होते हुए भी एक-दूसरे का दुःख समझ रहे हैं. नितिन तब उससे कुछ कहने ही जा रहा था कि, सहसा वही युवक दौड़ता हुआ आता है और उसकी प्रेमिका को जबरन उससे छीनकर खींचता हुआ ले जाने लगता है. नितिन उसका विरोध करता है. लेकिन वह अनजान युवक उससे कुछ कहता है. फिर शीघ्र ही वह लडकी को घसीटने लगता है. विरोध में नितिन भी उसका हाथ पकड़ लेता है. दोनों में लड़ाई होने लगती है. फिर वह युवक जबरन उस लड़की को पकड़कर अपनी कार में बैठा लेता है. नितिन जब तक उसकी कार की तरफ पहुंचता है, कार का दरवाज़ा भाड़ से बंद हो जाता है. . .'
'. . ., अचानक ही नितिन की आँख खुल जाती है. सपना टूट जाता है. वह विस्मय से कमरे में इधर-उधर देखने लगता है. वही कमरा. वही कमरे में दिए का मद्दिम प्रकाश. लेकिन, सामने उसके वही अनजान लड़की खड़ी थी, जो उसे घायल अवस्था में अपने घर में लेकर आई थी. उसकी चारपाई से कुछ दूर पर एक तिन का खाली डिब्बा पड़ा हुआ था. इससे स्पष्ट था कि, उस मूक लड़की ने ही उस टिन के खाली डिब्बे को उसके कानों के पास जानबूझ कर फेंका था, ताकि वह उसको नींद से जगा सके. क्योंकि, बोलने से वह मजबूर थी और किसी अनजान युवक के बदन को स्पर्श करके जगाना, उसके कुंवारेपन के एहसास उसे अनुमति नहीं देते थे. नितिन को उसकी नींद से जगाने का यह तरीका अनोखा था. एक अजीब ही तरकीब थी.
नितिन जब जाग गया तो उस लड़की ने उसकी तरफ एक बार देख कर चाय का प्याला, उसकी ओर बढ़ा दिया. नितिन ने उसको धन्यवाद ककर, चाय का प्याला ले लिया और उसको धीरे-धीरे पीने लगा. वह अनजान लड़की चुपचाप कमरे में ही चक्कर सी काटती रही. वह कभी नितिन को देखती तो कभी रात्रि की खामोशी का एहसास पाते ही उसके कमरे से बाहर भी चली जाती. रात खामोश थी. वह सारा आलम खामोश था. पर्वत चुप थे. चिनारों पर गिरती हुई शबनम की बूँदें खामोश थीं और कौसानी के इस छोटे से, गरीब घर में दो प्राणी, दो दिल, दो अनजान राहें, दो मानव तस्वीरें भी खामोश थीं.
थोड़ी ही देर में वह लड़की फिर से नितिन के कमरे में आ गई. अपने हाथ में खाने की थाली सजाए हुए. नितिन को एक टकटकी लगाकर देखने के पश्चात वह चुपचाप खाना सजाने लगी. नितिन, चुपचाप उसकी एक-एक हरकत को निहारता रहा. तभी, अचानक ही बगल वाले कमरे से किसी मानव की खांसी की आवाज़ ने उन दोनों के मध्य, विराजमान खामोशी को भंग कर दिया. नितिन ने तब आश्चर्य से पलटकर उस कमरे की तरफ देखा और बाद में वह एक प्रश्नसूचक दृष्टि से उस लड़की की तरफ निहारने लगा. तब उस लड़की ने नितिन को एक पल निहारकर, अपने हाथ से ऊपर शून्य में अंग्रेजी के अक्षर लिखे,
'Baba (बाबा).'
'ओह !' नितिन को बोलने का अवसर मिला तो उसने उस लड़की से पूछ ही लिया,
'तुम्हारे बाबा के अतिरिक्त, तुम्हारा और कोई नहीं है?'
'?'- उस लड़की ने बहुत निराशा से अपना सिर ना में हिला दिया.
नितिन को ये जानकार बहुत दुःख हुआ. फिर उसने खाने की थाली की ओर देखते हुए कहा कि,
'इतना ढेर सारा खाना क्या मेरे लिए है?'
'हां'- लड़की ने 'हां' में अपनी स्वीकृति दे दी.
'तुम नहीं खाओगी?'' नितिन ने पूछा.
उत्तर में लड़की ने अपने हाथ की अंगुली से नितिन की ओर इशारा किया, फिर वही हाथ का इशारा अपनी ओर किया. लड़की का संकेत उसकी मौन भाषा में नितिन ने समझ लिया. इसका मतलब था कि, वह नितिन के खाने के पश्चात ही खायेगी. समझकर नितिन उससे आगे बोला कि,
'लेकिन, मेरे यहाँ का यह रिवाज़ नहीं है. हम सब साथ मिल-बैठकर ही खाते हैं. आओ, तुम भी मेरे साथ ही बैठकर खाओ.?'
'नहीं.' - इस पर लड़की ने हाथ के संकेत से फिर से मना कर दिया. इस बार कुछ दृढ़ता से. साथ में, उसने फिर एक बार नितिन से खाना पहले खाने का अनुरोध किया तो नितिन ने खाना आरम्भ कर दिया. वह चुपचाप खाने लगा. खाते हुए वह बीच में बोला भी,
'खाना तो तुमने, बहुत स्वादिष्ट बनाया है. क्या नाम है तुम्हारा?'
'?'- नितिन की इस बात पर वह लड़की पहले तो मुस्कराई, फिर उसने अपने हाथ की अनामिका से शून्य में अंग्रेजी के अक्षर लिखे,
'Romica - रोमिका.'
नितिन ने उसका नाम दोहराया - 'रोमिका.' फिर आगे बोला कि,
'बड़ा ही प्यारा नाम है.'
तभी रोमिका ने फिर से शून्य में अंग्रेजी के अक्षर लिखे - 'Romi - रोमी.'
फिर नितिन को उसने समझाया- अपने दोनों हाथों को उसने घर के चारो ओर घुमाया और फिर से शून्य में वही अक्षर लिख दिए - 'रोमी.'
नितिन समझ गया कि, घर में और उसके जानने वाले सभी उसे 'रोमी' कहकर बुलाते हैं.
उस रात नितिन, बहुत देर तक रोमी के साथ संकेतों में बातें करता रहा. उसके विभिन्न प्रकार के वार्तालाप सम्बन्धी इशारों को समझने-सीखने का उसने हर प्रयास किया. दोनों की तब इसी तरह से ढेर सारी बातें होती रहीं. घर के अंदर दिए के मटमैले प्रकाश में, वे दोनों बतिया रहे थे तो घर के बाहर चांदनी के जैसे उफनते हुए दूध के आकाश में चन्द्रमा अपनी तारों की बरात के सहारे इस रात्रि का सफर पूरा कर रहा था. अब तक रात आधी से अधिक बीत चुकी थी. चन्द्रमा ने अपने बुझने की कगार पर नीचे खिसकना आरम्भ कर दिया था. सप्त ऋषि मंडल के सात तारे भी झुकने लगे थे. तारिकाएँ भी अब कम होती जा रहीं थीं. रोमी बड़ी देर तक उससे बातें करने के पश्चात उसके कमरे के द्वारों को धीरे से उढ़का कर दूसरे कमरे में सोने चली गई थी.
उस रात को तब बहुत देर तक नींद भी नहीं आई. नितिन इसी उहापोह में बहुत देर तक जागता रहा. उसकी आँखों में थकावट थी. नींद से आँखें बोझल थीं, परन्तु मन के अंदर चैन नहीं था. उसके मन के अंदर छुपा हुआ रोमी का बोझ समान चेहरा बार-बार उसे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता था. वह उसके ख्यालों में डूबा रहा. विचारता रहा. सोचता रहा- 'रोमी'. सुन्दरता का एक बहुमूल्य उदाहरण- रोमी. उसके लिए एक अनोखी भेंट, अनोखा उपहार- रोमी. उसे देखते ही लगता था कि, जैसे आकाश से किसी उतरी हुई अप्सरा के फरिश्ते ने अनजाने में आकर इस पापी धरती पर अपनी पनाह ले रखी है. साथ ही उसकी सुन्दरता में चार चाँद जड़ने के लिए चन्द्रमा ने भी अपना आकर्षण उसके भोले-मासूम से मुखड़े पर भर दिया है. गुलाब के फूलों ने अपना रंग उसके होठों पर दिया है. झील से भी अधिक गहराई रखने वाली उसकी आँखे, आँखों में अथाह गहराई, देखने के नये अंदाज़ और सबसे बड़ी विशेषता- उसकी नीली आँखें- आँखों का नीलापन. कूल्हों से भी नीचे झूलते-लहराते हुए उसके लम्बे बाल, उपरोक्त समस्त विशेषताओं की मलिका- रोमी. सब कुछ उसके पास था, लेकिन उसकी आवाज़? विधाता ने भी यही एक जुल्म उसके साथ कर रखा था. वह नहीं जानती थी कि, कौन से जुर्म की उसको यह सजा मिली थी? साज़ था, परन्तु आवाज़ नहीं थी. फूल था, मगर खुशबू की मोहताज़ थी. ऐसी थी रोमिका. उसका स्वभाव, उसका रूप. पर्वतीय हिमबाला सी; शायद अपनी हरेक खूबसूरती और असाधारण सौंदर्य से भी अनजान, अपरिचित और बे-सुध सी.
नितिन ने इसी प्रकार से, यह रात अपनी सोचों और विचारों की दुनिया में उलझकर काट दी. सबेरा जब हुआ, रोमी अपनी आदत के अनुसार पहले ही उठ चुकी थी. सबसे पहले उसने नितिन के कमरे की खिड़की खोल दी. खिड़की के खुलते ही, सुबह की ठंडी-ठंडी चिनार के वृक्षों से उलझकर आती हुई वायु की हल्की लहरों ने नितिन के गालों को चूम लिया. बाहर पहाड़ों की वनस्पति पर छोटी-छूती ओस की बूँदें बैठी हुई नए दिन की इस नई सुबह का स्वागत कर रही थीं. नितिन, चारपाई पर लेट कर ही, खिड़की के सहारे बाहर का मनोहर दृश्य देखने लगा. आकाश पर अभी से बादलों ने उड़ना आरम्भ कर दिया था. नये उगे हुए सूर्य की सोने से लदी हुई किरणों के प्रकाश में छोटी-छोटी ओस की बूँदें सफेद मोतियों समान चमकने लगी थीं. प्यारा मौसम था. प्यारी पहाड़ों की प्राकृतिक, भीगी हुई सुंदर छटा थी. देखते ही नितिन का मन प्रसन्न हो गया. दिल में उसके फूल महक उठे. कलियाँ खिल गईं. 












4
रात भर के सुखद विश्राम और पहाडी श्रंखलाओं का मनमोहक सौंदर्य देखते ही नितिन के बदन का सारा दर्द एक पल में ही हवा हो गया. उसका मन रोमिका और तमाम पर्वती सुन्दरता में खोकर ही रह गया.
रोमिका ने नितिन के उठते ही तुरंत हरी चाय की पत्तियों की चाय बनाई और फिर गर्म-गर्म लेकर नितिन के सामने आकर खड़ी होकर मुस्कराने लगी. इशारों में ही उसने शुभ सुबह कहा, नितिन से चाय पीने का अनुरोध किया तथा और भी बहुत सी बातें वह उससे इशारों में करने लगी. नितिन चुपचाप मुस्कराते हुए चाय पीने लगा. तब चाय आदि समाप्त करने के बाद, वह अपने डाक बंगले जाने के लिए तैयार हुआ. वह उठकर खड़ा हुआ. शरीर में अभी भी दर्द था, जो रात भर की भरी हुई ठंडक के कारण पहले से और भी अधिक दुखने लगा था. रात भर वह डाक बंगले और अपने साथियों के मध्य से गायब रहा था, इस कारण उसे जाने की भी जल्दी थी. सो जब वह चलने को हुआ तो रोमिका ने उससे हाथ के इशारे से पूछा,
'कहाँ?'
'जा रहा हूँ.' नितिन ने छोटा सा उत्तर दिया तो रोमिका ने फिर से अपने हाथ की अंगुली को आश्चर्य से घुमाया और जानना चाहां कि,
'लेकिन, कहाँ?'
'डाक बंगले. मेरे मित्र परेशान हो रहे होंगे.' नितिन बोला.
'?'-
सुनकर रोमिका चुप हो गई. साथ ही तनिक उदास भी. तुरंत ही उसकी आँखों के सामने किसी घोर निराशा के ढेर सारे बादल छा गये. इस पर नितिन ने उसके लटके हुए चेहरे और मुख पर छाई हुई उदासी को देखा तो कहा,
'रोमी?'
'?'-
तब रोमिका ने अपनी पलकें उठाई और नितिन को निराश मन से देखा तो वह बोला कि,
'तुमने मुझ जैसे एक अजनबी की इस मुसीबत में देखभाल की. मेरा हर तरह से ख्याल रखा. मेरी सहायता की; मैं तुम्हें हमेशा याद रखूंगा.'
'?'-
तब रोमिका ने अपने होठों पर एक खड़ी अंगुली रखते हुए उसे मौन रहने को कहा. उसका आशय था कि, 'ऐसे नहीं कहते हैं.'
नितिन रोमिका के कहने का मतलब समझ गया था. वह कह रही थी कि,' ऐसी बातें कभी नहीं कही जाती हैं. इंसान को इंसान की मदद करनी ही चाहिए. ये तो एक प्रकार से मेरा फर्ज़ और कर्तव्य था.'
नितिन घर के बाहर निकल कर आया तो रोमिका भी उसके साथ बाहर आ गई. पहाड़ी ढलान की समाप्ति पर नितिन यकायक रुक गया. उसे देखकर रोमिका के भी पग ठिठक गये. दोनों चुपचाप मौन नज़रों से एक दूसरे को देखने लगे. दोनों समझ रहे थे, जानते भी थे. दिलों में उमंगें थीं, लेकिन उन्हें बिखेरने के लिये दोनों के पास जैसे कोई भी जरिया नहीं था. बहुत कुछ कहना चाहते थे, पर शब्द नहीं थे. नितिन ने रोमिका का साथ छोड़ने से पहले उससे कहा कि,
'रोमी.'
'?'- रोमिका ने अपनी उदास भरी नज़रों से नितिन को देखा,
'तुम शाम को मुझसे मिलने आओगी न? उसी स्थान पर जहां पर मेरी तुमसे पहली भेंट हुई थी?' आओगी न? जरुर आना. मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा?'
'?'- रोमिका ने अपने मुख से तो कुछ नहीं कहा. उसके होठ अपने ही स्थान पर थर-थराकर रह गये. वह कह भी क्या सकती थी. केवल आँखों की भाषा से स्पष्ट कर दिया. आने का वचन दे दिया. मौन स्वीकृति. अपनी गर्दन झुकाकर. नारी की मौनता ही उसकी स्वीकृति होती है. वह केवल नितिन को अपनी नीली आँखों की अस्पष्ट पुतलियों से बराबर निहारती रही. उसकी आँखों में झांकती रही. तब नितिन वहां से चला आया. संध्या की मनोरम बेला में फिर से मिलने का वचन देकर. रोमिका बहुत देर तक एक ही मुद्रा में अपने स्थान पर खड़ी रही. अकेली- मौन- बहुत खामोश- शांत-सी- खड़ी-खड़ी नितिन को जाते हुए ताकती रही. तब तक, जब तक कि, वह उसकी प्यासी आँखों से ओझल नहीं हो गया. 








5

दूर पहाड़ों पर बादल भटक रहे थे.
इन्हीं आवारा बादलों के समान- उसके पल भर के साथ ने उसे अपना समझ लिया हो? रोमिका का भी दिल कहीं भटक चुका था. वह नहीं जानती थी कि, क्यों उसके साथ ऐसा हो रहा था? जाने क्यों उसका मन उदास हो रहा था? शायद नितिन की अनुपस्थिति के कारण ही उसके दिल की उमड़ती हुई खुशियाँ ठंडी पड़ गई थीं. दिल के ये कौन से अंदाज़ थे? कौन से रास्ते थे? जिनकी अनदेखी हुई मंजिल भी नितिन की हरेक मौजूदगी से जुड़ चुकी थी. क्यों उसके जाने के पश्चात वह उदास हो गई थी? क्यों निराश हो गई थी? क्यों उसकी धड़कनें शांत हो रही थीं? मात्र एक-दो दिन की औपचारिक जान-पहचान और अतिथि-सत्कार से कोई जीवन भर का साथी तो नहीं बन जाता हैं? फिर क्यों थी उसके मन में आई हुई ये बात? ऐसा क्यों होता था बार-बार उसके मन में? वह जानती थी कि, यूँ भी उसका इस भरे संसार में कोई अपना तो था नहीं. केवल उसके एक बूढ़े बाबा को छोड़कर. हो सकता हो यही कारण हो कि, वह ज़रा से सामीप्य और अपनत्व को पाते ही नितिन को वह अपना समझ बैठी हो? उसे अपना समझने का एहसास कर लिया हो? रोमिका खड़ी-खड़ी इसी प्रकार से सोचती रही. नितिन के मोहक ख्यालों में डूबी रही. आकाश में वायु के प्रवाह से बादल उड़े-भागे चले जाते थे. आज मौसम साफ़ था. ठंडी-ठंडी वायु चिनार और चीड़ के वृक्षों से लिपट रही थी. घाटियों से बादलों के रेले निकलकर बाहर आ रहे थे. और रोमिका थी जो अभी तक अपने एक ही स्थान पर खड़ी थी. अपनी पूर्व मुद्रा में- बहुत खामोश- इंतज़ार की अवस्था में- गुमसुम-उदास-सी.

उधर नितिन डाक बंगले पहुंचा तो उसके सभी मित्रगण आश्चर्य और हैरानी से उसका मुखड़ा ताकने लगे. इस प्रकार कि जैसे वह रातभर हवालात में बंद था और अब छूटकर वापस आया हो. सबके मुख पर एक ही सवाल था कि,'रात भर कहाँ गायब थे?' उसे देखते ही सबने उससे एक साथ पूछना आरम्भ कर दिया;
'कहाँ चले गये थे यूँ हमको बताये बगैर?'
'रात भर कहाँ गायब रहे?'
'अगर जाना ही था तो कम-से-कम हमें बताकर ही चले जाते.
'कौन रोकनेवाला था तुम्हें?'
तब नितिन ने सारी बात बताई. उनसे कह दिया कि, किस प्रकार वह बांसुरी के मधुर संगीत की लय पर चांदनी रात में उस घाटी तक पहुंचा. वहां जाकर वह फिसल गया. गिरने के कारण उसको कितनी सारी चोटें लगीं और क्यों उसे मजबूरी में रात भर किसके यहाँ टिकना पड़ा था. उसके मित्रों ने सुना तो सुनकर घोर आश्चर्य किये बगैर नहीं रह सके. सब ही ने मन ही मन उस अनजान लड़की के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट की. सचमुच यदि वह न होती तो उनका मित्र नितिन सारी रात वहीं घाटी में अकेला पड़ा रहता. इतना सब कुछ कहने-सुनने के बाद, फिर भी नितिन के मित्रों ने उसे समझाया. नई जगह और नये देश में रहते हुए हर तरह की ऊंच-नीच जैसी बातों के प्रति सतर्क रहने को कहा. पर नितिन ने उनसे कुछ भी नहीं कहा और ना ही कोई हस्तक्षेप ही किया. फिर करता भी कैसे? उसके मन-मस्तिष्क में रोमिका की छवि इस प्रकार से अपना स्थान सुरक्षित कर बैठी थी कि, उसके जरा से स्पंदनों की झंकार मात्र से ही उसके सारे बदन में एक हलचल सी मच जाती थी. जब बातों का सिलसिला समाप्त हुआ तो सब ही मित्रगण किसी दूसरे स्थान पर घूमने जाने के लिए अपना कार्यक्रम बनाने लगे.
सांझ हुई. दिन ढलते ही जैसे ही सूर्य की किरणें सुहागिन बनकर क्षितिज में अपना सोना भरने लगीं तो नितिन समय से पहले ही, रोमिका से मिलने के लिए निर्धारित स्थान पर आ गया. यह वह जगह थी कि जहां पर उसकी रोमिका से पहली मुलाक़ात एक अनोखे ढंग से हुई थी. नितिन वहां आकर काफी देर तक प्रतीक्षा करता रहा. संध्या ढले ही सारे वातावरण में हल्की धुंध की चादर फैल गई और फिर इसके साथ-साथ वातावरण में रात्रि का साया भी धीरे-धीरे कौसानी के पर्वतों के पीछे से सरकने लगा. रोमिका के आने में देर थी अथवा वह नहीं आ रही थी? लेकिन उसकी अनुपस्थिति देख कर नितिन को चिंता हो गई. रोमिका अभी तक नहीं आई थी. शाम ढलते हुए अब बिलकुल ही रात के अँधेरे में बदली जाती थी. वह अभी भी उसके आने की बाट जोह रहा था. मगर अभी भी वह निराश नहीं हुआ था. उसके मन में एक विश्वास था कि, रोमिका अवश्य ही आयेगी. वह आयेगी जरुर, चाहे देर में ही क्यों न सही, मगर वह आयेगी अवश्य ही.
तब सचमुच रोमिका आ गई. अपने निश्चित समय से काफी देर में. इतनी अधिक देर में कि अब एक पहाड़ी के पीछे से चन्द्रमा भी झाँकने लगा था. इस चन्द्रमा की मद्धिम रोशनी में अभी भी बदलियाँ सरक रही थीं. परन्तु नितिन को इन सारी बातों की ज़रा भी परवा नहीं हुई. उसे तो रोमिका की प्रतीक्षा थी, जैसे ही वह उसके सामने आई, वह नये पेड़ पर किसी पहले फूल के समान खिल उठा. उसे देख कर उसे लगा कि वह रोमिका को अभी-अभी अपनी धड़कनों से लगा ले. इसी भावावेश में वह रोमिका के पास दौड़ता हुआ आया. परन्तु पास आते ही वह अचानक ही ठिठक गया. रोमिका उसकी इस दीवानगी पर खिल-खिलाकर हंस पड़ी. नितिन ने देखा कि, रोमिका के प्यारे-प्यारे सफेद बर्फ से दांत इस चांदनी रात में संगमरमर के मोतियों समान दमक उठे थे. नितिन रोमिका को कुछेक पल यूँ ही खड़ा हुआ गौर से देखता रहा. वह आज अपनी एक विशेष साज-सज्जा के साथ आई थी. उसने काले रंग के पहाड़ी वस्त्र पहने हुए थे. साथ ही अपने बालों को लापरवाही बांधकर नीचे तक खोल लिया था. उसके कूल्हे से भी नीचे लटकते हुए लम्बे बाल उसकी सुन्दरता में और भी चार चाँद लगा रहे थे. काले वस्त्रों में उसका सुंदर गोरा बदन और चेहरा और भी खिल उठा था.
'आओ, उस पत्थर पर बैठ कर बातें करेंगे.' कहते हुए नितिन ने अनजाने में ही रोमिका का हाथ थाम लिया. नितिन के हाथ के स्पर्श मात्र से ही रोमिका के शरीर में सिहरन-सी हो गई. इस प्रकार कि वह अपने-आप में ही सिमटकर रह गई. मगर फिर भी वह नितिन की इस बात का कोई भी विरोध नहीं कर सकी. एक प्रकार से नितिन के द्वारा उसका हाथ थामना अच्छा ही लगा. वह चुपचाप उसका पकड़े हुए उसके साथ ही बगल में पत्थर पर बैठ गई. उन दोनों के बैठते ही चन्द्रमा ने भी अचानक से एक बदली के पीछे अपना मुख छिपा लिया. तब नितिन और रोमिका बड़ी देर तक मौन बैठे रहे- बहुत खामोश-से. इस आशा में कि, पहले कौन बातों की शुरुआत करे.

'रोमी?' तब नितिन ने ही अपने साथ बैठी हुई खामोशी को तोड़ा.
'?'- रोमिका ने अपनी बड़ी-बड़ी, नीले रंग से भरी पुतलियों से नितिन को निहारा. वह बहुत खामोशी से नितिन की आँखों में झाँकने लगी.


'तुम्हारा, ये पहाड़ी देश, चिनारों से हरा-भरा, बहुत अधिक प्यारा है.'
'?'- रोमिका खुशी से केवल मुस्करा भर दी. तब नितिन ने आगे कहा कि,
'यहाँ की हरेक वस्तु सुंदर. ये ऊंचे-ऊंचे पहाड़, इन पहाड़ों की खामोशी, इनकी खामोशी में भी एक छिपी हुई मन की बात, यहाँ पास ही में कल-कल करते हुए झरनों के गिरते पानी का शोर, पहाड़ों के भटके हुए रास्ते, घाटियों में भूले-भटके आवारा बादलों की टोलियां, हर तरफ सुन्दरता- देखते ही लगता है कि, जैसे सारे भारत की प्राकृतिक सुन्दरता यहीं इसी एक जगह पर आकर एकत्रित हो चुकी है. मगर इसमें भी सबसे बढ़कर तुम्हारी सुन्दरता है. ये तुम्हारी नीली आँखें, इस नीले रंग में तैरती हुई तुम्हारी यह पुतलियाँ; इनको जो भी देखे वह अपना मार्ग ही भूल जाए.'
'?'- रोमिका ने अपनी ऐसी तारीफ़ सुनी तो मारे लाज के उसने अपना चेहरा दोनों हथेलियों से छुपा लिया.
'मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि, विधाता ने तुम्हें सब कुछ हाथ खोलकर दिया है, परन्तु तुम्हारी आवाज़ उसने क्योंकर छीन ली है?'
'?'- रोमिका ने सुना तो तुरंत ही गम्भीर हो गई. साथ ही बे-हद मायूस भी. उदास होकर वह बहुत चुप-सी आकाश में बदलियों के पीछे छिपते-निकलते चाँद को निहारने लगी. नितिन ने उसके बदले हुए स्वभाव और उदास चेहरे को देखा तो आगे बोला,
'परन्तु, इसमें यूँ मलाल करने की कोई बात नहीं होनी चाहिए. ऊपर वाले ने मनुष्य को जिस स्थिति और रूप के साथ इस धरती पर भेजा है, उसे उसको स्वीकार करना चाहिए. कभी-कभी, इंसान की कोई कमी भी उसकी सुन्दरता की विशेषता बन जाती है. मेरी इस बात की गूढ़ता को यूँ, समझ लो कि, जैसे चन्द्रमा में दाग, गुलाब के फूलों में काँटों का साथ, प्यार में खामोशी. इसी प्रकार तुम्हारे सौंदर्य के साथ, तुम्हारी बे-आवाज़ मुस्कराहट, खामोश बातें, बातें करने का एक अनोखा अंदाज़, प्यारे-प्यारे तुम्हारे इशारे मुझे तो बहुत अच्छे लगते हैं.'
'?'- इस पर रोमिका ने नितिन को फिर एक बार देखा. खुशी और रंज के समन्वय में. बेचारी, अपने होठों से तो कह ही क्या सकती थी. केवल अपने दिल के ज़ज़बातों को चेहरे की भावनाओं से ही स्पष्ट कर सकती थी. नितिन ने एक पल को उसे गम्भीरता से देखा. बहुत देर तक वह उसे खामोशी से निहारता रहा. फिर आगे बोला,
'ऐसा प्रतीत होने लगा है कि, रोमी, मेरा-तुम्हारा साथ जैसे बहुत पुराना है. मेरा मतलब, जन्म-जन्म का. कहने के बाद नितिन ने उसका नाम लिया,
'रोमी.'
'?'- खामोशी. रोमिका ने उसको निहारा तो नितिन ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया. कोमल, गोरा, प्यारी-प्यारी, पतली, लम्बी अंगुलियाँ- किसी कलाकार जैसी. वह उसकी हथेली को अपने हाथ में थामते हुए बोला. बहुत गम्भीरता के साथ,
'रोमी, मैं तुमको अपने साथ, अपने देश ले जाना चाहता हूँ. जीवन भर मैं तुम्हें हर सुख देने की भरसक प्रयत्न करता रहूंगा. मैं जानता हूँ कि, मेरे देश में, वहां पर ये पर्वत, ये गगन को चूमते हुए चिनार तो नहीं होंगे, परन्तु इन सबके स्थान पर हरे-भरे, लहलहाते हुए खेत होंगे. वहां की हवाएं जब भी तुम जैसी रूप-सुन्दरी को देखेंगी तो वे तुम्हें तुरंत ही अपने बदन में समेटने का प्रयास करेंगी. मेरे यहाँ के खेतों में अपार सौंदर्य होगा, छोटे-बड़े गाँवों का प्यारा माहोल होगा, मुस्कराता हुआ हर ऋतु का मौसम तुम्हारा स्वागत करने को तैयार रहेगा. बारिश की रिमझिम में सावन की बहारें होंगी. फिर उन बहारों में तुम्हारी अपूर्व उपस्थिति.? तुम अगर वहां आ जाओगी तो वहां की हरेक वस्तु मुस्करा उठेगी. फूल खिल उठेंगे. फिर, तुम्हारी खोई हुई आवाज़ को मैं अपनी आवाज़ दूंगा. तुम्हारी खामोशी में मैं अपने दिल की सारी तरंगों का प्यारा-प्यारा संगीत भर दूंगा. मैं तुम्हें अपने घर की बहू और अपनी दुल्हन बनाकर अपने घर ले जाऊंगा. '
'?'- अपने जीवन की इन ढेर सारी आस्थाओं के मुस्कराते दीप देख कर रोमिका ने अपना सिर बहुत खामोशी से नितिन के कंधे पर रख दिया और फिर तुरंत ही अपने भावी जीवन के सपनों में खो गई. खो गई इस प्रकार कि, ऐसी स्थिति में उसने सचमुच एक स्वप्न देखा - 'उसका एक छोटा सा घर है. उसका अपना. उस घर के आंगन में फूलों के छोटे-छोटे पौधे लगे हुए हैं. उन फूलों पर तितलियाँ भी मंडला रही हैं. उसके इस घर में वह है और उसका अपना नितिन. नितिन एक पौधे में पानी दे रहा है. संध्या का समय है. आकाश में लालिमा छाई हुई है. रोमिका बैठी हुई बहुत बे-ख्याली से सूर्य की इस अंतिम लालिमा के रंगों को निहार रही है. कल्पनाओं के संसार में खोई हुई वह एक हीओर देखे जा रही है कि तभी किसी ने पीछे से आकर उसकी दोनों आँखें बंद कर ली हैं. इस अप्रत्याशित अजनबी स्पर्श से वह अपने में ही सिहरती हुई सिमट कर रहजाती है. अपने कोमल हाथों से वह आँखें बंद करने वाले की मजबूत और सख्त कलाइयों को छूती है. स्पर्श के द्वारा ही वह पहचानने का प्रयत्न करती है, कि तभी उसकी अचानक से एक सिसकी-सी निकल जाती है. नितिन ने उसको चिउँटी काटी थी. रोमिका आँखें खोलकर, मुस्कराती हुई उसे देखने लगती है.
'सो गई थीं क्या?' नितिन ने पूछा.
'- रोमिका ने हां में अपना सिर हिला दिया.'
'कहाँ चली गईं थीं, सोते हुए? नितिन बोला.
'- रोमिका ने अपना हाथ उसके सीने (तुम्हारे ख्यालों में) पर रख दिया.'
- नितिन समझते हुए मुस्करा दिया.
नितिन ने अपने हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा तो अचानक ही चौंक गया. रात्रि के नौ बज रहे थे. प्यार के प्रथम मिलन के सिलसिले में समय भी बहुत शीघ्र ही समाप्त हो चुका था. कौसानी के इस इलाके में वैसे भी रात के नौ बजे के बाद घूमना मना था. कारण था कि, पहाडी इलाका था. रास्ते खराब होते हैं. खाइयां, गहरी-गहरी घाटियाँ- अगर ज़रा भी पैर फिसल गया तो कोई भी अनहोनी होते देर नहीं लगती है. इसके अतिरिक्त वातावरण का भी कोई ठिकाना नहीं. कभी भी बारिश हो जाती है. मौसम के बदलते देर भी नहीं लगती है. नितिन अपने स्थान से उठते हुए बोला,
'चलो, मैं तुम्हें घर तक छोड़ आऊँ.'
'?'- सुनकर रोमिका भी अपने स्थान से उठ गई.
दोनों, आपस में हाथ थामे हुए साथ-साथ चलने लगे. सारे रास्ते भर नितिन ही बातें करता रहा. रोमिका भी बीच-बीच में रूककर उससे इशारों में बातें करती थी, क्योंकि वह बोल नहीं सकती थी, इसलिए हर बात पर उसे नितिन की आँखों में झांकना और देखना पड़ता था. नितिन को रोमिका का इस प्रकार से इशारों से और अपने हाथ की अँगुलियों को चारो तरफ घुमाते-फिराते हुए बात करना बहुत प्यारा लगता था.

रोमिका के घर के बाहर आकर नितिन रुक गया. अपने जाने की इजाजत माँगी तो रोमिका ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए. फिर अपनी आँखों और हाथ के इशारों से उसने कल फिर से मिलने की अनुमति माँगी. नितिन ने उसको मिलने का विश्वास दिलाया. मगर तब भी रोमिका का उससे अलग होने को मन नहीं हुआ. उसने नितिन के दोनों हाथ फिर से पकड़ लिए. मगर नितिन को तो जाना ही था. अभी प्यार, इज़हार और इकरार की बहुत सारी बातें अधूरी थीं. सपने अधूरे थे. बातों से कहां दोनों का मन भरने वाला था. मिलने के लिए अभी दूसरा दिन भी था. आगे बहुत से दिन और भी थे. यूँ तो सारा जीवन था. इसी आस-उम्मीद पर दोनों अलग हो लिए. नितिन अपने डाक बंगले की ओर चलने को हुआ तो जाने से पहले रोमिका ने उसके दोनों हाथों को चूम लिया. पहाड़ी चुम्बन- साफ़-सुथरा- सच्चे, पवित्र प्रेम का सूचक. देख कर नितिन का दिल खुशियों से भर गया.
नितिन जब डाक बंगले पहुंचा तो उसके सभी साथियों का सामान बंधा रखा था. सभी ने दुसरे दिन कौसानी से जाने की तैयारी कर रखी थी. यहाँ से उनकों नैनीताल जाना था. नितिन ने यह सब देखा तो उसे लगा कि जैसे पैरों से कहीं आसमान सरक गया है. ऐसे में उसे रोमिका का ख्याल आया. अपने प्यार की बातें याद आईं. प्यार के तूफानी बहाव में उसने ये तो सोचा ही नहीं था कि, एक दिन उसको यहाँ से वापस भी जाना है. उसके प्यार का तो अभी प्रथम चरण भी पूरा नहीं हुआ था- दिल उसका किस प्रकार कौसानी की हसीन वादियाँ और रोमिका को छोड़ने की अनुमति दे सकता था. 

6
नितिन की सारी रात इसी प्रकार सोचते-सोचते बीत गई. कभी उसको अपने साथियों का ख्याल आता तो कभी रोमिका का भोला, कमसिन-सा प्यारा मुखड़ा. ऐसा चेहरा कि जिसकी गैर-मौजूदगी के एहसास मात्र से ही वह तड़प-तड़प कर रह जाता. जब भी वह ऐसा सोचता तो फिर उसे अपना प्यार याद आता. अपने वादे याद आने लगते. उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ पा रहा था कि, वह इस विषम परिस्थिति में क्या करे और क्या नहीं? वह एक ऐसी भंवर में फंस चुका था कि, जिसके बाहर आने के लिए वह केवल छटपटा कर ही रह जाता था. उसके एक तरफ कर्तव्य था तो दूसरी ओर उसकी मुहब्बत की पुकार. उसे कौसानी से जाना चाहिए अथवा नहीं? वह कोई भी ठोस निर्णय नहीं ले पा रहा था.
आकाश में बदलियाँ छाई हुई थीं. कभी चन्द्रमा उनके बाहर चमकने लगता था तो कभी अपना मुख छिपा लेता था. उसके सारे साथी नींद में बे-सुध पड़े हुए थे. वे सब गहरी नींद सो रहे थे. उन्हें दूसरे दिन लम्बे सफर पर जाना था. शायद इसी कारण वे अपनी नींदें पूरी कर लेना चाहते थे. परन्तु, अपनी किस्मत का मारा नितिन? उसका दिल बेचैन था. उसके सारे हालात भी परेशान हो चुके थे. उसके मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के ख्याल आते थे और फिर तुरंत चले भी जाते थे. उसका मस्तिष्क ढेर सारी उलझनों का रेला देख कर परेशान हो चुका था. दिल में उलझनें भर चुकी थीं. उसे सारी रात एक पल के लिए भी नींद नहीं आई. वह बिस्तर पर केवल करवटें ही बदलता रहा. फिर भी वह कोई निर्णय नहीं ले सका.
सवेरा हुआ. सबने नाश्ता आदि किया. फिर सारे मित्र अपना सामान उठा-उठाकर डाक बंगले के बरामदे में रखने लगे. उनको ले जाने वाली बीएस उनके सुबह उठने से पहले ही आकर खड़ी हो चुकी थी. सब ही अपना-अपना सामान उठा कर बाहर ले आये थे. परन्तु नितिन इन सबसे अलग बाहर एक चट्टान पर बैठा हुआ अपने साथियों की व्यस्तता को बड़ी गम्भीरता के साथ चुपचाप निहार रहा था. लड़कों ने उसको जब इस मुद्रा में लापरवा-सा देखा तो आश्चर्य के साथ चौंके बगैर नहीं रह सके. तब उसका एक साथी उसके पास आकर उससे बोला,
'क्या बात है, नितिन? क्या तुमको चलना नहीं है'
'हां.' नितिन ने एक छोटा सा उत्तर दिया.
'क्या . . .या?' उसका मित्र आश्चर्य के साथ अपना मुंह फाड़कर ही रह गया.
'हां, मैंने अभी न जाने का निर्णय लिया है.' नितिन ने कहा.
'क्यों, ऐसी क्या बात है जो तुम हमसे अलग होना चाहते हो?'
'होतीं हैं कुछ विशेष बातें, जो बताईं नहीं जा सकती हैं.'
'?'- तब उसका साथी आगे कुछ भी नहीं बोला. वह चुपचाप नितिन के पास से चला गया और सारी बात का ज़िक्र उसने अपने साथियों से कर दिया. दुसरे साथियों ने जब सूना तो सब ही हैरान होकर नितिन के पास आ गये. उसको चारो ओर से घेरते हुए वे नितिन से बोले कि,
'नितिन ! क्या बात है? क्या हो गया है तुमको? क्यों नहीं जाना चाहते हो? यहाँ हमेशा तो रहने के लिए हम नहीं आये हैं. आखिरकार कब तक रहोगे यहाँ? कब चलोगे?'
'?'- सभी ने एक साथ उससे प्रश्नों की झाड़ियाँ लगा दीं तो नितिन ने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर लिए. फिर जब सबने उस पर ज़ोर डालना आरम्भ किया तो नितिन ने अपनी विवशता प्रगट कर दी. उन सबको सारी बात सच-सच बता दी. उसके साथियों ने सुना तो सारे-के-सारे बड़ी ज़ोरों से हंस पड़े. मगर नितिन पर उनकी इस हंसी का और अन्य बातों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा. वह अपनी बात पर द्दढ़ बना रहा. उसने उनके साथ जाने से साफ़ इनकार कर दिया. तबी नितिन की कौसानी में रुकने की द्दढ़ता देख कर सभी साथियों को चिंता हुई. कैसा भी कुछ क्यों न हो, फिर भी नितिन उनका ही साथी था. वह उनके साथ आया था और मित्र था; वे भी उसको यूँ अनजाने देश और स्थान में अकेला नहीं छोड़ सकते थे. वे चाहते थे कि, जिस प्रकार वह उनके साथ आया था, ठीक वैसे ही वह उनके साथ अपने घर सुरक्षित पहुंच जाए. उसको अपने साथ वापस उसके घर ले जाना भी उन सबकी जिम्मेदारी और कर्तव्य बनता था. तब काफी देर के बाद उनके समूह के 'ग्रुप लीडर' ने नितिन से कहा कि,
'देखो नितिन ! मैं तुम्हारी परेशानी और विवशता को महसूस कर सकता हूँ. अभी हमारी ग्रीष्मकालीन छुट्टियां भी समाप्त नहीं हुई हैं. तुम चाहो तो जुलाई से पहले तक, जब तक कॉलेज नहीं खुलते हैं, यहाँ 'एन्जॉय' कर सकते हो, पर ज़रा हमारी भी परेशानी की तरफ ध्यान देने की कोशिश करो. तुम यह बिलकुल भी नहीं मत भूलो कि, तुम हम सबके साथ आये हो. इसलिए हमारी भी तुम्हारे लिए, तुम्हारी सुरक्षा और सहूलियत के लिए कुछ न कुछ जिम्मेदारी बनती है. इसलिए तुमको अभी हमारे साथ चलना चाहिए. मैं तुमको एक सलाह दे सकता हूँ कि, अभी तुम हमारे साथ चलो, बाद में वहां पहुंचते ही तुम फिर से वापस आ जाना.'
'लेकिन, तुम सब मेरे लिए इतना अधिक चिंतित क्यों होते हो? मैं कोई बच्चा तो नहीं हूँ जो अपना बुरा-भला न समझ सकूं. मैं बालिग हूँ. कोई लड़की भी नहीं हूँ. तुम लोग मेरे घर सूचित कर देना कि, मैं कुछ दिनों के बाद सुरक्षित घर आ जाउंगा.'
'नहीं ! ऐसा कुछ भी नहीं चलेगा. तुमको हमारे साथ चलना ही पड़ेगा. बाद में तुम चाहो तो फिर से लौट आना.' ग्रुप लीडर ने कहा. सब चुप हो गये. क्षण भर में ही सारा वातावरण गम्भीर हो गया. लड़कों में मानसिक तनाव-सा बढ़ गया. सो सभी ने नितिन को अपने साथ चलने के लिए प्रभाव डालना आरम्भ कर दिया. कहा-सुनी जब अधिक होने की नौबत आई तो नितिन को हार मान कर उनके साथ चलने के लिए बाध्य होना ही पड़ा. बस तो पहले ही से तैयार खड़ी थी. लड़कों ने उसका सारा सामान शीघ्रता से बाँध कर बीएस में चढ़ा दिया. मगर नितिन ने रोमिका से एक बार मिलने का विचार किया, तो बस के ड्राईवर ने अपना हॉर्न बजाकर उसके सारे अरमानों पर अंगारे बरसा दिए. विवश होकर वह बस में बैठ गया. बस ने चलने के लिए कौसानी से अपने पग बढ़ाए तो नितिन की आँखों में स्वत: ही आंसू आ गये. वह समझ नहीं सका कि, उसकी आँखों में आये हुए ये आंसू उसकी मजबूरी के थे अथवा रोमिका से मिले बगैर बिछुड़ने के कारण? चलते समय वह रोमिका से एक बार मिल भी नहीं सका था. वह अब न जाने क्या-क्या सोचेगी उसके बारे में? आज भी वह उसके आने की प्रतीक्षा अवश्य ही करेगी. और जब वह नहीं मिलेगा तो उसके कोमल दिल की सजी-संवरी आस्थाओं पर क्या से क्या बीत जायेगी? कहीं फूट-फूटकर रो न पड़े वह? बेचारी- असहाय- बे-जुबान. कौन उसके दर्द को समझ सकेगा? कौन उसके दिल की टीस को महसूस कर पायेगा अब? अपने मुख से तो वह कुछ कह नहीं सकेगी. आज वह अवश्य ही उसकी राह तकेगी. उसका इस भरे संसार में कोई दूसरा है भी तो नहीं, जो उसका दुःख समझ सके? उसने तो उससे न जाने कितनी ही अपने भावी जीवन की आशाएं लगा रखी होगीं? पहले ही दिन की मुलाक़ात में उसने न जाने कितने ढेर सारे अरमानों के साथ अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया था? सोचते-सोचते नितिन को अपनी विवशता और बिगड़े हुए सारे हालातों पर रोना आ गया. परन्तु वह अब कर भी क्या सकता था? तीर हाथ से छूट चुका था. चिड़ियाँ एक प्रकार से सारा खेत चुंग कर उड़ चुकी थीं. बस चली जा रही थी. कौसानी हरेक पल अब पीछे छूटता जा रहा था. चिनार भाग रहे थे. बस कुमाऊँ मंडल के इस किसी नागिन की तरह बनी सड़क पर बड़ी तेजी से रेंगती जा रही थी. उसकी हर याद पीछे रह गई. रोमिका के साथ में बिठाये हुए बहुत सारे पल, उसकी स्मृतियाँ, उसके प्यार भरे इशारे; किसी पतझड़ के समान टूटते पत्तों के समान गिरते जा रहे थे, मगर उसके दिल में बनाये हुए स्थान से एक पल को भी अलग नहीं हो सके. बस लगातार भाग रही थी और वह चुपचाप बैठा हुआ था. निराश, बे-बस और थका-थका-सा, गुमसुम- खोया-खोया, अपने ही ख्यालों में भटकता हुआ.
लड़कों की बस जब भुवाली होती हुई नैनीताल पर आकर रुकी तो वहां का प्राकृतिक, मनोहर छटाओं से भरा हुआ वातावरण देखते ही सारे लड़कों के दिल मारे प्रसन्नता से जैसे उछल पड़े. सुंदर झील का नीला पानी, तल्ली ताल से लेकर मल्ली ताल तक के नौका-बिहार करने की कल्पनाएँ, ढेरों जोश और आनन्द से भरे हुए अरमानों के दिल, अपने भरपूर सौंदर्य के साथ पर्यटकों की भीड़ आने वाले हरेक यात्री का मानो दिल खोलकर स्वागत कर रही थी. नैनीताल की सुप्रसिद्ध मनोरम झील के नीले पानी की सतह पर बादल तैर रहे थे. हर तरफ बादलों के छोटे-छोटे झुंड, आवारा बने हुए टहल रहे थे. जब भी वे नज़दीक आते तो जो भी उनके सम्पर्क में आता, उसे वे भिगोकर चले जाते थे. नैनीताल के इस सुन्दरता से भरे इलाके को देखने के लिए पर्यटकों के रंग-बिरंगे शरीर, दूषित मन से युवा स्त्रियों और लड़कियों के बदन को देखने वाले मनचलों की निगाहें, हर तरफ ही नज़र आ जाती थीं. देखने से ही प्रतीत होता था कि, वहां की हर वस्तु ही प्यारी है. गगनचुम्बी पहाड़, मोहक वातावरण, सुंदर और खुबसूरत, प्यारी-सी झील, झील की गहराइयां, किसका मन प्रसन्न नहीं होता? परन्तु अपने नसीब के मारे हुए नितिन को किसी भी बात में दिलचस्पी नज़र नहीं आ रही थी. रह-रहकर उसे अभी तक रोमिका का ख्याल आ रहा था. बार-बार उसका भोला मुखड़ा सामने आ जाता था. उसकी खामोश हरकतें, उसके प्यारे-प्यारे इशारे और इशारों में संवाद करने की तकनीक, उसे बेचैन करके रख देती थीं. सारे लड़के बस से नीचे उतर चुके थे, मगर वह अंदर ही बैठा रहा. बैठा हुआ वह रोमिका के लिए सोचता रहा. सोचता रहा और मन उसका खुद को ही कोसता रहा. बादल नैनीताल की पहाड़ियों से लेकर, घाटियों में कलाबाजियां लगाते हुए भटकते फिर रहे थे और इन्हीं बादलों के समान नितिन का भी दुखी मन परेशान होकर अपने ही ख्यालों में भटकता फिर रहा था. कार्यक्रम के अनुसार आज सबको नैनीताल ही रुकना था. फिर से डाक बंगले में ही. दुसरे दिन उन सबको काठगोदाम रेलवे-स्टेशन जाना था. तब काठगोदाम से वे सब अपने-अपने घर, आगरा फोर्ट होते हुये पहुंच जाते.
सारा दिन नितिन का इसी उहापोह में बीत गया. वह कहीं भी नहीं गया. कहीं घूमा भी नहीं. उसने नौका-बिहार भी नहीं किया. शाम ढलने को हुई तो वह चुपचाप झील के किनारे पर आकर बैठ गया. बहुत उदास-सा, एक पत्थर पर और बे-मन से अपने ही स्थान पर झील के जल की नीली थिरकती लहरों को ताकने लगा. झील के जल पर अभी भी कुछेक नावें तैर रही थीं. पर्यटकों के युवा-युगल, उसमें बैठे हुए अपने हिस्से की सम्पूर्ण खुशियों का आनन्द ले रहे थे. कभी-कभार कोई बादल का टुकडा, भटकता हुआ आ जाता था तो पल भर के लिए बरस कर चला भी जाता था. बिलकुल नितिन के रोते-आंसू बहाते हुए दिल के समान ही. वह भी आज सुबह ही से अपनी किस्मत की बे-वफाई पर आंसू बरसा रहा था. दूर क्षितिज के पहाड़ों से बादल खेल रहे थे. देवदार और चिनार के वृक्ष बुतों समान चुप खड़े हुए थे. 'बोट हाऊस क्लब' पर चहल-कदमी मची हुई थी. रात रंगीन होने की प्रतीक्षा कर रही थी. बहुत से लोग घुड़सवारी का आनन्द लेने में मस्त थे. युवा लड़कियां झील के किनारे बनी हुई सड़क पर अब सजधज कर घूमती फिर रही थीं. जो भी दिखता था, वे सब खुश थे, मग्न थे, मगर नितिन का परेशान दिल रोमिका के ख्याल मात्र से तड़प-तड़प जाता था. होठ सिसकने लगते थे. सोचने ही मात्र से उसके दिल में जैसे दर्द होने लगता था. इतना सब होने के बाद भी वह किसी तरह से अपने दिल पर सब्र का भारी पत्थर रखे हुए था. उसने सोच रखा था कि, काठगोदाम से घर पहुंचते ही वह उसी ट्रेन से वापस कौसानी के लिए चल पड़ेगा. वह किसी भी कीमत पर अब रोमिका को तन्हा और अकेला नहीं छोड़ेगा. यही सोच कर उसने अपने-आपको तसल्ली दे ली थी.
शाम जब उसने अपनी घड़ी देखी तो छः बज चुके थे. शाम लगभग डूब चुकी थी और दूर पहाड़ों के पीछे से रात्रि के धुंधलके की चादर फैल रही थी. शाम का छः बजे का समय देखते ही उसके दिल की तमाम धड़कनें अपने आप ही तेज हो गईं. उसे याद आया कि, इस समय तो उसे कौसानी में होना चाहिए था. घाटी के करीब. रोमिका के पास- रोमिका ! वह अवश्य ही उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी? जरुर वह उससे मिलने के लिए आई होगी? परन्तु जब वह उसको नहीं मिलेगा तो न जाने कितनी ही देर वह उसके इंतज़ार में बैठी रहेगी? न जाने कब तक? फिर जब उसे नहीं पायेगी तो वह डाक बंगले जाकर उसके बारे में पता करेगी. फिर जब उसको वास्तविकता पता चलेगी तो न जाने वह उसके बारे में क्या-क्या सोच बैठे? सोचेगी कि, 'बेवफा', 'धोखेबाज़', नितांत 'फरेबी' मनुष्य? यही तो समझेगी वह. उसके बारे में सोच-सोचकर कितनी ही गलत धारणाएं अपने मन में बना लेगी. बहुत रोयेगी भी. आंसू बहायेगी. अपना सिर भी फोड़ेगी. सारी-सारी रात सो भी नहीं सकेगी. कितना अधिक दुःख देकर वह यहाँ आ गया है, अपनी रोमिका को? कैसा भी क्यों न हो, कम-से-कम उसे एक बार बताकर तो आना चाहिए था उसे? अब क्या सोचती होगी रोमिका, उसके बारे में? रोमिका- उसके दिल की धडकन- उसका पहला-पहला प्यार- रोमिका. उसकी आत्मा- रोमिका. कितनी सुंदर है वह? किसकदर- भोली. रोमिका? सोचते हुए नितिन की आँखें फिर से भीग आईं. इस प्रकार कि, आंसुओं की दो-एक बूँदें उसके गालों और दाड़ी से लिपटते हुई नीचे धरती के आंचल में समाकर विलीन हो गईं. नितिन ने तुरंत ही अपनी जेब से रूमाल निकाला और अपनी आँखों को पोंछने लगा. फिर अपना मन बहलाने के उद्देश्य से दूसरी तरफ चिनार के लम्बे-लम्बे वृक्षों को निहारने लगा.
'ऐ, बाबू !'
'?'- अचानक ही नितिन को किसी के पुकारने का स्वर सुनाई दिया तो उसने आश्चर्य से पलट कर देखा. देखा तो फिर अपनी दृष्टि फेर नहीं सका. एक पहाड़ी हसीन लड़की ने उसको टोका था. नितिन अभी तक उसको एक संशय से अपलक निहार ही रहा था. वह रोमिका तो नहीं थी. परन्तु थी उसी के समान ही. वही पहाड़ी वस्त्र, वही लिबास, वही कानों में पर्वती सौंदर्य के झूमते हुए झुमके, लगभग वही रूप, आकर्षक आँखें; नितिन ने उसे देख कर निर्लिप्त भाव से अपना मुंह फेर लिया.
'यहाँ पहाड़ पर हंसने-मुस्कराने आये हो या आंसू बहाने? चलिए मेरे साथ. मैं बोट पर घुमा लाऊँ. आपका मन बहल जाएगा?'
उस पहाड़ी बाला ने उसको शायद आंसू बहाते हुए देख लिया था, इसी कारण उसने इतने सारे शब्द उससे कहे थे?
'?'- नितिन ने उसकी बातें सुनी तो उसे अचानक ही एक धक्का-सा लगा. बड़े ही ज़ोरों का. उसके दिल में टीस-सी होने लगी. मानो किसी ने उसके दिल के घावों पर अचानक से कोई सुईं चुभो दी हो. वह समझ गया था कि, उस लडकी ने ठीक ही तो कहा था. लोग यहाँ पहाड़ों पर खुशियाँ बटोरने और मनाने के लिए आते हैं. लेकिन एक वह है जो किसी के गम में यहाँ बैठा हुआ आंसू बहा रहा है. नितिन ने उस पहाड़ी लड़की को एक बार निहारा और फिर उठकर दूसरी ओर चल दिया. बे-मन से. उसने सोचा कि, यदि वह यहाँ बैठा रहा तो यह लडकी बार-बार उसको इसी प्रकार से टोकती रहेगी. इससे बेहतर तो यही रहेगा कि, वह कहीं अन्यत्र ही जाकर बैठ ले. यही सोचता हुआ वह झील के किनारे से होता हुआ ऊंचाई पर चढ़ कर आ गया. ऊपर आकर वह एक पत्थर के सहारे अपनी पीठ टिकाकर खड़ा हो गया और नीचे की तरफ झील के जल को देखने लगा. देखने लगा, बहुत ही निराश मन से. अपने गम और दर्द को मन में ही छिपाए हुए. फिर उसी पत्थर के ऊपर वह बैठ गया. बैठा रहा. बैठा-बैठा ताकता रहा. कभी ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों को. कभी दूर क्षितिज के किनारों को, कभी आकाश की हवाओं में अठखेलियाँ करते हुए लावारिस बादलों को और कभी झील के किनारे मुस्कराते-हंसते हुए लोगों को. 













7
वह बैठा रहा. बैठा-बैठा ताकता रहा. कभी ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों को, कभी दूर क्षितिज के किनारों को. कभी अठखेलियाँ करते हुए बादलों को और कभी झील के आस-पास मुस्कराते हुये जोड़ों को. उसके दुःख-दर्द और दिल की परेशानी की शायद किसी को भी चिंता और फ़िक्र नहीं थी? उसे संगी-साथी, पूर्ण रूप से नैनीताल आने का भरपूर आनन्द ले रहे थे. परन्तु, एक वह था जो यहाँ एकांत में, पहाड़ पर बैठा-बैठा बेमतलब ही अपने गमों से मुहब्बत कर बैठा था. कोई भी उसके दुःख को नहीं जानता था. किसी ने उसकी आँख के आंसू नहीं देखे थे. कोई भी उसके होठों की कसमसाती हुई सिसकियों की आवाज़ को नहीं सुन सका था और किसी को भी शायद उसकी परवा नहीं थी? कभी-कभार, कोई बादल का राह से भटका हुआ टुकड़ा उसका दर्द पूछने के लिए अनजाने में ही चला आता था. नैनीताल था- पहाड़ थे- पहाड़ों का सुदर मनोरम मौसम था- परन्तु नितिन का दिल उदास था. मन का कोना-कोना उदासियों से भरा हुआ था. आँखें उदास थीं. होठ सूखे थे. दिल का हरेक भाग रोमिका की यादों की धड़कनों से हर पल सिसक रहा था.
एक ही स्थान पर बैठे-बैठे नितिन को इतनी अधिक देर हो गई कि, उसका बदन भी अब दुखने लगा था. संध्या पूर्णत: ढलकर रात्रि में परिणित हो गई. वातावरण पर हल्के अन्धकार की चादर बिछ गई. सारे इलाके में, दूर-दूर तक शहर की विद्दुत बत्तियां मुस्कराने लगी थीं. इस प्रकार कि, विद्दुत बत्तियों के प्रतिबिम्ब झील के जल में हल्के-हल्के-से थिरकते प्रतीत होते थे. पर्यटकों का शोर-शराबा अब काफी हद तक शांत हो चुका था. वातावरण में चुप्पी छा गई. और थोड़ी देर बाद ही पहाड़ों के पीछे से चन्द्रमा भी उचककर झाँकने लगा. फिर देखते-ही-देखते नैनीताल शहर के चप्पे-चप्पे पर चांदनी अपने भरपूर दूध जैसे उफान के साथ पसर गई. पर्वत चांदनी के इस दूध में नहा उठे. दूर-दूर तक चट्टानें चमक उठीं. चन्द्रमा की कुछेक किरणें चीड़ और चिनार की घनी सींक-सी पत्तियों पर अपनी जाली बुनने लगीं.
बहुत देर बाद नितिन अपने स्थान से उठा. निराश मन-से डाक बंगले की ओर चल दिया. उसके दिल में अभी तक एक ही बात की धड़कन थी- रोमिका. प्यासी आँखों में एक ही तस्वीर थी- रोमिका. होठों पर एक ही आवाज़ थी-रोमिका. न जाने कैसी हो? कहाँ हो? न जाने कितनी देर तक उसने मेरी प्रतीक्षा की होगी? कितनी देर? क्या पता? बेचारी, अपनी तकदीर की मारी, एक शब्द भी बोल नहीं सकती है. उसका कोई और है भी तो नहीं, जो इस परिस्थिति में उसकी कोई सहायता भी कर सके? अपना दुःख भी वह किसी से सुनाकर हल्का नहीं कर सकती है. कैसी अभागी किस्मत है उसकी, जो उसके प्यार की पहली-पहली उम्मीदों पर अंगारे बरस गये? न जाने मेरे बारे में वह अब क्या-क्या सोच रही होगी? उसको, उससे बताये बगैर कहे-सुने, यहाँ किसी भी दशा में नहीं आना चाहिए था. चाहे, कुछ भी क्यों न हो जाता, लेकिन उसको ऐसे उससे कहे बिना कौसानी से यूँ नहीं चले आना था. कितना बुरा हुआ जो वह उसको अकेला, तन्हा छोड़कर, अपने प्यार का धोखा देकर यहाँ चला आया है. कितना अधिक वह छली है?
चलते-चलते डाक बंगला नज़दीक आ गया तो नितिन के विचारों की परेशान कड़ियाँ भी बिखर गईं. डाक बंगले में उसके सभी मित्र उसकी वापसी की चिंता कर रहे थे. उसकी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे. फिर भी उन सबके चेहरों पर मुस्कानें थीं. मुखों पर भरी जवानी की उमंगों की भरपूर खुशियाँ थीं. परन्तु नितिन के चेहरे पर सिवाय दुःख और दर्द के और कुछ भी नहीं था. उसके मुख पर कुछ छिन जाने और खो जाने जैसी उदासी थी. ऐसी उदासी कि जिसका दर्द केवल वही अकेला महसूस कर सकता था.
नितिन के लिए तो वह रात उदास थी. उसके लिए पहाड़ों पर पसरी हुई चांदनी उदास थी. चीड़ और चिनार के गगनचुम्बी वृक्षों में भी एक उदासी थी. डाक बंगला उदास था. डाक बंगले की हरेक वस्तु में एक भी निराशा थी. लगभग वही पहाड़ थे. वही माहौल था- बिलकुल कौसानी जैसा. वही गहरी-गहरी घाटियाँ थी. वही चट्टानें, वही वादियाँ और वैसा ही डाक बंगला- परन्तु, अगर कोई नहीं था तो रोमिका नहीं थी. उसकी खामोशी में गूंजती आवाज़ नहीं थी. फिर भी नितिन के दिल में उसकी याद थी. एहसास थे. बिसरी हुई बातों की ढेर सारी स्मृतियाँ थी.
नितिन, बहुत देर तक इसी प्रकार सोचता रहा. रोमिका उसे रह-रहकर याद आती रही. उसकी हरेक याद पर वह करवटें बदलता था. आँखों में उसकी बार-बार अपनी विवशता पर आंसू आ जाते थे. फिर जब उसको बहुत देर तक चैन नहीं आ सका तो वह अपने कमरे का द्वार खोलकर डाक बंगले के बाहर आ गया. बाहर पहाड़ों पर चांदनी मानो उसके दिल की परेशान हालत के समान सिसक रही थी. उदास चांदनी- चन्द्रमा के उदास और उतरे हुए मुख के समान उनका दर्द देखकर चिनारों के वृक्ष की पत्तियाँ भी जैसे उदास हो चुकी थीं. नितिन को तो सारा आलम ही जैसे उदास और निराश प्रतीत होने लगा था. हर वस्तु खामोश थी. बिलकुल नितिन के दिल की दशा के समान ही. नितिन, बहुत ही निराशाहीन अवस्था में एक बोल्डर पर जाकर बैठ गया. बैठकर वह दूर क्षितिज में चुपचाप इक्का-दुक्का उससे नज़रें फेरकर जानेवाली बदलियों को निहारने लगा- निरर्थक ही.
ज्यादा दूर तो नहीं, बल्कि नज़र आ जाए इतनी दूर, पास वाली पहाड़ी की चोटी पर छोटा सा चकोर चमकते-मुस्कराते हुए चन्द्रमा को बड़ी ही हसरतभरी लालसा से बैठा हुआ ताक रहा था. बहुत प्यार से वह उसे निहार रहा था. थोड़ी-थोड़ी देर में कभी वह उड़ता हुआ दूर तक चन्द्रमा के पास, उसे छूने की चेष्टा करता, परन्तु फिर निराश होकर, थक-हारकर, वापस आकर वहीं पहाड़ी पर बैठ कर अपनी हार के आंसू पोंछने लगता. नैनीताल के चप्पे-चप्पे में इस समय जैसे भरपूर खामोशी फैलती जा रही थी. चारों तरफ एक चुप्पी का आलम बनता जा रहा था. आकाश में अब बादलों की धुंध एकत्रित होने लगी थी. हर तरफ ठंडी पड़ती रात का कोहरा जमा होने लगा थी. चाँद मटमैला पड़ने लगा था. नैनीताल की झील शांत हो चुकी थी. किनारे पर ठहरी हुई मल्लाहों की नावें मानों हल्के से थिरकते हुए सो चुकी थीं. नितिन को अपने दुखी दिल के समान ही हरेक वस्तु उदास और निराश प्रतीत होती थी. नैनीताल का सौंदर्य से भरा इलाका, जो हर गम के मारे हुए के आंसू पोंछकर उसके दिल में खुशियाँ भर देता है; आज वह भी नितिन की उदासी देखकर अपना मुख फेर चुका था. और ऐसे में नितिन का दिल बार-बार धड़क उठता था. होठों से उसके एक ही पुकार उठती थी- रोमिका. कितनी सुंदर, कितनी प्यारी- न जाने कहाँ होगी अब?किस दशा में- रोमिका. उसकी परेशान धड़कनों की आवाज़ रोमिका. एक दीप्ति-सी रोमिका. अपनी आवाज़ को तरसती रोमिका. उसकी राह को तकती हुई रोमिका. बिना साज़ की रोमिका. बिना सहारे की, अपनी खुशियों से मरहूम रोमिका. . .'
सोचते हुए नितिन की आँखों से स्वत: ही आंसू उदास चांदनी में गिरती हुई शबनम की बूंदों समान टूट-टूटकर गिरने लगे. ऐसी थी, उसकी रोमिका. ऐसा था उसका पहला-पहला प्यार. प्यार का एहसास. एहसास का दर्द. दर्द के आंसू. इन आंसुओं की कीमत, कि वह बहुत चाहते हुए भी रोमिका के लिए कुछ नहीं कर सका था. रोमिका को सहारा देने की कोशिश में जैसे वह खुद तसल्ली की भीख मांग रहा था. तड़प रहा था. दिल-ही-दिल में चुपचाप रो लेता था. अकेले-अकेले छुपके आंसू बहा लेता था. फिर, चुपचाप आंसुओं को पोंछ लेता था. आज उसे जीवन में पहली बार ज्ञात हुआ था- प्यार का दर्द- उसकी दीवानगी- अलग होने का दुःख.
आकाश से चाँद उसकी एक-एक हरकत को बदलियों के पीछे से चुपचाप झांक कर देख लेता था. नितिन के सभी साथी, दिनभर के थके हुए गहरी नींद का भरपूर आनन्द ले रहे थे. लेकिन, एक वह था, जो यहाँ ठंडी होती रात में शबनम के मोतियों से भीगता हुआ, पहाड़ पर अपनी बिछुड़ी हुई रोमिका के लिए आंसू बहा रहा था. उसकी याद में सिसकता था. अपने होठों की सारी मुस्कान लुटा आया था. मानो सारी खुशियाँ वह कहीं बेच आया था. रोमिका के लिए. उस रोमिका के लिए जो खामोश थी. चुप थी. मौन थी. बे-आवाज़ थी. फूलों की रानी होकर भी अपने खुशबू की मोहताज़ थी. राजकुमारी होकर भी उसके सिर पर शहजादी का ताज नहीं था. गीत थी परन्तु आवाज़ नहीं थी. शब्द थे, लेकिन बोल नहीं थे. 'रोमिका' थी, आकाशीय सुन्दरी थी लेकिन, फिर भी आकाश की नीलिमा से जुदा थी. 



8
नितिन दो दिन बाद ही नैनीताल से अपने घर आ गया- फतेहगढ़. फरुखाबाद जिले का एक छोटा-सा शहर. सुंदर जगह, भारत की सेना की सुंदर छावनी का एक महत्वपूर्ण स्थान. जिधर देखो उधर ही आलुओं के हरे-हरे खेत फैले हुए अपनी एक विशेषता के गीत गा रहे थे.
नितिन घर तो आ गया, मगर फिर भी उसे चैन नहीं पड़ सका. वह खुद ही में खोया-खोया और गुमसुम-सा रहने लगा. साथ ही उदास भी. नितिन की इस उदासी और गुमसुम रहने का पहले तो किसी ने गौर नहीं किया. परन्तु जब उसको नित-प्रतिदिन इसी दशा में देखा गया तो उसके परिवार वालों को भी एक चिंता-सी हो गई. उसके पिता धनराज ने उसे जब इस अवस्था में देखा तो उन्होंने नितिन से तो कुछ नहीं कहा, मगर फिर भी चिंतित हो गये. मां ने देखा तो देखते ही समझ गई कि, लड़का जरुर कहीं-न-कहीं उलझ चुका है. वह रोग तो लगा चुका है, पर इस रोग से उसे छुटकारा कैसे मिले, सोचकर उनका भी दिन-रात का चैन छिन गया.
बीते की उदासी और निराशा में डूबी आँखें देखकर मां की ममता सारे बाँध तोड़कर सैलाब की भाँति उमड़ पड़ी. उन्होंने अपने पति धनराज से नितिन के बारे में बात की और कहा कि,
'यूँ, बैठे-बैठे काम हरगिज नहीं चलेगा. जवान लड़का है और वह भी एकलौता? अगर उसने कुछ उलटा-सीधा कर लिया तो फिर. . .? उसकी ससुराल जाओ और बहु की विदा का इंतजाम करो.' घर में बहु आ जायेगी तो उनके बेटे का मन भी लगेगा. पत्नी का प्यार प्राप्त होगा तो फिर उसके चेहरे की सारी चिंता और उदासी भी जाती रहेगी.'
धनराज को यह बात समझ आ गई. वे दुसरे दिन ही नितिन की ससुरा गये और बहु की विदा का सारा इंतजाम कर आये. लेकिन, हर वक्त खोये-खोये और चुप रहने की नितिन की आदत किसी से भी छिप नहीं सकी थी. घर के जितने भी लोग थे, वे सब यह तो अनुमान लगा ही चुके थे कि, नितिन की भरपूर खामोशी और चुप रहने के पीछे जरुर कोई-न-कोई भेद छिपा हुआ है. जिस दिन से यह पहाड़ पर गया है और लौटकर आया है, तभी वहीं कहीं से ढेरों उदासियाँ और खामोशियाँ भी अपने साथ बटोरकर ले आया है. अवश्य ही कोई तो बात है. पहाड़ पर जरुर ही उसके साथ कोई-न-कोई घटना ऐसी हुई है कि जिसने उसके होठ बंद करके उसके मुस्कराते हुए मुखड़े की सारी आभा ही छीन ली है. कितने ही दिन इसको वापस आये हुए हो चुके है और उसके व्यवहार में कोई भी बदलाव नहीं आया है. और वह पहले भी और अधिक अपने को अलग-थलग करके रहने लगा है. उसकी मां जानती थी कि, पहले तो वह फिर भी दिन में किसी-न-किसी से दो बातें कर भी लिया करता था, परन्तु अब तो और भी जैसे मूक हो चुका है. हर समय खामोश और अकेले-एकांत में घंटों कुछ-न-कुछ सोचते रहना, उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा बन चुका था. उसकी खामोशी के दायरे भी सुकड़-सुकड़ कर एक बिंदु बने जा रहे थे.
एक दिन धनराज ने नितिन से उसकी ससुराल से अपनी बहु को विदाकर लाने के लिए कहा तो उसके हाथों के तोते उड़ गये. नितिन को इस बात का तो तनिक भी ख्याल ही नहीं था कि, उसका विवाह तो जब वह बारह साल का ही था तभी उसके पिता के गाँव में हो चुका है. उसे तो अपनी वर्षों पूर्व इस राज़ से भरी बात का ज़रा भी एहसास तक नहीं था. जंहा तक उसे याद है, केवल एक बार उसकी मां ने उससे इस बात का ज़िक्र किया था. तब वह उसे बच्चों जैसी बात सुनकर टाल भी गया था.
फिर जब नितिन ने अपने विवाह हो जाने की बात सुनी तो उसके दिल की परेशानी पहले से और भी अधिक बढ़ गई. उसकी रही-सही उम्मीदों पर अचानक ही कुठाराघात हो गया. वह जैसे बेबस हो गया. तुरंत ही उसके मनो-मस्तिष्क पर निराशाओं के बादल छा गये. अपनी खुशियों-भरी ज़िन्दगी की कल्पना मात्र से ही उसकी पलकों में आंसू आ गये. आँखें छलक आईं. अपने पिता के सामने वह रो भी तो नहीं सकता था. किस प्रकार वह अपना दुखड़ा उनको सुना सकता था? ऐसी विषम परिस्थिति में उसकी समझ में नहीं आया कि, वह क्या करे और क्या नहीं? सिवाय इसके कि, वह फिलहाल अपना मुंह बंद रखे. सो उसने यही किया भी. किसी प्रकार वह अपनी आँखों में दर्दभरे आंसुओं का भेद छिपाकर मौन हो गया और अपनी ससुराल जाने का विचार उसने टाल दिया. उसके पिता नितिन की दशा देखकर यह तो समझ चुके थे कि, कोई बात तो है जो उनके पुत्र के अनुकूल नहीं है, मगर क्या बात है, वे नहीं जान सके थे. ससुराल से अपनी बहु की विदा का कार्यक्रम उन्होंने नितिन की इच्छा पर ही छोड़ दिया.
कई दिन गुज़र गये.
नितिन की उदासी बढ़ गई. उसका स्वास्थ्य गिरने लगा. वैसे भी मनुष्य की मानसिक दशा अगर खराब हो तो स्वास्थ्य गिरने ही लगता है. अब तक रोमिका दर्द उसके होठों पर ज़िन्दगी की बेबस परछाईं बनकर बैठ चुका था और अब तो दिन-रात ससुराल से बहू को विदा कर लाने की भी एक अतिरिक्त परेशानी उसकी बढ़ चुकी थी. ससुराल का यह ख्याल आते ही अब उसके सिर पर चढ़कर मानो उसके बाल नोंचने लगा था. इसलिए नितिन अब घर में किसी से कुछ भी नहीं कहता. हमेशा खामोश रहता- बिलकुल ही चुप. जब भी उसका मन करता, एकांत में जाकर चुपचाप अपनी परिस्थिति को एक पहाड़-सा जानकर रो लिया करता. अपने आंसू बहाकर अपने सिर पर चढ़ा हुआ बोझ हल्का करने की कोशिशें किया करता. परन्तु उसके दिल-ओ-दिमाग पर चढ़ा हुआ एक हसीन पहाड़िन बाला के प्यार का बोझ हल्का होने के बजाय दिन-रात बढ़ता ही नज़र आता था.
सो अपने जीवन के इस नये मोड़ के तमाम आयामों के मध्य, एक दिन नितिन रात के समय घर के बाहर लॉन में बैठा हुआ अपने प्यार के उजड़े हुए चमन को मानो निहार रहा था. अपनी किस्मत पर आंसू बर्बाद करने के लिए बाध्य था. रात्रि के लगभग आठ बजे थे. आकाश पर कटा हुआ चाँद कुछ वृक्षों के घने पत्तों के पीछे से जबरन अपनी नादान और कोमल किरणों को धकेल रहा था. वातावरण में रात की खामोशी धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ा रही थी. नितिन की छोटी बहन शीला जब उसके लिए दूध लेकर आई तो नितिन को अपने कमरे में न पाकर वह चिंतित हो गई. दूध के गिलास को उसने मेज पर रखकर ढांक दिया और फिर आस-पास ही नितिन की तलाश में जुट गई. घर में नितिन को न पाकर वह और भी अधिक चिंतित हो गई. उसको ढूँढने के ख्याल में वह घर से बाहर आ गई. नितिन बाहर लॉन में बैठा हुआ अपने गम पर आंसू बहा रहा था. शीला ने उसकी यह दशा देखी तो बहन का भी प्यार उमड़ पड़ा- अपने भाई की आँखों में अनायास आंसू देखकर उसकी भी आँखें नम हो गईं. वह चुपचाप कुछेक पलों तक उसको देखती रही. फिर धीरे-धीरे पास आई - आकर खड़ी हो गई. बोली,
'भैया?'
'?'- नितिन ने पलटकर देखा- बहुत निराशा से.
'चलो अंदर और अपना सोने से पहले दूध पीलो.'
नितिन सुनकर चुपचाप, बगैर कुछ भी कहे हुए चला आया. शीला भी उसके पीछे-पीछे आ गई. अब तक नितिन ने अपनी परिस्थितियों के बारे में शीला को कुछ भी नहीं अवगत होने दिया था. उसके कई एक बार पूछने पर भी वह अपने मन के भेद को टाल गया था. शायद वह अपने इस दुःख और परेशानी में किसी को भी सम्मिलित नहीं करना चाहता था., क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह से जानता था कि, यदि उसने अपने मन की इस छुपी हुई बात को अपनी बहन शीला से कह दिया तो वह तो दुखी होगी ही, साथ ही सारे घर में भी अचानक से कभी-भी न थकनेवाला भूकम्प आ जाएगा. शीला दुखी होगी. वह भी उसका एक ही, अकेला भाई था. उसकी केवल वही एक बहन थी. दोनों भाई-बहन, एक-दूसरे पर जान देते थे.
कमरे में आकर शीला ने नितिन को दूध दिया. नितिन चुपचाप दूध के घूंट भरने लगा. शीला एक ओर बैठकर उसके कमरे की धूल से सनी हुई वस्तुओं को साफ़ करने लगी. मेज की चादर की सलबटें ठीक करते हुए शीला ने नितिन से कहा कि,
'भैया.'
'?'- नितिन ने उसकी ओर देखा.
'एक बात कहूँ?' शीला ने अनुमति माँगी.
'कह न?'
'तुम्हारा कुछ, कहीं खो तो नहीं गया है?'
'नहीं तो?' नितिन ने उसे संशय से देखा.
'ठीक से याद कर लो. शायद भूल गये हो?'
'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं लगती है.' नितिन ने कहा.
'तुम्हारी इतनी बड़ी कीमती वस्तु खो गई है और तुम्हें आभास भी नहीं?' शीला ने आश्चर्य से कहा तो नितिन ने अपने मस्तिष्क पर बल डाले और खा कि,
'सो, ऐसी कौन-सी महत्वपूर्ण वस्तु है जो खो गई है और मुझे खबर भी नहीं?'
'मैं बताऊँ?'
'हां, तू ही बता?'
'तुम्हारे चेहरे की कीमती मुस्कान. जब से पहाड़ से लौटे हो, किसे दे आये हो अपनी यह मुस्कराहटें?' शीला ने सीधा वार किया तो नितिन सुनकर खामोश हो गया.
'भैया?' नितिन की खामोशी देखकर शीला प्यार से बोली.
नितिन ने एक निराशा से अपना सिर दूसरी तरफ फेर लिया.
'बताओ न भैया ! क्या बात है? क्यों इतना दुखी और चुप-चुप रहने लगे हो?'
'कहीं नहीं. ये तुम लोगों का भ्रम है.'
'मुझे तो भ्रम नहीं वरन एक सच्ची वास्तविकता दिखाई देती है.'
'कैसी वास्तविकता?'
'आपके होठों की ये उड़ी-उड़ी रंगत, दर्द में डूबी हुई बोझिल पलकें, आँखों में में घोर निराशा, ये बगैर बात, खुद-से रूठे हुए? ये सब क्या और क्यों है?'
'?'- नितिन के सम्पूर्ण चेहरे की जैसे रंगत उड़ गई. वह सुनकर चुप हो गया.
'मैंने जब भी पूछा, तुमने सदा ही मेरी बात को टाल दिया?' शीला ने खामोशी को तोड़ा.
'शीला ! तू मुझसे ऐसी बातें क्यों करती है?'
'तो न करूँ? तुम उदास हो, अपना मुंह लटकाए हुए बैठे रहो- मुझे चिंता न हो? मैं न पूछूं? तुम्हें क्या मालुम है कि, तुम्हारा यह शव समान चेहरा देख-देखकर घर में सब ही कितने अधिक चिंतित और परेशान रहते हैं?' शीला भी जैसे उत्तेजित हो गई.
'?'- नितिन चुप ही रहा तो शीला ने अपनी बात आगे बढ़ाई. वह बोली,
'कम-से-कम अपने लिए न सही परन्तु दूसरों के लिए यो मनुष्य को मुस्कराना ही चाहिए. मन अगर उदास रहता है तो फिर भाभी ही को ले आओ. हालात बदलेंगे तो खुद भी खुश रहोगे और हम सब भी.'
कहकर शीला ने नितिन के दूध का खाली गिलास उठाया और उसके कमरे से बाहर निकल गई. नितिन भी उसको चुपचाप जाता हुआ देखता ही रह गया. ऐसा लगता था कि, जैसे वातावरण पर आंधी एक चंडाल का रूप धारण करके बरस पड़ी थी. और नितिन था कि, गंगा के किनारे इस आंधी में, बुरी तरह से फंस चुका था. वह पिछली रात से ही यहाँ गंगा के तट पर आ गया था. अकेला बैठा-बैठा, वह गंगा के थिरकते हुए जल को देखता रहा था. बैठे-बैठे उसने अपनी सारी रात यहीं गुज़ार दी थी. आंधी का प्रकोप इतने ज़ोरों पर था कि, धूल की तह-की-तह गंगा के जल पर बिछ गई थी. नितिन आंधी के तीव्र प्रभाव से बचने के लिए इधर-उधर भटकता फिर रहा था. हवाओं की तेजी पर उसके भागते हुए कदम भी लड़खड़ा जाते थे.
धनराज के घर में नितिन की खोज हो रही थी. सब ही चिंतित थे कि, पिछली रात से वह चला कहां गया है? बगैर किसी के बताये हुए- उसके चले जाने पर पिछली रात आई हुई घर में सारी खुशियाँ भी अब ठंडी पड़ चुकी थीं. धनराज ने घर में आई हुई बहु मौनता से जानना चाहा तो उनके हाथ में निराशा ही लगी. वह भी उनके सामने मौन ही रही. फिर, उस सारे दिन घर में, तथा सारे फतेहगढ़ में, नितिन की खोज होती रही. धनराज आंधी और बिगड़े हुए मौसम की परवा किये बगैर, नितिन को आंधी के इन भीषण थपेड़ों में ढूँढने चल पड़े. 










9
मगर नितिन भटकता रहा. आंधी के कारण, कहीं भी शरण लेने के लिए. गंगा के तीर के आस-पास. आंधी भी, थम-थम कर अपना ज़ोर दिखाती रही. पता नहीं, इस अचानक से आई हुई आंधी का क्या लक्ष्य था? क्यों आई थी? किसकी खुशियों को खाने के लिए? इस भयानक आंधी में न जाने कितनों के घर उजड़ चुके थे? कितनों के बर्बाद हो गये थे. न जाने कितने ही पक्षियों के नीड़ इस आंधी की शरण में पहुंचकर तबाह हो गये थे? वातावरण की भयानकता के आगे किसी का भी ज़ोर नहीं चल सका है. पक्षी घबराते हुए आकाश की तेज हवाओं में ठहर नहीं सके थे. इस प्रकार से आंधी की धुंध में, धूल-मिट्टी में सना हुआ, नितिन भटकता फिरा- और उस सारे दिन, धनराज भी भटकते फिरे- नितिन को ढूंढते रहे.
नितिन को फिर अवसर मिला तो वह दोबारा चुपचाप से, कोसानी आ गया- अपने घर-परिवार में बिना किसी को कुछ भी बताये हुए. उन्हीं पहाड़ों पर- उन्हीं वादियों में- उन्हीं चिनारों की छाया में- उन्हीं चट्टानों पर, जिन्हें वह कभी बे-बस होकर छोड़ आया था. उस देश में, जिसके बिछुड़ने के वियोग में, उसने अनगिनत आंसू गम की वेदी पर बलिदान कर दिए थे.
नितिन जब कोसानी पहुंचा, तो क्षितिज में सूर्य की अंतिम किरणें सिसक-सिसककर अपना दम तोड़े दे रहीं थी. सूर्य का गोला सुर्ख होकर पहाड़ों के पीछे खिसकता जा रहा था. चिनारों में एक अजीब-सी खामोशी छाई हुई थी. वातावरण चुप था. आकाश में बादल उड़ रहे थे. नितिन पहले डाक बंगले भी नहीं गया, जैसा कि उसे ठिकाना ढूँढने के लिये जाना चाहिये था और जैसा कि हरेक कोई एक नये शहर में आकर करता भी है. रोमिका के कारण और उससे मिलने के लिए वह सीधा उस घाटी की ओर बढ़ गया, जिसकी शरण में रोमिका का अपना छोटा-सा घर सुरक्षित था. रोमिका से मिलने के लिए अब उसका दिल छटपटा रहा था. उसके कदमों में बला की-सी तेजी थी. दिल में बे-तहाशा धडकनें भाग रही थीं. मन में अनेकों तरह के ख्याल आ-जा रहे थे- 'पता नहीं रोमिका उसे अचानक से यूँ देखकर क्या सोचे?', इतने दिनों के बाद जब रोमिका उसे देखेगी, तो खुशियों के अपार बोझ के कारण, पता नहीं उसकी क्या दशा हो जायेगी?', शायद कुछ नाराज़ भी हो?', 'शायद वह उसकी तरफ से मुंह फेरकर खड़ी हो जाए?',
सोचते-सोचते, उसके कदम रोमिका के घर के दरवाज़े पर आकर स्थिर हो गये. परन्तु दरवाज़े की तरफ देखते ही नितिन की सारी उम्मीदों पर ओले पड़ गये. दरवाज़े पर लगा हुआ ताला, रोमिका की अनुपस्थिति में उसको अंगूठा दिखा रहा था. द्वार पर लगे हुए ताले को देखकर नितिन निराश हो गया. दिल में उसके एक ख्याल आया- 'कहाँ चली गई वह?', 'उसको तो यहीं होना चाहिए था?', 'इसी जगह पर.' 'यही उसका घर है?',
नितिन, कुछेक पल खड़ा-खड़ा सोचता रहा. बाद में वहां से निराश होकर लौट आया. वह सीधा डाक बंगले पहुंचा. परन्तु डाक बंगले के दरवाज़े पर भी लगे ताले ने उसको अपना मुंह चिढ़ा दिया. उसका चौकीदार भी किसी दूसरे स्थान पर गया हुआ था. अब बगैर चौकीदार के, उसके यहाँ ठहरने के लिए कुछ भी काम बनना कठिन ही था. नितिन, इस परिस्थिति में फिर एक बार निराश हो गया. वह डाक बंगले के बाहर ही एक पत्थर पर निराश होकर बैठ गया. बैठा-बैठा सोचता रहा. दूर पहाड़ों पर बादल उड़ रहे थे. हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी हवाएं उसके बदन में सुइंयों के समान चुभ रही थीं. हवाओं में शीत की लहर थी. पहाड़ों पर उड़ते हुए बादलों के समान ही, नितिन का भी आवारा मन कहीं दूर ख्यालों के उड़नखटोले पर बैठकर उड़ा चला जाता था. उसके दिल में एक बैचेनी थी. रोमिका की याद थी. उसके प्रति प्यारे-प्यारे ख्याल थे. दिल रोमिका से मिलने के लिए तड़प-तड़प उठता था. नितिन थोड़ी देर तक वहीं अपने स्थान पर बैठा रहा. मगर बाद में वह उठकर उस ओर चल दिया, जहां पर उसकी रोमिका से प्रथम भेंट हुई थी और जहां पर एक बोल्डर का सहारा लेकर पहली बार रोमिका का हाथ थामकर बैठा था.
नितिन चलता रहा. उसके कदमों में एक अजीब ही तीव्रता थी. बोल्डर के करीब आकर उसके कदम अनायास ही ठिठक गये. पलकें फड़फड़ा गईं. होठ तड़प गये. उसने सामने जो देखा तो उसे समझते देर नहीं लगी- नीचे, बोल्डर के करीब ही, सुंदर-सुंदर रंगीन फूलों से उसका नाम लिखा हुआ था- 'नितिन'. हिन्दी भाषा में और अंग्रेजी में भी- 'NITIN.' अपना नाम पढ़कर उसका दिल अचानक से उछल-सा पडा. आँखों में उसके आंसू आते-आते रह गये. उसने सोचा कि, 'इतना प्यार? इसकदर चाहत?, इतनी प्रतीक्षा?.' उसे बिना किसी से पूछे ही, सारी परिस्थिति का ज्ञान हो गया. वह समझ गया कि, उसके यहाँ से चले जाने के पश्चात रोमिका यहाँ आई थी. शायद हर रोज़ उसने उसके आने की प्रतीक्षा की थी? उसको याद किया था. शाम तक बैठे-बैठे उसने अपने आंसू बरबाद किये थे. उसकी प्रतीक्षा में, अपनी पलकें बिछाए बैठी रही थी. पहाडी जंगली फूलों से जगह-जगह लिखे हुए उसके नाम के अक्षर रोमिका के महान और पवित्र प्रेम की गवाही दे रहे थे.
नितिन, चुपचाप उन फूलों को देखता रहा. सूखे और कुम्हलाये हुए फूल- कुछेक इधर-उधर, वायु के प्रभाव से बिखर भी गये थे. फिर भी फूल थे. उसकी याद में तोड़े गये, रोमिका के इस महान और पवित्र प्यार का सबूत देखकर, नितिन की उदास पलकों में आंसू ओस की बूंदों समान आकर अटक गये. नीचे, पहाड़ों की इस पथरीली धरती पर बिखरे हुए फूल थे और ऊपर उसके दिल में प्यार का उमड़ता हुआ बवंडर- नितिन बड़ी देर तक उन फूलों को देखता रहा. फिर वह धीरे-धीरे उनके पास आया. फूलों के बहुत करीब- घुटनों के बल झुक कर उसने उन फूलों को, फूलों की एक-एक पंखुड़ी को, अपने रूमाल में समेट लिया. अपने प्यार के फूल, जो उसकी याद में रोमिका के हाथों से टूटकर आये थे; वह फूल जो केवल रोमिका थे- 'रोमिका के फूल', जो उसको सारी ज़िन्दगी की खुशियाँ देते-देते उसके दिल का रोग बन गये थे.
तभी, अचानक ही कहीं बादलों में, पहाड़ों के पीछे से बिजली कौंध गई. नितिन ने नज़रें उठाकर आकाश की ओर देखा. काले-काले बादल अपने आंसू बहाने के लिए तैयार बैठे थे. वर्षा होने वाली थी. नितिन, वर्षा के होने के कारण डाक बंगले लौट आया. निढाल होकर वह डाक बंगले के बाहर ही बैठ गया. फिर जब चौकीदार आया तो नितिन डाक बंगले के अंदर चला गया. चौकीदार ने आकर अंदर आग जला दी. नितिन फिर भी एक ओर बैठा रहा. उदास- बहुत चुप और शांत भी.
'बाबू शाब !' नितिन की खामोशी को देखते हुए चौकीदार ने कहा.
'?'- नितिन ने खामोशी से चौकीदार को देखा.
'आप बहोत चुप कैशे हो?' चौकीदार ने पूछा.
'यूँ ही.' नितिन का उत्तर बहुत छोटा था.
'आपका नाम नितिन है शाब?' चौकीदार ने बहुत सोचकर कहा.
'हां. . .लेकिन क्यों?'
'आपको देखकर एक बात याद आ गई.'
'क्या?'
'इश्शे पहले जो लड़कों का झुंड आया था, उनमें आप भी थे?'
'हां, मैं भी था.'
'तब तो ठीक है.'
'क्या ठीक है?' नितिन की उत्सुकता बढ़ गई.
'यहां पर आपके जाने बाद, एक लड़की कई दिनों तक, रोजाना आपको पूछती रही थी.'
'कौन थी वह'
'वही गूंगी लड़की- रोमिका. बेचारी, आपके लिए बहुत परेशान दिखती थी.'
'लेकिन, अब कहाँ चली गई है वह?' नितिन ने धड़कते दिल से पूछा.
'बागेश्वर ! अपने बाबा की अचानक मृत्यु के कारण, उसकी एक दूर के रिश्ते की मौसी, उसे आकर ले गईं थीं.
'नहीं.' -
नितिन के दिल पर अचानक ही अंगारे लोट गये. वह निराश मन से, खामोशी के साथ, कमरे में, अंगीठी में जलती हुई आग के अंगारों को देखने लगा. दोनों के मध्य कुछेक पलों तक खामोशी छाई रही. नितिन ने चौकीदार को चाय बनाने के लिए कहा, तो वह चाय के लिए पानी लेने बाहर चला गया. फिर, थोड़ी ही देर बाद वह वापस आ गया. आते ही वह नितिन को गुमसुम बैठे हुए देख कर बोला,
'उसने, आपको बहुत याद किया था शाब.'
'?'- नितिन फिर एक बार तड़प गया.
मौन होकर वह चुपचाप सोचने लगा. तब तक क्स्चौकीदार ने चाय बना ली तो दोनों खामोशी के साथ चाय के घूंट भरने लगे. इतनी-सी देर में बाहर बादल फिर से जैसे रो पड़े थे. वर्षा होने लगी थी. यूँ, भी पहाड़ों पर तो वर्षा, कभी भी, अनायास ही होने लगती थी. अब फिर से हो रही थी. परन्तु, नितिन बाहर होती हुई वर्षा के शोर से बेखबर, अपने ही विचारों और सोचों में लीन हो चुका था. रत भी धीरे-धीरे बढ़ रही थी. बारिश की कुछेक बूँदें डाक बंगले का बरामदा पार करके अंदर कमरे में भी छिटककर आ जाती थीं. फिर जब रात अधिक गहरी हो गई तो, चौकीदार ने नितिन का बिस्तर लगा दिया.
बिस्तर पर लेटने के बाद भी, नितिन को नींद एक पल के लिए भी नहीं आ सकी. वह केवल करवटें ही बदलता रहा. रोमिका की याद उसको कदम-कदम पर अब परेशान करने लगी थी. सारी रात तक वह केवल रोमिका के लिए ही सोचता रहा. उसकी यादों में तडपता रहा. आहें-सी भरता रहा. परन्तु, यहाँ कौसानी में रोमिका अब नहीं थी. केवल उसकी मधुर यादें थीं. नितिन के दिल में उसकी खुबसूरत छवि थी. नितिन, लगभग सारी रात तक रोमिका के लिए सोचता रहा. उसे हर पल याद करता रहा. उसकी प्रत्येक स्मृति पर वह बैचेन हो जाता था. हर एहसास पर उसको, दर्द के घूँट पीने पड़ते थे. उसकी नजदीकी की कल्पना करने ही मात्र से वह रोमिका से जैसे बहुत दूर आ जाता था. रात जवान थी- वर्षा का शोर अब बहुत कुछ कम हो चला था. कमरे में पिन गिरने जैसी खामोशी छाई हुई थी. हर तरफ सन्नाटों से भरा आलम था. केवल, नितिन ही अपने दर्द से चुपचाप बातें कर रहा था. उसकी दीवानगी हर क्षण बढ़ती जा रही थी. रोमिका धीरे-धीरे अपनी याद के सहारे नितिन की ओर खिसकती आ रही थी. उसी रूप में- उसकी वही नीलायमान, आसमानी रंग की आकर्षित आँखें- आँखों में झील-सी गहराई- गहराइयों में अपार प्यार की मझधारें- मानों नितिन के लिए अपनी ढेर सारी चाहतों को सजाए हुए, अभी तक इंतज़ार कर रही है? ओस की ठंडी-ठंडी बूंदों से उसका धुला हुआ, फूल समान चेहरा- चेहरे पर डोलती हीन उसके बालों की बेफिक्र लटें- कूल्हे से भी नीचे लहराते हुए उसके लम्बे बाल- मुख में आवाज़ नहीं थी, परन्तु कानों में पड़े हुए झुमकों में प्यारी-प्यारी झंकारें थीं- होंठो पर शब्द नदारद थे, परन्तु मुख पर सजे हुए बोल के भाव थे. आँखों में चाहत और प्यार के खामोश इशारे थे- प्यारे-प्यारे- सुंदर- मोहक- रोमिका ! कितनी भोली- किसकदर सुंदर? सौंदर्य के भार से लदी हुई रोमिका- अपनी खोई हुई आवाज़ को ढूंढती हुई रोमिका- नितिन के प्यार की प्यासी रोमिका- पर्वतों की मलिका रोमिका- रोमिका- मेरा प्यार- मेरी धड़कने- मेरी आत्मा- मेरे दिल के समस्त एहसास- मेरे प्यार के रास्ते- रोमिका; सोचते-सोचते नितिन तड़पकर अचानक ही उठ बैठा. उठकर उसने कमरे की बत्ती जला दी. बती जलते ही कमरे में बैठा हुआ मक्कार अंधियारा पल भर में बाहर भाग खड़ा हुआ. नितिन चुपचाप कमरे की चालाक दीवारों को ताकने लगा. फिर, जब उसको तसल्ली नहीं हुई तो वह कमरे का द्वार खोलकर बहर आ गया. बाहर वर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूंदे फुहार के रूप में जैस झड़ रही थीं. पहाड़ों पर कोहरा-सा छा गया था. नितिन बगैर किसी भी बात की परवा हुए डाक बंगले के लॉन में पड़ी हुई पत्थर की बेंच पर जाकर बैठ गया. बैठा तो तुरंत ही उठ भी गया- बेंच बर्फ से भी अधिक ठंडी थी. वह कुछ देर यूँ ही खड़ा रहा. थोड़ी देर बाद वह फिर से बैठ गया. बारिश की फुहारों में ही- बैठा-बैठा भीगता रहा. बर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूँदें उसके शरीर से चिपकती रही- हर पल ही.
प्रात: की कमसिन बेला में, नितिन ने जब अपनी आँखें खोलकर देखा तो उसने स्वयं को बिस्तर पर पाया. उसका शरीर आग के समान तप रहा था. सारी रात वर्षा में भीगते रहने के कारण अब उसको ज़ोरदार बुखार चढ़ा हुआ था. चौकीदार, एक स्टूल पर उसके बिस्तर के पास ही बैठा हुआ था. रात, रोमिका के ख्यालों में नितिन बाहर पड़ा रहा था और चौकीदार ही उसको उठाकर लाया था.
नितिन के उठते ही चौकीदार ने चाय बना दी. गर्म-गर्म चाय पीने के बाद नितिन को अपनी तबियत में कुछ अच्छा-सा महसूस हुआ. फिर, उसे उस दिन भी विश्राम करने के लिए रुकना पड़ा, नहीं तो वह आज ही बागेश्वर जाने को था. सो, उस सारे दिन वह अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहा. लेता-लेता सोचता रहा. रोमिका के ख्यालों में भटकता फिरा. बादल, पहाड़ों पर दौड़ते रहे. कभी वर्षा हो जाती थी तो कभी आकाश खुल जाता था. ठंडी-ठंडी वायु के एक ही झोंके से, नितिन के दिल का बोझ पल भर में ही विलीन हो जाता था.
कौसानी में एक दिन का विश्राम लेकर, अब नितिन दुसरे दिन, बागेश्वर की पहाड़ियों में भटकता फिर रहा था. रोमिका की खोज में. अपने प्यार की दीवानगी में वह अब इस स्थिति तक आ गया था. ऐसा था, उसका प्यार- प्यार का एहसास- एहसासों में कसमसाती हुई उसकी दीवानगी- ऐसे थे, उसके प्यार के रास्ते कि, वह अपने कॉलेज का मार्ग भूलकर, अब इन्हीं राहों पर स्वयं ही भटक गया था. इतना अधिक कि, कदम-कदम पर उसे अपनी रोमिका की याद सताने लगती थी. दिल तड़पकर ही रह जाता था. सुबह से शाम होने को आई थी और वह अभी तक रोमिका को नहीं ढूंढ पाया था. लगता था कि, जैसे रोमिका की खोज में वह जैसे स्वयं ही खो चुका था. खो गया था, अपने हाल के प्रति- अपनी दशा से ही लापरवा बना, वह अभी तक रोमिका को पाने चेष्टा में ही लगा हुआ था. उसकी आँखों में प्रतीक्षा थी- होंठो पर दर्द और दिल में छिपी हुई रोमिका का चित्र. उसकी दीवानगी हर कदम पर अपना ज़ोर पकड़ रही थी. इसीलिये नितिन ने निराशा को अपने पास तक नहीं फटकने दिया था. उसका दिल, अभी तक एक आशा से रोमिका की तलाश में था. 













10
दिन ढल गया और संध्या को जब बादलों में सूर्य की लालिमा, सिंदूर के समान लाल चमक उठी, तो छिपे हुए धुंधलके ने अपनी अंगड़ाई ले ली. थोड़ी ही देर बाद, दूर बादलों के पीछे से चन्द्रमा भी उचककर झाँकने लगा. नितिन, अब तक थक-हारकर रामगंगा के 'हैंगिंग ब्रिज' के सहारे आकर खड़ा हो गया- एक निराशा से और बेमन से छल-छल करके बहती हुई रामगंगा के जल की धाराओं को निहारने लगा. जल की थिरकते-कांपती हुई लहरों में चन्द्रमा की महीन-महीन किरणें जैसे नृत्य किये जा रही थीं. और इस जैसे दर्दभरी चांदनी में, दूर गंगा के किनारे, गई संध्या किसी की चिता की जलती हुई लपटें, दहकते शोलों में बदलकर, अब ठंडी पड़ती जा रही थीं. कहें पर चिता की आग थी, तो कहीं पर दिल में जलती हुई आग. उदास और बिलखती हुई, इस चांदनी में, कहीं निर्जीव शरीर जल रहे थे तो कहीं, तो अपे प्यार की तलाश में भटकते हुए नितिन का दिल भी जला जा रहा था.
नितिन, बहुत देर तक, रामगंगा के पुल के सहारे अपनी निराश कामनाओं की अर्थी तैयार करता रहा. खड़े-खड़े उसे इतनी अधिक देर हो गई कि, बागेश्वर का सारा आलम, सारा-का-सारा वातावरण भी चुप्पी साध बैठा. हर ओर से खामोशी शाम ढलते ही बंद हो चुका था. चारों तरफ सन्नाटे की चादर पसरने लगी तो चन्द्रमा भी बदलियों में अपना मुंह छिपाकर अपने स्थान से भागने की कोशिश करने लगा. परन्तु, नितिन फिर भी कहीं नहीं गया. वह अपने ही स्थान पर खड़ा रहा. उसी मुद्रा में- रोमिका की दुखभरी यादों में- खड़ा-खड़ा सोचता रहा- सोचता रहा कि, 'रोमिका कहाँ चली गई? कहाँ खो गई है, उसकी रोमिका? क्यों रूठ गया है, उसका प्यार? ऐसा क्यों हो गया है, उसके साथ? अब वह कहा जाए? किधर देखे? रोमिका को कहाँ पूछे? यहाँ, वह किसी को जानता भी तो नहीं है. उसकी रोमिका, न जाने अब कैसी होगी? वह अगर उसको बुलाना चाहे तो वह पुकार भी तो नहीं सकती है? कितना बुरा किया उसने रोमिका के साथ, जो वह उसे इस हाल में छोड़कर आ गया था? एक प्यार की प्यासी आत्मा को, पानी की कुछेक बूँदें चखाकर, तडपती हुई छोड़ आया था? उसे एक कश्ती समान मरुस्थल में अकेला छोड़ दिया था. रोमिका को अपने प्यार का विश्वास देकर, वह मार्ग के प्रथम चरण में ही गिर पड़ा है. प्यार की पहली-पहली पगडन्डी पर ही उसके कदम मानो डगमगा गये थे.
सोचते-सोचते नितिन, रोमिका की स्मृति में फिर से खो गया. आकाश पर चांदनी सिसक रही थी. रामगंगा के जल की धाराएं भी जैसे तड़प रही थीं. हल्की-हल्की ठंडी हवाओं का हर कतरा तक सिसकने लगा था. रात्रि के अन्धकार में, सिर झुकाए हुए समस्त चिनार जैसे उदास थे. पहाड़ों का दिल भी उदास था- नितिन के उदास दिल के समान ही, उसको हरेक वास्तु भी उदास होती प्रतीत होती थी. हर तरफ घोर निराशा- चारों ओर खामोशियों के साए- नितिन को प्रकृति के हर नज़ारे में, अपनी प्यार की फूटी हुई किस्मत का दर्द झलकता हुआ दिखाई देता था.
बैठे-बैठे, नितिन जब नितिन की रही-बची आस भी अपना दम तोड़ने लगी, तो उसकी दीवानगी से लापरवा एक मधुर आवाज़ पहाड़ों की घाटियों का आंचल फाड़कर हवाओं के सहारे बाहर निकली- मीठी, मधुर और मोहक आवाज़- सुरीले साज़ के ताज से सजी-संवरी बांसुरी का दुखभरा संगीत- पहाड़ों पर अपने प्रीतम के गले से लिपटने को तरसती हुई बांसुरी की दर्दभरी पुकार- अपने मन के देवता के गले का हार बनने के लिए उतावली रोमिका की बांसुरी के दिल की धडकन? नितिन के प्यासे कान इस धुन को सुनते ही ठिठक कर ही रह गये. इतना अधिक कि, उसे अपने कानों पर विश्वास भी करना कठिन हो गया. वह एक-मन बनाकर, पहाड़ों के पत्थरों से अपना सिर फोड़ती हुई इस सुरीली बांसुरी की धुन को इत्मीनान से सुनने लगा. जब वह सब-कुछ समझ गया तो, अचानक ही उसका दिल बड़े ही ज़ोरों से धड़क गया. उसके होंठ तड़प गये- आँखों की चमक दुगनी हो गई- शरीर में जैसे अचानक ही जान आ गई- उसने सोचा कि, वही आवाज़? वही दर्द? वही वेदना? वही पुकार, जैसी उसने कभी एक बार, कौसानी के पहाड़ों पर सुनी थी?
नितिन तुरंत ही पुल से नीचे उतरा. उसके कदम स्वत: ही बांसुरी के आते हुए संगीत की तरफ बढ़ने लगे. बांसुरी का दर्दभरा संगीत उसको, अपना मार्ग दिखाने लगा. नितिन चलता गया- जल्दी-जल्दी जैसे भागने लगा. बहुत जल्द ही, अति शीघ्र ही वह उस स्थान तक पहुंच जाना चाहता था, जिधर से बांसुरी के संगीत की धुनें वायु में मिश्रित होते हुए पुकार रही थीं. बांसुरी की इस दर्दभरी वेदना में एक अजीब ही शक्ति थी जो उसे अपनी ओर खींच ले जाना चाहती थी. एक अनजाना खिंचाव था, जिसके वशीभूत उसके कदम, स्वत: ही आगे बढ़े चले जा रहे थे. नितिन के कदमों में इतनी अधिक तीव्रता थी, कि वह की एक बार तो गिरते-गिरते बचा था. जितनी भी बार उसको ठोकर लगी, वह संभल गया था. हर ठोकर पर उसे दर्द के स्थान पर अपना प्यार पाने की खुशी की अनुभूति होती थी. फिर भी वह चलता रहा. बढ़ता रहा. बांसुरी की मधुर पुकार उसका मार्गदर्शन करती रही.
नितिन जब बहुत करीब पहुँच गया और उसने एक बोल्डर की ओर से बांसुरी बजाने वाले की तरफ देखा तो उसके कदम जहां-के-तहां ही जम से गये. कुछेक पलों तक वह यूँ ही खड़ा-खड़ा देखता रहा. बजानेवाले को पहचानने का प्रयत्न करता रहा. फिर वह पास आया- आहिस्ता-आहिस्ता- पास आकर उसने मटमैली चांदनी के धुंध भरे प्रकाश में जो कुछ देखा तो दांतों तले अपनी अंगुली आश्चर्य से दबाकर ही रह गया.
बिलकुल वही थी. वही रूप- वही लंबे-लंबे बाल- कूल्हों से भी नीचे झूलते हुए- वही- हू-बहू-हू- वही. उसकी रोमिका? जो अभी तक उसकी उपस्थिति से अनभिग्य, अपनी बांसुरी की मधुर और सुरीली ध्वनि से जैसे उसको आवाज़ दे रही थी? अपने उस खोये हुए प्रीतम को बुला रही थी, जो उसको अपने प्यार का सिलसिला दिखाकर, एक ही स्थान पर अकेला छोड़ आया था. केवल मात्र एक दिन का प्यार उसके आंचल में डालकर- बहुत खामोशी से, उसको रोता-बिलखता छोड़ आया था. रोमिका के मन की दर्द भरी वेदना, होंठों की तड़प, बांसुरी के दर्दीले स्वरों में, चांदनी में नहाए हुए, पर्वतों के जैसे कण-कण में छाई जा रही थी.
बांसुरी का ऐसा गीत- ऐसा संगीत, जो सोये हुए पहाड़ों का भी कलेजा चीरे दे रहा था.
रोमिका को इस मुद्रा में देख कर, खड़े-खड़े नितिन के प्यासे होंठों पर मानो एक आह-सी टपक गई. आंसू, उसके पलकों का द्वार खोलकर, उसके सूखे गालों पर आकर अटक गये. शायद दुःख और अपार खुशी के समन्वय में, वह कोई भी समझौता नहीं कर पाया था? रोमिका का दर्द, स्वयं उसका दर्द बनकर टपक रहा था. जीवन में आज उसको पहली बार ज्ञात हुआ था, कि कोई उसको अपने दिल की सारी हसरतों से बढ़कर प्यार ही नहीं करता है, बल्कि उसकी पूजा करता है. इतना अधिक कि, जिसका कोई भी माप नहीं है. रोमिका उसको किसकदर प्यार करती है? कितना अधिक उसे चाहती है? वह आज अपनी आँखों से खुद ही देख रहा था. इतना अधिक वह उसे चाहने लगी थी कि, केवल एक दिन के प्यार को ही पाकर वह उसकी जीवन भर की चाहतों की मोहताज़ हो चुकी थी. उसकी यादों में, वह न जाने कितने ही अनगिनत आंसू बर्बाद कर चुकी थी. उसके इस सच्चे प्यार की गवाही, उसकी बांसुरी की दुःख भरी आरजू दे रही थी. बागेश्वर के सारे पहाड़ों पर पसरी हुई चांदनी भी नितिन को चुपचाप निहार रही थी. रोमिका के महान प्यार की साक्षी में, बागेश्वर के वह सारे पर्वत थे- आकाश में भरी चांदनी के बीच इठलाती हुई बादलों की छोटी-छोटी बदलियाँ थीं- सिर झुका कर, चुपचाप सोते हुए चिनार थे- चन्द्रमा था- उसकी दूधिया चांदनी थी- और साथ में छोटे-छोटे, नादाँ सितारे भी थे.
कब बांसुरी के मधुर संगीत की लहरें थम गईं? कब बांसुरी को चुमते हुए रोमिका के पतले होंठ थम गये? नितिन को अपने ख्यालों में डूबे हुए पता ही नहीं चला. रोमिका अभी-भी खड़ी हुई थी. एक पत्थर के सहारे, मूर्ति समान, खड़ी-खड़ी वह शायद रात्रि के इस खामोश चन्द्रमा से अपने रूठे हुए प्यार की भीख मांग रही थी? उसने अभी पीछे पलटकर देखा भी नहीं था, जहां पर उसके दर्द को देखकर, चन्द्रमा ने उसके नितिन को जाने कब का उसके करीब भेज भी दिया था. उसी के पास, जिसकी वह भीख मांग रही थी- रो रही थी- रोती आ रही थी- बहुत दिनों से.
रोमिका ने खड़े-खड़े दूर क्षितिज को देखा- फिर, चन्द्रमा की तरफ, अपनी उदास नज़रों से देखने लगी. उसकी आँख के आंसू, पलकों के बाँध तोड़ कर, उसके गालों पर मोतियों समान आकर ठहर गये थे. कुछेक क्षणों के पश्चात वह सामने की ओर चल दी- बहुत उदास होकर.
'रोमी !'
अपना नाम सुनते ही अचानक ही रोमिका के पैरों में जैसे लगाम खिंच गई. उसका दिल, चांदनी रात की इस तन्हाई का सन्नाटा भांपते ही धक से होकर रह गया. घबराकर उसने पलटकर देखा- तो फौरन ही अपनी कमर से खुखरी निकालकर तनकर खड़ी हो गई. मगर, जब सामने उसने जो देखा तो लगा कि, जैसे किसी ने अचानक ही उसके कोमल मुख पर पत्थर मार दिया हो. वह अपनी जगह से हिल भी नहीं सकी- केवल अवाक-सी खड़ी रह गई. अचरज और हैरत के कारण उसकी आँखों की पुतलियाँ फैलकर चौड़ी हो गईं- सामने उसके नितिन खड़ा था- उसका नितिन.
बड़ी देर तक, दोनों एक-दूसरे को देखते रहे. खामोश- बहुत चुप. अपनी-अपनी आँखों में, शिकवे-शिकायतों से भरे हुए आंसुओं का सैलाब लिए हुए. रोमिका को तो विश्वास करना भी कठिन हो गया था. इसीलिये, उसने फिर से अपनी पलकों को मल दिया. यही सोचकर कि, वह कहीं कोई सपना तो नहीं देख रही है. परन्तु नही ! सामने उसके जीती-जागती, उसके दिल की तस्वीर खड़ी हुई थी- नितिन. उसका प्यार, एक वास्तविकता बनकर उसके पास फिर से आ गया था.
रोमिका के होंठ कांपने लगे. इतनी देर से गालों पर अटके हुए आंसू, नीचे ढुलक पड़े. उसके हाथों से खुखरी अचानक ही छूटकर नीचे गिर पड़ी. फिर, नितिन उसके पास आया- बहुत करीब- पर रोमिका अब अपने को संभाल नहीं सकी और तुरंत ही उसके सीने से लिपट गई. लिपटकर उसने अपने दोनों हाथों से नितिन को जकड़ लिया- बुरी तरह- उसकी कमीज़ को भी- और फिर सिसकते हुए, फूट-फूटकर रो पड़ी. नितिन कुछ भी नहीं बोल सका, केवल बहुत खामोशी के साथ उसके लंबे, मुलायम बालों पर अपना हाथ रखे रहा. रोमिका रोती रही- सिसकती रही- जैसे वह आज अपने समस्त दुखों को अपने आंसुओं से धो लेना चाहती थी.
रोमिका ने एक बार नितिन की आँखों में झांक कर गौर से देखा- उसकी आँखों में मानो कुछ ढूँढने की कोशिश की. कुछेक पलों तक ध्यान से फिर एक बार देखा- फिर विश्वास किया- सचमुच उसका ही नितिन था. सोचते हुए वह फिर से उसके सीने में समा गई. उससे चिपक गई. सारी दुनियां को भूलकर- सारे ज़माने से लापरवा बनकर. वह नितिन के सीने से अपना सिर रखे हुए सुबकती रही. नितिन भी, प्यार में ठुकराई हुई उसके दिल की तमाम परेशान धड़कनों को सुनता रहा. आकाश में ठहरे हुए चन्द्रमा ने जब इन दो प्रेमियों का मिलन देखा तो वह चुपचाप एक बदली की ओट में सरक गया. सरक गया तो पहाड़ों पर हल्का-सा धुंधलका छा गया. मैली चांदनी समान, पल भर में ही पर्वतों की इस सारी कायनात पल भर को जैसे छुप-सी गई.
रोमिका, बहुत देर तक अपना होश-हवास खोये हुए, नितिन के दिल की धड़कनों से चिपकी रही. नितिन, अभी तक बिलकुल ही खामोश था. रोमिका भी चुप थी. यूँ, भी उसे तो चुप ही रहना था. वह रात खामोश थी- पहाड़ों में अब खामोशी नहीं, बल्कि सन्नाटा भरा पड़ा था. और इस रात के सन्नाटे में, दो दिल, दो प्रेमी, दो आत्माएं, दो नाम- रोमिका और नितिन भी खामोश थे. मगर, फिर भी इस भरपूर खामोशी में एक आवाज़ थी- एक सदा थी- एक ऐसी आवाज़, जो प्यार की थी. जिसमें एहसास थे, ज़ज्बात थे- प्यार के पवित्र नगमात थे- दो दिलों की राहतें थीं, वह आवाजें थीं, जिसको कानों से न सुनकर, केवल दिल से महसूस किया जा सकता था. जिसको वातावरण का एक तिनका तक नहीं सुन सकता था. पहाड़ों पर बैठी हुई कोई भी वस्तु नहीं सुन सकती थी. केवल नितिन सुन सकता था. रोमिका सुन सकती थी. दोनों ही सुन सकते थे- एक-दूसरे के दिलों की धड़कनें बनकर- आवाजें बनकर, दोनों ही सुन सकते थे.
उस रात- रात की खामोशी में, रोमिका बड़ी देर तक, नितिन के पास ही उसके बदन से सटकर बैठी रही. नितिन भी उसको अपने साथ घटित हुई सारी बातों को एक-एक करके सुनाता रहा. उससे इतने दिनों तक अपनी गैर-मौजूदगी के कारण और अपनी मजबूरियाँ बताता रहा. अपने समस्त दुखड़ों का बयान करता रहा. रोमिका भी चुपचाप सुनती रही. उसकी गोद में अपना सिर रखे हुये- वह उसकी परेशानियों और विवशताओं को महसूस करती रही. साथ ही अब वह बहुत खुश भी थी. खुश इसलिए कि, अब उसे और क्या चाहिए था? उसका नितिन वापस उसके पास आ गया था- इतना ही तो उसे चाहिए भर था.
दोनों, अभी तक अपने प्यार में डूबे हुए, भविष्य के किसी भी सपने से महरूम, अपने ही सोचों और विचारों में जैसे खो गये थे. तब, प्यार के इन्हीं तूफानों में डोलते हुए, नितिन ने रोमिका को अपने प्यार का वास्ता देते हुए कहा कि,
'रोमी?'
'?'- रोमिका ने नितिन की आँखों देखा.
'मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया है. परन्तु अब तुम्हें इतनी ढेर सारी खुशियाँ दूंगा कि, तुम उन्हें संभाल भी नहीं सकोगी. अब तुम मेरी हो. केवल मेरी. मैं तुम्हारा हूँ. हम दोनों को अब कोई भी अलग नहीं कर सकेगा- कोई भी नहीं.'
नितिन ने रोमिका को बहुत देर तक समझाया. उसके साथ अपनी पिछली बातों को फिर से दोहराता रहा. मगर, फिर भी अपने विवाह की बात को, वह जानबूझ कर उससे छिपा गया. उसने सोचा कि, उसे अब अपने विवाह की भी चिंता क्योंकर करनी चाहिए? जो विवाह उसके अनजाने में, उसकी मर्जी के बगैर कर दिया गया हो, उसे वह कैसे मान्यता दे सकता है? प्यार तो उसने रोमी से किया है. रोमी उसके दिल की पसंद है. वह रोमी को प्यार करता है- अब जो कुछ भी है, वह सब उसका रोमी पर ही निर्भर करता है. अभी रोमी को कुछ भी नहीं बताना चाहिए. वक्त आने पर वह उस पर अपना ये भेद भी प्रगट कर देगा. वह उससे कह देगा कि, किस प्रकार उसका बाल-विवाह करके उसकी सारी आकांक्षाओं पर कुठाराघात किया गया था. इसी कारण वह अपना घर सदा के लिए छोडकर यहाँ भाग आया है. 














11

इस प्रकार कई दिन गुज़र गये.
कई हफ्ते- महीने होने को आये. नितिन और रोमिका का प्यार आकाश की बुलंदियों को चूमने का एक असफल प्रयास करता रहा. इतना अधिक प्यार था, दोनों के मध्य कि, दोनों अगर एक पल के लिए भी बिछुड़ते थे तो उदास हो जाते थे. नितिन, रोमिका के साथ, कुमायूं मंडल के हरेक खुबसुरत स्थानों पर घूमता फिरा. रोमिका ने भी अपनी भविष्य की सारी आशाएं नितिन पर केन्द्रित कर दी थीं. रोमिका को अपने भावी जीवन का वह सहारा मिल गया था कि, जिसकी उसने अपनी परिस्थिति को देखते हुए, शायद सपने में भी कोई उम्मीद नहीं रखी होगी? लेकिन, उसका नितिन अब उसके पास सुरक्षित था. वह अब किसी अन्य की परवा तक नहीं करती थी. दिन-रात वह नितिन के ख्यालों को अपने मन में बसाए रहती थी. रोमिका चूँकि, पर्वती इलाकों की रहने वाली थी, सो उसने भी नितिन को पहाड़ों की हरेक सुंदर जगाहें दिखा दीं. नैनीताल, बागेश्वर, भुवाली, भीमताल आदि और वह उसके साथ अल्मोड़ा भी गया. दोनों, प्रेमी अक्सर ही साथ रहते थे. साथ खाना खाते, साथ ही बैठते, फिर प्यार की मीठी-मीठी, बातें करते हुए, अपने भविष्य के सुंदर सपनों में खो जाते थे.
नितिन, इस प्रकार फिर एक बार रोमिका को लेकर कौसानी आ गया. यहाँ भी वह अब फिर से डाक बंगले में रहने लगा था और रोमिका अपने पिता के उसी छोटे-से मकान में रहने लगी थी, जिसमें वह पहले रहती थी. इतने दिनों में, नितिन और रोमिका के इस अथाह प्यार की कहानी, वहां के लोगों से भी नहीं छिप सकी थी. सब ही इस जोड़े को जब एक साथ देखते, तो देखकर केवल मौन ही रह जाते थे.
नितिन इस प्रकार रोमिका को अपने साथ लेकर फिर एक बार कौसानी आ गया. नितिन तो डाक बंगले में रहने लगा और रोमिका अपने वही पुराने छोटे-से मकान में रहने लगी, जिसमें वह पहले रहा करती थी. सो इस तरह से कौसानी में रहते हुए दोनों को बहुत दिन हो गये. उनके प्यार की कहानी के पृष्ठों में बढ़ोतरी हुई तो दोनों के प्यार के किस्से, अब वहांके रहने वाले लोगों से भी नहीं छिप सकीं. सब ही इस प्रेमी जोड़े को अक्सर ही साथ देखते तो देख कर ही मौन हो जाते थे. कहने को तो किसी के पास कुछ अधिक था नहीं, पर यही सोचते थे कि, 'चलो, अच्छा ही हुआ, एक गूंगी, बेसहारा लड़की को, कोई तो हाथ थामने वाला मिल गया. इतने दिनों तक कौसानी में रहते हुए नितिन पर भी सब विश्वास करने लगे थे और धीरे-धीरे एक दिन दोनों का विवाह बाकायदा पहाड़ी परम्परा के अनुसार सम्पन्न कराने के इरादे, वहां के समाज और लोगों में होने लगे थे. एक प्रकार से नितिन और रोमिका; दोनों को ही आपस में अपना विवाह करने की अनुमति उनके समाज की तरफ से दी जा चुकी थी.
अब तक नितिन भी रोमिका को इतना अधिक प्यार करने लगा था कि, वह उसके बगैर जीवित रहने की कल्पना तक नहीं कर सकता था. यही दशा रोमिका की भी हो चुकी थी. वह भी नितिन को अपनी आँखों से एक पल के लिए भी अलग नहीं देखना चाहती थी. जब कभी भी नितिन उसको नहीं दिखाई दिया अथवा उस दिन नहीं मिला तो उसकी आँखों में आंसू छलक आते थे. दोनों का प्यार- प्यार की भावनाएं- भावनाओं में बसे हुए इरादे औए स्वप्न; इन सबका निचोड़ उनके प्यार की महानता और पवित्रता की साक्षी देता था. उनके इस प्रेम में कोई भी गन्दगी नहीं थी. वे वासना से दूर थे.
इतने दिनों तक अपने प्यार के पथ पर चलते हुए, नितिन रोमिका के मूक इशारों और उसके बात करने की भाषा को बखूबी समझने लगा था. रोमिका का बात करने का ढंग, उसके हाथों और अँगुलियों के संकेत, तथा वार्तालाप के समय उसके प्यारे मुखड़े के पल-पल में बदलते भावों को देखकर, नितिन की प्रसन्नता की कोई भी सीमा नहीं रहती थी. उसे रोमिका की यह बेजुबान भाषा बहुत ही प्यारी लगती थी. रोमिका अब अपने साथ एक पेन्सिल और छोटी-सी डायरी भी साथ रखने लगी थी, जिससे वह अपनी गूढ़ और कठिन बातों को लिखकर भी बता सके. नितिन को यह जानकर भी खुशी हुई थी कि, उसकी रोमिका पढ़ी-लिखी भी है. वह हाई-स्कूल पास थी. रोमिका ने नितिन को बताया था कि, वह हाई-स्कूल के बाद भी आगे पढ़ना चाहती थी, मगर उसके घर की आर्थिक परिस्थितियों ने उसे आगे बढ़ने नहीं दिया था.
नितिन और रोमिका का प्यार, इसी प्रकार दिन-दूना और रात-चौगुना की गति से परवान चढ़ रहा था. दोनों, हाथों में हाथ पकड़े हुए, पहाड़ों पर घुमते नज़र आते थे. वे कभी एकांत में चिनारों के तले बैठे होते. बैठ जाते तो घंटों तक उठने का नाम ही नहीं लेते थे. वे एक ही स्थान पर बैठे रहते- बैठे रहते, यहाँ तक कि, शाम ढलती और रात भी हो जाती, परन्तु उनकी बातें क्व्ही भी समाप्त नहीं हो पाती. प्यार की बातों का जब सिलसिला आरम्भ हो जाता है तो उसकी समाप्ति भी शीघ्र ही नहीं हो पाती है. यही दशा नितिन और रोमिका की भी थी. वे दोनों भी सारे-सारे दिन बातें ही करते रहते थे. यहाँ तक कि, वे अपने इस प्यार के तूफ़ान में अपना खाना-पीना तक भूल जाते थे. वे कभी कल-कल करते झरनों का शोर सुनते तो कभी पहाड़ों पर मचलते हुए बादलों में छिप जाते. कभी चीड़ और चिनारो के गगनचुम्बी वृक्षों के तले, उनकी ठंडी छाया में बैठे रहते.
तब उन्हीं दिनों, प्यार की पवित्र धाराओं के साथ बहते हुए, नितिन ने इन्हीं पहाड़ों की अपूर्व सुन्दरता का सहारा लेकर एक प्यारभरे गीत की रचना की थी. एक दिन उसने डाक बंगले के कमरे के एकांत में बैठकर एक गीत लिखा- रोमिका के लिए- जिसे उसने रोमिका को अपने समीप बैठाकर, बहुत ही प्यारभरे अंदाज़ में सुनाया भी. उस दिन नितिन रोमिका को बहुत दूर तक ले गया- कौसानी से लगभग एक किलोमीटर दूर तक- एक गिरते हुए झरने के पास, वे दोनों बैठ गये. रोमिका झरने के बहुत किनारे ही, एक पत्थर पर बैठ गई. बैठकर उसने अपने गोरे-गोरे पैरों को जल की शीतल धाराओं में तैरने के लिए छोड़ दिया. नितिन भी उसके पास ही, उससे सटकर बैठ गया और वह भी अपने पैरों को जल की धाराओं में डुबोकर हिलाने लगा. आस-पास और चारों तरफ पर्वतमालाओं की सुंदर छटा थी. दूर क्षितिज में पर्वतों की धरती आसमान को प्यार करने का प्रयत्न कर रही थी. ऊपर खुले आकाश में, पहाड़ों पर बादलों की आवारागर्दी देखने लायक थी. बादल भी जैसे बार-बार आकर चिनारों की चोटियों को चुपके से चूमकर भाग जाते थे. हल्की-हल्की वायु की शीतल लहरें नितिन और रोमिका के शरीरों को प्यार करती थीं और सिहरन छोड़कर खिसक जाती थीं. पास ही में गिरते हुए झरने के बर्फीले पानी की फुहारें रोमिका के लंबे बालों पर महीन-महीन मोतियों समान चमकती हुई आकर बैठ गईं थी.
आकाश में अभी-भी बादलों के लापरवा टुकड़े इतराकर इधर-उधर टहलते हुए दिखाई दे रहे थे. वातावरण अति सुंदर था- दृश्य मनमोहक- रोमिका और नितिन, अभी तक झरने के किनारे बैठे हुए, जल के गिरते हुए झरने का संगीत सुन रहे थे. दूर-दूर तक, उनको चुपचाप देखती हुई चट्टानें भी मानों उनका स्वागत कर रही थीं.
'रोमी !' नितिन ने ख्यालों में खोते हुए कहा.
'?'- रोमिका ने बैठे-बैठे ही अपना सिर घुमाते हुए नितिन को देखा.
'कितना सुंदर दृश्य है? सचमुच तुम्हारा देश बहुत ही प्यारा और सुंदर है.'
'रोमिका ने मुस्कराकर अपनी गर्दन हां में हिलाई तो नितिन उसके सुंदर और बर्फ के समान सफेद दांतों की दोनों कतारों को देखता ही रह गया.
फिर उसने आगे कहा कि,
'कभी-कभी मेरा मन करता है कि, अब यहाँ से कभी भी न जाऊं.'
'?'- रोमिका ने अपनी मौन भाषा में हाथ की अंगुली के इशारे से, नितिन से इसका कारण पूछा तो वह बोला कि,
'इसलिए कि, ये ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ों पर बादलों का साया, यह झरनों का शोर, शोर में हमारे-तुम्हारे प्यार का संगीत, इस संगीत में भी, कोई रचता हुआ गीत? ऐसी बहुमूल्य सुन्दरता के सामने किसका मन यहाँ से वापस जाने के लिए करेगा?'
'!!'- रोमिका बहुत खामोशी से उसकी एक-एक बात को सुनती रही.
तभी नितिन ने उससे कहा कि,
'देखो ! रोमी.'
?'- रोमिका ने उसे निहारा.
'पहाड़ों से गिरते हैं झरने.'
'?'- रोमिका ने उसे गंभीरता से देखा.
'गिरते हैं न?' नितिन ने उससे पूछा.


'!!'- रोमिका ने मुस्कराकर अपनी हांमी भरी.
'झरनों में बहता पानी.'
'?'- रोमिका ने उसे फिर से देखा.
'बहता है?'
रोमिका ने फिर मुस्कराकर अपनी हांमी भरी.
'बागों में फूल प्यारे.'
'?'- खामोशी.
'हैं न?'
नितिन ने पूछा तो रोमिका ने प्यार के भावावेश में अपना सिर नितिन की गोद में रख दिया. सिर रखे हुए वह नितिन की काली आँखों में देखती रही- लगातार- नितिन ने तब अपनी राग और आवाज़ में उसको अपना लिखा हुआ यह सम्पूर्ण गीत सुनाया. वह अपनी प्यारभरी आवाज़ में गाने लगा;
'पहाड़ों से गिरते हैं झरने,
झरनों में बहता पानी,
बागों में फूल प्यारे
फूलों में अपनी कहानी,
चिनारों से लिपटते बादल
करते हैं बातें प्यारी,
कलियों पे बैठी शबनम
सुनती है धड़कनें हमारी,
पहाड़ों से गिरते हैं झरने
झरनों में बहता पानी. . .'
गीत सुनते-सुनते रोमिका ने अपनी आँखें बंद कर ली थीं. नितिन ने भी बहुत आहिस्ते से अपने कपोल उसके सिर के बालों पर रख दिए. फिर उसने भी अपनी आँखें बंद कर लीं. दो प्रेमी- दो दिल- दो दिल की धड़कनें- दो प्रेम-पथ के राही; सारे ज़माने से लापरवा बनकर अपने भावी जीवन के सपनों के महल खड़े करने में व्यस्त हो चुके थे.
दूर पहाड़ों के पीछे सूर्य का गोला लाल होकर धीरे-धीरे नीचे खिसकता जा रहा था. संध्या अपना बदन समेटने लगी थी और नितिन व रोमिका दोनों ही प्यार के सुखद सपनों के आनन्द में मानो विलीन होते जा रहे थे.
नितिन ने थोड़ी देर बाद अपनी आँखें खोलीं तो देखा रोमिका अभी भी अपनी पलकें बंद किये हुए, बहुत ही निश्चिंतता के साथ उसकी गोदी में अपना सिर रखे हुए थी. नितिन उसको अपलक देखता रहा- बहुत देर तक- पहाड़ों से नीचे गिरते हुए झरने का शीत जल बार-बार उनके पैरों में गुदगुदी उत्पन्न कर रहा था. तभी नितिन ने रोमिका को धीरे से कहा कि,
'रोमी !'
'?'- रोमिका ने तुरंत ही अपनी आँखें खोलकर उसे देखा.
'तुम बहुत ही सुंदर हो. सच, मैं तुम्हारी इस सुन्दरता के बगैर अब नहीं रह सकूंगा- कभी-भी नही. तुम मुझे छोडकर मत जाना. नहीं तो मैं इस भरे संसार में तन्हा जी नहीं सकूंगा.'
'?'- रोमिका ने तुरंत ही उसके होठों पर अपनी अंगुलियाँ रख दी. जैसे कह रही हो कि, ऐसी मनहूस बातें अब कभी मत करना. नितिन ने भी उसके हाथ को प्यार कर लिया

रोमिका और नितिन बैठे रहे. इसी तरह से. एक दूसरे की आँखों में देखते रहे. दोनों में से किसी एक का भी मन अलग होने को नहीं करता था. कोई भी, किसी को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता था. ऐसा था उन दोनों का प्यार- उनके प्यार के पहले-पहले रास्ते- वे मार्ग कि, जिन पर अभी थोड़े समय पहले ही उन्होंने चलना आरम्भ किया था और अभी तक उनका रुकने का मन ही नहीं करता था.
दूर पहाड़ों की पीठ के पीछे सूर्य की अंतिम लालिमा ने सांस भी न जाने कब की तोड़ दी थी कि, अब संध्या डूबते-डूबते रात्रि में बदल चुकी थी. सारे कौसानी के आस-पास के मकानों में विद्दुत का प्रकाश जगमगा उठा था और चहल-कदमी करते हुए बादलों का शाम का धुंआ भी दिखना बंद हो चुका था. मगर, प्यार के इन दो दीवानों को किसी भी बात का तनिक होश तक नहीं था. कोई परवा भी नहीं थी. प्यार के इस अनमोल सागर में डूबकर, न तो उनकी बातें समाप्त होती थीं और न ही वे अलग होना चाहते थे. नितिन और रोमिका को उस मधुर झरने के किनारे बैठे हुए इतनी अधिक देर हो गई कि, रात के चमकते हुए चन्द्रमा ने भी उठकर उन दोनों को चुपके से देख लिया. पहाड़ों पर चांदनी का दूध भी अब उफानें भरने लगा था और कुछ ही पलों के पश्चात चन्द्रमा का झाग, पहाड़ों, चट्टानों तथा वहां के सम्पूर्ण इलाके पर भरे हुए दूध के समान लुढ़क गया. कुछेक वृक्षों की घनी पत्तियों के मध्य से चन्द्रमा की नादान किरणें छन-छनकर आने लगी थीं. परन्तु, अपने प्यार के आगोश में, अपने दिल के ज़ज्बातों से लिपटे हुए, नितिन और रोमिका फिर भी अपने स्थान से नहीं उठे. नितिन, रोमिका से बातें करता रहा. झरने का शोर भी, रात की खामोशी में अपनी कल-कल की आवाजें सुनाता रहा- वातावरण में रात की खामोशी, सन्नाटों के सहारे धीरे-धीरे अपने पग आगे बढ़ाती रही.
रात पड़ने लगी थी और रात की बढ़ती हुई इस ठंडक ने रोमिका और नितिन को पहले से और भी अधिक पास आकर सटकर बैठने को विवश कर दिया था. वे दोनों अभी भी बैठे थे और उनके दिलों की धड़कनें आपस में एक-दुसरे के दिल की बातों को सुनते हुए उन्हें और भी पास आने को मजबूर कर रही थीं कि तभी अचानक से कहीं पास ही में, धूर गोले की फटती हुई धमाकेदार आवाज़ ने आस-पास के सारे इलाके को गुंजित कर दिया. गोला अचानक से फूटने के कारण एक बार तो रोमिका और नितिन, दोनों ही चौंक गये. रोमिका तो भयभीत होकर नितिन से लिपट गई. परन्तु जब थोड़ी ही देर में शहनाइयों की आवाजों ने पहाड़ों के बदन पर बिखरना आरम्भ किया तो उनको समझते देर नहीं लगी; शहनाइयों के संगीत के साथ-साथ ढोल और नगाड़ों का शोर भी उस वातावरण में मिश्रित हो गया. वे समझ गये थे कि, किसी बरात की खुशी में ये नगाड़े बज रहे थे- कोई अपनी दुल्हन को लेने जा रहा था. रोमिका ने सुना तो वह चुपचाप सुनती रही. शहनाई की हरेक गूंज ने उसके दिल को, उसके भावी जीवन के आनेवाले सपनों से भर दिया. उसने तुरंत अपनी आँखें बंद कर लीं और एक सपना देखा- अपने खुद के दुल्हन बनी होने का सपना- सोचते हुए रोमिका स्वयं में ही लजा गई. नितिन भी उसकी एक-एक मुद्रा को देख रहा था. रोमिका उसकी गोद में थी.
'रोमी !' नितिन ने उसे आवाज़ दी.
'?"- रोमिका ने उसकी आँखों में झांका.
'तुम बहुत अच्छी हो.' कहते हुए नितिन ने चांदनी के मद्दिम प्रकाश में रोमिका की आँखों में झांका. फिर से कहा कि,
'तुम बहुत अच्छी हो.'
कहते हुए नितिन ने चांदनी के प्रकाश में रोमिका को देखा- वह अपने मुखड़े को रोमिका के बहुत करीब ले आया. दोनों एक पल एक-दूसरे को देखते रहे- लगातार- नितिन रोमिका के होठों पर अपने हाथ की अंगुली से उसका ही नाम, 'रोमिका' लिखने लगा.
'बहुत सुंदर. अति सुंदर. मैं तुम्हारे इस सौंदर्य को हमेशा संभालकर रखूंगा.' वह भावनाओं के तूफ़ान में बोला.
रोमिका ने भी भावुकता में नितिन के हाथ को पकड़कर अपने गाल के नीचे दबा लिया. बाद में उसके हाथ पर अपना एक छोटा-सा चुम्बन भी अंकित कर दिया. नितिन ने देखा तो मारे प्रसन्नता के वह जैसे जीवन की अपार खुशियों से सराबोर-सा हो गया. रोमिका के असीम प्यार की कल्पना के एहसास मात्र से ही उसके हृदय में आने वाले भविष्य के सपनों के पुष्प झरने लगे. प्यार के भयानक तूफ़ान की चपेट में आकर नितिन ने रोमिका को अपने बाहुपाश में कैद कर लिया. उसके होठों पर अपने होठ रख दिए. गर्म साँसों के आदान-प्रदान में दोनों एक-दूसरे में लिप्त हो गये. दो हृदय एक हो गये- मिल गये- दो शरीर, दो प्यार से भरी हुई आत्माएं, संयुक्त हो गईं. प्यार के इस तूफ़ान में दोनों ही भटकते हुए और भी अधिक पास आ गये- अब शायद कभी-भी दूर न होने के लिए? चन्द्रमा भी दोनों के इस मिलन को देखते हुए शरमाकर चुपचाप एक बदली की ओट में जाकर छिप गया.
वातावरण चुप था- बहुत ही अधिक शांत भी. दूर अब किसी घाटी की शरण में जाकर बरात के नगाड़े बज रहे थे- शहनाइयों की गूँज अब मानों चीखती हुई आसमान के बंद दरवाज़ों से जाकर टकराने लगी थीं. एक ओर सजी हुई बरात के साथ, कोई दुल्हन अपने प्रीतम के साथ अपनी सुहागरात के सपने देख रही थी तो दूसरी तरफ बिना साज और श्रृंगार के दो दिल सदा-सदा के लिए एक हो चुके थे. एक तरफ खामोश प्यार की धड़कनें थीं तो दूसरी ओर किसी की बरात के नगाड़ों की धूम- पहाड़ी इलाके का वह सारा सौंदर्य भी सिमटकर खामोशी का बुत बन गया था जो अपनी हसरतों के ताज के समान, इस भरपूर चांदनी के झाग में नहाया करता था.
प्यार के प्रथम चरण के वह फिसलन भरे रास्ते, जिन पर हरेक प्रेमी को संभाल-संभालकर अपने पग रखने चाहिए और जिन पर चलकर प्रेमी अक्सर भटक जाया करते हैं- लड़खड़ाते हुए गिर पड़ते हैं- एक भावनाओं के तूफानी झोंके में अपना सब कुछ खो बैठते हैं- डगमगाते हुए अपने होश से बेखबर हो जाते हैं- रोमिका और नितिन भी अपने आपको नहीं बचा सके थे. खुद को संभाल नहीं सके थे. नितिन ने अपना प्यार रोमिका को दिया था तो रोमिका ने भी उसके प्यार के सागर में डूबकर अपना सब-कुछ उसे सौंप दिया था. अपना प्यार, प्यार के सारे तोहफे, अपनी हसरतें और अपने भावी जीवन के सारे सपने उसने नितिन की गोद में दांव पर रखकर लगा दिए थे. आज उसने अपना सारा कीमती जीवन नितिन को सौंप दिया था. उसके पल-दो-पल की खुशियों ने जीवन भर की खुशियों का एहसास कराकर उसे आने वाले दिनों की रूप-रेखा के वे सारे सपने दिखा दिए थे कि, जिनके पूरे होने की आस में वह एक-एक दिन को अब गिन-गिनकर रखा करेगी. वह क्षण भर की तृप्ति और मुस्कान से भरी बातें, जो कभी रुलाती हुई ज़िन्दगी की खामोश घुटन भी बन सकती हैं? वह पल भर का सहारा, जो कभी उसका साथ भी छोड़ सकता है? और वे प्यार के मदहोश में डूबी हुई, महकी-महकी दिल की आस्थाओं की कतरनें, जो एक दिन जीवन भर के आंसुओं का आयना भी बन सकती हैं; उनकी वास्तविकता से अनजान बनकर रोमिका ने अपना सारा कुछ, अपने प्यार की इस छोटी-सी दूकान में आज सजाकर रख दिया था- नितिन को अपने जीवन का सहारा ही नहीं बल्कि, एक प्रकार से अपना होनेवाला पति मानकर उसे अपना सब-कुछ दे चुकी थी. दे चुकी थी- अपने प्यार का कतरा-कतरा- अपना दिल- दिल के सारे ज़ज्बात और हसरतें- अपने भावी जीवन के समस्त सपने और अपना बदन भी. मात्र नितिन के प्यार और विश्वास के आधार पर ही, वह अपनी लक्ष्मण-रेखा पार कर चुकी थी. 















12
समय इसी प्रकार से आगे बढ़ता रहा. रोजाना दिन निकलता और संध्या को अपना दम तोड़ देता. फिर रात हो जाती और वह भी शबनम के मोती खैरात में देकर, सुबह होते ही चली जाती. रोमिका और नितिन आपस में मिलते रहे. वे प्यार की बातें करते थे- सारा जीवन एक-साथ बिताने की कसमें खाते थी. कभी भी एक-दूसरे से जुदा होने की कल्पना तक नहीं करते थे.
अभी तक उनका साथ केवल दिन के उजाले में होता था, परन्तु अब तो मानो सारे जीवन का हो चुका था. अपने प्यार की बातें करने आये गीत गाने के लिए, वे नित दिन कोई-न-कोई नया स्थान चुनते- किसी एकांत की तलाश करते- फिर भी उनकी भेंट उस घाटी के मुहाने पर होती, जहां पर वे आपस में पहली बार मिले थे. और जो उनके जीवन की एक कभी-भी न भूलने वाली यादगार बन चुकी थी. फिर एक दिन नितिन डाक बंगले के बाहर पड़ी हुई बैंच पर बैठा हुआ उन बातों के विषय में सोच रहा था जो उसने रोमिका के साथ एक बड़े पत्थर पर बैठकर पिछले दिन की शाम को की थीं.
इस वक्त सुबह का भीगा-भीगा मौसम था. लगता था कि, सारी रात आकाश से ओस ही गिरती रही थी. आकाश पर निचुड़े हुए बादलों की पतली-पतली परतें-सी बिछी हुई थीं. डाक बंगले के लॉन में लगे हुए फूलों तथा कमसिन कलियों के होठों पर बड़ी बेदर्दी से बैठी हुई ओस की चमकती हुई बूँदें सूर्य की कमजोर रश्मियों को नमन कर रही थीं.
नितिन के ख्यालों में बिताई हुई पिछले एक दिन की शाम की यादें थीं. वह उस संध्या की हरेक बात को फिर से याद कर लेना चाहता था. उसकी हरेक स्मृति में वह तड़प थी जो रोमिका की अनुपस्थिति के कारण उसके दिल-ओ-दिमाग में भर चुकी थी. एक बादल के टुकड़े की आवारागर्दी को देखते हुए जब उसने रोमिका से कहा था कि,
'रोमी !'
'?'- रोमिका ने हमेशा की तरह उसको देखा.
'तुम बांसुरी तो बहुत ही प्यारी बजाती हो? क्या ही अच्छा होता जो तुम्हारी आवाज़ भी इतनी ही प्यारी होती.'
'?'- रोमिका सहसा ही चौंक गई. ये नितिन ने क्या कह दिया? तड़पते हुए, परेशान होकर उसने नितिन को देखा. फिर जब उससे कुछ भी बनते नहीं बन सका तो अपने होठों पर मजबूरी का हाथ रखते हुए, नितिन की तरफ से मुंह फेरते हुए दूसरी तरफ देखने लगी.
'उदास हो गईं?'
'?'- रोमिका ने फिर भी उसकी ओर नहीं देखा तो नितिन ने न जाने क्या सोचते हुए उससे फिर कहा कि,
'रोमी ! तुम्हारे इस फूल से सुंदर चेहरे पर यूँ उदासी अच्छी नहीं लगती है. फिर मेरी उपस्थिति में तुम्हें उदास होना भी नहीं चाहिए.'
'?'- रोमिका ने तब उसकी आँखों में जैसे झांकते हुए कुछ पढ़ना चाहा. वह अपने हाथों से उसका मुख उठाकर उसकी आँखों में एक प्रश्नात्मक दृष्टि से देखने लगी.
'अच्छा अब मुस्करा दो. एक बार- प्लीज.'
नितिन ने अनुरोध किया तो रोमिका ने मुस्कराते हुए अपने सफेद मोतियों समान दांत दिखा दिए. नितिन को लगा कि जैसे अचानक ही उसे हीरे-जवाहरात का ढेर मिल गया है.
इसके बाद फिर कोई भी कुछ नहीं बोला. वे दोनों खामोश हो गये. रोमिका ने बहुत अपनेपन से अपना सिर नितिन के कंधे पर रख दिया. दोनों ही अपने-अपने दिलों में सोचने लगे. सोचते हुए रोमिका दूर घाटियों की गहराइयों में लापरवाही से इठलाते हुए बादलों के धुएं को देखने लगी. तब तक नितिन भी एक ओर पलटकर अपने विचारों में भटक गया. कुछ देर के बाद नितिन ने रोमिका को निहारा- वह पेन्सिल से अपने कॉपी पर कुछ लिखने का प्रयत्न कर रही थी. नितिन उसको जिज्ञासापूर्वक देखने लगा तो रोमिका ने उसको निहारा. नितिन उससे बोला कि,
'लिखो न. क्या लिख रही थीं?'
तब रोमिका ने नितिन की तरफ देखते हुए उससे लिखते हुए प्रश्न किया कि,
'कह दूँ क्या?'
'हां. . .हां, मुझसे नहीं कहोगी तो फिर किससे कहोगी?' नितिन बहुत उत्सुकता से बोला.
तब रोमिका ने फिर से लिखा कि,
'मैं बोल भी सकती हूँ.'
'सच?' नितिन के शरीर में मानों हजारों चाँद आकर अटक गये.
- रोमिका ने खामोशी से अपनी गर्दन हां में हिलाई, तो नितिन उससे बोला कि,
'तो फिर बोलो न? बोलती क्यों नहीं हो? मैं तो तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए न जाने कब से तरस रहा हूँ.'
'अभी नहीं.'
रोमिका ने फिर से लिखा.
'क्यों? नितिन ने आश्चर्य प्रगट किया.
तब रोमिका ने आगे लिखा कि,
'क्योंकि, मैंने अभी छः महीने का मौनवृत रखा हुआ है. यह यहाँ की रीति है कि, लड़की अपना अच्छा वर पाने के लिए छः महीने का मौनवृत रखती है. जब मेरे छः माह पूरे हो जायेंगे तब मैं उस दिन अपनी पूजा के बाद शाम के समय अपना वृत तोड़ दूंगी. यही कारण है कि, मैं अपनी आवाज़ तुमको सुनाने में असमर्थ रही हूँ.'
'?'- नितिन दिल ही दिल में रोमिका के द्वारा लिखे हुए अक्षर पढ़कर ही रह गया. एक संशय और आश्चर्य के साथ कभी वह रोनिका को देखता तो कभी कॉपी पर उसके द्वारा लिखे हुए अक्षरों को एक ही सांस में पढ़ जाता. कुछेक क्षणों तक उसकी समझ में नहीं आया कि, वह हंसे अथवा रोये? परन्तु नही! सच्चाई उसके समक्ष थी. रोमिका उससे झूठ नहीं बोल सकती? अगर वह बोल सकती है तो बोलेगी. वह तो केवल अपने वृत के कारण कुछ निश्चित समय के लिए बे-आवाज़ है. सोचते-सोचते नितिन के दिल में खुशियों के ढेर लग गये. मन में जैसे रजनीगन्धा के सैकड़ों फूल महक उठे. बागों में लगी हुई सारी कलियाँ चटक गईं. उसने प्रसन्नताओं के ढेर-के-ढेर देखते हुए, खुद पर काबू ना पा सकने के कारण, रोमिका को अपने अंक में भर लिया. अपना समझ कर- रोमिका को अपने गले से लगाकर वह कहने लगा कि,
'रोमी- मेरी रोमिका ! तुमने मुझसे यह सब पहले क्यों नहीं कहा था? काश: तुम पहले से मुझसे अपना भेद प्रगट कर देतीं तो मैं क्यों इतने दिनों तक तुम्हारी आवाज़ न होने के कारण गम और विषाद में अपने आंसू बरबाद करता रहता? रोमी ! तुम तो मेरी हो- केवल मेरी- तुम मेरा सब कुछ हो. मेरा प्यार, दिल और ज़िन्दगी भी.'
उस दिन नितिन बहुत ही अधिक खुश रहा. मन-ही-मन मुस्कराता रहा. वह रोमिका का हाथ थामे हुए सारे दिन घूमता रहा. उससे अपने सुनहरे आने वाले भविष्य की प्यारी-प्यारी बातें करता रहा. इतना अधिक वह प्रसन्न था कि, उसका मुख था कि बंद होने का नाम ही नहीं लेता था. रोमिका की आवाज़ पाने की खुशी में, उसको मानो जीवन भर की मुस्कान मिल गई थी. परन्तु रोमिका फिर भी बहुत खामोश थी. बिलकुल गुमसुम-सी, चुप- मूक चांदनी के समान. यूँ भी वह तो मौन ही रहती थी. शायद मौन रहना ही उसकी किस्मत थी. एक तो अपनी आवाज़ खो जाने के कारण, परन्तु उस दिन रोमिका के चेहरे पर एक अजीब-सी, विशेष चुभन थी. उसके चेहरे पर वह मुस्कान और उमंगे और चंचलताएँ नहीं थी जो हर समय उसके सफेद गुलाब के खिले फूल जैसे मुखड़े पर विराजमान रहती थीं. लगता था कि, उसके दिल में कोई खामोश चुभता हुआ दर्द था. जैसे उदासी और निराशा के घिरे हुए बादल फिर उसके सिर पर काले साए के समान मंडला उठे थे.
नितिन ने उसकी इस मूक उदासी को महसूस किया तो उसने रोमिका से पूछा भी, परन्तु वह शीघ्र ही इसे बड़ी सहजता से टाल भी गई. तब नितिन भी चुप हो गया. उसने रोमिका को फिर अधिक कुरेदना अच्छा नहीं समझा. यही सोचकर वह चुप हो गया कि, कहीं वह और भी अधिक उदास न हो जाए. उसका दिल कहीं और भी अधिक दर्द से न भर जाए. वह तो उसके सारे जीवन का प्यार थी- जीवन का एक ऐसा उपहार जो उसे भाग्य से ही मिला था. उसको तो वह अपनी आत्मा से भी अधिक बहुमूल्य समझता था. तभी वह रोमिका को हर समय हंसता-मुस्कराता हुआ देखना चाहता था. खिला-खिला, फूलों समान- वैसे भी फूल सदैव ही खिले ही अच्छे और भले लगते हैं. खिले हुए फूलों को लोग दिल से लगाना चाहते हैं, पर कुम्हलाये फूलों पर तरस खाया जाता है. गले में डाले हुए फूल गलियों और सड़कों पर फेंक दिए जाते हैं- अर्थी पर रखे हुए फूलों को कोई भी दोबारा छूना भी नहीं चाहता है- रोमिका तो एक जीवित, खिला हुआ फूल थी, नितिन के दिल का चैन- वह उसे कैसे नकार सकता था? वह बे-आवाज़ थी, पर उसकी खामोशी में भी, नितिन के लिए उसके जीवन भर की मधुर झंकारें थीं. उसमें खुशबू नहीं थी, फिर भी वह फूलों की रानी थी- महलों की मलिका.
संध्या घिर आई तो क्षितिज में सूर्य की अंतिम बची हुई किरणों की लाली ने बादलों की मांग में सिन्दूर भर दिया. नितिन एक एकांत स्थान में पत्थर का सहारा लेकर बैठ गया. रोमिका भी उसके करीब ही उसके बदन का सहारा लेकर बैठ गई. दोनों ही चुप थे. कनखियों से एक-दूसरे को देखते फिर जैसे नज़रें नीची कर लेते थे. रोमिका ने चुपचाप अपना सिर नितिन के कंधे पर रख दिया था. वातावरण की खामोशी ने जैसे उनकी भी जुबान छीन ली थी. दोनों, बड़ी देर तक मौन बैठे रहे.
रोमिका ने कुछेक पलों के बाद नितिन से लिखकर उसकी मौनता का कारण पूछा,
'तुम यूँ चुप क्यों हो?'
'ऐसे ही.' नितिन का उत्तर बहुत छोटा था.
'?'- रोमिका ने अपने हाथ की अंगुली को घुमाकर इशारे से उसके मौन रहने का कारण पूछा तो नितिन काफी देर के बाद बोला कि,
'सोच रहा था.'
'?'- रोमिका ने इशारे से कहा कि,
'क्या?'
'मेरे दिल में एक बहुत बड़ा भेद है जिसे मैंने तुमको आज तक नहीं बताया है.'
'?'- क्यों, क्या?' रोमिका अचानक ही जैसे विस्मित हो गई. तुरंत ही उठकर वह नितिन के सामने आकर खड़ी हो गई और एक भेदभरे ढंग से, संशय के साथ उसको देखने लगी.
'छोड़ो ! मैं भी क्या ले बैठा?'
नितिन ने टालने की चेष्टा की तो रोमिका ने अपने दोनों हाथों से उसे धक्का मारते हुए परे किया फिर दूसरी ओर अपना मुख करके खड़ी हो गई. चुपचाप- नाराजी की लाली उसके चेहरे पर तुरंत ही झलक आई थी. मगर नितिन को रोमिका के नाराज़ होने का यह अंदाज़ बहुत भला लगा. रोमिका का यह नया, खामोश, प्यार से भरा, नाराज़ होने का ढंग नितिन के दिल में मुस्कानों के तीर समान उतरता चला गया. वह उठकर रोमिका के पास आया. फिर अपने दोनों हाथ उसके कंधों पर रखते हुए बोला,
'नाराज़ हो गईं?'
'?'- रोमिका ने तुरंत अपना सिर हां में हिला दिया.
'अच्छा, बताता हूँ. आओ, वहां पर बैठकर.'
कहते हुए नितिन रोमिका का हाथ पकड़कर, एक अच्छे से साफ़ स्थान पर बैठ गया. रोमिका भी जैसे सुनने के लिए उत्सुक हो चुकी थी. तब नितिन ने रोमिका को एक बार देखा, फिर शुरू हुआ,
'रोमी, तुम्हें तो मालुम ही है कि, मैं घर से तुम्हारे अथाह प्यार के कारण, बगैर किसी को भी बताकर यहाँ तुम्हारे पास आया था. याद है न?'
रोमिका ने चुचाप अपना सिर हिलाया.
'मैं क्यों चुपचाप आया था? इसका भी एक कारण है. एक बड़ा हादसा मेरे साथ उस समय हुआ था, जबकि मैं उतना समझदार भी नहीं हुआ था जैसा कि मुझे होना चाहिए था. तुम शायद ऐसा कभी सोच भी नहीं सकती हो? मैं जब बहुत छोटा था तो मेरे पिता जी ने मेरी नादानी का लाभ उठाते हुए बचपन में ही मेरा विवाह कर दिया था.'
'?'- रोमिका के सिर पर अचानक से पहाड़ गिर पड़ा. उसे लगा कि नितिन ने अचानक ही उसके दिल में कोई तेज धार की खुखरी भोंक दी हो. एक गहरी-सी टीस उठकर उसके दिल के आर-पार चली गई. किसी तरह उसने अपने आपको संभाला और आगे को चुपचाप सुनने लगी,
'मैं, जब यहाँ से अपने घर फतेहगढ़ गया तो तुम्हारे प्यार एहसासों में वहां उदास रहने लगा था. इस पर मेरे पिता जी ने शीघ्र ही मेरी पत्नी की विदा करा ली. तब मेरी पत्नी मौनता मेरे घर आ गई.'
'?'- रोमिका की नीली आँखों में बेबसी के आंसू छलक आये. वह बोल नहीं सकती थी, फिर भी उसके दिल का दर्द, तेज किसी फटे हुए बादल के समान आँखों में बरस पड़ा था. आँखें गीली हो चुकी थीं. रोमिका कह भी क्या सकती थी? वह अपने दिल पर क्षोभ और विछोह के मध्य, मजबूरियों का एक भारी पत्थर रखकर आगे सुनने लगी;
'जब मैं रात को मौनता से बातें कर रहा था तो उसकी एक बात थी जो तुमसे बहुत-बहुत मिलती थी और जिसकी बजह से तुम मुझे बार-बार याद आ रही थीं. जब भगी उससे बात करता था तो तुम मुझे हर बार याद आती थी, क्योंकि मैं ही बोल रहा था और वह केवल सिर हिलाकर ही हां और न में उत्तर देने की कोशिश करती थी. वह भी तुम्हारी तरह इशारों में बात करती थी. तुम्हारी ही तरह उसके भी इशारे थे. खामोश हरकतें थीं. मैं उसको देखकर बार-बार आश्चर्य से चौंक रहा था. फिर मैंने भेदभरे ढंग से, एक संशय के साथ उससे मुंह से बोलने को कहा और न बोलने का कारण पूछा तो देखकर दंग रह गया- उसके भी मुख में, तुम्हारी तरह से आवाज़ नहीं थी. वह जन्म से ही गूंगी थी. यही कारण था कि, मैं उसको सदा के लिए छोड़ कर तुम्हारे पास आ गया हूँ.'
'?'- रोमिका के हसरतों से भरे कोमल दिल पर अचानक ही छाले पड़ गये- आँखों में आंसू भर आये- गला भर आया- दिल का दर्द चेहरे पर उदासी की घनघोर घटा के समान आकर छा गया- वह रोने-रोने को हो आई- फिर जब नहीं रहा गया तो वह सिसकियाँ लेने लगी- सिसकियों के मध्य ही उसने अपना सिर नितिन के कंधे पर रख दिया- इस प्रकार कि उसके लंबे बालों का रिबन भी खुलकर, उसके सारे बाल, नितिन की पीठ से फिसलते हुए, जिस पत्थर पर वे बैठे थे, उस पर बिखर गये.
रोमिका फूट-फूटकर रो पड़ी- न जाने क्यों? दिल का ऐसा कौन सा दर्द था कि, जिसने उसका जैसे कलेजा चीरकर आंसू तक निकाल दिए थे. नितिन भी कुछ अधिक नहीं समझ सका. जहां तक अनुमान था, रोमिका भी जैसे सोचती होगी कि, क्यों वह इस लड़के के प्यार में फंस गई? क्यों वह इस पर मरमिटी? क्यों यह लड़का इसके जीवन में आ गया औरों के समान क्यों यह भी छली निकला? ये तो आरम्भ से ही पराया था? पहले ही से बिका हुआ? एक बिका हुआ इंसान कैसे उसके प्यार का ग्राहक बन सकेगा? नितिन, नितिन नहीं पर दूजा है? कितना विश्वास किया था उसने इस पर? अगर विश्वास भी किया था तो क्यों वह इसके इतना अधिक समीप चली आई? समीप भी आई थी तो क्यों वह इस पर अपना सब-कुछ लुटा बैठी है? अब वह कहाँ जाए, कहाँ जाकर मर मिटे? क्या इस पर्वतमंडल की सारी गहरी-गहरी घाटियाँ इसीलिये विधाता ने बनाई हैं कि, हर प्यार में धोखा खाई हुई लड़की इन घाटियों में जाकर डूब मरे? सोचते हुए रोमिका ने नीचे जाती हुई घाटी में निहारा तो वहां उड़ते हुए लावारिस बादलों के काफिले देखकर उसका दिल काँप गया.
तभी नितिन ने रोमिका के मन की दशा से अनभिज्ञ होकर उससे कहा कि,
'लेकिन, तुम क्यों रोती हो? मुझे तो खुशी है कि, तुम मेरी पत्नि के समान बे-आवाज़ नहीं हो. तुम तो बोल सकती हो- आज नहीं, कल तुम जरुर ही बोलोगी.' यह कहते हुए नितिन रोमिका के बालों में अपनी उँगलियों से कंघी करने लगा. मगर रोमिका रोती रही- आंसू पोंछती रही- बहुत देर तक- और शायद नितिन उसके दर्द से वाकिफ नहीं था. अगर था भी तो अनजान बनने की कोशिश कर रहा था. लेकिन, रोमिका की आँखों के आंसू, उसके इन आंसुओं का दर्द, क्यों उसकी पलकों का द्वार खोलकर बाहर उमड़ पड़ा था? इस भेद को कोई नहीं जान सका था. नितिन भी नहीं- शायद कोई भी नहीं? केवल रोमिका के अतिरिक्त, कोई भी उसके दिल के आंसुओं का भेद नहीं जानता था.
नितिन, रोमिका को बहुत देर तक समझाता रहा. उसने उससे मीठी-मीठी, तसल्ली भरी बातें कीं. उसे अपने प्यार का विश्वास दिलाया. परन्तु फिर भी रोमिका के चेहरे की उदासी समाप्त नहीं हो सकी थी. उसकी आँखों के आंसू तो नितिन ने पोंछ दिए थे, लेकिन दिल में भरा हुआ दर्द, वह नहीं रिक्त कर पाया था. रोमिका उस दिन और इन बातों के बाद वह उदास ही रही- खामोश- उसकी सदैव मौन रहनेवाली जुबान में आज जैसे दिल की भरपूर खामोशी भी शामिल हो गई थी. इन प्यार की खामोश खुशियों में आज उसकी गोद में, जैसे उसके जीवन-भर का दर्द समा गया था. वह प्यार की पहली-पहली खुशियाँ, जो उसको मुस्कानों का वास्ता देकर, उसके होठों पर आई थीं, एक पल में ही जैसे सारी उम्र का गम देकर चलती बनी थीं. लगता था कि, जैसे हमेशा के लिए अपना स्थान छोड़कर चली भी गई थीं. 
13
अपने समय से पहले ही हुई शाम, आकाश में बैठे हुए बादलों का सहयोग लेकर अपनी धुंध का लबादा ओढ़कर घिर आई थी. वह शाम उदास हो गई. रोमिका जी-भरकर उदास बनी रही. रोमिका का दुःख से भरा मुखड़ा देखकर वातावरण भी जैसे बोझिल हो गया था. उदास वातावरण का रोता हुआ मुख देखकर, जब अन्धेरा-सा छाने लगा तो चन्द्रमा ने भी अपनी झलक तक नहीं दिखाई थी. आकाश में घने-घने काले बादल न जाने कहाँ से आकर आने वाली वर्षा की बारात सजाने लगे थे. रोमिका अभी-भी नितिन के पास ही बैठी हुई थी. उसने जब आकाश की तरफ देखा तो अपने हाथ से नितिन का चेहरा ऊपर करते हुए आकाश से होनेवाली वर्षा की चेतावनी दी. नितिन ने आकाश में देखा तो उठने के बजाय उसने रोमिका को अपने अंक में जैसे दबोच लिया, मगर रोमिका ने उसको फिर से वर्षा होने की चेतावनी दी. मगर वह नहीं उठा तो वर्षा तो होनी ही थी, वह होने लगी.
नितिन और रोमिका अपने ही स्थान पर बैठे रहे. वे दोनों कहीं भी नहीं गये. अब तक वर्षा का प्रकोप भी बढ़ चुका था. रात भी हो चुकी थी. उस सारी रात वर्षा होती रही. रात भर पर्वत, चिनार और समस्त पहाड़ी वनस्पति सिर झुकाए भीगते रहे. मानो रोमिका के मन का दुःख देखकर आकाश भी रो पड़ा था. साथ ही रोमिका और नितिन भी बहुत देर तक इस कड़ाकेदार पहाड़ी वर्षा की ठंड में भीगते रहे-भीगते रहे. यहाँ तक कि, रोमिका को सर्दी के कारण छींके भी आनी लगी थीं. सर्दी के कारण दोनों ही के बदन भी ठिठुरने लगे थे. रोमिका के बदन से तो सारे वस्त्र ही चिपक गये थे. यही हाल नितिन का भी हुआ था. उसके भी बदन से सारे कपड़े चिपक चुके थे. इस प्रकार कि, ठंडी वायु की केवल एक ही सरसराहट से उनके शरीर काँप जाते थे और वे दोनों सर्दी के कारण आपस में पहले से और भी अधिक लिपट जाते थे.
फिर लगभग सर्दी से भरे रात्रि के ग्यारह बजे नितिन और रोमिका अपने स्थान से उठे. नितिन, सबसे पहले रोमिका को उसके घर पर छोड़ने गया- सुबह फिर से मिलने का वायदा करके- एक निश्चित जगह और समय पर- अपने डाक बंगले की तरफ चल दिया. वहां से वापसी पर यह पहली बार हुआ था कि, जब रोमिका ने उसे बगैर बैठाए और चाय आदि न पिलाकर वापस किया था.
जब तक नितिन वापस अपने डाक बंगले पर आया, उससे पहले ही वर्षा और भी अधिक तीव्र हो चुकी थी. उस सारी रात आकाश जैसे रोता ही रहा. बादल भागते रहे. कभी-कभार बिजली भी कौंध जाती थी. वर्षा हो रही थी, साथ ही पर्वतों के चप्पे-चप्पे में जैसे ठंड की सिसकियाँ भर चुकी थीं. हवा का प्रकोप नहीं था, परन्तु जब भी होता था तो उसके एक ही झोंके से व्रक्षों की सारी पत्तियाँ जैसे फड़फड़ा उठती थीं. रात भर वातावरण अपने बिगड़े हुए मुकद्दर पर विवशता के आंसू बरसाता रहा- रोमिका के बिगड़े हुए भाग्य के समान ही- वह भी मानो रो उठा था. उस रात रोमिका भी मन ही मन अपने भाग्य की लकीरों को मानों कोसती रही.
दूसरे दिन नितिन समय से पहले ही उठ गया. रात भर सिसकियाँ लेती हुई बरसात समाप्त हो गई थी. ऊपर खुला हुआ आसमान मुस्करा रहा था. बादल भी अब न जाने कहाँ भाग गये थे. पेड़ों, फूलों, वनस्पति की छोटी-छोटी पर्वती घास की सुइंयों जैसे पत्तियों पर रात हुई वर्षा की बूँदें अटकी हुई थीं. सारे पर्वती इलाके पर बेजान सूर्य की रश्मियाँ भी चमकने लगी थीं.
नितिन ने रोमिका के आने की प्रतीक्षा में अभी तक सुबह का नाश्ता भी नहीं किया था. अक्सर ही वे दोनों एक साथ ही सुबह का नाश्ता किया करते थे. एक ही साथ बैठकर दोनों खाना भी खाते थे. नितिन भी हर दिन के समान रोमिका की प्रतीक्षा कर रहा था. मगर रोमिका नहीं आई, अपने निश्चित समय पर भी तो उसको भी चिंता हुई. उसने कुछेक मिनिट तक अतिरिक्त प्रतीक्षा की. अपनी घड़ी की सुइंयों को बार-बार देखा. उसकी इसी इंतजारी और सोचा-विचारी में एक घंटा और निकल गया. उसकी घड़ी की सुइयां लगातार आगर खिसकती जा रही थीं. साथ ही नितिन की चिंता के साथ-साथ उसके दिल की धड़कने भी बढ़ती जा रही थीं. घसी की सुइंयों के समान अब उसका भी दिल धड़कने लगा था.
रोमिका की प्रतीक्षा में नितिन के दो-ढाई घंटे बर्बाद हो गये तो नितिन का माथा ठनका. वह चिंतित होकर रोमिका के घर की तरफ चल दिया. परन्तु वहां पहुंचकर भी उसको निराशा ही हाथ लगी- रोमिका के घर के दरवाजे पर लटके हुए ताले ने उसको मुंह चिढ़ाते हुए अपना ठेंगा दिखा दिया था. रोमिका नहीं मिली तो नितिन उदास हो गया- साथ ही बेहद चिंता से ग्रस्त भी. परेशान होकर वह रोमिका को ढूँढने निकल पड़ा. उसने रोमिका को हर जगह पर जाकर देखा- हर घाटी में उसे आवाज़ दी- हर उस स्थान पर जाकर उसने तलाशा जहां पर रोमिका की साँसों की खुशबू तक विराजमान थी.
शाम तक नितिन रोमिका को दीवानों समान ढूंढता फिरा. जब वह नहीं मिली तो वह परेशान हो गया. चिन्ताओं में डूबा हुआ वह सोचने लगा कि, 'रोमिका ! न जाने कहाँ चली गई? बगैर उससे कुछ भी कहे हुए- चुपचाप- बगैर कोई भी सूचना दिए हुए?न जाने खान विलीन हो गई थी? रोमिका के यूँ अचानक से बिना बताये जाने से नितिन को दुःख हुआ. वह उसकी याद में तड़प उठा. वह जानता था कि, उसकी स्मृतियों में रोमिका थी- ख्यालों में रोमिका की बातें और उसके बात करने के मूक अंदाज़ थे- उसके जीवन की हर साँसों में रोमिका की उपस्थिति भरी हुई थी- वह किस प्रकार उसकी अनुपस्थिति बर्दाश्त कर सकता था? बार-बार उसको रोमिका का प्यारभरा उदास चेहरा याद आ जाता था.
नितिन, फिर भी रोमिका को ढूंढता रहा. पहाड़ों की हर घाटी में उसने एक आस से देखा. परन्तु रोमिका काव्हान पर कोई भी बजूद तक नहीं था. वह शायद अब कहीं भी नहीं थी? नितिन उसकी याद में तड़प-तड़प उठता. उसकी आँखों में आंसू आते-आते हुए थम जाते. दिल का दर्द उसके चेहरे पर एक स्थायी उदासी का प्रतिबिम्ब बनाकर बैठ गया था. मगर फिर भी नितिन रोमिका को अपनी समस्त जान के साथ खोजता रहा. रोमिका की तलाश में वह थककर चूर हो गया. उसकी नींद हराम हो गई. उसे अपने खाने-पीने कास तनिक भी होश तक नहीं रहा. रोमिका तो उसके जीवन से जैसे यूँ अचानक से गायब हो गई थी, मानो नितिन के जीवन भर का सारा चैन भी ले गई थी? थक हारकर नितिन, बीमारों के समान डाक बंगले पर आ गया.
और इस प्रकार रोमिका को गायब हुए आज दूसरा दिन है. नितिन की आँख के आंसू भी नहीं रुके हैं. जब भी उससे अपने दिल का ये बोझ संभाला नहीं गया, वह चुपचाप अकेले में बैठकर रो लिया है. रोमिका नहीं मिली तो नितिन निराश हो गया. साथ ही उदास भी. उसके दिल को यह विश्वास हो गया कि, रोमिका अब कभी भी उसके पास नहीं आयेगी. वह जानबूझकर उसे छोडकर चली गई है. वह शायद सदा के लिए उसे छोड़कर जा चुकी है? छोड़ गई है उसे जीवन भर आंसू बहाने के लिए- उसे अपने दुखों से, अपने प्यार में मिले गमों से मुहब्बत करने लिए- उसे अब अपनी प्यारी रोमिका का प्यार कभी भी नहीं मिलेगा- कभी नहीं- रोमिका का वह प्यार जो उसके जीवन में फूलों का ढेर लेकर आया था, परन्तु बदकिस्मती से उसकी झोली में आये वे ढेर सारे खुशियों के फूल अब नागफनी के कांटे बन गये थे. रोमिका अपनी बे-आवाज़ खामोशी के साथ उसके जीवन में अचानक से आई थी और उसके दिल की आवाज़ तक छीनकर ले जा चुकी थी. वह मुस्कानें लेकर आई थी और खुशियाँ बटोरकर जा चुकी थी. ऐसी थी उसकी रोमिका- ऐसा था उसका मूक प्यार- प्यार का वह उपहार जो उसके दिल को जीवन भर रुलाता रहेगा- वह भेंट जो उसके प्यार की दहलीज़ पर निराशा के दीप जलाकर छोड़ गई थी- छोड़ गई थी सदा के लिए- शायद?
'बाबू शाब ! जल्दी से अंदर आ जाओ, बर्फीला तूफ़ान आनेवाला है.'
डाक बंगले के चौकीदार ने अपनी ज़ोरदार आवाज़ में चेतावनी देते हुए नितिन से कहा तो, नितिन के ख्यालों में डूबा हुआ तांता एकाएक टूट गया.
उसने आश्चर्य से अपने आस-पास के वातावरण को देखा- सचमुच किसी बर्फीले तूफ़ान का भयानक रूप उसके सामने बौखलाया हुआ खड़ा था. बादल किसी भी समय पागल बनकर बरस सकते थे. आकाश में काली घटाएं छाई हुई थीं- सारा कौसानी का माहौल काली-मटमैली धुंध के आगोश में जैसे जब्त किया हुआ पड़ा था. हवाओं में कड़ाकेदार, बढ़ती हुई शीत की लहर के साथ तीव्रता महसूस होने लगी थी.
नितिन चुपचाप अपनी उदासियों का बोझ उठाये हुए, डाक बंगले के घुटन से भरे कमरे के एकांत में आ गया. मगर यह क्या था कि, उसके कमरे में पग रखते ही आकाश से सारे बादल रो पड़े. बादलों से भरे आसमान से वर्षा की मोटी-मोटी बूँदें भूमि पर टप-टप करके गिरने लगीं. गिरते हुए नीचे पहाड़ों से जैसे पटक-पटककर अपना सिर फोड़ने लगीं. इसी बीच हवाएं और भी अधिक तेज हो गी. इस प्रकार कि, चिनार झुके-झुके जाते थे. देखते-ही-देखते वातावरण में बारिश की भयानकता व्याप्त हो गई. कौसानी का ये बिगड़ा हुआ वातावरण पूरी तरह से तूफानी रौद्र-रूप था. इस तूफ़ान की गला फाड़कर, कानों के पर्दे चीरने जैसी, हवाओं की सांय-सायं, भूतों समान चीखें सारे वातावरण को और भी अधिक क्रूर बना रही थीं. वर्षा इद्क्द्र तीव्र थी कि, पहाड़ों की टेड़ी-मेंड़ी, भागते हुए सांप के समान सड़क पर वर्षा का रेला दूर-दूर तक फिसला चला जाता था. सड़कों पर चलता हुआ यातायात अपने ही स्थान पर रुका पड़ा था. क्रमश: वर्षा अब पहले से और भी अधिक तेज हो चुकी थी- इतना अधिक कि, पानी की तेज बूँदें डाक बंगले का बरामदा पार करके, भीतर कमरे तक में पहुँचने का प्रयास कर रही थीं.

नितिन अपने कमरे में बैठा हुआ था. चुपचाप- बहुत उदास और चिंतित भी.
'बाहर बहुत बुरा तूफ़ान है शाब.'
कहते हुए चौकीदार ने दरवाज़ा बंद करके चटखनी लगा दी. फिर वेह भी एक स्टूल पर अपने घुटने मोड़कर बैठ गया-मौन. बारिश अपने सम्पूर्ण ज़ोरों पर थी- पानी अपने पूरे प्रभाव के साथ पत्थरों से अपना सिर पटक रहा था. बादल चीख-चीख जाते थे. हवाओं में संसनाटें बढ़ चुकी थीं. हर तरफ शोर-ही-शोर था. एइसा शोर और भय कि, जिसके कारण सारे इलाके का जन-जीवन तक प्रभावित हो चुका था.
हवाओं के साथ चिनार झूलते रहे- आकाश रोता रहा- नितिन के उदास दिल के समान ही. वह भी अपने दिल-ही-दिल में चुपचाप सिसक रहा था, परन्तु उसकी इन सिसकियों की आवाज़ वर्ष के इस शोरगुल में कहीं भी नहीं पहुँच पा रही थीं. केवल उसकी धड़कनें ही सुनी जा सकती थीं. शायद उसके दिल का एहसास बनकर रोमिका भी सुन सकती थी? जहां कहीं भी वह होगी, अवश्य ही उसका दिल अपने नितिन के दिल की परेशान धड़कनों को सुन रहा होगा. धड़कनों का शोर सुनकर उन्हें चूम भी लेता होगा- प्रतिपल ही. शायद ऐसा ही होता होगा? शायद? वह अभी तक यह नहीं समझ पाया था कि, रोमिका का ऐसा क्या कारण था कि, वह उससे बगैर बताये हुए, उसकी दृष्टि से क्यों ओझल हो चुकी है? वह क्यों नहीं उसके सामने आती है? क्या पर्वती बालाओं का ऐसा ही स्वभाव होता है? छुपा-छुपा- गुमसुम-सा, अनकहा- संदेह भरा? 












14
एक दिन नितिन के पिता श्री धनराज परेशान होकर, उसे ढूंढते हुए कौसानी आ पहुंचे. उन्होंने उसके मित्रों से जानकारी ली थी और फिर कौसानी आ गये थे. उनकी आँखों में अपने इकलौते बेटे की करतूतों के कारण अपार क्रोध भरा हुआ था. परन्तु की मजनुओं जैसी दशा देखकर उन्होंने उससे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा. नितिन के तो चेहरे की रंगत ही बदल चुकी थी- तब से, जबसे रोमिका उसकी नज़रों से गायब हो चुकी थी. रोमिका के दर्द ने जैसे उसका सब-कुछ छीन लिया था. धनराज ने नितिन से कुछ भी नहीं पूछा- कोई भी प्रश्न आदि तक नहीं किया. अपने क्रोध को मन-ही-मन पीते हुए उन्होंने उसे केवल समझाया ही. उससे यही कहा कि, उसका विवाह हो चुका है- उसकी पत्नी है- घर-परिवार है; अब इन बातों से कोई भी मतलब नहीं निकलता है. उसकी पत्नी, जैसी भी है, उसे अन अपना लेना चाहिए. बाद में वे नितिन को समझा-बुझाकर अपने साथ फतेहगढ़ ले आये.
नितिन भी तूफानों में घिरी किसी नाव के समान, एक बार फिर से अपने घर आ गया. एक ऐसी जीव की नाव समान उसका हाल हो चुका था कि, जो तूफानों के भीषण टकरावों के कारण अपने आपको भाग्य के हवाले कर चुकी हो?
नितिन घर में आ गया. घर में भी वह उदास ही बना रहा. हर समय उसको रोमिका का ख्याल सताने लगा. बहुत ज्यादा समय वह खामोश ही रहता. अक्सर एकांत में बैठ जाया करता. हर समय घटती हुई ज़िन्दगी और उसके डीएम तोड़ते हुए पल- नितिन का जीवन मानो नर्क बन कर रह गया. वह घर में किसी से कुछ भी नहीं बोलता. कोई कुछ पूछता तो उत्तर भी नहीं देता. अपनी पत्नी की ओर तो वह झूठे से भी सिर उठाकर नहीं देखता था. बस खामोश बनकर अक्सर आकाश की तरफ ही देखा करता. लगता थी कि, उसके शरीर के चप्पे-चप्पे तक में उदासियों के कीटाणु उत्पन्न हो चुके थे- ऐसे कीटाणु कि जिन्होंने उसका समस्त जीवन अजाब बनाकर रख दिया था. घर-परिवार में उसका मन नहीं लगता तो वह बाहर घर के बगीचे के एकांत में जा बैठता. फिर जब एकांत की इन तन्हाइयों में भी उसका मन नहीं लगता था तो वह उदासी का बादल बनकर वह भटकने लगता. वह इधर-उधर घूमने-फिरने लगता- बेमतलब ही. उसके जीवन की सारी खुशियाँ पलटकर उसकी ज़िन्दगी के आंसू बन गई थीं. चेहरा उसका सदा ही फीकेपन का लिबास ओढ़े रहता.
घर में उससे लाख पूछने पर भी, उसने अपने दिल का छिपा हुआ भेद किसी को नहीं बताया था. वह भेद, वह राज जो उसके जीवन की सारी खुशियों को निगल गया था. उसके दिल की उमंगों को नोच ले गया था. होठों की मुस्कानों पर बगैर बात के ही कोई जैसे सैकड़ों तमाचे जड़कर भाग गया हो? दिल में दर्दों में सैलाब छोड़ गया हो. उसके दिल की वह छिपी हुई कहानी, जिसकी हरेक पंक्ति आंसुओं की कड़ियों से सज चुकी थी. उसके हर वाक्य में सिसकियाँ-ही-सिसकियाँ थीं. एक-एक शब्द में उसके खोये हुए प्यार की तड़प बसी हुई थी. और तड़प में भी वह गम था जो उसको सच्चे प्यार की अनुभूतियों के महल खड़े करने के उपलक्ष्य में प्राप्त हुआ था. नीली आँखों की चमक रखने वाली, पर्वतों की हसीन मलिका रोमिका उसके जीवन में प्यार की वह पहली और अंतिम पहेली बनकर आई थी कि, जिसको वह आज तक बूझ नहीं सका था. समझ नहीं पाया था. जिसके प्यार में वह किसी दुसरे प्यार की एक छोटी-सी धड़कन तक का भार उठाने लायक नहीं रह सका था.
घर में उसकी सुंदर-सी पत्नी थी- मौनता. ओमिका के समान ही. वह भी बे-आवाज़ थी. ऐसी मौनता जो खुद भी रोमिका के समान ही अपनी आवाज़ की प्यासी थी. जिसके होठ बचपन से ही अपनी आवाज़ की ढंक को सुनने के लिए मोहताज़ हो चुके थे. नितिन उसको जब भी गंभीरता से देखता, तो केवल तड़प कर ही रह जाता था. अपने कलेजे पर मजबूरियों का भारी-सा पत्थर रख लेता. ये भी उसकी किस्मत का एक संयोग ही था कि, उसने प्यार भी किया था तो एक बे-आवाज़ और गूंगी लड़की से और पत्नी भी मिली थी तो वह भी बे-आवाज़ और गूंगी- इसलिए, मौनता की इस कमी को लेकर वह कोई भी शिकायत तक नहीं कर सकता था. एक भी दलील तक नहीं दे सकता था, क्योंकि लोग तो फिर यही कहते कि, पहाड़िन पसंद है तो फिर, मैदानी मौनता क्यों नहीं?
नितिन जब भी मौनता से पेश आता तो, वह उसके खामोश, चुप-चुप इशारों पर अपनी नज़रें केन्द्रित करता तो, उसमें न जाने क्यों उसकी प्यासी और अतृप्त आँखों की दृष्टि, किसी दूसरे चेहरे को तलाशने लगती थीं. मौनता के बात करने के अंदाज़ में, उसे अपनी रोमिका की याद आने लगती थी. अपनी पत्नी की खामोशी की आवाज़ में, वह अपनी बिछुड़ी और ना बताकर जानेवाली बे-आवाज़ की खोज करने लगता. ऐसी विषम परिस्थिति में नितिन को अपने दिल का बोझ संभालना और भी अधिक कठिन हो जाता था. वह चुपचाप अपने दुःख, अपने प्यार के दर्द को संभालने की एक असफल कोशिश करने लगता. फिर, वह कर भी क्या सकता था? उसके प्यार के रास्तों की मंजिल का सिला ही ऐसा था कि, जो उसको अपने भाग्य से मिला था या फिर उसने खुद ही पसंद कर लिया था? वह किसी को कोई भी दोष तक नहीं देता था. केवल अपनी किस्मत की उन लकीरों से ही शिकायतें करता रहता, जो उसको विधाता की तरफ से मानो उपहार में प्राप्त हुईं थीं. 













15
नितिन, अब अक्सर ही घर से बाहर रहता. एकांत और वीरानी का सहारा लेकर, वह अपने बेर-मुरब्बत भाग्य पर आंसू बहाता. सन्नाटों और अंधेरों में पड़ा रहता. दिन होता तो हरी-भरी प्रकृति और आलुओं के खेतों की मेड़ों पर बैठ जाता. जब रात आती तो, कहीं भी अकेले में बैठकर रो लिया करता. चुपचाप अपने मैदानी क्षेत्र के माहौल में निराश मन से यूँ ही ताकता रहता. उसकी थकी हुई दृष्टि, दूर-दूर तक अपने खोये हुए प्यार तलाश करने लगतीं.
दिन तो किसी भी प्रकार कट भी जाता, परन्तु जब रात का साया धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ाता तो इस रात्रि के अन्धकार में, कोई भटकती हुई छाया भी उसको बेबस नज़र आने लगती. रोमिका की यादों का एक प्रतिबिंब ! मस्तिष्क में एक प्यारी-सी तस्वीर बनते ही नितिन का दिल रोने लगता. परन्तु वह कर भी क्या सकता था? वह चुपचाप सिर पकड़कर बैठ जाता. फिर, जैसे-जैसे रात्रि की पर्तें घनी होती जातीं, तो हर रात्रि के समान रोमिका भी उसकी पलकों को खोलकर, बड़ी सहजता से उसके दिल में बैठ जाती. उसके बालों में अपनी उंगलियाँ फेरने लगती. उससे मीठी-मीठी प्यार की बातें करने लगती- बोल नहीं सकती थी, मगर फिर भी अपने हाथ के संकेतों से, उँगलियों से, उसे छेदती और उसके बदन में चुटकियाँ काटने लगती. नितिन को अपने अथाह प्यार से हर पल अवगत कराती रहती. उसकी आँख के आंसुओं को अपने दुपट्टे से पोंछने लगती.
रोमिका के हरेक ख्याल, हरेक एहसास और उसकी हर वह स्मृति पर जो उसने कौसानी के पहाड़ों पर छोड़ दी थी; उसके दिल पर ढेर सारे छाले पड़ जाते. हर कल्पना पर उसकी पलकें भर-भर आतीं. जब भी ऐसा होता तो फिर वह कौसानी की एक-एक बात, एक-एक घटना को क्रम से दोहराने लगता. उनकी प्यारी-प्यारी स्मृतियों में खो जाता- रोमिका के छूटे हुए प्यार को याद करने लगता- याद करने लगता- बार-बार.
नितिन का जीवन इसी प्रकार तड़प-तड़पकर, अपने दिन काटने पर मजबूर था. उदास आँखों से, अपने प्यार के गम भरे आंसुओं को भूमि की कोख में समर्पित करता रहता. रोमिका की अनुपस्थिति, उसकी एक अजीब ढंग से हुई गुमनामी तथा उसके बेवफा प्यार ने मानो उसके जीवन की हरेक खुशी छीन ली थी. इच्छाएं किसी बाज़ के समान झपट्टा मारकर खा डाली थीं.
क्रमश: नितिन अपने बिछुड़े हुए प्यार के दर्द में धीरे-धीरे रिसने लगा. उसका दिल घुटन के दायरों में कैद होकर, अपनी तन्हाइयों से मुहब्बत करने लगा. सिसकियों से उसके होठों ने अपना नाता जोड़ लिया. मुख की आभा ने, मुस्कानों से दुश्मनी करके, हंसना छोड़ दिया और दिल ने तड़प-तड़पकर धड़कना-रोना सीख लिया. उसका मन हर समय परेशान रहने लगा. चेहरे पर भरपूर खामोशी- इस खामोशी में भी छिपी हुई उसके दिल की उदासी और इस उदासी में भी वर्षों की निराशा का दामन थामकर वह अपने जीवन को रिस-रिसकर समाप्त करने पर मानो अमादा हुआ जा रहा था.
माव यदि मन और दिमाग से दुखी हो तो, उसके आस-पास के जीने के दायरे भी स्वत: ही परिवर्तित होने लगते हैं. बिलकुल यही हाल नितिन का भी हो गया था. उसका मस्तिष्क दुखों और दर्दों से परेशान रहने लगा तो वह अपने स्वास्थ्य और शरीर के हाल से भी बेहाल हो गया. आँखों में उसके गड्ढ़े पड़ने लगे. गालों की हड्डियां उठकर ऊपर आ गईं. गाल पिचककर अंदर चले गये. हफ्तों हो जाते, परन्तु उसकी दाढ़ी ही नहीं बनती. चेहरे पर दाढ़ी झड़ियों समान बढ़ गई. उसके सिर के बाल उलझने लगे. अक्सर ही अपने कपड़े बदलना भी वह भूल जाता. घर के लोग जब उसे टोक देते तो वह स्नान कर लेता. वस्त्र भी बदल लेता. उसकी पत्नी मौनता उसको मना-मनाकर खाना खिलाती तो वह खा लेता.
सो, ये थी उसकी ज़िन्दगी की वह दास्ताँ जो शायद अपनी वास्तविकता को प्यार के अन्धकार में छिपाए हुए, कभी-भी न सुनने वाली आरजुओं के सहारे जी रही थी. उसके प्यार के खेल का वह परिणाम, कि जिसके वास्तविक रूप को देखकर वह अपनी सुनहरी प्यार की आस्थाओं तक को समाप्त कर गया था. उन्हें जैसे भूल गया था. उसका प्यार, स्वयं ही उसके लिए एक अमिट यादगार बनकर रह गया था. उसका बना-बनाया जीवन, उसके प्यार के शोलों समान दहकने लगा था. वह सुलग रहा था- अंदर-ही-अंदर- जैसे मिटता जा रहा था. रोमिका के प्यार के रास्तों में बहककर वह एक ऐसे मोड़ पर आ गया था, कि अब और एक कदम भी चलना उसके लिए जैसे पहाड़ हो चुका था.
ऐसी जगह वह आ खड़ा हुआ था कि, जहां से वह अब न तो आगे जा सकता था और न ही पीछे देखने से इनकार कर सकता था. मौब्ता, घर में रहते हुए नितिन की इस दशा को देखती तो अपने दिल पर मजबूरियों का हाथ रखकर ही रह जाती. अपने पति के हर दिन बदलते हुए आयामों को देखकर वह इतना तो जान ही गई थी कि, अब भविष्य में कोई भी उस आनेवाले तूफ़ान को उसके घर में आने से कोई नहीं रोक सकता है जो अपने एक ही इशारे पर उसके भावी जीवन की हरेक खुशी को चकनाचूर कर देगा.
नितिन का दुःख देखकर उसका भी दिल उदास हो जाता था. आंसू देखकर उसकी भी आँखें छलक जाया करती थीं. आखिकार वह नितिन की पत्नी थी- कानून, समाज और धर्म के हरेक नियम के तहत नितिन उसका पति था. उसके भी बदन में अपने पति के लिए कोई धड़कता हुआ दिल था. दिल में ढेरों-ढेर सपने और इच्छाएं सुरक्षित थीं. भावी जीवन के महकते हुए सपने थे, और इन सारे सपनों का हल केवल नितिन के पास ही था. नितिन की खुशियों में ही उसके मन का चैन सुरक्षित था. नितिन के सुख के कारण मौनता का भी उदास हो जाना बहुत स्वाभाविक था.
अपने घर में नितिन अलग खामोश और मुंह बंद किये हुए पड़ा रहता. मौनता एक तरफ, डरी-सहमी उदास रहती. दोनों ही चुप रहते. कभी-कभार नितिन कुछेक, जब जरूरत पड़ती तो बात कर लेता, नहीं तो दोनों के कमरे में हमेशा खामोशियों के साए खड़े रहते. मौनता तो यूँ भी नहीं बोल सकती थी. नितिन बाहर से जब अपने दिल पर रोमिका के प्यार का गम से भरा बोझ लेकर आता तो मौनता की उदासी और मूक निगाहें देखकर उसका दिल और भी अधिक परेशान हो जाता. मौनता की आँखों के इशारे, चुपचाप हाथ के संकेतों से खामोश बातें, उसका बातें करने का ढंग, उसकी मूक भाषा को वह जब देखता तो उसका जैसे फट-सा जाता. ऐसे में तब उसे मौनता के चेहरे पर रोमिका की परेशान छवि नज़र आने लगती. रोमिका का सामीप्य, उसकी बातें और उसका प्यार उसे याद आने लगता. कौसानी के पर्वतों की वादियों के वह प्यार से भरे दिन याद आने लगते जो रोमिका के यूँ ही अचानक से चुपचाप, बगैर किसी भी संदेश के उसके जीवन से चले जाने के कारण रंज भरे एहसास बनकर रह गये थे.
रोमिका के प्यार भरे वे वादे और कसमें उसे याद आने लगतीं जो आज अपने ऊपर बेवफाई की मोहर लगाकर न जाने कहाँ छिप भी गई थी?
ऐसे में नितिन को अपने दिल का दर्द संभालना भी कठिन हो जाता था. परन्तु वह करता भी क्या? सिवाय इसके कि, चुपचाप अपने सीने पर पत्थर रखे हुए, अपनी विवशताओं के साथ रोमिका के लिए सोचता रहे. इन हालात में तब वह उन क्षणों को याद करता जो कभी उसने रोमिका के साथ कौसानी की चांदनी भरी रातों में गुज़ारे थे. मीठे-मीठे प्यार पल- कभी भी न भूलनेवाले दिन- वह कैसे भूल सकता था.
जब वह अपनी पत्नी मौनता के इशारों को देखता- उसकी मूक भाषा को समझने की कोशिश करता, तो ऐसे कठिन समय में उसे अपनी रोमिका की बेहद आने लगती. मौनता के चेहरे पर उसे रोमिका का अक्श दिखने लगता. तब वह मौनता की आँखों में रोमिका को ढूँढने लगता. क्योंकि, परिस्थितियों का तकाजा था कि, सब कुछ वही था- सब कुछ ही वही माहौल- उसकी रोमिका समान ही- रोमिका के लंबे-लंबे, उसके कूल्हों से भी नीचे लहराते हुए बाल- खामोश आँखें- प्यारे-प्यारे होठ- हाथों के इशारे- बातें करने के मूक संकेत- तब उसे रोमिका की याद, उसके दिल में बुरी तरह से उसे परेशान करने लगती. फिर वह मौनता के स्थास्न पर अपनी रोमिका की यादों में खो जाता. न जाने कितनी देर तक वह मौनता के निर्दोष और गंभीर चेहरे को देखता रहता. उसकी खामोश हरकतों को देखकर वह अपनी बेजुबान रोमिका की दुखभरी यादों में भटकने लगता. भटक कर तरसने लगता- अपनी रोमिका के लिए- उसके कीमती प्यार को पाने के लिए- उसकी क्षण भर की झलक देखने को?
सो ये थीं उसकी राहें- उसकी ज़िन्दगी की बिगड़ी हुई राहें- उसके जीवन की अपनी मंजिल से भटकी हुई राहों की कहानी- और कहानी में कसमसाता हुआ उसके दिल का दर्द. ऐसे थे उसके जीवन के हालात- उसके प्यार में भटके हुए जीवन के टूटे हुए वे सपने जो खुशियों के महल खड़े करने का वचन देकर आज मुकर भी गये थे. उसको तड़पाने के लिए- घुट-घुटकर जीने के लिए- शायद उसके जीवन को खामोशी का बुत बनाने के लिए, उसके दिल में बसी समस्त झंकारों तक को खा गये थे.
संसार में कुछ भी होता रहे, परन्तु वक्त के दिल ने कभी भी अपने कर्तव्य से बेवफाई नहीं की है. दिन यूँ ही गुजर रहे थे. रोजाना नई सुबह होती- नया गीत लाती- नई उमंगों को जन्म देती- फिर धीरे-धीरे रात्रि में परिणित होती- और तब रात भी ढलती- किसी की झंकारों और ठनाकों के साथ तो किसी के लिए सिसक-सिसककर नये दिन के जन्म के लिए, अपना दम तोड़ देती. यही प्रकृति का नियम था, जो सदियों से इसी प्रकार से चलता आ रहा है. 








16
तारीखें बदलती गईं. नितिन का जीवन भी दर्दों का पहाड़ बनकर उसके प्यार की समस्त आस्थाओं पर भारी बोझ बनकर उसे दबाता रहा. उसकी उमंगे मृत्यु की कगार की ओर बढ़ने लगीं. इच्छाएं मरने लगीं- उसकी नज़र में उसके जीवन का कोई भी उद्देश्य बाक़ी न रहा. उसके दिल के सारे ख्याल, एहसास सब ही कुछ अपनी खोई हुई रोमिका के दुःख में दिन-रात रोते रहे- सिसकते रहे. परन्तु उसकी पुकार, उसके दिल की तड़प, उसके होठों की सिसकियों को सुननेवाला कोई भी नहीं था.
नितिन, अक्सर ही सोचा करता कि, रोमिका कहाँ चली गई? क्यों चली गई? न जाने कहाँ है अब वह? उसे अगर जाना ही था तो बताकर तो जाती? ऐसी कौन-सी बात उसे रास नहीं आई कि, उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा? यह भी नहीं जानना चाहा कि, उसका नितिन कैसा है? ज़िंदा है या मर गया? कितनी निष्ठुर निकली वह? कितनी बेमुरब्बत? कहाँ छुप गई है? किसी को भी ज्ञात नहीं था. नितिन के दिल के प्यार का भेद, उसके जीवन का रिश्ता हुआ नासूर बनकर रह गया था और कोई भी उसके ज़ज्बात और मन की छुपी हुई भावनाओं का मर्म नहीं जान सका था.
नितिन बीमार-सा दिखने लगा तो उसके परिवार वालों नें, जब उसकी इस दशा को देखा तो तड़प कर ही रह गये. विशेषकर उसकी मां से अपने लाडले बेटे का यह दुःख देखा नहीं गया. उसकी बहन शीला से भी अपने अकेले भाई के आंसू पौंछे नहीं गये. उसकी हालत देखने पर खुद वह भी रो पड़ी. नितिन का दुःख और अपने भाई का दर्द समझकर, शीला के साथ-साथ घट-परिवार के सभी लोग चिंतित हो गये. नितिन की मां उसे देखते ही समझ गई कि, उसका लड़का किसी प्यार के खेल में उलझ चुका है और अब ऐसा कौन-सा इलाज़ किया जाए कि, हाथ से निकला हुआ उनका बेटा उन्हें फिर से वापस मिल जाए?
जुलाई का माह आया तो गर्मी की छुट्टियों में बंद पड़े कॉलेज-स्कूल फिर से खुल गये, लेकिन नितिन का जीवन सुलगते हुए अंगारों की तपन दिन-रात जलता जा रहा था. जलकर जैसे राख हो जाना चाहता था. घर में सब ही को दुःख था- चिंतित थे- जवान लड़के की ज़िन्दगी में धुंआ उठे, किसे दुःख नहीं होता? कौन चिंतित नहीं होता? परन्तु कोई भी सख्ती, कुछ भी करने से असमर्थ थे. सबने सोचा कि, जवान लड़का है- भावनाओं में बहकर कुछ भी अनर्थ कर सकता है. यही सोचकर सबने अपने हाथ खींच लिए. नितिन के माता-पिता और किसी ने भी उससे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा- सब मौन ही रहे.
परन्तु ऐसा कैसे चलता? कुछ तो करना ही था कि, जिससे नितिन की बिगड़ती हुई ज़िन्दगी के बढ़ते हुए कदम रुक सकते? वह खुश रहता- उसके जीवन में भी मुस्कराहटों की बहारें आ जातीं. कुछ ऐसा ही सोचकर नितिन के पिता धनराज ने अपने बेटे को आगे पढ़ने की सलाह दी. आरम्भ में तो नितिन ने इसे तुरंत ही टाल दिया और बाद में तुरंत मना भी कर दिया. उसने अपने पिता से स्पष्ट कह दिया कि, आगे के लिए उसके जीवन का कोई भी उद्देश्य बाकी नहीं बचा है. मन में उसके कोई भी इच्छा नहीं बची है- वह आगे पढ़कर क्या करेगा? आगे पढ़ने से कुछ भी लाभ नहीं होता? मगर उसके पिता धनराज ने जबरन उसका कॉलेज में दाखिला करवा दिया. नितिन मन मारकर कॉलेज जाने लगा. चुप-चुप, बे-मनसा कक्षा में बैठा करता. सबसे अलग-थलग रहने का उसके जीवन का मानो धेय्य बन चुका था. लगता था कि, जैसे रोमिका के प्यार भरे रास्तों ने उससे किसी अन्य मार्ग पर चलने की क्स्मले रखी थी?
नितिन आरम्भ में कॉलेज में आया तो पहले-पहले तो उसका वहां के वातावरण में मन ही नहीं लगा. परन्तु किसी तरह तो जीवन की दलदल में फंसी गाड़ी धकेलने ही थी, वह धीरे-धीरे कॉलेज में रहते हुए पढ़ाई में दिलचस्पी लेने की कोशिश करने लगा. यूँ, भी कॉलेज का तो माहौल ही अलग होता है. बहारें-ही-बहारें- हर तरफ रंगीनियाँ- खुशियाँ-ही-खुशियाँ- तितलियों समान उड़ती हुई, जवानी के बोझ से युवा लड़कियां- आसमानी सप्तरंगी हवाएं- लड़कों के कहेकहे- उनके जमघट- ठहाकों की गूंज- जीवन के हर दुःख और उत्तरदायित्व दे महरूम जीवन- छात्रो-छात्राओं का शोर- सुंदर गार्डन- जहां भी चार विद्दियार्थी एकत्रित हो जाएँ खुशियों के बाग़ लह जाते हैं- चारों तरफ फैला हुआ मस्त जीवन- बेफिक्रियों से भरी जवान उमंगें- लापरवाहियां- ऐसे में किसका मन प्रसन्न नहीं होता? मगर नितिन ही एक ऐसा था कि, उसका दिल फिर भी कॉलेज के हसीन वातावरण में रम नहीं सका. वह कॉलेज की किसी भी दिनचर्या में खुद को अम्मिलित नहीं कर सका.
अक्सर ही वह खामोश रहता. किसी से कोई भी अधिक बात नहीं करता. उसकी खामोशी ने दूसरे छात्रों के दिल की गूंज से नाता जोड़ना उचित नहीं समझा. उसके मन का भेद, उसका छिपा हुआ दर्द, एक भेद ही बनकर सारे छात्रों की निगाहों में एक प्रश्नचिन्ह बनकर खटकने लगा. अपने अतीत का डॉ वह भूल नहीं सका. और तब उसकी इस पिछली यादों के दुःख ने कभी भी समाप्त होने का नाम तक नहीं लिया. उसके होठों की तड़प दूसरे अन्य विद्द्यार्थियों की मुस्कान से मुहब्बत न कर सकी. कॉलेज में अधिकाँश समय वह चुप ही रहता. कोई उससे बात करता तो वह बोल लेता, लड़कों के मध्य में सभी हंसते तो वह भी एक कृत्रिम मुस्कान अपने चेहरे पर ले आता. कोई कहीं घूमने को कहता तो वह चुप होकर चल देता. लड़के उसकी खामोशी और गंभीरता को देखते तो कभी टोक भी देते. मगर फिर भी नितिन के स्वभाव पर कोई भी अंतर नहीं पड़ता. कक्षा में प्रोफेसर आते और पढ़ाकर चले भी जाते, परन्तु उसे होश तक नहीं रहता कि उन्होंने क्या पढ़ाया था? उसकी लिखने की कापियां अभी तक रिक्त पड़ी थीं. एक अक्षर का कोई भी नोट्स उसने आज तक नहीं लिखा था. अगर उनमें कुछ लिखा हुआ था तो वह था केवल एक ही अनोखा नाम- रोमिका. रोमिका उसके शांत जीवन में, प्यार का वह साज़ बजाकर चली गई थी कि, जिसके कारण उसके शरीर का अंग-अंग तड़प उठा था. उसकी हरेक सांस में अब केवल एक ही नाम था- रोमिका. एक ही एहसास था- रोमिका. उसके प्यासे होठों पर केवल एक ही आह रह गई थी- रोमिका. उसकी यादों में बार-बार एक ही चित्र बनता था- रोमिका. उसकी आत्मा की गहराइयों में एक ही आत्मा बीएस गई थी- रोमिका. केवल रोमिका. रोमिका- रोमिका- और बस रोमिका.
नितिन कॉलेज से पंख कटे हुए पंछी के समान घर पर आ जाता तो चुपचाप अपने कमरे के बिस्तर पर लेती-लेती सोचने लगता. गुमसुम- खोया-खोया- कमरे की मूक दीवारों से बातें करता और उनसे अपने बिगड़े हुए मुकद्दर के बारे में शिकायतें करता रहता. कभी उनसे हुई खामोश बातों के ज़रिये अपना जी बहला लिया करता- नहीं तो फिर, अपनी कहानियों और कविताओं में ही भटकता फिरता. वैसे भी उसे कहानियाँ और कविताएँ लिखने का शौक तो था ही, परन्तु अब वक्त के कटीले अनुभवों ने उसका यही शौक उसके दिल का रोग भी बना दिया था. अब उसकी कहानियों और गीतों में, कोई भी संतुष्टि नहीं होती थी- कोई उमंग नहीं- कोई भी रोमांस और रंगीनी नहीं- बल्कि अब उसकी सब ही रचनाएँ निराशा और दुखद अंत की ओर ले जाती थीं. उसकी कहानियों में किसी की बेवफाई के साथ उदासियों का बोध भरा रहता था. उसके सारे गीत एकांत की बाहों में चुपचाप अपने आंसू पोंछते प्रतीत होते थे. उसकी एक-एक कहानी, कहानी के हरेक वाक्य में, कोई अनकहा दर्द का ज्वार-भाटा-सा उबलता रहता था. उसके गीतों में एक करूण-वेदना- ऐसी वेदना की तड़प छिपी रहती थी कि, जो किसी भरे-पूरे दर्द की वास्तविकता को ही दर्शाती थी. मानो उसका हर शब्द किसी दर्द का हमराज होता था.
नितिन अपने घर में किसी से भी कम ही बात करता. वह सबसे अधिकतर अलग-अलग, कटा-कटा-सा ही रहता. परन्तु फिर भी उसकी इस दशा की सबको चिंता थी. घर में सब ही उसके कारण परेशान थे. सब ही उसके हालात देख कर यह तो समझ ही गये थे कि, नितिन के दिल में भीतर-ही-भीतर उसका कोई दर्द उसे चुपचाप खाए जा रहा है, परन्तु यह नहीं जान सके थे कि, उसका वह दर्द उसके किसी प्यार की हार का भी हो सकता है? उसके पिता धनराज का भी कुछ ऐसा ही अनुमान था. वे यह भी जानते थे कि, उन्होंने नितिन का विवाह बचपन में ही एक गूंगी और बे-आवाज़ लड़की से करके अपने जीवन का सबसे सख्त धोखा खाया है और यही धोखा उनके बेटे नितिन की सारी खुशियों का डांस बन चुका है. नितिन को अगर कोई दुःख है तो वह उसकी अपनी गूंगी पत्नी मौनता को लेकर ही है.
मौनता ! जैसा नाम, वैसा ही उसका गुण भी. परन्तु उन्हें क्या पता था कि, नितिन का दुःख उनके घर में अपनी गूंगी बहू के स्थान पर बैठी मौनता से संबंधित नहीं है. उसका दुःख तो किसी दूसरी मौनता से अपना नाता रखता है- कौसानी की मौनता. रोमिका ! पहाड़ों की खामोश हसीन मलिका- रोमिका. कौसानी की मजबूत चट्टानों जैसा दृढ़ प्यार- रोमिका. वह रोमिका कि, जिसकी आवाज़ को पुन: वापस लाने के प्रयत्न में, वह अपनी भी आवाज़ वहीं पहाड़ों की सूनी घाटियों में दफन कर आया है. रोमिका, जिसके खोये हुए प्यार की तलाश में, वह अपना सब ही कुछ हार आया है. रोमिका- जिसके प्यार भरे महकते फूलों की तलाश में, उसने अपने दामन में सारी ज़िन्दगी के कांटे भर लिए हैं. शायद हमेशा-हमेशा के लिए वह अब इन फूल बने काँटों को चूमता रहेगा, उन्हें प्यार करता रहेगा और किसी के बे-मुरब्बत प्यार के तीरों से ज़ख़्मी होता रहेगा.
कहते हैं कि, ज़हरीले अतीत लाख कोशिशें करने के बाद भी भुलाए नहीं जाते हैं. इन्हें जितना भी भूलने का प्रयत्न करो उतना ही अधिक ये याद आते हैं. नितिन ने जीना सीख लिया. केवल अपनी बिछुड़ी और खुद खोई हुई रोमिका की यादों के सहारे. उसको ढूंढ पाने में, उसकी तरफ से वह पूरी तरह से निराश हो गया. उसके दिल को यह विश्वास हो चला कि अब रोमिका उसे कभी भी नहीं मिलेगी- वह अब कभी भी वापस नहीं आयेगी- कभी भी नहीं. दूरियां जहां अक्सर प्यार की आस्थाओं को और भी मजबूत और गहरा करती हैं, वहीं वह सारे अतरिक्त रिश्ते तोड़कर भी रख देती हैं.
ऐसा ही कुछ नितिन के साथ भी हो गया था. उसकी रोमिका खो गई- उसके प्यार में पास आने के बजाय वह दूर हो गया- उसे दूरियां मिलीं, तो मन में बसा हुआ रोमिका का प्यार किसी पत्थर के समान ठोस होता गया. उसका प्यार अधोलोक से भी अधिक गहरा हो गया. परन्तु, फिर भी रोमिका के प्रति उसके वे सारे रिश्ते टूट चुके थे, जिनके कभी उसने अकेले में बैठकर बड़े इत्मीनान से अपने भावी जीवन के सुखमय ख्वाब देखे थे- कभी मधुर-मधुर कल्पनाएँ की थीं.
समय के बढ़ते हुए कदमों ने उसकी आँख के आंसू कभी-भी पोंछे नहीं थे, परन्तु रोक अवश्य ही दिए थे. अब वह रोमिका की यादों में रोता नहीं था- केवल घुटता था. रिसता था- नितिन ने अपना शेष जीवन रोमिका के प्यार की रही-बची यादों के सहारे काटने का निर्णय ले लिया. अब वह उसकी स्मृतियों में तड़पता नहीं था, परेशान नहीं होता था- केवल खामोश रहता था. अपना अधिकाँश समय वह प्यार की दर्दभरी कहानियां लिखने में उपयोग कर देता था. दिल के टूटे और जीवन से निराश गीतों में वह अपने जीवन का अनकहा दर्द भर देता था. इसी प्रकार से वह जी रहा था. कॉलेज की पढ़ाई से अधिक वह अपने समय को कहानियां और गीत लिखने में बर्बाद करता था. 







17
कॉलेज में वह अपने साथी लड़कों के बीच खामोशी का साया बनकर प्रसिद्धि पा चुका था. किसी पत्थर का बेजुबान बुत बन गया था. इस तरह से जब और समय बीता तो वह धीरे-धीरे छोटी-छोटी कहानियों का लेखक बन गया. दर्द और आंसुओं भरे गीत लिखने में उसका कोई मेल नहीं था. यूँ, भी लेखक के दिल में अगर उसके अतीत का कोई छुपा हुआ दर्द हो तो उसकी लिखी रचनाओं में जान आ ही जाती है. यही कारण था कि, दुःख और दर्द में सिसकती हुई उसकी सारी कहानियां पढ़ने वालों के दिलों पर एक अमित छाप छोड़ जाती थीं. उदास गीत पाठकों के दिलों की सारी खुशियाँ भी छीनकर ले जाते थे. उस्कीऊ रचनाएँ पाठकों का चैन छीन लेती थीं.
इन्हीं दिनों उसके कॉलेज में कोई कहानी की प्रतियोगिता हुई तो उसने भी अपने दिल की गमभरी दास्ताँ की वक रोटी-बिलखती और तड़पती कहानी बनाकर इस प्रतियोगिता में दे दी. उसकी यह कहानी, कोई भी कहानी नहीं थी, परन्तु वह वास्तविकता थी, जो उसके साथ घटित हो चुकी थी. वह खोज थी कि, जिसकी तलाश में, वह एक लंबे अरसे तक भटका था. वह आवाज़ थी जिसको वह कहना चाहता था. उसकी वह आरजू थी, जिसकी पूर्ति की आशा में, उसके आंसू तक निकल आये थे. उसका वह प्यार था कि, जिसने उसके जीवन का रास्ता ही बदल डाला था. उसके दिल का छिपा हुआ वह भेद था कि, जिसको वही अकेला जानता था और जिसकी सच्चाई केवल उसी अकेले के पास तक सीमित थी. उसकी रोमिका का प्यार- उसका दर्द, उसका अपना प्यार था. दिल था- दिल की धड़कनें थीं- उसकी आत्मा- आत्मा का दर्द था. आधे-अधूरे प्यार के होठ थे- उनकी वेदना थी- उसका दुःख का मारा जीवन था- रोमिका ! उसके जीने का आधार- उसके दुखों का यथार्थ.
कहानी प्रतियोगिता का जिस दिन परिणाम घोषित होने को था, उस दिन वह कॉलेज की खासी भीड़-भाड़ से अलग कॉलेज की अकेली और सूनसान, मौन फील्ड में बैठा हुआ था- दुखी और अपने अतीत के गम के मारे हुए के समान. एक निराशा के बादल के समान, अपने जीवन की सारी हसरतों का पतझड़ बना हुआ वह दूर आकाश में चुपचाप फैली हुई बादलों की मस्त टोलियों को निहार रहा था. बहुत उदास- गंभीर- रोमिका की यादों को अपने दिल की धड़कनें बनाकर, वह अपने खोये हुए प्यार के बारे में सोचने में लीन था.
यहाँ कॉलेज में इतने सारे लड़कों के मध्य में भी, उसका कोई भी अपना नहीं था कि जिससे वह अपने दिल का भेद कह सकता? शायद कोई भी उसके दुखड़े को समझनेवाला नहीं था. आकाश में ठहरी हुई बादलों की पतली-पतली धुएं जैसी पर्तें बहुत देर से रुकी हुई उसकी दशा को निहार रही थीं. दूर कहीं हरे खेतों के पार किसी ईंट के भट्टे की काली और गर्म चिमनियों से धुंआ उठता हुआ आकाश में विलीन होता जा रहा था. कुछ ऐसी ही दशा नितिन के दुःख से भरे दिल की भी थी. उसके भी दिल की धड़कनों में सुलगन पैदा हो चुकी थी. उसका परेशान दिल, अपने ही विचारों और सोचों में डूब चुका था.
नितिन अक्सर ही रोमिका के बारे में सोचा करता. यही कि, कहाँ चली गई? उससे कुछ भी कहे-सुने बगैर? चली भी गई तो कहाँ? कुछ पता नहीं. अब वह कहाँ पर होगी? वह जहां भी होगी, न जाने किस प्रकार से होगी? रोमिका- उसकी रोमिका. केवल उसी ही की- क्यों उससे दो दिन के प्यार का खेल खेलकर, उसे जीवन भर तड़पने को अकेला छोड़ गई है? आखिर, उसने ऐसा कौन सा अपराध किया है कि, जिसके कारण उसे इतनी कठोर सज़ा भुगतनी पड़ रही है? वह तो उससे जाते समय मिलकर भी नहीं गई. काश: वह उसको एक बार पा लेता तो अपने सारे दर्द उससे कह भी लेता. परन्तु, लगता था कि, यह भी उसकी किस्मत में नहीं था.
रोमिका का दर्द शायद कम भी हो जाता- शायद अपनी पत्नी के प्यार में वह एक बार कभी-न-कभी रोमिका को भूल भी जाता, परन्तु उसके प्यार में, उसकी रोमिका से मिलता-जुलता दूसरा स्वरूप भी मौनता के रूप में मौजूद था. मौंब्ता- उसकी पत्नी- उसकी जीवन-संगिनी- परन्तु उसके कारण रोमिका को भूलने की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. मौनता को देखते ही, उसको अपनी रोमिका याद आने लगती थी. बहुत कुछ दोनों में समानता थी. सबसे बड़ी समानता थी कि, दोनों ही मूक और बेजुबान थीं. दोनों ही का बातें करने का ढंग भी एक जैसा ही था. आँखों के इशारे भी एक जैसे ही, वही थे. तो, एसडी कठिन और विषम परिस्थिति में नितिन क्यों और कैसे रोमिका को भूल पाता?
कैसे वह यह सब भुला सकता था? अब तो शायद कभी भी यह संभव नहीं था कि, मौनता, उसकी पत्नी होते हुए भी रोमिका का स्थान ले पाती?
'अरे ! नितिन तुम यहाँ और अकेले? क्या कर रहे हो, यूँ, अकेले बैठे हुए?'
'?'- अचानक उसकी कक्षा के सहपाठी, अशोक ने आकर कहा तो नितिन के ख्यालों की डोर अचानक ही टूट गई. नितिन ने आँख उठाकर सामने देखा तो अशोक उसको देखते हुए मुस्करा रहा था.
तब नितिन के पास आकर वह भी बैठ गया. चुपचाप. बैठकर वह नितिन के चेहरे की मुद्रा को गंभीरता से देखने लगा- बहुत गौर से.
'क्या देख रहे हो?'
नितिन ने अशोक को टोक दिया.
'देख रहा था कि, तुम्हारे इस चेहरे की खामोशियों में और कितने दर्द आने बाक़ी हैं'
'हूँ !' नितिन के दिल से थकी हुई एक आह-सी निकल पड़ी.
'खामोशियाँ, मैंने बहुत-सी देखी हैं. दिल के छिपे हुए भेद बाहर आये हैं. बहुत से दिलों की दास्ताँ को मैंने भी जाना है. एक-से-एक ट्रेजिडी के गम में उदास लोगों को मैंने देखा है, परन्तु तुम-सा कभी नहीं देखा है? नितिन- वाह ! क्या प्यार की हारी हुई बाज़ी की मार है तेरे मुखड़े पर? क्या तू, अपनी इस उदासी की छिपी हुई कहानी को, इसके गहरे राज़ को, अपने साथ ही लेकर जाएगा? क्या किसी दूसरे को इसमें शामिल नहीं होने देगा?'
अशोक ने एक आशा से नितिन से कहा.
'हां, सोचा तो यही है.' नितिन ने गंभीरता से कहा.
'लेकिन, इससे फायदा क्या होगा?'
'कह देने से भी कौन-सा लाभ हो जाएगा?'
'हो सकता है. शायद तुम्हारी खोई हुई खुशियों को वापस लाने का कोई ज़रिया ढूंढ लिया जाए'
'मेरी खुशियाँ? वह तो हमेशा के लिए, मेरा साथ छोड़कर चली गई हैं और अब शायद वे कभी-भी वापस न आयें?
नितिन एक घोर निराशा से दूसरी तरफ देखने लगा. उसे देखकर अशोक का भी दिल तड़पकर रह गया. तड़प गया नितिन की उदासी को देखकर. उसकी निराशाओं की एक झलक मात्र देखने ही भर से अशोक सोचने लगा कि, 'इतना दुःख? इसकदर दर्द? इतनी अधिक निराशा? नितिन की दशा देखकर कुछेक पलों के लिए अशोक भी गंभीर हो गया.
अशोक ने फिर आगे नितिन को अधिक इस बारे में कुरेदना उचित नहीं समझा. वह तो वैसे भी नितिन की उदास मुद्रा को पिछले कई दिनों से देखकर महसूस करता आ रहा था. लगभग उस समय ही से, जब से नितिन ने कॉलेज में प्रवेश लिया था. और आज वह उसको इसी रूप में देखता आ रहा है. नितिन की उदासियों का ये सिलसिला पता नहीं, उसके जीवन के कौन से अंधेरों में, जाकर समाप्त हो जाएगा? कब और न जाने कहाँ तक वह इस आग में जलता रहेगा? अशोक सोचकर ही रह गया.
दोनों खामोश बैठे थे- साथ ही चुप और गंभीर भी.
सहसा ही कॉलेज की घंटी बजी तो दोनों के विचारों का तांता टूट गया. तब दोनों ने एक-दूसरे को देखा, फिर चुपचाप उठकर अपनी कक्षा की तरफ जाने लगे. नया पीरियड आरम्भ हो गया था. मार्ग में अशोक ही दो-एक बार नितिन से बोला, नहीं तो नितिन जैसे कोई भी बात ही नहीं करना चाहता था. नितिन की इस खामोशी ने जैसे अशोक की भी आवाज़ छीन ली थी?
कक्षा आ गई तो दोनों अपनी-अपनी जगहों पर जाकर बैठ गये. दोनों की सीटें पास-पास ही थीं. प्रोफेसर आये और सबकी उपस्थिति लेने के पश्चात पढ़ाने के लिए अपना आज का पाठ आरम्भ ही करने जा रहे थे कि, तभी कक्षा में प्रवेश करते हुए कॉलेज कार्यालय के चपरासी को देखकर मौन रह गये. चपरासी ने अपने साथ लाया संदेश का कागज़ उनकी ओर बढ़ा दिया. जिसे एक नज़र पढ़ने के बाद कुछेक पलों तक कक्षा में बैठे हुए सारे विद्द्यार्थियों में से जैसे किसी को ढूँढने लगे. तब अंत में वे बोले कि,
'मिस्टर नितिन राज?'
'?'- नितिन एक संशय के साथ अपने स्थान पर खड़ा हो गया.
'प्रिंसीपल वांट टू सी यू ?' (आपको प्रधानाचार्य ने बुलाया है.)
'जी. . .सर ?'
नितिन अपने स्थान पर ही खड़ा होकर बोला.
और फिर अपनी किताबें कोपियाँ हाथ में लेकर जाने लगा. उसे जाते हुए देखकर प्रोफेसर ने उससे कहा कि,
'गुड लक.'
'जी थैंक यू.'
नितिन कहता हुआ कक्षा से बाहर निकल गया. कक्षा में बैठे हुए सारे विद्द्यार्थी उसे आश्चर्य से निस्तब्ध जाते हुए देखते रह गये. बाद में प्रोफेसर ने पढ़ाना आरम्भ कर दिया. कक्षा में माजून छा गया. फिर कुछेक पलों में ही अशोक के साथ दो-चार छात्र और भी कक्षा के बाहर निकल गये. वे नितिन को गैलरी में जाते हुए देखने लगे.
नितिन ने धड़कते दिल से प्रधानाचार्य के कार्यालय के दरवाजे पर पड़ा हुआ पर्दा हटाया और उनके सामने खड़े होकर बोला कि,
'सर ! क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?'
'कम इन.'
नितिन चुपचाप अंदर जाकर उनके सामने खड़ा हो गया.
तब प्रधानाचार्य ने अपनी निगाहें उठाकर एक पल नितिन को देखा. फिर उससे बोले कि,
'क्या तुम्हारा ही नाम नितिन राज़ है?'
'जी हां. मैं ही नितिन राज़ हूँ.'
तब प्रधानाचार्य उसकी तरफ एक पांडुलिपि दिखाते हुए बोले कि,
'यह कहानी तुमने ही लिखी है?'
'जी सर ! इसको मैंने ही लिखा है और कहानी प्रतियोगिता में भेजी भी है.' नितिन ने कहा.
'जानते हो कि इस कहानी की नायिका कौन है?'
'एक खामोश, बे-आवाज़ लड़की- रोमिका.'
'रोमिका से तुम्हारा क्या रिश्ता है?' प्रधानाचार्य ने पूछा.
'सर ! ये मेरी अपनी बात है- मेरी कल्पना है.'
'तुम्हारी अपनी बात है, फिर भी इसको दुनिया के सामने पहुंचाते हुए तुम ज़रा भी नहीं हिचके?'
प्रधानाचार्य की आवाज़ के स्वर अचानक ही ऊंचे हुए तो नितिन सहम-सा गया. बोला,
'सर ! मैं समझा नहीं?'
'मैं समझाता हूँ. एक समझदार छात्र होकर भी, ऐसी नीच हरकत करने से भी नहीं चूक सके? अपनी कलम का सहारा लेकर, तुमने उस सीधी-सादी लड़की की समस्त लज्जा को छेल कर फेंक दिया? उसकी एक-एक बात को कहानी का रूप दिया, ताकि हरेक कोई समझ सके? तुम इस कॉलेज में पढ़ने आते हो या एक कलाकार की भावना का नाजायज़ बहाना लेकर इस कॉलेज की इज्ज़तदार लड़कियों के दिलों पर ठेस पहुंचाने? क्या तुम जानते हो कि, तुम्हारी इस कहानी को पढ़कर उसके दिल पर क्या-क्या बीत चुकी है?'
'किसके दिल पर?'
'रोमिका के दिल पर?'
'रोमिका के दिल पर? ये आप क्या कह रहे हैं सर ?' नितिन एकाएक ही सकपका-सा गया.
'तुमने अपने दिल की हसरतों की बात अपनी कहानी के माध्यम से उस तक पहुंचा तो दी, परन्तु ये नहीं सोचा कि, उस भोली लड़की पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?
'?'- नितिन आश्चर्य से खामोश खड़ा रहा तो प्रधानाचार्य आगे बोले कि,
'उसने जब तुम्हारी कहानी पढ़ी तो वह रो पड़ी. मेरे सामने रोती ही रही. सुबकती रही- बार-बार यही कहती रही कि, नितिन को समझा दीजिये. मैं तो उसको जानती भी नहीं. उसे मैंने कभी देखा भी नहीं है. मेरा उससे कभी-भी कोई संबंध भी नहीं रहा है- कभी नहीं.'
'मैं इस बात को कभी भी नहीं मां सकता सर? ऐसा कभी नहीं हो सकता है- कभी नहीं?'
' तुम्हें मानना ही पड़ेगा. मैंने खुद उसे अपनी आँखों से देखा है. उसके आंसू देखे हैं? वह मेरे सामने रोई है. उसकी सिसकियों को मैंने ही सुना है. उसने स्वयं मुझसे कहा है. वह मेरे सामने रोई है- चिल्लाई है. मैं कैसे तुम्हारी बात मान लूँ?'
'ऐसा कभी नहीं हो सकता है सर? कभी भी नही. मेरी रोमिका तो खामोश है. बेआवाज़ है. गूंगी है. वह बोल ही नहीं सकती है. वह तो कभी चिल्ला भी नहीं सकती है. वह तो केवल और केवल मुझको ही प्यार करती है. वह मेरे दिल की धड़कन है. मेरी आवाज़ है. वह बहुत खामोश है. आप जो कुछ भी कह रहे हैं, वह सरासर झुठ है. मुझ पर लगाया गया आरोप गलत है. मेरी रोमिका तो अपनी आवाज़ के लिए सदा
'खामोश हो जाओ?'
नितिन को भावनाओं में लगातार बोलते हुए देखकर, प्रधानाचार्य अचानक ही जैसे चीख-से पड़े. चीख पड़े तो नितिन चुप हो गया. उसे तब ख्याल आया कि, वह किसके सामने खड़ा है और वह उनसे क्या-क्या बक चुका है?
'क्या यह सच है कि, तुमने अपने दिल की बात, अपनी कलम के माध्यम से रोमिका से कहने की कोशिश की है?'
प्रधानाचार्य ने अपने बात फिर से आरम्भ की और नितिन की आँखों में अपनी आँखें गड़ाकर उससे कठोरता से पूछा.
'सर ! मैंने तो केवल अपने मन के बिखरे हुए शब्दों को जोड़ भर दिया है. बस इतनी ही कोशिश की है कि, वाक्यों के टूटे टुकड़ों को एक कहानी का रूप दे दिया है. उसकी खामोशी में झंकारें भरने की चेष्टा की है. ताकि कहानी की नायिका खुश रह सके. मेरी कहानी की नायिका तो सदा से खामोश और चुप रहती है. इतना चुप कि, बहुत ही अधिक चुप. वह तो बोल भी नहीं सकती है. और फिर एक लेखक के तौर पर तो मेरा उसका संबंध तो जन्म-जन्म का है.'
'व्हाट?. . . बुड यू शट योर माऊथ?'
प्रधानाचार्य फिर से दहाड़ पड़े तो नितिन फिर एक बार सहम पड़ा. इस प्रकार कि, उसके होठ शीघ्र ही बंद हो गये.
'?'- थोड़ी देर के लिए कमरे में सन्नाटा उन दोनों के मध्य में एक तीसरे बजूद के समान पसरा पड़ा रहा. बाद में प्रधानाचार्य जैसे सामान्य हुए. वे नितिन से अपने धीमे शब्दों में बोले,
'मिस्टर नितिन राज़ ! इस विद्द्यालय के भी कुछ नियम हैं. कायदे-क़ानून हैं. मैं क्या वह हर शख्स जो इस विद्दयालय से ज़रा भी जुड़ा हुआ है, उसको इन नियमों के दायरे में रहना होता है और कायदे-क़ानूनों का पालन भी करना होता है. मैं भी इसी परम्परा से जुड़ा हुआ हूँ.'
'आप. . .कहना क्या चाहते हैं?'
नितिन ने साहस करते हुए पूछा तो प्रधानाचार्य बोले,
'वही तो मैं तुमको बताने जा रहा हूँ.'
'?'- नितिन चुप हो गया.
'यह ठीक है कि, तुमने अपने कला का प्रदर्शन बेजोड़ किया है और अपनी कलम की कारीगरी का बेमिसाल रूप करके दिखाया है, पर इस कलम के माध्यम से जो भी परोक्ष रूप में तुमने किया है अथवा जो करके दिखाना चाहते थे, वह इस कॉलेज के सामाजिक नियमों का उल्लंघन भी है. तुमने इस प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ कहानी का इनाम भी पाया है. मगर मुझे बेहद अफ़सोस है कि, इस कहानी प्रतियोगिता के प्रथम प्राइज़ के साथ-साथ तुमको कॉलेज की एक लड़की की मासूम भावनाओं को आहत करने के आरोप में कॉलेज के अगले स्तर तक के लिए बाहर निकाला जाता है. केवल सालाना परीक्षाओं में ही सम्मिलित होने की तुमको इजाजत दी जाती है. इस विद्दयालय की संस्कृति, नियम और कायदे-क़ानून तुमको इस प्रकार की हरकतें करने की अनुमति नहीं देती है.'
'सर !' नितिन के तालू से मानो उसकी जुबान ही चिपक गई.
'अब तुम जा सकते हो.'
'?'-
नितिन के सिर पर मानो सैकड़ों पत्थर बरस पड़े. उसे लगा कि, जैसे किसी ने बगैर बात के ही उसके शरीर में हजारों सुइंयाँ लगा दी हों. क्या-से-क्या हो गया? पल भर में ही उसके एक बने-बनाये गंभीर व्यक्तित्व पर अपमान की चीखें बरस पड़ी थीं. वह सोचता था कि, उसने ऐसा कौन-सा अपराध किया था कि, जिसके कारण उसको इतनी सारी बातें अपने प्रधानाचार्य के मुख से सुननी पड़ी थीं. प्रधानाचार्य ने उसको क्या-क्या सुना दिया था. बिना कोई भी वास्तविकता को जाने-सुने उस पर जैसे सारे कॉलेज की कीचड़ थोप दी थी. उसे न जाने कितने अरमानों से उसके पिता ने इस कॉलेज में प्रवेश दिलाया था और अब वह क्या लेकर वापस जा रहा था?
खड़े-खड़े नितिन की आँखों के सामने अन्धेरा छा गया. उसने प्रधानाचार्य को एक पल देखा, फिर चुपचाप सिर झुकाए हुए उनके कार्यालय से बाहर आ गया. गैलरी में आकर वह कुछेक क्षणों तक यूँ ही खड़ा रहा. फिर थोड़ी देर बाद चुपचाप चल दिया- कॉलेज के बाहरी गेट की तरफ. उसे अब इस कॉलेज से क्या लेना था? उसका अब यहाँ अधिकार ही क्या रहा था? जो कुछ था भी वह भी बगैर किसी कारण के छिन भी गया था. रहे-बचे अरमानों की वह लाश, जिसमें जीवन के कुछ लक्षण दिखाई देने की संभावना थी, वह भवव आज अपना दम तोड़ गई थीं. रोमिका के बाद उसके पास थोड़े-बहुत ख्वाब बचे थे, जिनकी आशा में वह अपना उजड़ा हुआ जीवन गुज़ार लेता, वह भी टूट चुके थे. उसे अफ़सोस था कि, प्रधानाचार्य ने उसकी किसी भी बात पर विश्वास नहीं किया था. कोई बात तक नहीं सुनी थी. अगर सुनी भी थी तो वे उसे समझ नहीं सके थे. लगता था कि, उनकी दृष्टि में नितिन की किसी भी बात का कोई भी मूल्य नहीं था. उसे ही दोषी ठहराया था. उसने तो केवल अपनी रोमिका के दुःख के आंसुओं को मात्र एक कहानी में ही बदला था. उसके उन आंसुओं को संवारने की कोशिश की थी, जिन्होंने उसके जीवन को बिगाड़कर रख दिया था- उसके फूलों की राहों में कांटे बिछा दिए थे- चेहरे पर उसके उदासी पोत दी थी.
अब क्या होगा? घर पर भी वह किस मुंह से जाए? सब सुनेंगे तो क्या कहेंगे? उसकी कौन सुनेगा? उलटा सब ही उसी को दोषी ठहरा देंगे? यही सब कुछ सोचते हुए नितिन कॉलेज के गेट के बाहर आ गया. थोड़ी देर थम क्र उसने अपनी निगाहें, उठाकर कॉलेज की विशाल इमारत को देखा- वह विशाल इमारत भी शायद उसको बहुत हैरानी से निहार रही थी? उसे चुपचाप चले जाने का जैसे संकेत दे रही थी? वह जानता था कि, अब उसे यहाँ से कुछ भी नहीं लेना था. यही सोचकर नितिन आगे बढ़ गया- अपने दिल पर दुनिया जहान का बोझ उठाये हुए. अपने मन में ज़िन्दगी की एक नई ठोकर की चोट का दर्द लिए हुए- सड़क पर जाकर वह मनुष्यों की भीड़ में लुप्त हो गया- मगर वह घर नहीं गया.
दिन भर नितिन बाज़ार में किसी रास्ता भूले हुए पथिक के समान इधर-उधर ही भटकता-सा फिरा. अपने दुःख-दर्दों का ज़नाज़ा बना हुआ. फिर जब संध्या घिर आई और सूर्य का तमतमाता हुआ गोला क्षितिज के एक किनारे पर जाकर लाल हो गया, आकाश में उसकी रश्मियाँ तपे हुए सोने के समान चमक उठीं, तो वह बहुत निराश और थका हुआ तो वह ईशन नदी के पुल की मुंडेर पर जाकर बैठ गया. वहां पर, अपना सिर झुकाए हुए, बहुत ही उदास मन से नदी के जल की मचलती हुई धाराओं को निहारने लगा. चुपचाप उनके शोर को सुनने लगा. संध्या डूब रही थी और आकाश में कोई भटका हुआ पक्षी चुपचाप जल्दी में सरसराता हुआ, अपने बसेरे की तरफ उड़ा चला जाता था. हर तरफ खामोशी बिखरी पड़ी थी. सारे माहौल को एक अजीब सी चुप्पी ने जैसे अपने बाहुपाश में जकड़ रखा था- साथ में सन्नाटे अपनी जगह पर स्थिर थे.
नदी के पुल पर जब नितिन को बैठे हुए अधिक देर हो गई और वृक्षों की घनी पत्तियों के मध्य से चन्द्रमा ने भी इठलाकर देखा तो नितिन चुपचाप अपने घर की तरफ लौट पड़ा. निराश कदमों से- दिल में तो वापस जाने की इच्छा ही नहीं थी, परन्तु वह जाता भी कहाँ? उसे जाना ही था- शायद अपने नसीब में लिखे हुए, बाक़ी के दुखभरे टुकड़ों को बटोरने के लिए?
थके कदमों से जैसे ही नितिन ने घर में प्रवेश किया, आगे बढ़ने से पूर्व ही उसे अपने पिता धनराज का शोर मचाता हुआ स्वर सुनाई पड़ा. उसके पिता कह रहे थे कि,
'ये किस प्रकार का इनाम है?'
'कहानी प्रतियोगिता का- नितिन ने कॉलेज की कहानी प्रतियोगिता में पहला प्राइज पाया है.' वहां पर खड़े अशोक ने कहा.
'तो फिर तुम क्यों लेकर आये हो? वही अपने हाथ से लेता तो अधिक शोभा देता?' धनराज ने पूछा.
'जी ! वह तो वहां पहुंचा ही नहीं था.'
'क्या?' धनराज आश्चर्य से डूब गये.
'वहां, पहुंचने से पहले ही उसे कॉलेज से निकाल दिया गया है.' अशोक बोला तो धनराज जैसे खड़े से ही विचलित हो गये. वे जैसे चिढ़ते हुए बोले,
'क्या कहा? उसे कॉलेज से निकाल दिया गया है?'
'जी, हां. मैंने जो बताया है, वह सब सच है. उसे सचमुच ही कॉलेज से निकाल दिया गया है.'
'मगर क्यों. क्या किया है उसने?'
'जी ! वह एक लड़की का कोई चक्कर है शायद? श्री विद्याधर श्रीवास्तव की इकलौती लड़की रोमिका का. चूँकि, श्री विद्द्याधर श्रीवास्तव हमार कॉलेज के हिन्दी विभाग के 'हेड' हैं और वही इस प्रतियोगिता की निदेशक और परीक्षक भी हैं. तो जब सब ही कहानियाँ जांच के लिए उनके पास पहुँचीं और जब वे उन्हें जांचने के लिए अपने घर पर ले गये तो, तब ही उनकी पुत्री रोमिका ने भी नितिन की कहानी पढ़ ली थी. वही कहानी जो रोमिका के लाइफ स्टाइल से भी मिलती-जुलती है; उनकी लड़की रोमिका भी हमारे ही कॉलेज में एम. ए. प्रथम वर्ष की छात्रा है. वैसे तो शायद कुछ भी नहीं होता, परन्तु नितिन ने कहानी में डायरेक्ट नायिका का नाम भी रोमिका ही लिखा है- इस पर रोमिका ने इस कहानी के बारे में प्रधानाचार्य से नितिन के बारे में शिकायत कर दी है कि, नितिन ने अपनी कहानी रोमिका के ही लिए लिखी है. फलस्वरूप प्रधानाचार्य ने नितिन को कॉलेज से निकाल दिया है, और उसका यह प्राइज़ मुझे यहाँ तक लाना पड़ा है.'
'नहीं ! यह कभी भी नहीं हो सकता है. मेरा लड़का चाहे कैसा भी क्यों न हो, पर वह ऐसी घिनौनी हरकत कभी भी नहीं करेगा. मैं कल ही प्रिंसिपल से जाकर बात करूंगा.' धनराज क्रोध में बोले तभी नितिन ने अंदर आकर उनसे कहा कि,
'वहां जाने की अब कोई भी आवश्यकता नहीं है, पिताजी.'
'?'-
नितिन को अचानक ही अपने सामने पाकर धनराज भी स्तब्ध रह गये. साथ ही अशोक भी चौंक गया. धनराज और अशोक के साथ नितिन के समस्त परिवार वाले उसे आश्चर्य से देखने लगे. नितिन कुच्गेक पलों तक मौन खड़ा रहा. धनराज से अपने इकलौते पुत्र नितिन का दुःख तो यूँ भी नहीं देखा जाता था. उस पर उसे कॉलेज से अपमानित और आरोप लगाकर बाहर निकाल देना? वे कैसे इसे सहन कर सकते थे? नितिन के दुःख-दर्द को वे समझते ही नहीं थे बल्कि दिल से महसूस भी करते थे. इसी सोच में वे नितिन के पास आये- बहुत प्यार से उन्होंने नितिन के उजाड़ चेहरे को देखा- फिर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले कि,
'बेटा ! तू चिंता मत कर. मैं कल ही प्रिंसिपल से मिलकर तेरा 'रस्टीकेशन' रद्द करवाऊंगा. मेरा इस शहर के बड़े-से-बड़े अधिकारी और नेताओं से रसूक है.'
'छोड़िये पिताजी. जो होना था, वह हो चुका है. अब और क्या होना बाक़ी है, उसी की आशा रखिये.'
नितिन ने अपने उदास स्वर में कहा.
'कैसे छोड़ दूँ? मैं तो इन्साफ लेकर ही रहूंगा.' धनराज भी जोश में आ गये.
'इन्साफ ! आप ये क्यों भूल रहे हैं कि, सलीम के मरने के पश्चात इन्साफ खुद बेसहारा होकर भारत की गन्दी भ्रष्टाचारी नालियों में अपने इन्साफ की भीख मांग रहा है. वहां, जाने से कुछ नहीं होगा.'
'तू, किताबों वाली बातें न कर. मुझे जो करना होगा वह मैं जरुर ही करके रहूंगा. अपने आपको कमजोर न समझ.' धनराज बोले.
'मैं कमजोर नहीं हूँ पिताजी.' कहते हुए नितिन अशोक की तरफ बढ़ा और उससे बोला कि,
'ये उपहार तुम क्यों लेकर आये हो? कॉलेज की तरफ से जो इनाम मुझे मिलना था, वह तो मैं ले ही चुका हूँ. अब इसकी कोई भी आवश्यकता नहीं है. वैसे भी इस आरोप से ग्रस्त उपहार को मुझे लेने का कोई भी अधिकार नहीं है. तुम इसे जाकर वापस कर देना और उनसे कहना कि, उपहार के इस चेक से उन खामोश विद्द्यार्थियों के लिए कफ़न जरुर खरीद लें जिनकी आवाज़ को सुना नहीं जाता है और फैसला सुना दिया जाता है.'
इतना कहकर नितिन अपने कमरे की ओर बढ़ गया.
'नितिन !' जाते हुए उसे अशोक ने रोका.
'अब क्या है?' नितिन बोला.
'भावनाओं में बहकर अपने हक के अधिकारों से वंचित होने का प्रयास मत करो?'
'कौन सा हक? कैसे अधिकार? किस बात पर मेरा अधिकार है?'
'ये कहानी प्रतियोगिता का तुम्हारा प्राइज़.'
'यदि मेरा होता तो मुझको ये सम्मानपूर्वक दिया जाता? कॉलेज से 'रेस्टीकेट' करके मुझे अपमानित नहीं किया जाता?'
'इसका मतलब है कि, क्या तुम्हारा कोई भी दोष इस मामले में नहीं है?' अशोक ने गंभीरता से कहा.
'हां है. केवल इतना कि, मैंने इस प्रतियोगिता में भाग लिया है. जिस रोमिका जैसी नायिका को आधार बनाकर मैंने ये कहानी लिखी है, उसके बारे में मेरे अतिरिक्त कोई कुछ भी नहीं जानता है. मेरी रोमिका तो खामोश है- बेआवाज़ है- बहुत भोली है- सहनशील है. मैं नहीं जानता हूँ कि, आज ये कौन सी बोलनेवाली रोमिका अचानक से आ गई कि, जिसकी मैंने आज तक एक झलक भी नहीं देखी है?'
'तो क्या रोमिका श्रीवास्तव से तुम्हारा कोई भी परिचय नहीं है?' अशोक ने आश्चर्य से पूछा.
'हां- अगर विश्वास न हो तो तुम स्वयं ही उससे जाकर पूछ लेना.'
यह कहकर नितिन अपने कमरे की तरफ बढ़ गया.
अशोक उसको देखता ही रह गया. थोड़ी देर बाद वह भी नितिन के घर से बाहर आ गया- निराश सा. धनराज अभी तक दोनों की बातों की गहराई को समझ ही नहीं सके थे.
नितिन, अपने कमरे में आ गया तो मौनता भी चुपचाप उसके पीछे-पीछे अंदर आ गई. उसने भी पर्दे की ओट से वह सारी बातें सुन ली थीं, जो इतनी देर से नितिन को लेकर हो रही थीं. मौनता ने बहुत खामोशी से नितिन के जूते उतारे. उसका कोट उतारकर ऊपर हेगर पर लटका दिया. फिर उसके लिए चाय बनाने चली गई. तब तक नितिन चुप बैठा रहा. बैठे हुए आज पूरे दिन की उन बातों के बारे में सोचने लगा जिनके कारण उसके सारे बदन में चिंगारियां सी लग रही थीं.
मौनता चाय की ट्रे लेकर आई. एक स्टूल पर रखकर उसने चाय बनाई और नितिन को दी. वह बहुत खामोशी के साथ चाय को सिप करने लगा. तब चाय के मध्य ही मौनता ने उससे इशारे में ही पूछा कि,
'यह सब क्या था और क्या हुआ?'
'?'- नितिन ने उसके बेआवाज़ होठों को देखते हुए कहा कि,
'ऐसा कुछ भी नही कि, तुम नाहक ही परेशान होओ.'
तब मौनता भी चुप हो गई.
दोनों बैठे हुए चुप-चुप चाय पीते रहे. खामोश और गंभीर भी. कमरे में उन दोनों के अतिरिक्त खामोशी का लबादा एक तीसरे अजनबी के समान अपने पग बढ़ाता रहा. दोनों ही चुप थे. पति-पत्नी होकर भी, मानो वे अब तक अजनबी थे. इस संसार का कितना बड़ा और नाजुक रिश्ता उन दोनों के मध्य कायम था, फिर भी उनमें जैसे सदियों की दूरियां थी. फासले थे- किसकदर वे आपस में दूर थे कि एक बात करना चाहता था पर कर नहीं पाता था और दूसरा बात कर सकता था लेकिन करता नहीं था? नितिन मौनता से इसकदर दूर था कि, मौनता ही यह बात महसूस करती थी. विवाह के इतने वर्षों के बाद भी वह अभी तक नितिन का दिल नहीं जीत सकी थी- उसका दिल से प्यार नहीं पा सकी थी.
नितिन के प्यार को अपने आगोश में छिपाकर रखने के लिए वह अभी तक तरस रही थी. दोनों ही अक्सर चुप रहते थे. दिलों में उनके अपने-अपने प्रश्न थे. बहुत सारी वे बातें थी जो अभी तक या तो हुई नहीं थीं अथवा अधूरी ही थीं. कहने के लिए दोनों के मध्य ढेरों-ढेर शिकायतें भी थी- शिकवे थे. लगता था कि जैसे समय की पाबंदियों ने शायद उनके दिल की सारी आवाज़ को छीनकर अपने पास रख लिया था.
मौनता जब कभी भी अपने पति को किसी अन्य के ख्यालों में खोया हुआ देखती थी, तो देखते ही उसके दिल पर छाले पड़ जाते थे. तड़प-तड़प जाती थी वह- अपना प्यार, अपना अधिकार, उसे लगता था कि, जैसे वह खोये दे रही है? नितिन के दिल में भरा हुआ दुःख वह बाँट नहीं सकी थी. इसी कारण उसका दुःख पहले से भी अधिक बढ़ जाता था. 












18
नितिन ने ऐसा सोचा तो उसे रोमिका फिर से याद हो आई. याद आते ही उसके दिल में एक कसक सी उठकर रह गई. उसके होठ तड़प उठे- रोमिका. दिल ने आत्मा की गहराई से याद किया- रोमिका. रोमिका- रोमिका और सिर्फ रोमिका. वह भी तो भटक रही होगी? जाने कहा-कहाँ? दर-दर उसे पुकारती फिर रही होगी? ढूंढ रही होगी उसको? इस भरे संसार में न जाने कहाँ होगी? किस दशा में? किस हाल में? कहीं मारी-मारी न फिर रही हो? रोमिका- उसकी रोमिका- उसका अतीत- रोमिका. उसका पहला प्यार रोमिका- प्यार का पहला और अंतिम एहसास- रोमिका.
उसने भी तो कभी उसको अपने जीवन का संपूर्ण आधार बनाकर उससे सदा के लिए लिपटना चाहा था. उसके दिल से सपने देखे होंगे. वह तो उसके जीवन की रही-बची जान है. उसी के आधार पर- उसी के मिलन की एक अपूर्ण आशा में वह अपने जीवन की तमाम कठिनाइयों से संघर्ष कर रहा है. उसे आशा है कि, रोमिका उसे कभी-न-कभी तो अवश्य ही मिलेगी. कभी तो उसका मिल्न होगा ही. उसके जीवन के किसी भी मोड़ पर- कहीं भी- अंधेरों में अथवा उजालों में? दिन या रात में? बारिश या धूप में? ये उसका विश्वास है. जब भी ऐसा होगा तो वह फिर एक बार उसको अपने दिल से लगा लेगा. उसे अपनी प्यासी धड़कनों से चिपका लेगा. उसमें समा जाएगा- और वह भी उसके जीवन की एक भटकी 'वाइन' या बेल समान उससे लिपट जायेगी. सदा को- उसकी ही बनकर.
परन्तु वह मौनता का क्या करे? क्या वह रोमिका के समान उसको अपने दिल में शरण दे सकेगा, जबकि वह कायदे से उसकी धर्म-पत्नी भी है? रोमिका यदि उसके दिल की धड़कनें है तो मौनता भी तो एक धड़कन ही है जो अभी तक उसके दिल में अपना स्थान नहीं बना सकी है. मौनता, उसकी पत्नी, सामाजिक अधिकारों में रोमिका से कहीं बहुत आगे है और रोमिका बहुत पीछे. नितिन ने जब भी इस प्रकार से सोचा तो उसका दिल हमेशा ही परेशान हो गया. वह समझ नहीं पाटा था कि वह क्या करे और क्या नहीं?
नितिन के मन को जब तसल्ली नहीं मिली तो वह मौनता को उसी दशा में अकेला छोड़कर अपने घर के बाहर आकर खड़ा हो गया. लॉन में खड़े होकर वह दूर क्षितिज को निराश होकर ताकने लगा. रात हो चुकी थी आये वृक्षों के साए अपने सिर झुकाए हुए चुपचाप खड़े थे- मानो बहुत ही उदास. ऐसी ही एक निराशा नितिन के जीवन में भी समा चुकी थी. इस प्रकार कि उसका सारा बदन जलते हुए लाल अंगारों समान, इन्हीं सोचो और विचारों के कारण दहकने लगा था. वह जानता है कि, पहले तो रोमिका के प्यार की बेवफाई का ही दुःख बहुत था, पर कल शाम कॉलेज में हुई घटना ने उसके दुःख में एक हिस्सा और भी जोड़ दिया था.
अपने कॉलेज से यूँ अपमानित होकर निकाल दिए जाने के कारण उसका दिल फटा जाता था. मस्तिष्क में पीड़ा होने लगी थी. आँखें अपनी दुर्दशा देखकर रो भी नहीं पा रही थीं. रोमिका- उसका अधूरा प्यार. मौनता- उसकी पत्नी, उसके अधिकार? एक ओर कर्तव्य तो दूसरी तरफ उसके प्यार का तकाजा? स्वार्थ और फ़र्ज़? प्यार और अधिकार? वह किधर जाता और किधर नहीं?
रात के आठ बज रहे होंगे और नितिन अपने घर के लॉन में अभी तक मूर्खों समान खड़ा हुआ, अपने हालात का मानो मजमा बना हुआ था. वह इन्हीं ख्यालों में था कि, एक खुबसूरत लड़की ने उसे अचानक से संबोधित किया,
'जी ! सुनिए?'
'?'- एक पतली, सुरीली और शहद से भरी मीठी आवाज़ ने उसको अपने विचारों से वापस वर्तमान में लाकर खड़ा कर दिया था. नितिन अचानक ही उसको एक पल देखता रह गया. गोरा, गोल चेहरा- सुबह की ओस से नहाया हुआ, खिले हुए फूल समान उसका मोहक बदन- अथाह गहराइयों जैसी उसकी बड़ी-बड़ी आँखें- आँखों के देखने के अंदाज़ इस तरह के कि, जहां भी देखे, वहीं एक रिश्ता कायम कर ले- हरी साड़ी में उसका सारा सौंदर्य ऐसा लग रहा था कि, मानो प्रकृति ने दूर-दूर तक धरती पर हरी चादर को समेटकर एक प्यारी मूर्ति को तराश दिया था. नितिन थोड़ा उसके करीब आया- समीप आकर उसने एक अजनबी समान उस लड़की से पूछा,
'जी ! कहिये, मैंने आपको पहचाना नहीं?'
'?'- तब उस लड़की ने नितिन को गौर से देखा. ऊपर से नीचे तक, फिर साहस करके अपने शब्दों को जैसे समेटते हुए बोली,
'मैं. . .मैं. . .रोमिका श्रीवास्तव हूँ.'
'क्या?' नितिन एकाएक ऐसे चौंक गया जैसे कि उसने किसी दूसरे नक्षत्र के अनजान इंसान को देख लिया हो.
'मैं श्री विद्द्याधर, हिन्दी विभाग के हेड की इकलौती लड़की रोमिका श्रीवास्तव?' उस लड़की ने अपना दोबारा नाम बताया तो नितिन ने मन-ही-मन उसका नाम दोहराया,
'रोमिका . . .श्रीवास्तव !'
उसे देखते ही नितिन को कल शाम वाली कॉलेज की घटना तुरंत ही याद हो आई. वह घटना कि, जिसके कारण उसे कॉलेज से अपमानित करके प्रधानाचार्य ने निकाल दिया था. उसने सोचा कि, यह वही रोमिका है कि, जिसने उसका अपमान किया था. जिसने उस पर झूठा दोष मढ़ दिया था. एक यह रोमिका है तो एक वह रोमिका थी? कितना अधिक अंतर है- इस रोमिका में और उसकी पहाड़ों की फूल बरसाती मूक रोमिका में? एक कौसानी के पुकारते हुए पर्वतों की हसीन शहजादी है तो यह कॉलेज के तरंग-बिरंगे माहौल का सौंदर्य? कौसानी की रोमिका बे-आवाज़ है तो यह उस पर दोषों की भरमार करनेवाली? कितना अधिक अंतर था दोनों में? एक पहाड़ी इलाके की मलिका थी तो यह मैदानी हवाओं की उड़ती हुई तितली?
'तो अब आप क्या लेने आई हैं?'
नितिन ने उससे सवाल किया.
'दरअसलम, यह बात नहीं है. मुझे बहुत अफ़सोस है.' रोमिका श्री वास्तव ने संकोच और शर्मिन्दगी से कहा.
'किस बात के लिए?'
'मैंने व्यर्थ ही आपको अपमानित किया और आपको गलत समझा है.'
'तो?'
'मैं अपने किये की आपसे क्षमा मांगने आई हूँ. मुझे अशोक ने सब कुछ बता दिया है. मुझे सब कुछ ज्ञात हो चुका है.'
'लेकिन, एक बात शायद आपको नहीं मालुम है?'
'वह क्या?' रोमिका ने नितिन को गंभीरता से देखा.
'जो तीर आप चला चुकी हैं, वह कभी वापस नहीं आता है. वह तो अपना असर दिखाई देता है. मैं उसका परिणाम भुगत चुका हूँ.'
'मैं प्रिंसिपल महोदय से भी मिल चुकी हूँ. आपको फिर से कॉलेज में रख लिया जाएगा.'
'वह ठीक है, परन्तु जो घाव लग चुका है, वह. . .?'
'उस पर मरहम तो लगाया जा सकता है.'
'फिर भी दाग तो रह ही जाता है.'
'?'- रोमिका श्रीवास्तव चुप होगी.
'आप जा सकती हैं.' नितिन ने कहा और पलटकर दूसरी तरफ चल दिया. उसे जाते देख रोमिका श्रीवास्तव सहसा ही मानो तड़प गई. तब उसने नितिन के पीछे आकर, उसे फिर से पुकारा,
'नितिन !'
'अब क्या है?' नितिन ने पलटकर पूछा.
'कहाँ चल दिए, मुझे बगैर मॉफ किये हुए?'
'मैं अगर यह कहूं कि, जहन्नम में तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी?'
यह कहकर नितिन फिर से आगे बढ़ गया. 







द्वतीय परिच्छेद
मेरी अर्थी तेरे फूल

अब तक आपने पढ़ा है कि,
नितिन अपने कॉलेज के साथियों के साथ गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ पर भ्रमण के लिए गया था. लेकिन, वहां कौसानी में रहते हुए वह एक बेहद प्यारी, सुंदर बाला रोमिका के प्यार में अपना दिल दे बैठा. हांलांकि, रोमिका पहाड़ों की एक हसीन बाला थी पर वह गूंगी थी. मगर फिर भी नितिन उससे प्यार कर बैठा. फिर जब वह घर लौटकर आया तो उसे मालुम हुआ कि वह पहले ही से विवाहित है और उसका विवाह बचपन में ही गाँव की रीति के अनुसार हो चुका था. फिर जब उसकी पत्नी उसके घर पर आई तो वह भी गूंगी निकली. यह देखकर नितिन रोमिका को और भी नहीं भूल सका. इसलिए वह अपना घर और पत्नी को छोड़कर फिर से कौसानी भाग आया. कौसानी में उसने रोमिका को जब यह बात बताई तो वह भी उसे चुपचाप छोड़कर गायब हो गई. तब से नितिन रोमिका को ढूंढता फिर रहा है. रोमिका को ढूंढते हुए नितिन को सोलह साल हो चुके हैं. इन सोलह सालों में उसके शरीर की समस्त काया ही बदल चुकी है. फिर एक शाम कुछ युवा लड़कियों का ग्रुप कौसानी के उसी डाक बंगले में आता है जहां पर नितिन अपनी रात गुज़ारने के लिए उसके परिसर में आ जाता था. तब रात में कोई लड़की नितिन का लिखा हुआ वही गीत गाती है जो वह कभी रोमिका के साथ कौसानी के पर्वतों पर बैठ कर गाया करता था. उस गीत को सुनकर नितिन आश्चर्य से गड़ जाता है क्योंकि उसे मालुम है कि रोमिका गूंगी थी, वह गीत गा नहीं सकती है. उस गीत के बारे में या तो रोमिका जानती थी अथवा नितिन. फिर उस गीत को गानेवाला कौन है? यह कहानी इसी स्थान से आरम्भ होकर फिर से इसी जगह पर आ चुकी है.अब आगे इस कहानी के दूसरे भाग में क्या हुआ? क्या रोमिका नितिन को मिली? यह सब जानने के लिए अब इस कहानी के दूसरे परिच्छेद में आइये.
* * *

19
उस रात बादल बुरी तरह गरजता रहा. बार-बार कोंधता रहा. सारी रात वर्षा होती रही. बिजली पल-पल में चीख पड़ती थी. उसकी एक ही चमक में, सारा कौसानी का इलाका, पल भर के लिए यूँ, दमक जाता था, मानो नई-नवेली दुल्हन को संवारकर श्मशान के अंधेरों में लाकर खड़ा कर दिया हो? बिजली की एक ही कड़क में, बिगड़ी हुई हवाओं का जोश बढ़ता ही जाता था. वातावरण खराब था. भयंकर बारिश का प्रकोप- परन्तु इससे भी अधिक भयंकर तूफ़ान रोमिका के मनो-मस्तिष्क में छाया हुआ था. हृदय में उसके जैसे आरे चल रहे थे. दिल फट-फटकर चिथड़े-चिथड़े हो चुका था. उसकी सारी एकत्रित की हुई उम्मीदों पर पहाड़ टूट पड़ा था. दिल में संजोये हुए सब ही सपने, सभी महल, सारे अरमान, अचानक ही ढह गये थे.
रात आधी से अधिक बीत गई थी. वर्षा अभी भी हो रही थी. कभी-कभी बिजली की चमक बादलों की गर्जन के साथ उसके मकान के कमरे में भी प्रवेश कर जाते थी. कौसानी इलाके की सारी बस्ती, सब ही पहाड़, वर्षा की मुठभेड़ का सामना कर रहे थे, तो रोमिका का अकेला टूटा हुआ दिल, अपने बिगड़े हुए नसीब से समझौता करने का एक असफल प्रयास कर रहा था. नितिन के दिल के छिपे हुए भेद ने उसकी सारी उम्मीदों को तोड़ डाला था. सपने चूर-चूर हो गये थे. हजब से वह नितिन के पास से आई थी, तब ही से उसके मस्तिष्क में कोलाहल-सा मच गया था. उसका दिल परेशान और चेहरा उदास था.
रोमिका ने चारपाई पर निढाल पड़े-पड़े खिडकी से बाहर का दृश्य देखा- बारिश का तूफ़ान अभी भी शोर मचाते-मचाते जैसे पागल हुआ जा रहा था. हवाएं तेज थीं, जो हर क्षण और भी तीव्र हुई जा रही थीं- इतना अधिक कि, चिनार जैसे टूटे पड़ते थे. फिर भी वातावरण के इस बिगड़े हुए माहौल से बेखबर, हवाओं की भयानक तीव्रता से जैसे अनजान बनी रोमिका को बार-बार ही ख्याल आता था- नितिन? तुरंत ही उसके दिल में एक तस्वीर बनी- नितिन? दिल में बनी यह नितिन की तस्वीर उठकर उसकी आँखों के सामने आई- नितिन? नितिन- एक चाल? एक धोखा? एक फरेब? कितना बड़ा झूठ? क्या संसार के सब मनुष्य धोखेबाज़ ही होते हैं? यदि नहीं तो फिर उसका नितिन क्यों ऐसा निकला? क्यों उसने उससे झूठ बोला? क्यों? आखिर क्यों? क्यों. . .क्यों . . .क्यों? इतना सब क्यों हुआ? हुआ भी था तो उसके साथ ही क्यों? अब वह कहाँ जाए? किधर भागे कहाँ जाकर अपना मुंह छिपाए? अब तो वह कहीं की भी नहीं रही? कितना बड़ा विश्वास करके उसने केवल अपने नितिन से प्यार किया था? किसकदर उसको अपने दिल में जगह दी थी थी? पूरे मन से- दिल की समस्त गहराई से- अपनी आत्मा समान- परन्तु वह तो सब घोखा था?
एक जैसे पहले से बनाई हुई चाल थी? ऐसी चाल कि, जिसमें वह फंसकर ही रह गई है? उसका नितिन तो पराया है. आरम्भ से ही उस पर तो किसी अन्य का अधिकार रहा है. एक ऐसा पराई स्त्री का हक कि, जिसके कारण उसे नितिन को प्यार करने का कोई भी अधिकार नहीं है. अधिकार मिल भी नहीं सकता है. वह तो विवाहित है? उसकी पत्नी है? उसी के समान, नितिन पर उसकी पत्नी का अधिकार सबसे पहले है.
रोमिका बारिश के थपेड़ों के शोर में, इसी प्रकार से सोच-सोचकर पागल हुई जा रही थी. जब से नितिन उसको यहाँ उसके घर पर छोड़कर गया है, तब ही से उसका सारा मन भी अशांत हो चुका था.
रोमिका, इस बात को जानती है कि, उसने नितिन को अपने पूरे मन और दिल की गहराई से, प्यार किया है. एक निस्वार्थ प्यार. ऐसा प्यार कि जिसके आगे उसने अपने लिए कोई भी तमन्ना के बारे में न सोचकर सदैव ही नितिन की भलाइयों के ही सोचती आई है. यूँ भी सच्चा और निस्वार्थ प्यार तो अपने प्यार की खुशियों की भेंट चढ़ने का ही आदी होता है.
परन्तु जब से नितिन ने उसको अपने जीवन का यह छिपा हुआ भेद बताया था, तभी से उसके सारे मस्तिष्क में एक कभी भी समाप्त न होनेवाली हलचल मच चुकी थी. उसका दिल परेशानियों का भंडार बना जा रहा था. उसे वह घटना और नितिन के प्यार से भरे शब्द बार-बार उसके दिल पर पत्थरों समान महसूस होते थे, कि जिन पर वह अभी तक अपनी दोनों आँखें बंद करके अथाह विश्वास करती आई थी. वह समय और पल जब नितिन ने न जाने कौन से ख्यालों में डूबकर उससे कहा था कि,
'मैं क्यों चुपचाप अपने घर से चला आया था? उसका भी एक कारण है. तुम शायद ऐसा कभी सोचती भी नहीं होगी कि, जब मैं छोटा था, तो मेरे मां-बाप ने मेरी नादानी का लाभ उठाकर, मेरा विवाह बचपन में ही कर दिया था.?'
. . . सोचते-सोचते रोमिका के कोमल दिल पर जैसे भारी बोल्डर टूटकर गिर पड़ा. तब उसको पहली बार ज्ञात हुआ था कि, नितिन तो आरम्भ से ही पराया है. वह किसी और का है, विवाहित है? उसको नितिन से तो क्या किसी भी विवाहित पुरुष से अपना विवाह करने का कोई भी हक नहीं है? पहले तो वह नितिन से विवाह कर ही नहीं सकती है. यदि कर भी लिया तो, क्या उसको नितिन से वह प्यार और अपनत्व मिल सकेगा जो आज मिलता आ रहा है? कभी भी नहीं. ऐसा तो कभी भी नहीं हो सकेगा.
रोमिका के दिल की आत्मा ने कहा कि, यह तो उसका एक भ्रम है. दो कश्तियों में पैर रखनेवाला मूर्ख मुसाफिर कभी भी किनारों तक नहीं पहुँच पाता है. ऐसा मुसाफिर तो बीच मंझधारों में ही डूबकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेता है. ऐसा ही कभी भी उसके साथ भी हो सकता है? नितिन के साथ भी होगा. अवश्य ही, यदि उसने अब भी नितिन से अपना विवाह किया अथवा समय रहते हुए अपने कदमों को इस प्यार की झूठी डगर पर आगे बढ़ने से नहीं रोका तो वह भी कहीं की भी नहीं रहेगी.
तब रोमिका ने सोच लिया कि, वह अपनी भलाई और नितिन के सुखी पारिवारिक जीवन के हितों की खातिर, अपने दिल के इस प्यार को बलि की वेदी पर स्वाह कर देगी. वह भूल जायेगी कि, कभी उसने नितिन के गले में अपने प्यार और अपनी मुहब्बतों की बाहें डाली थीं. भूल जायेगी कि, उसने नितिन से कभी प्यार भी किया था. उसके साथ अपने भावी जीवन के प्यार भरे सपने भी देखे थे. भूल जायेगी कि, कभी नितिन ने खुद उसको अपनी बाहों में भरकर उसके सारे बदन और होठों पर अपने प्यार के चिन्ह लगा दिए थे. उसके बदन से लिपटकर अपने प्यार के झूठे वायदे भी किये थे.
वह सोच लेगी कि, अब तक जो भी कुछ हुआ था, या होता आ रहा था, वह तो एक सपना था. सपना टूटा और सब कुछ समाप्त हो गया. वह समझ लेगी कि, अगर उसने नितिन से प्यार भी किया था तो केवल अनजाने में ही. सब ही जानते हैं कि, अनजानेपन में इ नसान से क्या कुछ नहीं हो जाता है ? रोमिका ने ऐसा द्दढ़ इरादा बनाया तो तुरंत ही उसका कोमल दिल पसीज गया. तड़प उठा- आँखों में उसके आंसू भर आये- उसका दर्द बढ़ गया.
रोमिका को दुःख तो होना ही था. उसका दर्द तो बढ़ना ही था. कैसा भी क्यों न हो, आखिर नितिन उसका अपना ही था. अपना, जिससे उसने अपने दिल की सारी आस्थाओं के साथ प्यार किया है. एक सच्चा और निस्वार्थ प्यार- उसने कोई खेल तो नहीं खेला था. वह जानती है कि, नितिन उसके जीवन का पहला प्यार है- पहला और शायद अंतिम भी? रोमिका ने सोचा कि, वह अब नितिन के जीवन से बहुत खामोशी के साथ अलग भी जायेगी. जिस खामोशी से वह नितिन के जीवन में पृविष्ट हुई थी, उसी तरह से बगैर शोर मचाये उससे दूर भी चली जायेगी. चुपचाप- किसी को कुछ भी बताये बगैर- और फिर धीरे-धीरे समय के बढ़ते हुए चक्रों के साथ वह सब कुछ भूल जायेगी. भूल जायेगी कि, नितिन कौन था? वह कहाँ से आया था? उसका उससे कोई सम्बन्ध भी था या नहीं वह भूलने की सारी कोशिशें करेगी तो एक दिन नितिन भी उसको भूल जाएगा. तब दोनों के दिल में हुए इस प्यार के घाव भी अपने आप ही भर जायेंगे.
रोमिका ने सोचते हुए ऐसा द्दढ़ संकल्प लिया तो उसकी नीली आँखों से आंसू दर्दभरी चांदनी में, ओस की टूटती हुई बूंदों समान आकर नीचे ढुलक पड़े. कांच के मोतियों समान- बिलकुल ही वास्तविक से- कुछेक आंसू ढुलकते हुए उसके गालों के उभारों पर आकर टिक गये. इन आंसुओं में- आंसुओं की इस पानी की चमक में- कितना अधिक उसके छिने हुए प्यार का दर्द था? कितनी अधिक पीड़ा थी? इसको तो उसका अकेला, चोट का मारा हुआ दिल ही जानता था.
इतना अधिक दर्द उसके तन-बदन और मन में था कि उसे लगता था कि जैसे उसका सारा बदन ही फटा जा रहा है. उसके दिल का गला जैसे कोई लगातार दबाता ही जा रहा है? फिर होता भी क्यों नहीं? वह अपने प्यार की दीप बुझाकर किसी दूसरी के जीवन में रोशनी करने का प्रयास कर रही थी. नितिन की पत्नी का घर बचाने की खातिर खुद का ही झोपड़ा जला रही थी. पीड़ा तो होनी ही थी. प्यार के सौदे में मिला सारा दर्द तो उसे ही पीना था. सारी तड़प उसे ही झेलनी थी.
रोमिका थी सब सोच रही थी कि, तभी आकाश में कहीं दूर कोई बादल पागलों समान चीखा- बादल के गड़-गड़ाने से पहले ही बिजली भी कौंध चुकी थी- तभी एकाएक बिजली ने बादलों की एक ज़ोरदार गर्जना के साथ चीखते-तडपते हुए अपना दम तोड़ दिया. रोमिका मारे भय के अपने आप में ही सिमट गई. डर के कारण उसके कोमल और नाज़ुक दिल की धड़कनें अपने आप ही बढ़ गईं. उसने बिस्तर पर से चादर खींची और फिर अपने सारे बदन को चारों तरफ से लपेटकर, मुंह छिपाकर दुबक गई.
और फिर नितिन इस प्रकार अपने जीवन के बढ़ते हुए दुखों की मार से तंग आकर एक दिन अपने घर से फिर भाग आया. भाग आया, चुपचाप- बगैर किसी को कोई भी सूचना दिए हुए- अपने मां-बाप, अपनी बहन, अपनी पत्नी, अपना घर, अपना शहर फतेहगढ़ और अपने सारे चिर-परिचितों को एक प्रकार से त्यागकर, वह एक बार फिर से पहाड़ों के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर भटक उठा.
कौसानी की अधोलोक जैसी गहरी घाटियों में वह अपने प्यार को तलाश करने लगा. दिन-रात आवाजें देने लगा. कौसानी के सारे पहाड़, गगनचुम्बी चिनार, वहां की सारी वादियाँ, गहरी-गहरी घाटियाँ, वहां के पेड़-वनस्पति, चप्पे-चप्पे में रोमिका के नाम की गूंज होने लगी. हर समय वह रोमिका की खोज में रहता. चाहे दिन हो अथवा रात, चाहे कोई भी समय हो, सदा उसकी प्यार की भूखी आँखें रोमिका की तलाश में एक आशा से उठी रहतीं. पर्वतों पर इठलाते हुए बादलों के धुओं से वह अपनी खोई हुई रोमिका के निवास का पता पूछता.
नितिन सबसे पहले अपने घर फतेहगढ़ से कौसानी पहुंचा था. उसी स्थान पर, जहां पर वह कभी अपना रूठा हुआ अतीत छोड़ आया था. उन्हीं स्थानों पर, वह बार-बार जाकर रोमिका को ढूंढता रहता, जो उसके बीते हुए कल की एक दर्द से भरी, रोती-बिलखती तस्वीर बनकर रह गये थे. कौसानी में आकर उसने रोमिका को हर जगह ही जाकर तलाश किया. हरेक उन स्थानों पर वह बार-बार गया, जहां पर रोमिका की साँसों की कोई सुगंध भी शेष थी.
परन्तु कौसानी के पहाड़ों पर हर वस्तु थी- हर पिछली बातें वही थीं, जैसी कि, वह छोड़ गया था. वही पर्वत थे- आकाश के शिखर को चूमते हुए वही चीड़ और चिनार लंबे-लंबे वृक्ष- पहाड़ों के बदन पर खेलते हुए, मौज-मस्तियाँ मारते हुए वही बादलों के काफिले- वही, कभी-भी न पिघलने वाली पहाड़ियां- ठोस स्थान-स्थान पर पड़े हुए गोल, हर तरह के आकार के पत्थर- वही चट्टानें- वही भारी बोल्डर- पहले की वही यादें- वही स्मृतियों में भरी हुई बातें- वैसा ही लाल ईंट का बना हुआ डाक बंगला- वही चौकीदार- सब-कुछ वही थी; परन्तु रोमिका नहीं थी. उसकी केवल यादें ही शेष रह गई थीं.
रोमिका न जाने कहाँ चली गई थी? नितिन की ज़िन्दगी का यही सबसे महत्वपूर्ण सवाल अब उसके बदन का रिश्ता हुआ नासूर बना जा रहा था. रोमिका कहाँ छुप गई थी? नितिन को कुछ भी नहीं मालुम था. वह रोमिका को ढूंढते हुए जैसे पागल होता जा रहा था. दीवाना बन चुका था. आखिरकार वह उसे खोज नहीं सका. रोमिका उसे कभी नहीं मिली. उसकि याद में, उसे पाने की लालसा में वह हरेक उन स्थानों प्र बार-बार जाता, जहां पर बैठकर कभी उसने अपने भावी जीवन के सुनहले सपने संजोये थे. अपने भविष्य के कल्पनाओं से भरे महल खड़े कर लिए थे. जिन स्थानों पर रोमिका के साथ बैठकर, उसके बदन को अपने अंक में भरते हुए सैकड़ों प्यार की सच्ची-झूठी कसमें खाई थी; वह हर रोज़ ही जाता था.
अक्सर ही वह ऐसे स्थानों पर बैठा हुआ अप्नीव्रो मिका के वापस आने की प्रतीक्षा किया करता. रोमिका के उस छोटे-से घर की ओर वह कई-कई बार जाता, जहां पर कभी रोमिका ने बड़े ही प्यार से उसे अपने हाथों से खाना खिलाया था. यही सोचकर और इसी विश्वास पर कि, शायद अब रोमिका लौट आई हो? उसके लिए न सही, पर स्वयं की खुशियों के लिए ही शायद उसे अपने घर की याद आ गई हो? मगर यह उसकी किस्मत ही थी कि, हर बार रोमिका के द्वार पर लगा हुआ जंक से भरा हुआ ताला उसको अपना मुंह चिढ़ाकर दुत्कार देता था.
कौसानी में जब नितिन को रोमिका नहीं मिली तो नितिन और भी अधिक उदास हो गया. फिर भी उसने रोमिका को हर घाटी में चीख-चीखकर पुकारा. हरेक पत्थर, बोल्डरों के पीछे झाँक-झांकर सैकड़ों बार देखा. जहासं भी उसको रोमिका की उपस्थिति का तनिक भी आभास होता, वहां पर वह एक उम्मीद से गया. परन्तु फिर भी उसे हरेक बार निराशा ही मिली थी. रोमिका के न मिलने पर वह और भी उदास हो गया. ढूंढते-ढूंढते उसके पैरों में छाले पड़ गये- उसके बदन के पहने हुए कपड़े फटने लगे- उसकी दशा ही बदल गई- शरीर से वह दुर्बल हो गया. उसके चेहरे पर झाड़ियों समान दाड़ी उग आई. सिर के बाल कंधों पर आकर लटों समान उलझकर झूलने लगे. हालत खराब हो गई. वह भिखारियों समान दिखने लगा. समय-असमय खाना खाने और हर वक्त परेशान रहने के कारण उसका तो चेहरा ही बदल गया.
फिर भी नितिन निराश नहीं हुआ. उसने आशा नहीं छोडी. इसी उम्मीद और विश्वास पर कौसानी के आस-पास के सब ही पर्वतीय इलाकों की ख़ाक छानकर रख दी कि, कहीं-न-कहीं रोमिका की उपस्थिति अवश्य ही होगी? रोमिका की तलाश में, वह बागेश्वर, में कई-कई दिन मारा-मारा फिरा. भुवाली के धुएं से भरे हुए पहाड़ों पर जाकर परेशान हुआ. नैनीताल की सुंदर, मनोरम, सुप्रिसिद्ध झील और वहां की समस्त सुन्दरता से उसने अपनी खोई हुई रोमिका के लिए पूछा. फिर जब वहां से भी निराश हो गया तो, वह अल्मोड़ा की गहरी-गहरी घाटियों आ गया. उसके बाद फिर इन सारे इलाकों और पहाड़ों पर वह अपनी रोमिका की याद में आंसू भाता फिरा.
उन सारे पहाड़ी क्षेत्रों और समस्त कुमाऊँ मंडल की मशहूर जगहों पर उसने अपने जीवन के बहुमूल्य दिन रोमिका की खोज में बर्बाद कर दिए. तब इस प्रकार दर-दर पहाड़ों पर भटकते-भटकते उसके पास एक दिन कुछ भी नहीं बचा. उसके पास के सारे पैसे समाप्त हो गये तो वह मांग-मांगकर खाने लगा. उसे इस प्रकार से जो कुछ भी मिल जाता, उसी से अपने पेट की भूख शांत कर लेता. अब दशा उसकी किसी भी भिखारी से कम नहीं थी. वह परेशान रहने लगा. शरीर से और मन से भी. जीवन उसका थक गया. अंत में वह निराश हो गया. उसके दिल को यह विश्वास हो गया कि, अब रोमिका कभी भी वापस नहीं आयेगी. कभी नहीं- वह उसको अब कभी नहीं मिलेगी. उसको वह अब कभी प्राप्त नहीं कर सकेगा. रोमिका को ढूंढते हुए वह स्वयं ही खो गया था. उसको अब अपना शेष जीवन रोमिका की रही-बची यादों के माध्यम से ही व्यतीत करना होगा. सारी उम्र उसे रोना होगा. आंसुओं के साथ- सिसकते हुए- तड़प-तड़पकर, अपने जीवन के शेष दिन काटने होंगे और फिर यहीं पहाड़ों पर अपने जीवन की अंतिम साँसों के साथ दम तोड़ देना होगा. 








20
समय गुज़रता रहा.
दिन सरकते रहे. वक्त का पहिया हर समय चलते हुए, महीनों में चला गया- साल हो गये- कई वर्ष यूँ ही बीत गये. नितिन निराश होकर फिर से कौसानी वापस आ गया. इसी आस पर कि, रोमिका कहीं भी चली जाए परन्तु वह अपने घर कौसानी एक दिन अवश्य ही वापस आयेगी. अवश्य ही आयेगी क्योंकि, यहाँ के हरेक फूल में आज भी उसकी साँसों की सुगंधें बाक़ी हैं. हरेक घाटी में उसकी यादों की गुनगुनाहटें उसकी ही बातें किया करती हैं. प्रत्येक बादल के टुकड़े को उसके लौट आने की उम्मीदें हैं. यहाँ के इलाके की हरेक वस्तु, चप्पे-चप्पे में, उसके बदन की महक भरी हुई है. यहाँ उसका पैत्रिक घर है. यहीं पर उसका बचपन बीता है. यहाँ पर उसके उजड़े हुए प्यार का निशान हमेशा ही मिलेगा. वह इन स्थानों को कभी भी नहीं भूल सकेगी. वह तो इन स्थानों को अब भी याद करती होगी? याद करती होगी- प्रत्येक दिन- हरेक रात को- हर समय- शायद प्रतिपल ही उसकी आँखों के सामने अपने भूले-बिसरे प्यार के गीत आकर गुनगुनाते होंगे?
कई माह बीत गये.
कई वर्ष. लगभग सोलह वर्ष- एक युग समान- एक जीवन समाप्त हो गया. लोग रोमिका को भूल गये. साथ ही नितिन को भी कोई याद करनेवाला नहीं रहा. परन्तु नितिन रोमिका को नहीं भुला. वह वहीं रहा. कौसानी में, हर वक्त, हरेक पल वह अपनी रोमिका के वापस आने की राहें तकता रहा. वह कौसानी छोड़कर कहीं अन्यत्र गया भी नहीं. जाता भी कैसे? यहाँ कौसानी में तो उसके दिल की धड़कनें बाक़ी थीं. उसके प्यार के उजड़े हुए अवशेष रोते थे. उसका यहाँ एक जीवन लुटा था. जाता भी कैसे, किसी को छोड़कर? उस्क्जो अपनी रोमिका के वापस आने का पूरा-पूरा विश्वास था. एक आशा थी. वह कहीं भी नहीं गया. कौसानी छोड़कर उसका जाने का मन ही नहीं हुआ. इन सोलह वर्षों के इतने बड़े अरसे में वह अपने घर फतेहगढ़ भी, एक बार तक नहीं झांका. घर से भी उसकी किसी ने कोई खबर तक नहीं ली. ना उसने अपने परिवार में किसी को याद किया और ना ही उसके परिवार वालों को उसकी ही याद आई.
रोमिका नहीं वापस आई तो नितिन के जीवन ने बिलकुल ही एक भिखारी का रूप ले लिया. कौसानी के लोग उसे कोई भूला-भटका भिक्षुक ही समझने लगे. समझते भी क्यों नहीं? उसकी दशा ही किसी भी भिखारी से कम नहीं रही थी. शरीर के कपड़े मैले-कुचेले होकर कई स्थानों से फट रहे थे. सिर के बाल बे-तरतीबी से बढ़कर कंधों से भी नीचे आ चुके थे. होठ सूखे- आँखें सूनी- न अपनी परवा और न ज़माने की- जो कुछ भी मांगने से मिल जाता, वही खा लेता- फिर किसी भी झरने के पास जाकर बर्फ-सा ठंडा पानी पी लेता.
सारे दिन, जगह-जगह पर जाकर अपनी रोमिका के मिल जाने की आस में भटकता रहता- जो भी मिल जाता, उससे ही रोमिका के बारे में पूछता. रात में डाक बंगले के बरामदे में जाकर सो जाता- दिन होते ही वह फिर से डाक बंगले से बाहर निकल जाता- उसके बाड़े सारे दिन तक डाक बंगले के आस-पास उसकी परछाईं तक नहीं दिखती, परन्तु जैसे ही क्षितिज में सूर्य की अंतिम लालिमा सिसक उठती और शाम अन्धकार को आता देख अपनी विदाई के आंसू बहाने लगती तो नितिन भी भूला-भटका डाक बंगले की शरण में आ जाता. फिर चाहे कैसा भी मौसम हो, ठंड या बरसात, उसे डाक बंगले के बरामदे में ही ठहरना पड़ता. पानी बरस रहा होता, तब भी उसे बरामदे में ही टिकना पड़ता. अगर ठंड है तो वह सुकड़कर सो जाता. फिर, अगर नींद नही आती तो सारी रात अपनी गुमशुदा हुई रोमिका की याद में आंसू बहाता रहता- तड़पता रहता- रोने लगता- हरेक रात्रि के समान- वह भी दर्दभरी ओस के मोतियों समान अपने आंसू बहाता और दुखड़े को रोता रहता. उसके इस दुःख में कितना अधिक दर्द होता? किसकदर अफ़सोस? इतना अधिक कि, आंसू भी पलकों की कोरों से सरकते हुए, गालों के उभार पर आकर टिक जाते. दर्दभरे गम के आंसू- बिलकुल फूटने को तैयार- कच्चे मोतियों की तरह, जो तनिक भी प्रकाश के सहारे में, वास्तविक मोतियों समान, दमक उठते- उसके दिल में छिपे हुए दर्द की गवाही के रूप में.
सो ये था उसके बदले हुए जीवन का वह परिवर्तित दौर, कि जिसके हर हिस्से में प्यास थी. आंसू थे. किसी के प्यार की आशाओं का मृत भंडार और सिसकियों का ढेर था. एक तड़प थी- दिल में छिपी हुई कोई आरज़ू थी- साथ ही शायद कभी भी न समाप्त होने वाला एक अनकहा दर्द भी था.
प्रत्येक दिन नितिन का यही रवैया था. हर दिन यही होता था. उसकी हरेक रात सिसकती थी. चन्द्रमा भी उसके गम में बेबस होकर निकलता तो कभी बादलों का सहारा लिए हुए, अपना मुख छिपाए रहता. तारे हर रात रोते थे. कुछेर्क निराश होकर टूट भी जाते. चिनार और चीड़ के वृक्ष साए समान, मुंह झुकाए उदास खड़े रहते. मानो नितिन के दुःख और दर्द के साथ प्रकृति का भी कोई अटूट नाता जुड़ गया था? कौसानी के प्रत्येक पहाड़ से उसका कोई सम्बन्ध बन गया था? चट्टानें खामोश और चुप रहतीं. शायद यह कौसानी के वातावरण का ही असर था कि, उसकी हरेक रात भी उदास और दर्दभरी चांदनी में रोमिका के गुम हो जाने के वियोग में रूठी रहती. रोमिका की एक झलक देखने की लालसा में अपने हाथ मलती रहती. नितिन के अभागे दिल के समान ही, मानो वह भी बर्बाद हो जाना चाहती थी? शायद उजाड़? उजाड़ होकर, हो सकता है कि उसको मन की शान्ति मिल जाए? शायद ऐसा हो जाए? कभी-भी? जब तक रोमिका वापस न आये?. . .
. . .खामोशी. बेहद खामोशी- हर तरफ खामोशी.
वर्षा थम चुकी थी. बादल बरसकर भास्ग भी गये थे. डाक बंगले के बाहर बर्षा के समाप्त होने के पश्चात के कीड़े-मकोड़ों की विभिन्न प्रकार की आवाजें सारे वातावरण में अपनी गूंज छोड़ रही थीं. आकाश में चन्द्रमा बहुत ही उदास निगाहों से नीचे धरती पर सिसक-सिसककर अपनी रश्मियों की बौछार फेंक रहा था. चिनार के लंबे-लंबे, आकाश को स्पर्श करते हुए वृक्ष अपने सिर झुकाए हुए अपराधियों के समान चुप खड़े थे- पत्थरों के बुतों समान. दूर-दूर तक कौसानी के पहाड़ों की चट्टानें चांदनी के उबलते हुए दूध से धुली हुई सफेद बर्फ के समान चमक रही थीं. क्षितिज पर कहीं दूर छोटे-छोटे बादलों के टुकड़े, समूहों में अपना पडाव डाले हुए सुबह के इंतज़ार में पसरे हुए थे. भरपूर चन्द्रमा की इस चांदनी के झाग में टिमटिमाते हुए तारों की रोशनी और भी अधिक कं हो गई थी.
रात्रि का दूसरा पहर था. वातावरण का शव आकाश की गिरती हुई शबनम की बूंदों के कारण ठिठुर चुका था. प्रकृति की हर वस्तु भीगी थी. इस समय ठंड अधिक हो गई थी. सारे वातावरण में धुंधले कोहरे की परतें बिछ चुकी थीं. कौसानी का शायद हरेक मनुष्य सुख की मीठी नींद सो रहा होगा? डाक बंगले में भी खामोशी छाई हुई थी. पिछली शाम अपने ग्रुप के साथ आई हुई लड़कियां अगले दिन की प्रतीक्षा में बेखबर, निश्चिन्त सोई हुई थीं. जब भी कोई लड़की करबट बदलती या नींद में उनमुनाती थी तो उसके हाथ-पैरों में फनी हुई चूड़ियों और पायल की झनकारें सारे माहौल में समस्त खामोशी को भंग क्र देती थीं. वैसे सोई हुई सारी लड़कियों को किसी भी तरह का कोई भी होश नहीं था.
परन्तु, वह मानव छाया- उसका ज़िन्दगी से थका हुआ शरीर अब भी जाग रहा था. उसकी सूनी और बेजान-सी आँखें अंधेरों में कभी-कभी जुगनुओं समान चमक उठती थीं. उसकी आँखों से नींद भी न जाने कहाँ भाग गई थी? इस समय भी उसके दिल में चैन नहीं था. कोई भी मन की शान्ति नहीं थी. रात ढल रही थी. शायद तड़प-तड़पकर अति शीघ्र ही अपना दम तोड़ देना चाहती थी?
हर तरफ भरपूर खामोशी का सन्नाटा था. और इस खामोशी और सन्नाटे समान वातावरण का सहारा लेकर वह मानव-छाया अपने अतीत के दर्द को यहाँ बैठे-बैठे, एक बार फिर से दोहरा गई थी. उसके अतीत की एक-एक घटना यादों के पर्दे पर एक चलचित्र की भाँति आकर चली भी गई थी. ज़िन्दगी के पिछले सोलह सालों के बिताये हुए दिन, उसके दिल में एक बार दर्दों के भरे हुए प्याले उंडेलकर चले भी गये थे और रह गई थी, एक भूली-बिसरी याद- एक स्मृति- उसकी स्मृतियों की वह गहरी लकीर कि, जिसका अस्तित्व शायद ही कभी समाप्त हो सके? शायद ही कभी उसका अंत हो?
बैठे-बैठे उस मानव-छाया ने सोचा कि, बहुत कुछ अपनास पिछ्ला जीवन, पिछले जीवन की हरेक कटु याद को उसने बार-बार दोहराया- वह याद जो आज भी उसके दिल में एक नासूर के समान दुःख रही है. उसने सोचा कि, कुछ भी, रोमिका ने उसके साथ अच्छा नहीं किया? अगर कोई बात थी भी तो उसे कम-से-कम एक बार कहना तो चाहिए था? अगर कोई शकायत थी भी तौभी बताना तो चाहिए था? यूँ, चुपचाप, बगैर बताये हुए, उसकी ज़िन्दगी से सदा के लिए छिप जाने के पीछे उसका कौन-सा ऐसा मकसद था कि जिसमें उसके लिए भला-ही-भला था? वह तो चली गई, पर अपने प्यार के वे फूल जो उसने अपने दिल की सारी हसरतों को संजोने के लिए तोड़कर उस्ज्की झोली में भर दिए थे, उसे क्या मालुम है कि, वे सब-के-सब सारी ज़िन्दगी के नागफनी के कांटे बनकर रह गये है?
वह मानव-छाया, जो नितिन ही है, उसने अपने आनेवाले कल के लिए विचारा- उसके कल के आनेवाले वे दिन- वे पल- और वह सारी खुशियाँ जिनके लिए वह एक लंबे अरसे से तरस रहा है. जिनकी आशा में उसने न जाने कितने ही आंसू कौसानी की गम की पहाड़ियों पर बलि कर दिए हैं, वे कितने खुशनसीब होंगे? किसकदर प्यारे? जब उसको अपनी रोमिका का प्यार मिलेगा. फिर एक बार- यहीं कौसानी की प्यारी-प्यारी वनस्पति से भरे वातावरण में- जब वह अपनी खोई हुई रोमिका को फिर एक बार देखेगा.
उसकी खोई हुई रोमिका का सुराग तो उसे मिल ही गया है. उसकी यादों में- उसकी आराधना, सफल हो गई है. उसके प्यार की पूजा का फल, अब उसको प्राप्त हो जाएगा. कल के आनेवाले नये दिन के उजाले में, अपने पिछले जीवन के सारे अंधेरों को धो डालेगा. सारी शिकायतें नष्ट हो जायेंगी. कल कि जब उसकी रोमिका उसके गले से, फिर एक बार अपने खोये हुए प्यार के रूप में मिल जायेगी. ये उसका विश्वास है- एक अटूट विश्वास- प्यार का कभी-भी न टूटनेवाला विश्वास.
क्योंकि, इसका प्रमाण है, आज से सोलह वर्ष का उसका स्वयं का लिखा हुआ वह गीत- गीत का संगीत- जो कभी उसकी साँसों से अपनी रोमिका के प्यार के वशीभूत उपजा था. आज फिर उसके कानों ने, उस गीत को सुना है? रोमिका जैसी प्यारी आवाज में? उस आवाज़ में जिसको सुनने के लिए उसके कभी कानों के परदे तरस गये थे. क्यों नकी, यह उसका विश्वास है और उसका दिल भी जानता है कि, उसके इस स्वरचित गीत को यदि कोई गा सकता है तो है वह केवल उसकी ही रोमिका? यदि किसी को इस गीत के बारे में कुछ ज्ञात भी है तो वह केवल रोमिका ही हो सकती है. रोमिका के अतिरिक्त इस गीत के बारे में किसी दूसरे को कोई जानकारी नहीं हो सकती है. इस गीत को केवल वह जानता है और केवल रोमिका. रोमिका ! उसका प्यार- उसककी ऐसी अनुभूति कि जिसको दोबारा पाने के लिए वह एक भिखारी तक बन चुका है.
. . . सोचते-सोचते उस मानव-छाया सूनी और गहरी आँखों में, स्वत: ही आंसू आ गये. गम और खुशी के मिश्रित आंसू, जिन्हें उसने रोकने और साफ़ करने का कोई भी प्रयास नहीं किया. इन आंसुओं में, इनके मोतियों में, उसकी सारी खोई हुई खुशियाँ शामिल थीं. इनके दर्द में, उसके खोये हुए प्यार का सारा अफ़सोस भरा हुआ था. और होता भी क्यों नहीं? इसकी चाहत में उसने कितनी बड़ी पूजा और कितनी अधिक प्रतीक्षा की है? रोमिका की खोज में उसने कुमाऊँ मंडल की सारी पहाड़ियों की ख़ाक छानकर रख दी है? रोमिका की मात्र एक झलक देखने के लिए उसने अपनी ज़िन्दगी का सारा-कुछ दांव पर लगाकर स्वाह कर दिया है. इतना अधि क कि, उसने अपने जीवन की शक्ल तक बदल दी है? दीवानों न समान वह पिछले सोलह सालों से रोमिका को ढूंढता फिर रहा था. उसको पुकार रहा था- इंतज़ार कर रहा था- पिछले सोलह वर्षों से- और आज ! उसकी प्रतीक्षा ने भी, अपना कफन ओढ़ लिया है. इस बात की पुष्टि हो चुकी थी. उसने अपना लिखा गीत फिर से सुना है? रोमिका की आवाज में- अपनी रोमिका की आवाज में? उसकी प्यारी मधुर आवाज में- अभी-अभी- कुछ देर पहिले, यहीं, इसी डाक बंगले के पिछले कमरे से उसके लिखे गीत को कोई गा रहा था?
यह कोई भी कल्पना नहीं- कोई भी ख्वाब और सपना नहीं, परन्तु एक यथार्थ था. एक ठोस वास्तविकता है, क्योंकि वही गीत है- वही उसके बोल थे- वही जगह भी है- वही पहाड़- सब-कुछ वही था. केवल आवाज़ में अंतर था. आज इस गीत को गानेवाला स्वयं वह नहीं, परन्तु कोई दूसरी थी? दूसरी ! एक मधुर वाणी- रोमिका की आवाज़ जैसी- आज उसके कानों ने पहली बार, वर्षों बाद इस आवाज़ को सुना है.
उसने कितने ही साल, दुःख और दर्द में मुसीबतें झेलकर बिठाये थे, अपना पूरा एक जीवन सिसक-सिसकर काटा है. जिस वस्तु की चाहा में उसने अपना सब-कुछ लुटा दिया था, वही आज उसकी झोली में, सारा-कुछ फिर से मिलने वाला था? रोमिका उसके पास कभी बे-आवाज़, मूक और गूंगी बनकर आई थी, और बे-आवाज़ ही चली भी गई थी, परन्तु आज वह आई है तो अपनी आवाज़ भी साथ लाई है?
आज सचमुच ही पहाड़ों से गिरते हुए झरनों में जान आ गई थी. बहते हुए जल के झरनों के शोर में, सचमुच आवाज़ आ गई थी. अब बागों में प्यारे-प्यारे फूल, सचमुच ही खिलेंगे. आने वाले कल में, उन फूलों में, उसकी ही कहानी होगी. उसकी अपनी रोमिका की कहानी के साथ. कल जब चिनारों के गलों से बादल लिपटेंगे, तो उसकी और रोमिका की ही बातों की काना-फूसी करेंगे. कल कलियों के होठों पर, बैठी हुई शबनम भी उनके दिलों की धड़कनों से वाकिफ होगी. हर चप्पे-चप्पे में, एक ही शोर होगा. एक ही बात होगी- एक ही जिक्र- और एक ही गीत, 'पहाड़ों से गिरते हैं झरने.'
कल सचमुच ही पहाड़ों से झरने फूट पड़ेंगे- एक शोर के साथ. उसके जीवन की खोई हुई, सारी खुशियों को समेटकर, तब वह एक बार फिर से गा उठेगा- अपनी रोमिका के साथ- वही गाते- वही शब्द- जो उसके प्यार की एक अमिट यादगार बनकर, उसकी ज़िन्दगी की अफ़सोस से भरी कहानी बन गये हैं. कल वह एक बार फिर दोहराएगा, अपना लिखा हुआ वही गीत- कुछ इसी स्वरों में- खुशी और दर्द के समन्वय में- कुछ इस तरह से;
'पहाड़ों से गिरते हैं झरनें,
झरनों में बहता पानी,
बागों में फूल प्यारे,
फूलों में अपनी कहानी
करते हैं बातें प्यारी. . .'
कल रोमिका की उपस्थिति के साथ, उसके जीवन की सारी उमंगें, उसके कंधों पर खुशियों के फूल बनकर महक उठेंगी. फिर एक बार- जिन्हें उसने कभी खो दिया था.
शायद यही विधाता का नियम भी है, कि मानव कभी कुछ खोता है, तो कुछ पाता भी है? कुछ खोकर ही, बहुत कुछ मिलता है. उसने अपने प्यार की पूजा में, अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष मिट्टी में मिला दिए थे, जिनके प्रतिफल में उसको अब जीवन भर की खुशियाँ मिल जायेंगी. जीवन में फिर एक बार- और इन लौट आई खुशियों में, न जाने किस-किस की खुशियाँ सुरक्षित थीं? शायद उसकी रोमिका की? उसकी खुद की और शायद उसके सारे परिवार की भी?






21

दिल यदि परेशान हो तो, आँखों की नींद भी परेशान होकर भाग जाती है. यही हाल रोमिका का भी था. उसके दिल की परेशानी बढ़ी तो नींद ने भी उसका साथ छोड़ दिया था. वह भी अभी तक जाग रही थी. सोचों और मर्म से भरे विचारों की दुनिया में खोकर- शायद ऐसे ही जागती भी रहेगी? जब तक कि, सुबह न हो जाए. बहुत संभव है कि, वह सारी रात तक अपने प्यार की फूटी किस्मत को लिए, अपनी करनी पर आंसू ही बहाती रहे?
नितिन को ठुकराने का रोमिका का जहां पहला पक्ष कभी कमजोर भी हो सकता था, वहीं उसके दूसरे पक्ष ने उसके पहले पक्ष की हिलती दीवारों को और भी अधिक मजबूत बना दिया था. बहुत कुछ सोचते हुए रोमिका ने यह भी सोचा कि, यदि ऐसा हो जाए कि, उसका नितिन अपनी पत्नी को छोड़ भी दे और वह उससे विवाह भी कर ले, तौभी नितिन ने तो अपनी पत्नी को गूंगी होने के कारण ही त्यागा है- उसकी पत्नी सब तरह से सुंदर और कुशल गृहणी साबित हो सकती है, परन्तु नितिन तो उसको केवल मेरे लिए नहीं छोड़ आया है? वह तो इस कारण उसे छोडकर आया है क्योंकि उसकी पत्नी बोल नहीं सकती है- वह गूंगी है- बेआवाज़ है और उसका विवाह एक बेआवाज़, मूक लड़की से कर दिया गया है. तो ऐसी दशा में जब नितिन अपनी पत्नी को उसके बेआवाज़ होने के कारण छोड़ सकता है तो वह कभी भी मुझको भी ठोकर मार सकता है? वह भी मुझको बड़ी आसानी से ठुकरा देगा. मैं भी तो गूंगी लड़की हूँ. मैं भी तो नहीं बोल सकती हूँ. मैं भी बेआवाज़ हूँ. बचपन से ही मेरे मुख में आवाज़ नहीं है. कोई भी शब्द मैं नहीं बोल सकती हूँ. और मरते डीएम तक भी मौन और गूंगी ही रहूंगी. मैंने तो उससे एक झुठ बोला था कि, मैं बोल भी सकती हूँ. मैंने छः महीनों का मौन-वृत रखा है. वह भी इसलिए कि, मुझे डर था कि, कहीं वह मेरे प्यार को न ठुकरा दे? मुझको बे-आवाज़ जानकर कहीं सदा को छोड़ न दे?
इतना सब कुव्ह्ह देखने, सुनने और भुगतने के पश्चात रोमिका के सामने उसके जीवन की कड़वी वास्तविकता उसके समक्ष थी कि, नितिन ने अपनी पत्नी को गूंगी जानकर ही ठुकरा दिया है तो कल को वह मुझको भी इसी कारण ठुकरा सकता है. जब उसको यह असलियत ज्ञात होगी कि, उसकी रोमिका कभी भी नहीं बोल सकती है तो वह फिर उसे क्योंकर रखना चाहेगा?
सब कुछ सोचने और समझने के बाद रोमिका ने अपने आप ही यह द्दढ़ संकल्प कर लिया कि, वह आज से ही नितिन के जीवन से इस प्रकार से सदा के लिए दूर हो जायेगी कि, जैसे उससे उसका कोई वास्ता ही नहीं था. क्या फायदा कि, कल को दोनों की खुशियाँ ज़िन्दगी भर के सुलगते हुए अंगारे बनकर ही रह जाएँ. उसे तो नितिन को छोड़ना ही होगा. हर हालत में- इसी वक्त- बगैर कोई भी देर किये हुए? अच्छा हुआ जो समय से पहले ही, उसकी आँखें खुल गईं. उसको नितिन की वास्तविकता का ज्ञान हो गया. अभी चाहे नितिन का कुछ भी नुक्सान क्यों न हो जाए? वह रोये या तडपे- उसको तो मुझे भूलना ही होगा- उसे भी मेरी ज़िन्दगी के हरेक पहलू से किनारा करना होगा- बहुत शीघ्र ही- सुबह होने से पहले ही- उसको अपने घर से निकल जाना होगा. नहीं तो वह आ ही जाएगा. इतना तो वह जानती है कि, जब वह नितिन को नहीं मिलेगी तो वह उसे ढूंढता हुआ यहाँ अवश्य ही आ जायेगा.
जरुर ही कल सबेरे वह अवश्य ही आयेगा. इसलिए उसके आने से पहले ही उसको यहाँ से कहीं भी चले जाना होगा. वह यहाँ से चली जायेगी- कहीं भी, परन्तु नितिन की परछाईं तक के आगे अब वह कभी नहीं जायेगी. एक बार भी नहीं- चाहे इसके लिए उसको कितना ही दुःख क्यों न भोगना पड़े- वह जायेगी यहाँ से- इसी रात में- अन्धेरा छंटने से पहले ही, उसे यहाँ से निकल जाना होगा.
अब उसे नितिन से क्या लेना-देना? उसका असली फरेबी रूप तो वह देख ही चुकी है. अब देखने को कुछ भी नहीं बचा है. कितना दुखदायी रहा उसके जीवन का पहला-पहला प्यार? कितना अधिक छल? किसकदर निकम्मा निकला यह मैदानी क्षेत्र का लड़का? बहुत अंतर है, ऊपर पहाड़ों पर रहनेवाली लड़कियों और नीचे मैदानों के रहने वाले छली लड़कों में? क्या ही अच्छा होता कि वह अगर नितिन के चक्कर में नहीं आई होती? उससे उसने प्यार नहीं किया होता? उसके साथ मुहब्बत की झूठी दलीलों में उबले हुए सपने न देखे होते?
परन्तु अब? अब क्या हो सकता है? कुछ भी तो नहीं? तीर छूट चुका था. उसके जीवन की नाव में एक धचका तो लग ही चुका था, परन्तु अब वह कोई दूसरी ठोकर अपने जीवन में नहीं लगने देगी. जो होना था, सो तो हो ही चुका है और अब आगे कुछ भी नहीं होगा. किसी भी दशा में वह नितिन के सामने तक नहीं आयेगी. वह यहाँ से चली जायेगी- कौसानी को ही वह छोड़ देगी. नितिन को छोडकर, उसके जीवन से दूर, सदा के लिए कहीं भी जाकर लुप्त हो जायेगी. वह खुश रहे- सदा-सदा तक- वह अपनी पत्नी को अपना ले- उसकी भी पत्नी खुश रहे- उसे तो यहाँ से जाना है- हर हाल में- इसी समय. 

22

और फिर रोमिका, उस रात, सुबह होने से पहले ही नितिन के जीवन से हमेशा-हमेशा के लिए चली आई. एक मायने में उसे अलविदा कहकर. उसे नितांत अकेला और तन्हा छोडकर- कौसानी के गगन-चूमते हुए पहाड़ों पर भटकने के लिए- अपने सिर को वहां के पत्थरों से सिर फोड़ने के लिए और शायद अपने किये पर ज़िन्दगी भर पछताने के लिए?
रोमिका जब अपने घर के दरवाज़े पर टाला लगाकर बाहर आई तो वर्षा और बिगड़ी हुई हवाओं का तूफ़ान शांत हो चुका था. परन्तु अभी भी वर्षा की नन्हीं-नन्हीं फुहारें पड़ रही थीं. आकाश में चन्द्रमा बदलियों के पीछे से मानो दुबककर नीचे धरती के सारे नजारों को देख रहा था. सुबह होने में लगभग दो घंटे शेष थे. सारी हुई भारी वर्षा और हवाओं के साथ आये हुए तूफ़ान के कारण वातावरण में ठंड समा चुकी थी. आकाश में सप्तऋषि-मंडल के सात तारे नीचे झुकते हुए अपना कारवाँ समाप्त करने की जल्दी में थे. केवल ध्रुव तारा ही अपने स्थान पर अटल टिका हुआ मुस्करा रहा था. रोमिका ने ठंड के कारण अपने साथ लाया हुआ शॉल को अपने बदन से कसकर लपेटा और शीघ्र ही अपने घर के पास ही रहनेवाली सहेली के घर पर पहुंच गई.
अपनी प्रिय सहेली अंजली के घर जाकर रोमिका ने उससे सारी दास्तान कह सुनाई. कुछ इशारों में और कुछ लिख-लिख कर. वह उससे लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी. रोटी रही- सुबकती रही- आंसू थे जो थमने का नाम ही नही ले रहे थे. पल-पल में पिछले आंसू थमते नहीं थे और दूसरे सागर समान आँखों में भर आते थे.
अंजली भी चुपचाप उसकी एक-एक बात को सुनती रही- समझती रही, साथ ही उसका बदन और सिर भी सहलाती रही. रोमिका के इस अपार दर्द को अंजली ने समझा- अपने दिल से महसूस किया. फिर उसने भी रोमिका को समझाया. बार-बार उसे अपना दुःख भूलने को कहा. इसके साथ ही उसने रोमिका को नितिन से अपना शीघ्र ही विवाह करने की सलाह दी तो रोमिका ने इसे तुरंत ही अस्वीकार भी कर दिया. बाद में अंजली ने रोमिका को अपने ही घर पर तब तक रहने के लिए कहा, जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो जाता है. उसे घर से बाहर भी जाने को मना कर दिया. क्योंकि वह जानती थी कि, अगर नितिन ने रोमिका को एक बार भी देख लिया तो सब किया-कराया बेकार हो जयेगा. वह रोमिका का दुःख, दर्द और उसके दिल की सारी भावनाओं को समझ रही थी. वह रोमिका की रग-रग को जानती थी, क्योंकि वह उसे बचपन से ही जानती थी- उसके बचपन की मित्र थी.
सो, इस प्रकार से रोमिका को अपनी मित्र अंजली के यहाँ चुपचाप से छिपे-ठहरे हुए सात दिन से अधिक गुज़र गये. इस मध्य नितिन के बारे में अंजली भी रोमिका से सारी जानकारियाँ लेती रही. अंजली ने भी रोमिको को अपने घर से तनिक भी बाहर न निकलने की हिदायत दे रखी थी ताकि नितिन जो उसको ढूंढता फ़िर रहा था, न देख ले. नितिन भी अब रोमिका को दीवानों समान ढूँढने लगा था. अंजली भी जानती थी कि, अगर एक बार भी नितिन को यह ज्ञात हो गया कि, रोमिका यहीं कौसानी में है तो फिर उसकी समस्त योजनाओं पर पानी फिर जाएगा और सारा बना-बनाया खेल भी बिगड़ जाएगा. रोमिका, भी जब यह सुनती थी कि, नितिन बार-बार उसके घर पर उसे देखने अब भी जाता है तो चुपचाप अकेले कमरे में बैठकर अपनी बिगड़ी किस्मत पर आंसू बहा लेती थी.
एक दिन अंजली ने जब आकर रोमिका को बताया कि, नितिन उसको बराबर खोजता फिर रहा है, उसके घर पर भी वह रोजाना जाता है. वह उदास बना पहाड़ों पर भटकता रहता- रोमिका का नाम ले-लेकर चिल्लाता रहता है और उसकी आवाज़ घाटियों में गूंजती रहती है- हर जगह उसको पुकारता है; रोमिका ने सुना तो उसके दिल में जमा हुआ नितिन की जुदाई का दर्द फिर से बढ़ गया. दिल फट गया- उसकी आँखों में फिर से आंसू भर आये.
तब एक बार रोमिका के दिल में आया भी कि, वह सब कुछ भूलकर फिर से नितिन को अपना ले. उसको क्षमा कर दे. उससे लिपटकर, उसके सीने में हमेशा के लिए समा जाए. उसके कंधे पर अपना सिर रखकर खूब ही फूट-फूटकर रो ले; लेकिन, बाद में क्या होगा? इतने दिनों की मेहनत, उसके सब्र का फल, वह जिस कारण से यह सब कर रही है, सब-का-सब बेकार रह जाएगा. यही सोचकर वह अपने दिल में उठती हुई हलचलों को शांत कर गई.
फिर भी रोमिका का दिल नितिन को एक पल देखने के लिए बेचैन रहता था. वह अक्सर ही सोचती कि, पता नहीं, उसके नितिन के क्या हाल होंगे? क्या गुज़र रही होगी उसके परेशान दिल पर? यही ख्याल उसके दिल में आते, तो उसका टूटा हुआ दिल और भी अधिक टूटने लगता था. तब ऐसे में उसके पास किसी एकांत में चुपचाप अपनी तकदीर पर रो लेने के अतिरिक्त दूसरा कोई भी सहारा नहीं रहता था. रोमिका रोती रहती. नितांत अकेली- बिलकुल तन्हा- आंसू बहाती- अंजली से छुपकर, अपने कमरे के एकांत में- चुप-चुप घुटती रहती.
एक दिन रोमिका अंजली के साथ उसके घर में बैठी हुई थी. बहुत उदास और खामोश- गुमसुम-सी- अपनी ही सोचों और विचारों में. अंजली किचिन में चाय बना रही थी. संध्या अपनी अंतिम साँसे ले रही थी. मौसम साफ़ था और कौसानी के इस शाम की बढ़ती हुई धुंध में आकाश में बादल उड़ रहे थे. फिर भी हल्का-हल्का शाम का अन्धकार समय से पहले ही दिन के रहे-बचे उजाले को छीनने का भरसक प्रयास किये जा रहा था. तभी अंजली मकान के बाहरी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी तो दोनों ही चौंक गई. तब रोमिका द्वार खोलने के लिए अपने स्थान से उठी, तो अंजली तुरंत ही उसका हाथ पकड़ लिया और उससे बोली,
'चुपचाप यही बैठी रह. अगर नितिन दरवाज़े पर हुआ तब. . .? मैं देखती हूँ.'
अंजली सचमुच कोई भी ऐसा पग नहीं उठाना चाहती थी कि, जिसके कारण रोमिका फिर से किसी दूसरी मुसीबत में पड़ जाए. वह चुपचाप दरवाजा खोलने के लिए चली गई.
द्वार खोलकर अंजली ने जैसे ही बाहर झांका, नितिन ही उसके सामने खड़ा था. उजड़ा-उजड़ा- अपने मृत अरमानों की ठंडी लाश की प्रतिमूर्ति समान- आँखों में घोर निराशा और चेहरे पर किसी हारी हुई बाज़ी का दर्द लिए हुए. अंजली उसे देखते ही उसकी सारी दशा को समझ गई.
'एक बहुत छोटी-सी 'रिक्वेस्ट' थी, आपसे?'
नितिन ने अपने दुखित स्वरों में कहा.
'जी कहिये?'
'यहाँ एक लड़की रहती थी- गूंगी, बहुत प्यारी, उस घाटी में बने एक छोटे से मकान में.'
नितिन ने अपने हाथ की उंगली दिखाकर इशारा किया. फिर आगे बोला,
'उसका नाम रोमिका है. क्या आप उसे जानती हैं?'
'रोमिका?'
नाम दोहराकर अंजली ने अनजान बनते हुए अपने मस्तिष्क पर बल डाले. बहुत कुछ सोचने का अभिनय किया. फिर बोली,
'हां ! थी तो . . .परन्तु ?'
'परन्तु . . .? परन्तु क्या?' नितिन ने अधीर होकर पूछा.
'काफी दिन हुए हैं, जब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई है. अक्सर वह मेरे पास आ जाती थी, लेकिन पिछले काफी दिनों से वह नहीं आई है. हो सकता है कि, वह अपने किसी रिश्तेदार आदि के यहाँ चली गई हो.'
अंजली ने झूठ बोलकर नितिन की सारी अधीरता का दम घोंट दिया. नितिन ने सुना तो निराश होकर अपना सिर झुका लिया- बहुत उदासी के साथ.
'आप यहाँ के रहनेवाले भी नहीं लगते हैं. आप उसकी तलाश में क्यों हैं?'
अंजली ने उसे एक संशय से उसके दिल का हाल जान लेना चाहा.
'है कोई बहुत मेरा महत्वपूर्ण कारण. धन्यवाद. अच्छा, अब मैं चलूं.'
कहकर नितिन वापस लौट पड़ा. बहुत निराश और दुखी होकर. अंजली चुपचाप उसको कुछेक पलों तक खड़ी-खड़ी जाते हुए देखती रही- किंकर्तव्यविमूढ़-सी.
'कौन था?'
तुरंत ही अचानक से रोमिका ने घर के भीतर से दरवाज़े के पास आकर अंजली का कंधा हिलाकर इशारे से पूछा.
'ले, देख ले.'
अंजली दरवाज़े से हटती हुई बोली.
रोमिका ने शीघ्र ही बाहर झांका तो उसके गले से एक मूक आह सी निकल गई- 'ओह !'
एक दर्द से परेशान और तड़पती हुई, गले में ही ठहरी हुई वेदना की मौन कशिश, उसके मुख के अंदर ही घुटकर रह गई. आवाज़ बाहर न आ सकी. वह दूर तक पलकें बिछाए हुए देखती रही. एक छोटी, पर्वत की पगडन्डी पर, एक दुखों के भार से लदी हुई परछाईं, जानी-पहचानी, उजड़ी-उजड़ी- नितिन. हां उसका ही नितिन, चला जा रहा है. नितांत अकेला- बेसहारा- उदासियों का भटकता हुआ अकेला बादल समान. नितिन के बेतरतीबी से बिखरे हुए बाल, हवाओं के कारण और भी अधिक उलझ गये हैं. उसकी तो हालत ही बदल गई है. इन दो-एक सप्ताह में ही वह कितना अधिक दुर्बल हो चुका है? कितना अधिक वह अंजली के दरवाज़े से निराश होकर गया है?
न जाने कितनी ढेर सारी आशाओं और अरमानों की गठरी लिए वह यहाँ आया होगा? रोमिका बहुत देर तक सोचती रही. नितिन चला भी गया. एक और पहाड़ी के पीछे जाकर वह उसकी आँखों से ओझल हो गया.
रोमिका बहुत देर तक सोचती रही. अब पता नहीं उससे कब भेंट हो? हो भी या नहीं भी? रोमिका ने बहुत सोचा तो उसके दिल का छुपा हुआ दर्द, उसकी आँखों में, रोते-बिलखते हुए आंसुओं के रूप में नीचे धरती पर गिरने लगा. उसका गला भर आया. आँखें छलक आईं. जब उससे नहीं रहा गया तो वह वहीं दरवाज़े से अपना सिर रखकर बिलख-बिलखकर रो पड़ी. रो पड़ी, अपनी बेवफा किस्मत की दुर्दशा देखकर- अपने प्यार, अपने दिल के देवता समान नितिन को इन पहाड़ी गर्दिशों में भटकता हुआ देखकर- नितिन का बेहद बिगड़ा हुआ रूप और शक्ल देखकर, वह अपने आंसुओं के बाँध को टूटने से रोक नहीं सकी थी.
रोमिका रोती रही. वहीं दरवाज़े से सहारा लिये हुए. अंजली उसकी दशा से अनभिज्ञ, चाय बनाने में लगी रही और रोमिका के आंसू बहते रहे- हर पल- बार-बार उसके दिल को नितिन का ख्याल आ रहा था- अपने अधूरे प्यार का- अपने बीते हुए मधुर दिनों का. वे दिन, जिनमें उसने नितिन की बाहों का सहारा लेकर कभी अपने भावी जीवन के ख्वाब सजाये थे, पर वक्त के पलटे हुए दौर ने उन ख़्वाबों को मृत कामनाओं की अर्थी बनाकर उसके आंचल में डाल दिया था.
अंजली चाय बनाकर बाहर लेकर आई तो रोमिका को रोते देख हैरान हो गई. प्यार में मिला हुआ दर्द इतनी आसानी से दिल से निकल नहीं सकता है; यही सोचकर उसने दोनों चाय के प्याले एक तरफ रखे और फिर रोमिका के पास आकर बोली,
'ऐसे ही रोयेगी तो एक दिन मर भी जायेगी. कितना समझाते हैं सब कि, नीचे के मैदानी युवकों से दिल्लगी नहीं की जाती है?'
फिर रोमिका का कंधा हिलाकर बोली,
'चल उठ और 'फ्रेश' होकर चाय पी. मरने दे उसको.'
अंजली ने उसे हाथ पकडकर उठाया तो वह कटी हुई टहनी के समान उसके ज्क्न्धे पर फूट-फूटकर रो पड़ी. 






23

समय बढ़ता जा रहा था. बढ़ता रहा. वक्त का पहिया अपनी रफ्तार से आगे ही बढ़ता रहा. रोजाना सूर्य निकलता- फिर किसी पर्वत के पीछे से उसकी कोमल किरणें, रात्रि के सारे अन्धकार को साफ़ कर देतीं. बाद में धरती का नज़ारा करते हुए, सूर्य का गोला लाल होता और फिर सारी किरणें लाल होकर संध्या को अपना मुंह फेर लेतीं. तब फिर से रात आ जाती और वह भी शायद रो-रोकर शबनम के आंसू भेंट में देते हुए सुबह की प्रतीक्षा करती रहती. यही प्रकृति का दिन का कार्यक्रम था जो सदियों से, न जाने कब से चला आ रहा था.

अमावस्या की काली रात थी.
आकाश में केवल छोए-छोटे नादान सितारे ही चन्द्रमा की कमी को पूरा करने में जुटे रहते. रात भी इसकदर अंधेरी और भयानक हो जाती थी कि, उसकर अन्धकार में सारे पर्वत भी आकाश में लटकते हुए भयंकर पिण्डों समान प्रतीत होते थे. वक्त की बढ़ती हुई मार के आगे रोमिका दुःख को भुला न सकी. वैसे भी जीवन के पीड़ा-भरे कटु अतीत कभी भी भुलाए नहीं जा सकते हैं, वे हमेशा ही समय-असमय याद आते हैं. समय ने रोमिका के बहते हुए आंसू पोंछे तो नहीं थे, परन्तु रोक अवश्य ही दिए थे. अब वह नितिन की याद में रोती नहीं थी- उसकी आँखें आंसुओं से छलकती नहीं थीं, केवल उदास रहती थीं. वह तड़पती थी, मन-ही-मन घुटती थी- हर समय. अंजली भी उसकी मनोदशा को समझती थी और अक्सर उसको समझाती ही रहती थी.


रोमिका ने दूरदर्शिता को देखते हुए समय से समझौता कर लिया. उसने मन मारकर जीना सीखा- केवल नितिन की याद के सहारे, वह अपनी टूटी हुई ज़िन्दगी की कश्ती को जीवन-सागर की लहरों में धकेलने लगी. अब उसके दिल में उमड़ता हुआ दर्द नहीं था कि जिसकी यादों के कारण ही उसकी आँखें भर-भर आती थीं. ज़िन्दगी के हालात और दर्दों की केवल एक काली और ठोस लकीर उसके मन-मस्तिष्क में बन चुकी थी. उसके दुखों का नासूर अपने ही स्थान पर था, अंतर केवल इतना ही था कि वक्त की मार ने उसे भी ठोस बना दिया था- वह अब रिसता नहीं था, पर दुखता अब भी था. फिर भी अपने जीवन के इतने गहरे और चोटिल अतीत को रोमिका कभी भी भुला नहीं सकी. उसके गुजारे हुए दिनों का वह हिस्सा जो उसके जीवन में प्यार के महकते हुए फूलों को लेकर उदय हुआ था, अब उसके दिल के पर्दे पर एक अमिट चित्र की भांति बनकर रह गया था और इस चित्र को उसके भाग्य की लकीरों ने उन समस्त फूलों को नागफनी के दर्द देनेवाले काँटों में परिवर्तित कर दिया था.
उसके पास अपनी मां के दिए हुए कुछ गहने और पैसे थे. अंजली की सलाह पर उसने उन गहनों को बेचकर अपने लिए एक नाव बनवा ली. फिर उसके साथ वह नैनीताल आ गई. अपने जीवन की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिए वह दिन भर पर्यटकों के बोझ को तल्ली ताल से मल्ली ताल तक का नौका विहार कराती, फिर सांझ को अपनी एक कोठरी में आँखें बंद करके चुपचाप सो जाती. यही उसकी दिन्च्त्या बन गई थी और अब नाव चलाना, उसका दो रोटी कमाने का ज़रिया भी.
रोमिका नैनीताल आ गई तो वहां की जलवायु ने उसके दिल में बसे हुए दर्द को बहुत कुछ आपस में बाँट लिया. पहाड़ों पर इठलाते हुए बादलों ने उसके फीके और मुरझाये हुए चेहरे को एक नई आभा प्रदान की. नैनीताल की झील के हरे जल की गहराई ने उसकी नीली और सूनी आँखों में अपनी अथाह गहराईयों का असर भर दिया. वहां के सुन्दरता से भरे वातावरण में पर्यटकों की खिलखिलाती हुई मुस्कानों ने उसके सूखे होठों पर अपनी गुलाबी रंगत दे दी. वह हंसती थी तो केवल अपने ग्राहकों के लिए. सेवा करती थी तो चंद पैसों को कमाने के लिए. नाव चलाती थी तो केवल पर्यटकों के लिए ही.
दिन भर वह अपने जीवन की नाव के समान ही वह नौका विहार करने वालों के लिए नाव चलाती. फिर जब सांझ की बेला में सूर्य की लालिमा क्षितिज में अपने शेष बचे हुए जीवन की भीख मांगने लगती तो वह भी अपनी थकी हुई नाव का लंगर बाँध देती. तब जब थोड़ी देर बाद रात पड़ने लगती और नैनीताल की झील का जल शांत हो जाता, तब चन्द्रमा भी हर रात्रि के समान दूर पहाड़ों के पीछे से अपनी उपस्थिति का मुस्कराते हुए आभास करा देता.
चन्द्रमा को देखते हुए, नैनीताल शहर को विद्दुत की रोशनियों में डूबते हुए तब रोमिका भी बिना किसी से कुछ भी कहे हुए चुपचाप उदास और निराश होकर झील के किनारे आकर किसी पत्थर पर आकर बैठ जाती. बैठकर वह बहुत खामोशी से हरेक वस्तु को ताकती रहती. कभी अपने मन की बात चन्द्रमा से कहती, तो कभी झील के जल की थिरकती और गुनगुनाती लहरों से गुपचुप बातें करती रहती.
अपनी ज़िन्दगी के इन्हीं उदासियों से भरी रातों में जब एक दिन रोमिका को अपनी कोख में पलती हुई नितिन के प्यार की निशानी का आभास हुआ तो उसकी आँखें फिर एक बार छलक आईं. गला भर आया. उसकी आँखों से स्वत: ही आंसू उदास चांदनी में बरबस टूटती हुई ओस की बूंदों के समान बहते हुए नीचे गिरने लगे. क्या करती वह? न खुशी और न रंज- आंसू भी, मुस्कान भी? अपनी स्थिति और हालात को देखते हुए वह न तो रो सकी और न ही हंस सकी. अपनी ज़िन्दगी के इस बेबस चौराहे पर खड़ी होकर वह अब किधर जाती? जहां एक तरफ उसे नितिन के प्यार की निशानी अपनी कोख में पाकर कोई खुशी होती, वहीं दूसरी तरफ समाज की जुबान से निकलने वाली गालियों का भय उसका गला पकड़ लेता था.
वह जानती थी कि, अपनी इस प्यार की निशानी की किसी भी खुशी को वह जग से ज़ाहिर भी तो नहीं कर सकती थी. साथ ही अकेले-अकेले घुटते हुए मरना भी उसको गवारा नहीं था. अभी तो उसके प्यार की निशानी उसकी कोख के अंदर थी. कोई जानता भी नहीं था. परन्तु जब एक दिन उसका प्यार उसकी कोख से बाहर आयेगा- एक नन्हें से फूल के समान, दुनियां की बहारों में महकने का प्रयत्न करेगा, तो ज़माना उस पर प्रश्नों की बौछार भी करेगा? लोग उसके चरित्र पर अंगुलियाँ उठाएंगे- रुस्वाइयां होंगीं, तब वह क्या कहेगी? लोगों को वह क्या उत्तर देगी?
जब समाज के ही लोग उससे बच्चे के पिता का नाम पूछेंगे, तब ऐसी दशा में क्या वह नितिन का नाम स्पष्ट ले सकेगी? तब क्या सारा समाज उसको इस दशा में स्वीकार कर सकेगा? हरगिज नहीं और कभी भी नहीं. बल्कि उसके चरित्र पर एक तोहमत लगाकर उसे अपनी बस्तियों से बाहर भी कर देगा. विवाह से पहले किसी भी भारतीय नारी का मां बनना, भारत जैसे देश के समाज ने, कभी भी भली नज़रों से नहीं देखा है. फिर वह कौन से फूलों के देश की रानी है कि उसको गर्भवती देखकर लोग चुप हो जायेंगे?


रोमिका ने उपरोक्त जैसा सोचा तो उसका दिल एकाएक घबरा गया. बुरी तरह, मानो टूट गया. रहे-बचे अरमान, जिन पर वह अपने जीवन के शेष दिन काट लेना चाहती थी, वे भी जब उसका साथ छोड़ते नज़र आये तो रोमिका का दिल फिर से सुबक गया. उसकी आँखों में आंसू झलकने लगे. न मरने से ही और न ही जीने से, एक भंवरजाल में फंसी हुई, इस तरह हर समय रोते रहने से तो अच्छा है कि, वह अपने जीवन का अंत ही कर डाले. न रहेगा बांस और न ही बजेगी बांसुरी- इससे अच्छा तो रहेगा कि वह मर ही जाए? वैसे भी उसके जीवन में अब कौन सा विशेष आकर्षण बचा है? किस आशा पर वह जिए? किस उम्मीद पर वह किसी सहारे की आस लगाये? अपने जीवन के समस्त उजाले तो उसने पहले ही मिटा दिए हैं? यूँ भी जीवन में कभी तो उसे मरना ही है. एक-न-एक दिन तो सभी को ये संसार छोड़ना होता है, तो फिर क्यों न वह अभी ही अपना जीवन समाप्त कर ले? अभी मरने पर उसके ऊपर कलंकनी, त्रिया चरित्र, चरित्रहीन जैसे शब्दों का आरोप तो नहीं लगेगा. यदि लगेगा भी तो वह तो अपनी आँखों से देख नहीं सकेगी?
रोमिका इसी प्रकार से झील के किनारे बैठकर अपने जीवन के बारे में सोचा करती. आज भी संध्या ढलने के बाद, वह अपनी नाव का लंगर डालकर यहाँ झील के किनारे आकर बैठ गई थी. उसी पत्थर पर, जहां वह रोज़ ही बैठती थी. बैठे-बैठे वह अपने बारे में न जाने क्या-क्या सोच गई थी? अपने जीवन की पिछली भूली-बिसरी बातों को फिर एक बार दोहरा गई थी. 
24

दूर चिनार के वृक्षों पर चन्द्रमा ने अपनी कमजोर रश्मियों के द्वारा जाली बुनना आरम्भ कर दिया था. आकाश पर कुछेक बादलों के टुकड़े आकर ठहर चुके थे. मौसम शांत था- हवाओं में खामोशी थी. नैनीताल की झील का जल भी ह्ल्के-हल्के काँप रहा था. नैनीताल शहर की सारी विद्दुत बत्तियों के प्रतिबिंब झील के जल में मानों धीरे-धीरे थिरक रहे थे. वातावरण चुप था. हर तरफ सन्नाटों समान खामोशी व्याप्त थी. ऐसी ही एक खामोशी अकेली बैठी हुई रोमिका के दिल में भी समाई हुई थी. कोई नहीं जानता था कि, उसके दिल की इस चुप्पी में कितनी ढेर सारी आवाजें कैद थीं? इन आवाजों में कितना अधिक दर्द था? तडपती, चीखती और मसलती हुई आशाओं की चिल्ल्हाटें थीं? कितना अधिक तूफानी शोर उसके दिल में मचा हुआ था? नैनीताल के किसी भी मनुष्य को उसके दिल में जलनेवाली आग की तपन का एहसास नहीं होगा?
सहसा ही एक अजनबी छाया, रोमिका की नाव के पास आकर ठहर गई. चन्द्रमा के हल्के प्रकाश की धुंध में रोमिका ने इस मानव-छाया को अपनी नाव के पास खड़े देखा तो उसका दिल एक अज्ञात भय की शंका से अचानक ही धड़कने लगा. रोमिका चुपचाप दूर से ही बैठी हुई उस मानव-छाया को देखने लगी. वह मानव-छाया वैसे ही खड़ी हुई थी. खामोश- बिलकुल स्थिर- शायद न जाने कौन सी लालसा से, लम्बी-चौड़ी झील के जल की मौन लहरों को निगाहें लगाकर ताक रही थी?
कुछेक पल बीते होंगे कि, उस छाया ने जेब से सिगरेट निकालकर होठों में रखकर सुलगाई. रोमिका ने माचिस की जलती तीली के प्रकाश में उस मानव-छाया का चेहरा देखा. उसे पहचानने की कोशिश की. वह एक मानव-छाया ही थी. चेहरा गंभीर- उजड़ा-उजड़ा- सिर के बाल बेफिक्री से उलझे हुए- न जासने कौन थी? सिगरेट जलाकर, तीली उस छाया ने फेंक दी थी और फिर झील की ओर आँखें बिछाए सिगरेट के गहरे-गहरे कश खींचने लगी. रोमिका अभी भी उस अनजान मानव-छाया को देख रही थी. जिज्ञासापूर्वक.
सहसा ही वह मानव-छाया उसकी उपस्थिति से अनजान और अनभिज्ञ उसी की ओर बढ़ने लगी. रोमिका ने देखा तो चन्द्रमा की कमसिन किरणों के प्रकाश में, उसका भी दिल काँप गया. वह ऊपर से नीचे तक सहम-सी गई. बढ़ती हुई रात का सन्नाटा- खामोशियों का बसेरा- गहरी झील का एकांत, अकेला किनारा- और एक अजनबी मानव-छाया? कुछ भी हो सकता था? रोमिका का दिल खुद को अकेली, बेसहारा और बेबस जानकर ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा.
परन्तु रोमिका के आश्चर्य की तब कोई सीमा न रही जबकि, वह अज्ञात व्यक्ति की छाया, उसकी बगल से अनभिज्ञ होकर चुपचाप चली भी गई और उससे लगभग पचास कदम की दूरी पर एक पत्थर पर उसकी तरफ अपनी पीठ करके बैठ गई. शायद वह व्यक्ति रोमिका को देख नहीं सका था? उसकी उपस्थिति का उसको कुछ भी आभास तक नहीं था? वरना वह रोमिका को देखकर चौंकता अवश्य ही.
वह अनजान और अपरिचित युवक चुपचाप झील की गहराई को जैसे अपनी दृष्टि से नापने की कोशिश कर रहा था. रोमिका ने उसे इस मुद्रा में देखा तो जाने क्यों उसके दिल में उस अपरिचित व्यक्ति के लिए एक हमदर्दी आ गई. शायद इसका कारण था कि, वह व्यक्ति बहुत शांत और गंभीर था? कोई भूला-भटका, जीवन से निराश, पथिक लगता था? अवश्य ही बहुत उदास भी होगा. उसी के समान. वह खुद भी तो एक भटकी हुई, अपने प्यार की मारी हुई अभागिन है.

रात्रि बराबर बढ़ रही थी.
सुबह होने की प्रतीक्षा में आकाश भी अभी से रोने लगा था. गिरती हुई ओस की बूंदों से रोमिका के लंबे बाल सीलने लगे थे. नैनीताल की अपने सौंदर्य के बोझ से लिपटी हुई रात- रात का अन्धकार- इस अन्धकार को मिटाने की चेष्टा में आकाश में बैठा हुआ मूक चन्द्रमा- रात की भीगती हुई ओस में चन्द्रमा की किरणें- इन्हीं किरणों के साथ टिमटिमाते हुए तारों की सजी हुई बरात- इन्हीं तारों की छाँव में अपने जीवन की सुबह की आस में दो भटके हुए राही? रोमिका और वह अनजान व्यक्ति? क्या समन्वय था? कैसा संयोग?

रोमिका ने बैठे-बैठे सोचा !
ऐसे कब तक चलेगा? कब तक वह अपने जीवन की टूटी, बेसहारा नाव को धकेलती फिरेगी? इस सबसे बेहतर तो यही होगा कि, वह कहीं भी अपनी जान दे दे. आज नहीं तो कल अवश्य ही नितिन के बच्चे की मां बनेगी. एक अविवाहित, कुंवारी मां? इस देश का समाज उसको कैसे सम्मानित नज़रों से देख सकेगा? लोग क्या कहने से चूक जायेंगे? वह किस-किस की जुबान को पकड़ेगी? सारा पहाड़ी समाज क्या चुप बैठा रहेगा? क्या उस पर, उसके चरित्र पर लांछन लगाने से छोड़ देंगे?
ऐसा तो कभी नहीं हो सकेगा. जीजस भी तो कुवारी मरियम की कोख से पैदा हुए थे. जब लोगों ने जीजस की मां मरियम पर दोष लगाने से नहीं छोड़ा था, खुद जीजस को भी व्यभिचार से उत्पन्न हुई सन्तान का दोष लगाया था, सीता को भी अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ा था? तो फिर वह कौन है, जिस पर दोष नहीं लगाया जाएगा? जब उसकी कोख से नितिन के प्यार का अंश एक नवजात शिशु के रूप में जन्म लेगा, ऐसी विषम स्थिति में तब क्या वह अपने को संभाल सकेगी? क्या वह समाज की कड़वी-कसैली और कटु बातों के बाणों को सहन कर सकेगी?
अभी तो वह अकेली है. स्वतंत्र है. वह कुछ भी कर सकती है. परन्तु जब वह एक बच्चे की मां बन जायेगी, तो उस पर बच्चे की जिम्मेदारी भी होगी. कहाँ जायेगी वह तब? किसकी आस करेगी? यहाँ संसार में उसका रहा ही कौन है? कोई भी तो उसका अपना नहीं है. यह संसार भी कितना स्वार्थी है? किसी को असहाय जानकर तुरंत ही अपना मुंह मोड़ लेता है. कहाँ उसका भला हो सकेगा? सब-कुछ तो उसका लुट चुका है. नितिन के पास भी लौटकर उसे क्या मिलेगा? वह तो पहले ही बिक चुका है. बिका हुआ आदमी किसी भी प्यार की मंडी में खरीदार नहीं बन सकता है. फिर उसको भी किसी का पति छीनने का कोई अधिकार नहीं है.
वह खुद और मौनता; दोनों ही नारी हैं. एक भारतीय नारी- किस दिल से वह किसी दूसरी का पति छीन सकेगी? ऐसा तो वह कभी भी नहीं कर सकेगी. एक पति किसी दूसरी का प्रेमी तो बन सकता है लेकिन पति नहीं. उसे तो नितिन को भूल जाना होगा. उससे तो उसका अब मतलब ही क्या रहा? जो भी हुआ, अनजाने में, बगैर किसी भी जानकारी के, वह नितिन को प्यार करती रही थी. मगर अब? अब तो सब कुछ उसके सामने है. सारी किताब खुली पड़ी है. अब नितिन उसका, होकर भी उसका नहीं रहा है.
फिर वह क्या करे? क्या उसे करना चाहिए? एक ओर उसका प्यार तो दूसरी तरफ उसी प्यार के कारण उसकी हर दिन बढ़ती हुई कोख? कब तक वह अपने को छुपाती फिरेगी? कब तक वह ढीले वस्त्र पहनती रहेगी? अब कुछ भी नही रहा है. उसके हिस्से का सब कुछ समाप्त हो चुका है. किस आशा पर वह जी सकेगी? उसके जीवन की समस्त उम्मीदें जलकर ख़ाक हो चुकी हैं. केवल राख ही बची है. वह भी एक दिन हवा के झोंकों में उड़कर समाप्त हो जायेगी. फिर उसके पास क्या बचेगा? कुछ भी तो नहीं? अभी तो समय है. अभी तो वह जीवन पर लगे कलंक को छिपा भी सकती है. मरने के बाद किसी को क्या पता चलेगा कि वह एक बच्चे की मां भी थी. सबको मरना तो एक दिन ही है. उसे भी मरना है. कभी-न-कभी, तो फिर अभी वह क्यों न अपनी जान दे दे? अभी तो उसका पाप भी छिप सकता है. मगर कल को यदि वह एक बच्चे की मां बन गई तो फिर वह कहीं भी अपना मुंह छिपाने के लायक भी नहीं रहेगी. मां बनने के बाद हो सकता है कि, बच्चे का मुंह देखने के पश्चात उसका आत्महत्या का इरादा ही बदल जाए?
बहुत संभव है कि, मां की ममता के कारण वह जीने के लिए मजबूर हो जाए. वह आत्महत्या न करे. फिर वह जिए, अपने बच्चे की खातिर? तब ऐसी दशा में वह कुलटा, कलंकनी जैसे शब्दों के साथ अपमानित होती रही. साथ ही उसके बच्चे को भी सारे लोग बगैर बाप की औलाद का ताना देते रहेगें. सभी उसको और उसके बच्चे को दूषित निगाहों से देखा करेंगे. एक न ब्याही हुई मां के रूप में कौन उसे स्वीकार करेगा? अभी तो वह न तो जीने में है और न ही मरने में. दुनियां उस पर दोष लगाये, उसको बुरा-भला कहे, इससे अच्छा तो यही कि वह अपना जीवन ही समाप्त कर ले. इसी में उसकी भलाई रहेगी. नितिन की भी- उसकी और सारे समाज की भी- समाज को भी एक पतित नारी को जीते हुए नहीं देखना पड़ेगा. उसे मरना ही चाहिए- अवश्य- इसी समय- क्योंकि अभी तो मौका है- कारण भी है और उसकी मजबूरी भी.


बैठे-बैठे रोमिका ने ऐसा दर्दनाक अंत अपने जीवन के लिए सोचा तो उसकी पलकों में अपने आप ही आंसू आ गये. आ गये तो उसने उन्हें पोंछने की भी आवश्यकता नहीं समझी. आंसू थे- उसके गोरे गालों पर बहने लगे. उसकी नीली आँखों में कुछेक टूटे हुए आंसुओं के प्रतिबिंब भी झलकने लगे. बहुत से आंसू उसके गालों के उभारों पर भी आकर टिक गये. वे चन्द्रमा की रोशनी में सुबह की घास पर बैठी हुई शबनम के उन मोतियों समान चमकने लगे जिनका अस्तित्व वायु की एक हल्की-सी लहर के वेग से ही समाप्त हो जाता है.
रोमिका भी अपने जीवन का अंत इसी प्रकार से कर देना चाहती थी. अपने दिल बसाए हुए इस खेदित विचार के साथ वह झील के किनारे उथले पानी में बढ़कर आई तो उसकी नीली, सुंदर आँखों के तड़पते हुए आंसुओं की बहती धारा का वेग और भी अधिक बढ़ गया. वह शायद मरने से पहले जी भरकर रो लेना चाहती थी?
दिल की भावनाओं के तूफ़ान में, रोमिका झील की गहराई में आगे की ओर बढ़ती गई. आकाश पर बैठे हुए चन्द्रमा ने जब उसको यूँ खुदकसी करते देखा तो वह भी झट से एक बदली की ओट में सरक गया. वह भी उसकी आत्महत्या की गवाही से दूर ही रहना चाहता था? परन्तु दूर-दूर तक आकाश की शून्यता में टिमटिमाते हुए तारे अकेली रोमिका की दुर्दशा देखकर मानो रो पड़े. रोमिका के गहरे पानी में घुसते ही नैनीताल के सारे पहाड़ों की धड़कनें भी जैसे थम गईं. परन्तु रोमिका वह नहीं रुकी. उस पर बिगड़ी हुई भावनाओं का जैसे भूत सवार हो चुका था. दिल में उसके अपनी बर्बाद मुहब्बतों के सारे तकाजों की जैसे आग लगी हुई थी. इस आग की तपिश से वह जैसे शीघ्र ही छुटकारा पा लेना चाहती थी. रोमिका पानी की गहराइयों में बढ़ती गई. हर पल उसके कदमों में तीव्रता आती गई. गले तक पानी में समाने के बाद उसने अंतिम बार सारे इलाके को देखा. आस-पास निहारा. फिर ऊपर अपने ईश्वर की ओर अपने दोनों हाथ जोड़ दिए. और आँखें मूंदकर झील के गहरे जल के गर्भ में समा गई. तभी जल की एक लहर उफनती हुई सी भंवर समान आई और साथ में झील के ऊपरी तल की शान्ति में दखल मचा गई. झील की गहराई में हलचलें सी मच गई. परन्तु तभी एक दूसरी आवाज़ अचानक से हुई- छपाक ! पास ही में कोई दूसरी मानव-छाया झील में कूद पड़ी थी. वह जल्दी-जल्दी रोमिका के डूबते-उतराते हुए शरीर की ओर बढ़ने लगी.
नैनीताल का वह सारा इलाका- इलाके के सारे पर्वत- पर्वतों पर सायों के समान लगे हुए वृक्ष- और आकाश की हरेक निगाहें, मानो कायरों समान एक सताई हुई दुखिया को अपने प्राण देते हुए, चुपचाप अपनी मजबूरियों का परिचय देते रहे.









तृतीय परिच्छेद


25

रात की ठंडक आवश्यकता से अधिक बढ़ चुकी थी.
वातावरण ने भी जैसे बहुत मायूस होकर अपने जिस्म पर कोहरे की चादर तान ली थी. रात्रि का दूसरा पहर समाप्त हो रहा था. उस इलाके का हर प्राणी, अपने घरों में बंद हरेक मनुष्य शायद मीठी नींद सो रहा होगा, परन्तु गोविन्दबल्लभ पन्त अस्पताल के एक व्यक्तिगत कमरे के बाहर एक मनुष्य बहुत ही बेचैनी के साथ, गैलरी में इधर-उधर टहल रहा था. डॉक्टर्स और नर्सें अति शीघ्रता में चारों तरफ अस्पताल में, इधर-उधर भाग रहे थे. परन्तु वह मनुष्य वह अनजान छाया, अभी भी अत्यंत चिंतित दिख रहा था और अस्पताल की गैलरी में मानो उदास अपने ही ख्यालों में चुपचाप खड़ा था. उसके मुखड़े पर भरपूर गंभीरता और आँखों में इंसानियत की झलक स्पष्ट दिखाई दे रही थी. देखते ही लगता था कि, उसे जैसे अपने किसे उस प्रियजन की चिंता थी जो शायद अस्पताल के किसी कमरे में बीमार पड़ा होगा.
सहसा ही अस्पताल के मरीज के कमरे में से एक नर्स निकलकर आई. उसे देखकर उस व्यक्ति ने एक आशा से उससे कहा कि,
'सिस्टर ! '
'डोंट वरी. सब ठीक है. पेशेंट और उसकी प्रेगनेंसी; दोनों ही सही-सलामत हैं.'
नर्स यह कहकर कर शीघ्र ही चली गई. नर्स की बात सुनकर उस अजनबी मनुष्य के चेहरे पर तुरंत ही एक हल्की खुशी की लहर दौड़ गई. मगर, नर्स के मुख से पेशेंट और 'उसकी प्रेगनेंसी' शब्द सुनकर उस मनुष्य के जैसे कान खड़े हो गये. फिर भी उसने इसे अन्यथा नहीं लिया और फिर बड़े इत्मीनान से वहीं पड़ी एक बेंच पर बैठ गया.
उसके बैठते ही कुछ ही मिनट व्यतीत हुए होंगे कि, तभी डॉक्टर भी कमरे से बाहर आ गया. डॉक्टर को देखते ही वह मनुष्य तुरंत ही अपने स्थान पर खड़ा हो गया. तब उस मनुष्य ने एक आस से देखा.
'पेशेंट को होश आ गया है. उसके पेट से सभी अतिरिक्त पानी निकाल दिया गया है. आप निश्चिन्त रहे. अब आप उससे मिल सकते हैं.'
यह कहकर डॉक्टर आगे बढ़ गया तो वह युवक शीघ्र ही कमरे में अंदर चला गया. पेशेंट के बिस्तर के पास जाकर वह बहुत आश्चर्य और हैरानी के साथ रोमिका को निहारने लगा.
रोमिका ने उस अनजान युवक को अपने कमरे के अंदर, अपने ही पास खड़े देखा तो वह उसे पहचानने का जैसे प्रयत्न करने लगी. उसने मस्तिष्क पर ज़ोर देकर कोशिश भी की, मगर वह कुछ समझ नहीं सकी. अनजानेपन में तब रोमिका ने ही अपने हाथ के इशारे से उस युवक से जानना चाहा कि वह कौन है तो उसने कहा कि,
'मैं, अमलतास हूँ. मुझे पहले ही से संदेह था कि, आप इतनी रात झील के किनारे किस इरादे से बैठी होंगी? मेरा सोचना सही भी निकला. झील से मैं ही आपको निकालकर यहाँ अस्पताल में लाया हूँ.'
'ओह !' रोमिका के गले से मानो एक आह निकलने से पहले ही अपना दम तोड़ गई. उसकी आवाज़ बाहर न आ सकी. रोमिका ने याद किया तो उसे सब कुछ याद आ गया. वह तो झील के पानी में मरने के लिए गई थी? सोचते ही उसकी पलकें गीली हो गईं. अमलतास ने उसको यूँ रोते देखा तो उसको हिम्मत देते हुए बोला,
'नहीं. . .नहीं, रोते नहीं है. आप तो बड़ी हिम्मत वाली लड़की हैं. पहाड़ी लड़कियां तो यूँ भी बहुत हिम्मत वाली और साहसी हुआ करती हैं. सब ठीक हो जाएगा. कोई चिंता की बात नहीं है. आप बिलकुल सुरक्षित हैं और बस अपना ख्याल रखिये.'
अमलतास ने इतना ही कहा था कि, तभी डॉक्टर फिर से अंदर आ गया. उसने रोमिका के एक इंजेक्शन और लगाया और फिर वह अमलतास से संबोधित हुआ. बोला,
'पेशेंट को अभी आराम की आवश्यकता है, इसलिए मैंने इनको नींद का इंजेक्शन दिया है.'
'थैंक यू , डॉक्टर साहब.'
अमलतास ने डॉक्टर को धन्यवाद दिया, फिर वह भी डॉक्टर के साथ-साथ रोमिका के कमरे बाहर आ गया. 










26

समय फिर से बीतने लगा.
दिन हफ्तों में, हफ्ते महीनों में बदलते चले गये. समय का चक्र बराबर अपनी ही गति से घूम रहा था.
इस प्रकार से रोमिका एक बार फिर से किसी नये अनजान युवक अमलतास की शरण में आ गई. अमलतास ने भी रोमिका की दवाई आदि और उसकी देखभाल में किसी भी तरह की कमी नहीं होने दी. उसने रोमिका का अपने से भी अधिक ध्यान रखा, उसकी सेवा की ताकि वह अति शीघ्र ही स्वस्थ हो जाए. तब धीरे-धीरे रोमिका बिलकुल ही स्वस्थ हो गई. एक दिन तब रोमिका को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई.
अमलतास चूँकि मैदानी क्षेत्र दिल्ली का रहनेवाला था, इस कारण उसको एक होटल में रुकना पड़ा था. वह भी अन्य पर्यटकों के समान गर्मी के दिनों में नैनीताल का भ्रमण करने आया हुआ था. उसने रोमिका के हरेक दुःख-दर्द और परेशानियों को सुना ही नहीं बल्कि दिल की गहराइयों से अपना दुःख समझकर महसूस भी किया. वह रोमिका के दुखी जीवन में एक सर्वश्रेष्ठ मानव के रूप में किसी भी फरिश्ते से कम नहीं सिद्ध हुआ. फिर कुछ ही दिनों के अंतर में सब ही छुपी हुई बातों के पर्दे खुल गये. रोमिका ने भी किसी प्रकार, अपने अतीत की एक-एक बात उसे बता दी. कुछ आंसुओं के साथ, कुछ इशारों से और बहुत कुछ लिख-लिख कर.
रोमिका ने उसको बताया कि, किस तरह से नितिन उसके जीवन में आया था? कैसे उसको नितिन से प्यार हो गया था? क्यों वह उसको प्यार कर बैठी थी? कितना अधिक उसने नितिन को प्यार किया था? क्यों उसने उस पर आँख बंद करके विश्वास भी किया था? और इसी विश्वास के आधार पर उसने कैसे अपने प्यार दीप जलाए थे? फिर इन दीपों की पल भर की चकाचौंध में उसने किस प्रकार समय से पहले ही नितिन को अपना सब कुछ समर्पित कर दिया था? बाद में कैसे उसके प्यार को एक धक्का लगा? क्यों उसके प्यार के विश्वास को ठेस पहुँची थी? किन मजबूरियों में उसने कौसानी को छोड़ दिया था और क्यों वह नैनीताल में आकर नाव चलाने लगी थी? तब बाद में अपने जीवन से निराश होकर, दुखी होकर, क्यों मजबूर होकर वह झील के पानी में डूब मरने जा पहुंची थी?
अमलतास ने रोमिका की यह मार्मिक, करुण-कथा सुनी तो एक बार को उसका भी कलेजा फट गया. उसने सोचा कि, इतना दुःख? इतने अधिक दर्दों के भंडार? जीवन में ठोकरें-ही-ठोकरें? क्या परमेश्वर ने नारी को इसीलिये असहाय, कमजोर और अबला बनाया है ताकि वह एक सहारे की तलाश में दुनियां की ठोकरें ही खाती फिरे? अपने आंसू बहाती रहे? उसकी आँखें सदा ही छलकती रहें? क्या ऐसा ही ऊपरवाले का नियम है?
नारी आज से नहीं, सदियों से ही समाज की जंजीरों में मनुष्य के द्वारा जकड़ी रही है. उसके कुठाराघातों को सहती रही है? मनुष्य के बन्धनों में पिसती रही है? अपने प्यार के एक छोटे से सहारे की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाती रही है. नारी एक सीता भी थी- उसने भी लंका वनवास की यातनाएं सही होंगी? नारी एक शकुन्तला भी थी- उसने भी दुष्यंत के तिरस्कार करने पर जंगलों की ख़ाक छानी थी. नारी एक मरियम भी थी, जिसने अपने बेटे यीशु मसीह को सलीब पर लटका हुआ देखकर, अपनी ममता के सैकड़ों आंसू बर्बाद किये थे. उसने अपने बेटे की क्रूर और दर्दनाक खूनी मृत्यु को देखा था?
अमलतास ने रोमिका को समझाया ही. वह उसे जब भी अवसर मिलता समझाता ही था. उसने उसे जीवन जीने के उपदेश सुनाये. इंसान के जीवन की कीमत बताई. इस प्रकार रोमिका ने अमलतास की बातों को सुना तो उसके दिल की जलन कुछ ठंडक महसूस होने लगी. उसके दिल को एहसास हुआ कि, वह संसार की ठोकरें खाती-खाती अपने जीवन की वास्तविक मंजिल पर पहुंच गई है. लेकिन फिर भी रोमिका के दिल से नितिन जकी याद पल भर के लिए भी दूर नहीं हो सकी.
वह जब भी एकांत में होती, उसको अकेलापन सताने लगता अथवा अमलतास कहीं बाहर गया होता, तो उसकी आँखें नितिन की याद में स्वत: ही भर आतीं. वह जानती थी कि, अपने जीवन के इस ज़हरीले अतीत को उसके लिए कोई भी आसान काम नहीं था. क्योंकर वह अपने पिछले जिए हुए दिनों को भुला सकती थी?
संसार जानता है कि, ज़ख्मों से भरे दुखद अतीत कभी भी भुलाए नहीं जाते हैं, परन्तु सदा ही उनके दर्द को सहा जाया जाता है. रोमिका भी किसी भी तरह से नितिन को भूल नहीं सकी थी. अमलतास उसका हर तरह से ख्याल रखा करता था. वह उसकी एक-एक आवश्यकताओं की पूर्ति समय से पहले ही कर दिया करता. उसे प्यार से समझाया करता. उससे प्यार से बातें किया करता. जब भी रोमिका कभी उसके समक्ष पल भर के लिए मुस्करा पड़ती तो अमलतास को भी जैसे उसके सारे सपनों का स्वर्ग मिल जाया करता. उसके परेशान दिल को चैन मिलता. वह उसका दुःख-दर्द खूब महसूस करता. दिल से समझता भी था. वह जानता था कि, रोमिका के दिल में उसके असफल प्यार एक नासूर है. अतीत की कोई चोट है, जिस पर हर रोज़ ही मरहम रखने की आवश्यकता है. सो वह ऐसा कर भी रहा था. रोमिका के जीवन की हरेक खोई हुई खुशियों कि उसे बेहद चिंता थी. उसकी हर बात की भी उसे फ़िक्र रहती थी. रोमिका ने भी अमलतास को अपने हरेक दृष्टिकोण से प्रभावित किया हुआ था. ये बात अमलतास भी जानता था. रोमिका के दिल में एक गहरा घाव है.
उसका ये घाव समय के साथ ही भर पायेगा. धीरे-धीरे ही उसकी पिछली यादों का यह सिलसिला समाप्त हो सकेगा. और जिस दिन रोमिका अपने इस दुःख को भूल जायेगी- नितिन की याद के स्थान पर अमलतास को याद करेगी और जब नितिन के चित्र की जगह पर उसका चित्र बन जाएगा, उस दिन वह रोमिका को बहुत खुशी के साथ अपना भी लेगा. तब वह उसको अपना बनाने में नहीं हिचकिचाएगा. क्योंकि, उसके दिल में स्वयं भी महसूस होने लगा था कि जब से रोमिका ने उसके जीवन में अपना कदम रखा है, तब से उसकी खुशियाँ फिर से एक बार वापस आ गईं हैं. अभी फिलहाल ऐसा ही होना था. इसी प्रकार दोनों के जीवन की गाडी चलनी थी. अभी तो उसको रोमिका के स्वस्थ होने और मानसिक रूप से भी सामान्य हो जाने की फ़िक्र करनी चाहिए. उसके दुःख और दर्द को बांटना बहुत आवश्यक था.
उसकी आँख के आंसू साफ़ ही नहीं करने थे, बल्कि रोकने भी थे. किसी-न-किसी प्रकार उसके अतीत के दर्द भरे काँटों के स्थान पर महकते और मुस्कराते हुए फूल रखने थे, ताकि रोमिका सदैव ही खुश रह सके. वह नये खिलते हुए पुष्पों की तरह मुस्कराना सीख सके. वह जीना सीखे. वह अपने जन्म देनेवाले बच्चे के भविष्य के लिए हंसना सीखे.
अमलतास रोमिका के साथ नैनीताल के होटल में बहुत दिनों तक रहा. जब भी रोमिका दुखी होती, किसी एकांत में बैठी हुई उदास दिखती, तभी अमलतास कोई-न-कोई प्रसंग ऐसा छेड़ देता था जिससे रोमिका का मन शीघ्र ही बदल जाता था. फिर वह घंटों उससे तरह-तरह की रोमांचक बातें करता रहता. उसको खुश रखता- मीठी-मीठी बातें करता- उसका मन बहलाता रहता.
जब समय होता तो वह नैनीताल की झील में बोटिंग करता. उसे जबरन घुमाने ले जाता. उसको एक-से-एक सुंदर और महंगी वस्तुएं खरीदकर देता. उसकी हर आवश्यकता को तुरंत ही पूरी कर देता. वह रोमिका को पल भर के लिए भी उदास नहीं रहने देना चाहता था.
एक दिन रोमिका मुरझाये हुए फूल समान बाहर एक कुर्सी पर बैठी हुई झील के जल की लहरों को निहार रही थी. झील के हरे जल पर बादल मटरगस्ती कर रहे थे. झील के जल का ऊपरी भाग हवाओं और तैरती नावों के कारण अपने ही स्थान पर थिरक रहा था. झील के उस पर के पहाड़ों से बादल कभी लिपटते थे तो कभी लुप्त भी हो जाते थे. रोमिका बैठी हुई इन्हीं सरे नजारों को देखने में जैसे व्यस्त थी. होटल के अपने कमरे के सामने वह बहुत निराश दृष्टि से कभी क्षितिज को तो कभी चिनारों की खामोशियों में अपना ध्यान लगा देती थी. तभी अमलतास भी स्नान करके उसके पास आ गया.वह भी एक कुर्सी पर रोमिका के सामने ही बैठ गया. ऐसा लगभग रोज़ ही होता था. दोनों ही इस समय बाहर आकर बैठ जाते थे. अमलतास ने होटल के बैरा को दो कॉफ़ी लाने का ऑर्डर दे दिया. रोमिका चुप बैठी- अमलतास भी खामोश था.
अमलतास ने अब रोमिका को अधिक घुमाना-फिराना स्वयं ही बंद कर दिया था. वैसे भी वह गर्भवती थी और थोड़ा सा ही चलने-फिरने से थक जाती थी. अमलतास ने रोमिका की स्थिति को गौर से देखते हुए उससे कहा कि,
'रोमिका !'
'?'- रोमिका ने अपनी उदास नज़रों से अमलतास को देखा तो वह बोला,
'मैं एक बात कहूँ?'
'?'- रोमिका ने हां में अपनी गर्दन को हिलाकर स्वीकृति दी.
'तुम अपना विवाह कर लो.'
'?'- रोमिका का दिल तड़प गया. पल भर में ही उसके चेहरे की उदासी बढ़ गई. नीली आँखों के खारे पानी में लाली आ गई. आंसू नीचे गिरने से पहले की सूचक- उसने कुछ कहना चाह, पर होठ खुले ही रह गये. आवाज़ जैसे किसी ने गली के अंदर ही पकड़ ली थी. वह मन मारकर चुप हो गई. आंखों से दुखी आंसू पलकों से सरककर गालों पर आयें, उससे पहले ही वह उठकर अपने कमरे के अंदर चली गई. शायद वह अपने इन आंसुओं को दिखाकर अमलतास का भी मन नहीं दुखाना चाहती थी?
अमलतास ने रोमिका को जब इस प्रकार से जाते देखा तो वह भी शीघ्र ही उसके पीछे-पीछे पहुँच गया. रोमिका चुपचाप उदासियों की प्रतिमूर्ति बनी, अपने बिस्तर पर बैठी थी. अमलतास को देखकर वह तुरंत ही उठकर खड़ी गई.
'रोमिका?' अमलतास ने बात शुरू की.
''?'- रोमिका ने उसे एक भेदभरी नज़र से निहारा. वह अपनी आंसू भरी आँखों से गंभीर खड़े हुए अमलतास को देखने लगी. उसे देख अमलतास का भी दिल जैसे रो पड़ा. उसने सोचा कि, कैसी लड़की है जो हर समय रोती ही रहती है? जब भी इसे देखो, इसकी आँखें आंसुओं से भरी रहती हैं? उससे रोमिका के ये आंसू देखे नहीं गये. सो अमलतास ने रोमिका से आगे कहा. वह बोला कि,
'रोमिका, मैं तुम्हारा दुःख समझता हूँ. दिल से महसूस भी करता हूँ. परन्तु, कम-से-कम यह तो समझने की कोशिश करो कि जो भी मैं तुमसे कहता हूँ, वह केवल तुम्हारी ही भलाई के लिए होता है. तुम्हारी समस्त खुशियों की खातिर, तुम्हारे आने वाले बच्चे के लिए ही है. यकीन मानों, इसमें मेरा अपना कोई भी स्वार्थ नहीं है.'
'?'- रोमिका चुप, सब कुछ सुनती रही.
तब अमलतास ने अपनी बात आगे बढ़ाई. वह फिर से बोला,
'यदि तुमको मेरी बातों से कष्ट होता है, तो मैं वचन देता हूँ कि, तुमसे अब कुछ भी नहीं कहूंगा. लेकिन, तुमको यह तो जानना ही चाहिए कि, कल को तुम जब अपने बच्चे को जन्म दोगी, किसी की मां बनोगी, तो उस समय तुमको अपने एक पति की भी आवश्यकता होगी. तुम्हारे बच्चे के नाम के आगे उसके पिता का नाम होगा, ताकि तुम्हारा आनेवाला यह नवजात बच्चा इस दुनियां के समाज में सम्मानसहित अपना सिर उठाकर जी सके. बच्चे के भविष्य के लिए उसके ऊपर उसके पिता का साया होना भी बहुत जरूरी है. वैसे भी एक परिवार के लिए, पति-पत्नी, मां-बाप और बच्चों की आवश्यकता होती ही है. मैंने जो कुछ भी कहा है, उस पर अकेले में बैठकर ठंडे मन से गौर अवश्य ही करना.'
'?'- रोमिका ने सुना तो उसके आंसू छलकते हुए नीचे कमरे के फर्श पर गिरने लगे. गला अतीत का दर्द याद करते ही बुरी तरह से भर आया. उसके दिल के सोये हुए ज़ख्म फिर एक बार ताज़े हो गये. पति-पत्नी, माता-पिता, बच्चे, हंसता-फूलता परिवार? ऐसा स्वप्न तो उसने न जाने कितनी ही बार नितिन की बाहों में सिमटकर देखा था? परन्तु वह सपना साकार नहीं हो सका था. सपने, एक झूठा सपना बनकर ही खो गया था. उसकी किस्मत की लकीरें आड़ी-तिरछी होकर, उसके दिल के संजोये हुए सारे सपनों को खा गई थीं.
अमलतास ने रोमिका के दर्दभरे मुखड़े पर आँखों से टपकते हुए आंसू देखे तो उसको अपनी गलती का एहसास हुआ. उसने व्यर्थ ही रोमिका को दुखित कर दिया था. वह मन-ही-मन अपने किये पर पछताने लगा. उसे रोमिका से यूँ नहीं कहना चाहिए था? वह संवेदना-सहित रोमिका से बोला,
'खैर ! अब छोडो इस विषय को. मैं भी असमी क्या ले बैठा? हां मैं यह बताना चाहूंगा कि, मेरी छुट्टियां अब समाप्त होने को हैं और मुझे अब यहाँ से घर जाना होगा.'
'कहाँ पर?' रोमिका ने अपने हाथ के इशारे से पूछा.
'नांगलोई- दिल्ली में एक छोटा-सा नगर है, वहीं मेरा घर है. मेरी अकेली मां मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी.'
इस पर रोमिका खामोश हो गई. साथ ही बहुत उदास भी. उदासी और खामोशियों के मध्य वह दूसरी तरफ अपना मुख फेरकर गंभीर हो गई.
'क्या सोचने लगीं?'
उसके मन की दशा का आभास करके अमलतास ने पूछा.
'?- कुछ भी नहीं.'
रोमिका ने नहीं में अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा.
'कुछ तो?' अमलतास ने फिर से पूछा.
'?'- रोमिका ने फिर से गर्दन हिलाकर मना कर दिया तो अमलतास बोला,
'मत बताओ, लेकिन मैं समझ चुका हूँ कि तुम क्या सोचने लगी थी?'
'?'- '?'- क्या- क्या ? रोमिका ने आश्चर्य से अपने हाथ को आधा ऊपर और नीचे घुमाया.
'यही कि, मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा?' अमलतास ने कहा.
रोमिका ने चुपचाप खामोशी से अपना सिर नीचे झुका लिया. अपना सिर झुकाकर उसने अमलतास की बात का समर्थन कर दिया. सब जानते हैं कि, नारी की खामोशी से भरी मूकता ही उसकी स्वीकृति होती है.
'लेकिन मैं कहता हूँ कि, तुमको ऐसा तो कभी भी नहीं सोचना चाहिए. क्योंकि, मैं यह अच्छी तरह से समझता हूँ कि, तुहारे लिए इस दशा में क्या उचित होगा और क्या नहीं? मेरी तो राय यही है कि, तुम्हारा मेरे साथ नांगलोई चलना ही बेहतर होगा. तुम वहां पर मेरे साथ हर तरह से सुरक्षित रहोगी. यदि तुमको मुझ पर विश्वास है तो मेरे साथ बगैर किसी भी आशंका और भय के चली चलो. मैं तुम्हारा अपने घर पर हर तरह से ख्याल रखूंगा. आगे तुम्हारी मर्जी?'
इतना सब कहकर अमलतास चुप हो गया. 








27
रोमिका ! एक भटकी और सताई हुई अभागिन. एक कटी हुई बेल.
अमलतास ! रोमिका के भटके हुए जीवन का एक सहारा. एक मजबूत वृक्ष- अमलतास- अपने पीले फूलों के भार से भूमि की तरफ झुका हुआ.
क्या परिस्थिति थी? कितनी प्यारी वास्तविकता थी? कितना अच्छा संयोग? एक लड़की, जीवन की कठिनाइयों से तंग, रोमिका. सृष्टि की उत्पत्ति के आरम्भ से ही सदा मनुष्य के सहारे की मोहताज़. यह एक औरत की किस्मत ही है कि, उसको जीवन में सहारा चाहिए ही. लेकिन, उसके नसीब में क्या लिखा है, उसे तब ही पता चलता है जब उसके सामने ये सब आता है. तब उसकी किस्मत ही यह बताती है कि, उसे सहारा मिलेगा भी अथवा नहीं? वह भटकेगी या जीवन में चैन और शान्ति अपना जीवन गुजारेगी? रोमिका भी अपनी ज़िन्दगी के सहारे की तलाश में भटक गई थी. इस भटकाव में वह बहुत बुरी तरह से टूट भी गई थी. शायद वह गलती से एक गलत सहारे की आस में अपना सारा कुछ दांव पर लगा आई थी? नितिन के अंधे प्यार की गहराइयों में डूबकर वह अपना सब-कुछ लुटा आई थी. परन्तु फिर भी विधाता ने उसे सहारा दे दिया था. अमलतास की मजबूत बाहों का- यही उसके लिए बहुत था- अब वह कभी भी नहीं भटकेगी, कहीं नहीं जायेगी- उसके जीवन का आधार तो अमलतास ही है. जब उसको उसकी मजबूत बाहों का सहारा मिलेगा, तो वह एक दिन उसके मन का देवता भी बन जाएगा. कभी-न-कभी, ऐसा तो होगा ही. यह उसका विश्वास है- किसी दिन उसके दिल का एक अनूठा प्यार भी बन जाएगा.
बाहर बारिश का प्रकोप शोर मचा रहा था. वह शोर मचाता रहा. बादल भी अपनी हरकतें करते रहे. बिजली की कौंध चमकती-दमकती रही- इसके साथ ही भारी वर्षा का जल बहता हुआ तमाम कुमायूं की घाटियों की शरण में एकत्रित होता रहा. इसी तरह रोमिका भी, अमलतास के सहारे की शरण में जा चुकी थी. सदा के लिए- वर्षा के बहते हुए जल के समान, वह भी अपनी मंजिल की खोज में दर-दर भटकती हुई एक दिन संयोग से अमलतास के कदमों में, आ गिरी थी. तब अमलतास ने भी उसको सदा के लिए अपनी बना लिया था. अपने दिल की समस्त धड़कनों के समान ही उसको अपने सीने में छुपा लिया था.
उस रात बहुत ज़ोरों की बारिश हुई थी.
हवाएं भी तेज थीं, परन्तु इतनी अधिक नहीं कि, उनको तूफानी कहा जाए. फिर भी उन्हीं हवाओं के कारण वातावरण का शव सर्दी के कारण ठिठुर गया था. नैनीताल की उस -बारिश ने बहा दिया था. वह जानती थी कि, उसकी ज़िन्दगी का मिला हुआ ये दर्द शायद सुबह होते-होते, रहा-बचा भी समाप्त हो जाएगा? फिर नये दिन के उजाले में, वह एक नई 'रोमिका' के समान ही जन्म लेगी. वह अपनी नई उमंगों के साथ मुस्कराएगी. तब उसकी उम्मीदों के सारे मुरझाये हुए फूल फिर से महक उठेंगे. क्योंकि, तब वह अकेली नहीं होगी- अनाथ भी नहीं- तब उसके साथ उसका अमलतास भी होगा. अमलतास- उसके जीवन का सहारा- उसकी बाहों का आधार भी- भटकी हुई रोमिका की ज़िन्दगी के सहारे के लिए, एक मजबूत वृक्ष समान, उसका अमलतास. अमलतास- उसके जीवन का अमलतास- उसका- केवल उसका ही.
थोड़ी ही देर में अमलतास भी आ गया. वर्षा के जल में तर-ब-तर- ऊपर से नीचे तक भीगा हुआ.
रोमिका ने उसको जब इस दशा में देखा तो तुरंत उसका कोट उतारने में उसकी सहायता की. उसे तौलिया लाकर दिया. अमलतास ने जब रोमिका को उसकी इस प्रकार से सहायता करते देखा तो उसके दिल में ढेर सारी उम्मीदों के फूल खिल उठे. तुरंत ही उसके दिल में भविष्य के आनेवाले सुनहले सपनों की खुशियों के शंख बज उठे. तौलिया से अपने भीगे बालों को पोंछते हुए उसने रोमिका से कहा कि,
'थोड़ी देर के लिए बाहर क्या निकल गया कि, बारिश में मानो डूब ही गया था. रोमिका तुम सारी खिड़कियाँ बंद कर दो, आज रात में भी बारिश बहुत तेज हो सकती है.'
रोमिका ने थोड़ी ही देर में सभी खिड़कियों के पर्दे गिराकर उन्हें बंद कर दिया. फिर उसने अमलतास को नये कपड़े निकालकर दिए. इस पर अमलतास ने मुस्कराते हुए रोमिका को देखा, फिर धीघ्र ही सारे कपड़े पहन लिए और चुस्त होकर बैठ गया. थोड़ी देर बाद उसने रोमिका से कहा कि,
'रोमिका !'
अमलतास की इस आवाज़ ने कमरे में बैठी हुई समस्त खामोशी को तोड़ दिया तो रोमिका ने भी अपनी सौंदर्य से लदी बोझल पलकों को ऊपर उठाते हुए, प्रश्नसूचक दृष्टि से अमलतास को देखा.
'आज तो तुमने मुझे इस तरह वस्त्र पहनने को दिए हैं कि जैसे लगता है कि, किसी पिछले जन्म में मेरा और तुम्हारा कोई विशेष साथ था?'
'?'- खामोशी.
रोमिका ने लाज के मारे अपनी दृष्टि नीचे कर ली. अमलतास के भी मुख पर उसके जीवन की एक विशेष मुस्कान आकर जैसे अठखेलियाँ करने लगी.
रोमिका को चुप देखते हुए अमलतास ने आगे कहा. वह बोला कि,
'हां- मैं तो यह बताना ही भूल गया था कि, कल हमको नांगलोई लौटना होगा. हर हालत में, अब मेरे पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है, यहाँ पहाड़ों पर रुकने का. तुम्हारा क्या इरादा है? क्या सोचा है तुमने? मेरे साथ चलोगी?'
'?'- रोमिका का जैसे दिल हिल गया. न जाने किस बात के लिए? कौन से डर का और किस दुःख के कारण? वेह अमलतास की आँखों में बहुत ही गहराई से जैसे झाँकने लगी. रोमिका के साथ ऐसा होना बहुत स्वभाविक भी था- वह जगह, वह पहाड़ों का मौसम, वह पत्थरों की धूल, वह चिनारों से लिपटते हुए बादलों के साथ उसके बिताये हुए दिन और वे पहाड़ी फूल, जिनको चुन-चुनकर उसने कभी अपने महबूब का नाम पत्थरों पर लिखा था; उस सुंदर देश को छोड़ने के नाम पर उसे सोचना तो था ही. दुःख भी होना था- उसने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि, कभी उसकी ज़िन्दगी में यह दिन भी देखना पड़ेगा? उसके सब तरफ से सहारे टूटने के बाद, एक ऐसे अजनबी के सहारे पर अपनी जीवन-नैया की पतवार सौंप देनी होगी कि जिसे वह अच्छी तरह से जानती भी नहीं है?
'तो फिर तुम चलने को तैयार हो न?'
अमलतास ने रोमिका को बहुत देर तक देखने के बाद पूछा.
'?'- रोमिका फिर से अपनी खामोश भाषा में अमलतास को देखने लगी. शायद उससे कुछ कह रही थी- अपनी बे-आवाज़ की आवाज़ में? बेचारी ! अपने मुख से तो वह कुछ कह ही नहीं सकती थी. अमलतास ने रोमिका की इस परेशानी को महसूस किया तो वह अपने स्थान से उठकर उसके पास आया- उसके बहुत करीब- जीवन में पहली बार- फिर जैसे बहुत भावुक होकर बोला,
'रोमिका, मैं अपने दिल की बात भी तो पहले होकर तुमसे नहीं कह सकता हूँ, जब तक कि, तुम्हारे मन की बात मुझे पता न हो? और तुम्हारे मन की बात. . .? ईश्वर ही जानता होगा? खैर ! मैं केवल तुमको इतना ही विश्वास दिला सकता हूँ कि, मेरे साथ रहकर भी हमेशा वही होगा जैसा कि, तुम चाहती होगी. कोई भी बात तुम पर जबरन थोपी नहीं जायेगी. वहां पर तुम भी वही करना, जैसा कि तुम चाहोगी. जो तुम्हारा दिल चाहेगा. दिल्ली भारत की राजधानी है, वहां पर मैं तुम्हारी आवाज़ वापस लाने के लिए इलाज भी करा सकूंगा. बड़े-से-बड़े नामी डाक्टरों से इस बारे सलाह भी ले सकूंगा- और अगर तुम चाहोगी तो तुम्हारे नितिन की खोज भी क रवा लूंगा.'
यह सब कहने के बाद अमलतास, रोमिका को देखने लगा- बहुत अपनत्व और प्यार के साथ- अपने दिल की छिपी हुई हसरतों से- उसने चाहा कि, वह रोमिका को अपने दिल की धड़कनों में हमेशा-हमेशा के लिए छिपा ले- उसे अपने दिल के पास ही रखे- जीवन भर और कभी भी उससे अलग न हो. एक पल को भी वह उसको अपने से अलग न होने दे. अपने इन्हीं ख्यालों के अन्धकार में, उसके दोनों हाथ रोमिका की ओर उठ गये. उसको जीवन भर सहारा देने की इच्छा से.
रोमिका ने अमलतास को इस विशेष मुद्रा में देखा तो वह भी पंख कटे हुए परवाज़ की तरह उसके सीने में समा गई. अमलतास ने भी उसको अपनेर अंक में समेट लिया और रोमिका भी अपने दोनों हाथों के सहारे से अमलतास के शरीर से लिपट गई. एक भटकती हुई बेल या 'वाइन' की भाँति वह आज अपने को असहाय और मजबूर जानकर अमलतास को अपनी ज़िन्दगी का सहारा देनेवाला वृक्ष समझकर उससे लिपट चुकी थी- शायद जीवन भर के लिए? सदा-सदा को. उसने अपने मुख के इशारों से तो कुछ भी नहीं कहा था. न ही अपने इज़हार के प्रमाण में कोई शब्द ही लिखे थे. वह केवल चुप रही थी. नि:शब्द के शब्दों में उसके इज़हार के लिए ढेरों शब्द थे- उसके इन शब्दों को केवल अमलतास ही पढ़ सकता था. केवल वही उनका अर्थ जान सकता था.



















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28


नांगलोई.
भारत की राजधानी दिल्ली शहर से बीस किलो मीटर दूर, एक छोटा-सा कस्बा. सिटी बस स्टेशन से कुछ दूर पर गरीबी की प्रतीक छोटी-छोटी झुग्गियां दिखाई दे जाती थीं, जिनको कि, केंद्र सरकार ने गरीब मजदूरों को रहने के लिए दे रखा था. आसुर इन्हीं झुग्गियों के सामने सरकारी जूनियर हाई स्कूल की बगल में, अमलतास का एक मध्यम वर्गीय घर बना हुआ था. उसके पास वाली सड़क पर बसों, स्कूटर और ऑटो रिक्शा चालकों का आवागमन लगा हुआ तथा.
रोमिका बहुत से, अमलतास के घर की खिड़की से अपनी आँखें लगाये हुए सड़क पर आते-जाते लोगों की कार्य-व्यस्तता को देख रही थी. नैनीताल से आये हुए उसे लगभग पन्द्रह दिन बीत चुके थे. अमलतास, अपने दैनिक काम के लिए अपने कार्यालय चला गया था. अमलतास की मासं भी अपने किसी निजी कार्य के कारण बाहर गई हुई थी.
रोमिका के कारण अमलतास की मां का कोई विघ्न या रुकावट आदि जैसी बात न हो जाए, उससे पहले ही अमलतास ने अपनी मां को कह दिया था और समझाया भी था कि, उसने रोमिका से नैनीताल में बहुत पहले ही एक मन्दिर में अपना विवाह कर लिया था और वह पिछले तीन महीनों से उसके होने वाले बच्चे की उम्मीद पर भी है. अमलतास की मां को सुनकर और रोमिका को देखकर हैरानी तो हुई थी, परन्तु वह भी क्या करती? मां की ममता ने अपने बेटे की इस करतूत को नज़रंदाज़ करते हुए रोमिका को अपनी बहु स्वीकार कर लिया था.
सो जब घर में कोई भी नहीं रहता और जब रोमिका अकेली रह जाती तो वह यहीं इसी खिड़की के पास आकर खड़ी होती और सड़क चलने वाले यातायात को देखती रहती. ये रोमिका का एक नियम सा बन गया था. इसी नियम के सहारे वह अपने बच्चे के पैदा होने की प्रतीक्षा कर रही थी. अमलतास ने भी उसको ज्यादा चलने-फिरने की मनाही दे रखी थी. स्वयं अमलतास की मां भी रोमिका से कोई भी काम घर में नहीं करवाती थी.
इसके साथ ही घर के बहुत से काम करने के लिए एक नौकरानी भी थी. सो, रोमिका को और क्या चाहिए था? आज सब ही कुछ तो उसके पास था. उसके पास था- सुंदर, सुरक्षित घर- एक अच्क्स्हछे व्यक्तित्व का सम्पन्न मालिक, उसका पति अमलतास- मां समान, बहुत सीधी-सादी उसकी सास. रोमिका को सबका प्यार और स्नेह मिला. स्वर्ग जैसे घर में शान्ति प्राप्त हुई रोमिका के दिल को एक चैन मिला तो नितिन की यादों की तमाम मोटी परतें, उसके मन-मस्तिष्क से एक-एक करके अपने आप साफ़ होती गईं. अमलतास की शरण में आकर उसकी खोई हुई खुशियों का स्वर्ग फिर एक बार वापस आ गया था.
अमलतास ने रोमिका का बाकायदा चेक-अप करवाया. उसकी खोई हुई आवाज़ के लिए डाक्टरों को दिखाया तो डाक्टर ने उसे बताया कि, रोमिका की आवाज़ बचपने में किसी ऐसे बड़े हादसे के कारण चली गई है जो किसी भी दवा और ओपरेशन से ठीक नहीं होगी. उसकी ये आवाज़ किसी बड़े हादसे या किसी ऐसे बड़े दर्द के बाद ही वापस आ सकेगी कि जिसको इसकी बर्दाश्त के बाहर होगा. डाक्टर की यह बात सुनकर अमलतास एक बार को उदास तो हुआ पर वह यह सोचकर संतुष्ट हो गया था कि, रोमिका के रूप में जो कुछ उसकी झोली में आया है, वह उसकी खोई हुई आवाज़ से कहीं अधिक कीमती है. ईश्वर चाहेगा तो उसके लिए न सही, पर रोमिका के आंसू देखकर उसे आवाज़ जरुर ही देगा.
तब ऐसी खुशियों तथा भविष्य में मुस्कराते हुये फूलों की कल्पना में रोमिका ने एक प्यारी-सी, कौसानी के मुस्कराते हुए पर्वतों की परी जैसी बच्ची को जन्म दिया. अपने बच्ची की पैदाइश के अंतिम दिनों में रोमिका सफदरजंग अस्पताल की मेहमान थी. अमलतास ने उसकी देखभाल में कोई भी कमी नहीं रहने दी थी. इसी समय अमलतास ने एक अन्य आवाज़ के विशषज्ञ डाक्टर से फिर से रोमिका के लिए बात की तो उसने भी वही बात फिर से दोहरा दी. उसने बताया कि, रोमिका की आवाज केवल उसी दशा में वापस आ सकती है जबकि, रोमिका को कोई बहुत बड़ा असहनीय शारीरिक दर्द ऐसा हो कि जिसे ये सहन न कर सके और वह बुरी तरह से चीख पड़े.
अमलतास ने सुना तो वह फिर से एक बार निराश हो गया. क्योंकि, वह जानता था कि इस तरह का जानलेवा दर्द तो वह रोमिका को कभी नहीं दे सकेगा. उसने तो रोमिका को फूलों से भी अधिक नाज़ुक जानकर अपने दिल में बसाया हुआ है. वह उसके दिल में बसने वाली धड़कन है- किस प्रकार से वह अपनी धड़कनों पर जानलेवा चोट का वार कर सकेगा? तब अमलतास ने यह बात भी रोमिका के भाग्य की लकीरों में ही छोड़ दी. उसने सोच लिया कि, अगर रोमिका के भाग्य में होगा तो वह मुझसे अपने शब्दों में बात करेगी?
रोमिका की बच्ची के जन्म से पहले, शाम से ही उसकी शारीरिक पीड़ा बहुत बढ़ने लगी थी. इतना अधिक कि, उसके दिल में एक बेचैनी और घबराहट ने आकर उसका सारा चैन ही खा लिया था. उसके दर्द बढ़े तो उसे लेबर के वार्ड में पहुंचा दिया गया. उसका दर्दों के कारण शरीर का अंग-अंग दुखने लगा था. प्रथम बच्चे की डिलीवरी में एक नारी को जो कष्ट होता है, यह तो वही जानती है और उसके इस दर्द का वर्णन यहाँ नहीं किया जा सकता है.
यही दशा और हाल रोमिका का था. वह भी अपार दर्द और कष्ट के कारण अपने हाथ-पैर पटकती थी. मगर वह अस्पताल के डिलीवरी वार्ड में थी और नर्सों का जैसे हुजूम अमलतास ने लगवा दिया था. डाक्टरों की भी कोई कमी नहीं थी. क्षण-क्षण में रोमिका करवटें बदलती थी. कभी लेटती थी तो कभी उठकर बैठ जाती थी. गहरी-गहरी साँसे लेती थी. बार-बार उसे महसूस होता था कि, जैसे उसके जीवन का अंत आ चुका है. मन में भी वह सो कहती थी कि, जैसे नितिन ने उसे जीते-जी मार डाला था, कहीं उसका यह बच्चा भी, उसे मार न डाले?
रोमिका को लगता था कि जैसे उसके दिलक की धड़कनें भी अब उसका साथ छोड़ने की धमकी दे रही हैं. लगता था कि, जैसे साँसे भी शरीर का दामन छोड़कर भाग जाने का यत्न कर रही हों? न तो उसको दाईं करवट चैन था और न ही बाईं करवट कोई भी आराम मिलता था. असहाय दर्द के कारण वह बार-बार उठने की कोशिश करती तो नर्सें उसको फिर से समझाते हुए लिटा देती थीं. उसका शारीरिक कष्ट पल-पल में आवश्यकता से अधिक बढ़ता जा रहा था.
रोमिका जानती थी कि, वह अपने इस दुःख-दर्द को रो-चिल्लाकर भी तो ज़ाहिर नहीं कर सकती थी. नहीं तो अब तक तो वह न जाने कितनी ज़ोरों से और कितनी ही बार चिल्ला पड़ी होती? शारीरिक पीड़ा के साथ-साथ उसकी मानसिक वेदना भी थी.
इधर रोमिका अस्पताल में दर्द से बैचैन थी तो दूर आकाश के एक किनारे पर सूर्य का गोला, दिनभर का थका-हारा, भागते हुए लाल हो गया था. उसकी अंतिम लालिमा भी, क्षितिज में, कभी भी निराश मन से अपना दम तोड़ सकती थी. डूबती हुई शाम थी और पक्षी भी आकाश में अपने नीड़ों की तरफ भागते-उड़ते चले जाते थे. वे भी न जाने किस-किस का दुःख-दर्द और खुशियाँ लेकर चले जाते थे? और इसके साथ ही रोमिका की जच्चा पीड़ा उसकी सहनशक्ति से भी कई कदम आगे बढ़ चुकी थी.
असहाय कष्ट के कारण, उसकी आँखों में आंसू झलकने लगे थे. उसका सुंदर चेहरा यातनाओं के कष्टों का प्रतीक था. होठ मानों तड़प-तड़प उठते थे. गले से आवाज़ भी बाहर नहीं आती थी- उसके स्थान पर दर्द से भरी आहें जैसे निकलती हों? बढ़ते हुए कष्ट के अपार थपेड़ों के बीच बार-बार वह किसी घायल पक्षी के समान फड़-फड़ा जाती थी. ऐसा लगता था कि किसी घायल पक्षी का कोई गला दबा-दबाकर छोड़ता हो और फिर से दबाता हो? रोमिका बार-बार यही सोचती थी कि, उसके असफल प्यार के दर्द में असहाय पीड़ा, जानलेवा दर्द? इससे तो अच्छा यही था कि, वह इस संसार में जन्म ही नहीं लेती.
उसके प्यार के दीवानगी के रास्तों पर आँखें मूंदकर चलने का क्या यही अंजाम होता है? क्या ऐसा ही सिला प्यार करने की सज़ा हो सकता है? दर्द में तड़पती और बंधन से मुक्त होने को कसमसाती, रोती, बिफरती, टूटती-बिखरती, रोमिका कभी-कभी दुःख के झटकों में कुछ ऐसा ही सोच जाती थी. डॉक्टर्स और नर्से बराबर उसकी देख-भाल कर रहे थे.
फिर रोमिका को अचानक से न जाने क्या हुआ कि, उसने खुद को अपने-आप बिस्तर से उठकर भागना की कोशिश की, परन्तु नर्सों ने उसे पकडकर लिटा दिया. कुछेक ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए और बहुतों ने उसके दोनों पैर भी पकड़ लिए. रोमिका ने अपने को असहाय और बेबस जानकर कमरे के सारे माहौल को देखा. देखा तो स्वत: ही उसकी आँखों में आंसू भी मानो रो पड़े. आंसुओं की झड़ी लग गई. उसने नर्सों की ओर देखा- सोचा-विचारा- खुद के बंधन-मुक्त होने के लिए भीख माँगी- दया के साथ- मानो घोर यातनाओं में दबी हुई एक दुखिया के समान ही, वह एकाएक गिड़-गिड़ाने लगी,
'ओह ! ओ. . . ओह . . .छोड़ दो मुझे? नहीं तो मर ही जाऊंगी . . . मैं?'
'?'- नर्सों और डाक्टरों ने रोमिका को बोलते देखा तो सब ही एकाएक भौचक्के से रह गये. नर्सों ने आश्चर्य से अपनी अंगुलियाँ दबा ली. उनके मुखों पर मानों हवाइयां-सी उड़ने लगी. उनके चेहरे एक कोतुहल और आश्चर्य से चमक उठे- सबने एक साथ सोचा- ये आवाज़? इस गूंगी के मुख से ये शब्द कहाँ से टपक पड़े? ये तो बोल भी नहीं सकती थी? बे-आवाज़ थी? पक्की गूंगी? कहीं उन सबने कोई अजूबा तो नहीं देख लिया है?
परन्तु नही ! ये कोई भी अजूबा या चमत्कार नहीं था. वास्तविकता सबके सामने थी. रोमिका सचमुच अपने नर्सों से छुड़ाने के लिए दया की भीख मांग रही थी. तभी वह फिर से चिल्लाई,
'ओह ! छोडो मुझे. आप लोग मुझे छोड़ते क्यों नहीं हो? प्लीज ! छोड़िये मुझे?'
कहते हुए उसने फिर से उठने की कोशिश की.
'?'- लेकिन, नर्सों में से किसी एक ने उससे कहा,
'आप अगर उठकर भागेगीं तो आपके होने वाले बच्चे पर प्रभाव पड़ सकता है'
कहते हुए नर्सों ने उसे पहले से भी अधिक कसकर पकड़ लिया.
'नहीं ! . . .नही, . . नहीं. . .' रोमिका से जब सहन नहीं हो सका तो वह बुरी तरह से चीख पड़ी. उसकी इस दर्दभरी चीख ने सारे सफदरजंग अस्पताल की समस्त को भी एक बार हिलाकर रख दिया.
रोमिका बेहोश हो गई.
'मैंने इसीलिये, इनको दर्द का इंजेक्शन लगाने के लिए मना किया था. इनकी आवाज़ वापस आ चुकी है.'
रोमिका की आवाज़ का इलाज करनेवाले, वहां खड़े हुए डॉक्टर ने कहा. 






















29

रोमिका को जा होश आया तो रात की ठंडक बहुत उम्दा और संतोषप्रद हो चुकी थी. अपनी प्यारी-प्यारी सुगन्धों के साथ रात्रि जैसे गुनगुना रही थी. सुबह की सरहदों तक बढ़ते हुए रात के दो बज चुके थे. सारे अस्पताल में एक खामोशी छाई हुई थी. कभी-कभार, किसी बार्ड से कोई मराज खांस उठता या उसकी कराहटों की हल्की दर्द से भरी वेदना की आवाज़ अस्पताल में छाई हुई खामोशी को भंग कर देती थी. आकाश में ठहरे हुए छोटे-छोटे मासूम सितारे निर्दोष, अबोध दीपों के समान अपनी कमज़ोर रोशनी के द्वारा धरती पर पसरे हुए अन्धकार को मिटाने का असफल प्रयास कर रहे थे. वृक्षों के साए चुप थे. सड़कें सूनी थीं. हर जगह एक शान्ति का बोध होता था.
ऐसी ही एक शान्ति रोमिका के दिल में भी समा चुकी थी. एक युग तक अपने सैकड़ों आंसू बर्बाद करने के पश्चात उसने आज दिल का चैन पाया था. कहीं दूर आकाश में एक अकेला बादल का टुकडा, शायद इसी बात की गवाही देने के लिए ठहरा हुआ था? मनुष्य की मनोस्थिति के साथ वातावरण की हरेक वस्तु कितना गहरा सम्बन्ध होता है? दिल अगर प्रसन्न है तो सारी कायनात भी मुस्कराती है और अगर मन के किसी कोने में कोई घाव है तो उसके साथ ही, वातावरण की हर वस्तु भी उदास प्रतीत होती है. यही कारण है कि, मानव और प्रकृति का साथ सदा से चला आया है. दोनों ही एक-दूसरे से किसी अनजानी डोर के साथ बंधे आये हैं.
यही हाल रोमिका के दिल के साथ भी हुआ था.
उसका दिल रोया था, तो प्रकृति के चप्पे-चप्पे में उसको आंसू नज़र आये थे. वह निराश हुई थी तो वातावरण का हर कोना तक निराश था. उसने अपने आंसू भाये थे तो आकाश भी वर्षा के रूप में रोया था. और आज, जब उसके दिल में मानो सदियों बाद एक चैन आया था तो बहारों का हरेक फूल तक महक उठा था.
रोमिका को मालुम था कि आज उसको अपनी वर्षों की आराधना का मूल्य प्राप्त हो गया था. जिन खुशियों की चाहत में उसने दुनियां-जहान के दर्द खरीदकर अपने आंचल में भर लिए थे, वही आज उसकी ज़िन्दगी के भावी जीवन के पुष्प बनकर मुस्करा रहे थे. नितिन के द्वारा जो दर्द उसे मिला था, वह समाप्त न होकर, एक तरह से बदलकर उसका सकून अवश्य ही बन गया था.
अपनी नवजात पैदा हुई प्यारी बच्ची की खुशी, पति अमलतास का असीम सहारा, मां समान उसकी सास का अथाह प्रेम और इसके साथ ही उसके जीवन की अनमोल खुशियों रत्न भी उसको भेंट में मिल गया था. वह मां बनी थी तो अपनी एक नई प्यारी आवाज के साथ- वह भटकती हुई रोमिका के स्थान पर अब श्रीमती रोमिका अमलतास भी थी. नई आवाज के साथ एक नई दिशा भी उसको मिल चुकी थी. अब वह नई महकती हुई आकाश में विचरण करनेवाली 'रोमिका' थी. एक नये जीवन की तलाश का सिलसिला आज स्द्माप्त हो गया था. उसके जीवन की खुशियों का एक नया सूर्य उदय हो गया था- रोमिका की इन खुशियों के आंचल में, जाने किस-किस की खुशियाँ भी शामिल थीं? जाने कितनों की मुस्कान और न जाने किसका दर्द भी जुड़ा हुआ था? शौद यही कारण है कि, ईश्वर ने अपने भेर्दों से किसी भी मानव को कभी भी वाकिफ नहीं होने दिया है? कभी होने भी नहीं देगा- कभी नहीं.
अमलतास ने अपने घर में आई इन बहारों के स्वागत में रुपया पानी की तरह बहा दिया. उसकी रोमिका के उदास और खामोश जीवन में मुस्कानों से भरी, हंसती-खेलती नई-नई लालसाओं ने जन्म लिया था. अपनी और रोमिका की एक बच्ची के जन्म के साथ ही, उन्हें जैसे नया जीव्वं मिल गया था.
अमलतास ने रोमिका की इस प्यारी सी बच्ची का नाम भी, बहुत प्यार से रानी रखा था. फूलों की मलिका के समान ही, रानी उन दोनों के जीवनों में खुशियों के तरानों की संगीतधारा लेकर आई थी. रानी बिलकुल अपनी मां, रोमिका के समान ही थी. वैसी ही नीली-नीली, गहरी आँखें, जैसी रोमिका की थीं, हूबहू, बोझल पलकें, उसी के समान सुंदर, ओस से धुला हुआ मुखड़ा और इन सबके साथ, उसके हंस-मुख चेहरे पर एक विशेष प्यारी आभा का प्रतिबिम्ब.
रोमिका ने रानी को गौर से देखा- वह दिन में कई-कई बार उसे देखती रहती थी. उसमें कुछ ढूँढने की कोशिश करती तो तब उसको अपनी प्यारी बेटी रानी के चेहरे पर एक दूसरी खामोश किसी चेहरे की उदास परछाईं नज़र आ जाती- नितिन की. वैसे भी रानी, नितिन की ही बच्ची थी. उसी का रक्त थी. रानी के चेहरे पर अपने पिता का असर तो आना ही था. रोमिका जब भी रानी की आँखों में झांकती थी तो उसको नितिन ही याद आता- तब ऐसे में उसकी आँखों से स्वत: ही दो आंसू टपककर उसके पिछले अतीत में मिले दर्द की याद को ताज़ा करके सूख जाते.
अमलतास ने रानी की छटी के दिन एक बड़े भोज का आयोजन भी किया. इसमें उसने अपने सभी मिलने-जुलने वालों को आमंत्रित किया. उसके घर को सजावट में देखते ही ऐसा प्रतीत होता था कि, जैसे आज उसके यहाँ किसी दुल्हन को सुहागिन बनाने का आयोजन किया जा रहा है? और सचमुच ही रोमिका आज सुहागिन बन गई थी. अपने सुहाग अमलतास के सहारे, अपनी जान से भी अधिक प्यारी बच्ची रानी के प्यार में और अपनी खोई हुई आवाज़ के वापस लौट आने की खुशी में. रोमिका जब भी एकांत या अकेले में इन सारी बातों के बारे में सोचती तो उसकी पिछली दर्द की लकीरों का अस्तित्व, रानी के रूप में मिली खुशियों के कारण अपने आप ही साफ़ हो जाता था. 

















30

रोमिका को तो अब जीना था.
अमलतास के सहारे- अपनी बच्ची रानी के सुरक्षित भविष्य के लिए- उसके प्यार के लिये और अमलतास की उन सारी खुशियों को जीवित रखने के लिए, जिनकी कामना उसने रोमिका की खुशियों को सबसे आगे रखकर की थी.
धीरे-धीरे रानी बड़ी होती गई.
हर नये दिन के उजाले के साथ ही में उसमें निखार आता गया. हर फूल के समान ही उसमें भी सुगन्धों का ढेर लगता गया. अमलतास उसकी प्रत्येक सालगिरह को और भी अधिक ज़ोर-शोर से मनाता था. हर बार एक नये जोश के साथ, वह रानी के सहारे रोमिका को और भी अधिक खुशियाँ देने की चेष्टा किया करता था.
एक दिन रानी आठ साल की हो गई तो रोमिका ने अपने अतीत की याद को जीवित रखने के लिए वह गीत भी उसको गाना सिखाया जो कभी नितिन ने उसके साथ कौसानी के पहाड़ों पर बैठकर, गाया था, और जिस गीत की वास्तविकता के बारे में केवल नितिन और रोमिका ही जानते थे. रोमिका जानती थी कि, इस गीत को नितिन ने ही लिखा था और गाया भी था. यह बात और है कि, इस गीत के गाते समय बांसुरी का संगीत खुद उसी ने दिया था.
आज इस गीत पर रोमिका और नितिन के साथ, रानी का भी अधिकार हो चुका था. रोमिका को तो इस गीत के बोल अपने दिल की धड़कनों से भी ज्यादा प्यारे हैं. इस गीत के शब्दों में उसके बीते हुए अतीत की तस्वीर थी. उसकी पिछली यादों का दर्द बाक़ी था. इसके अंदर नितिन का रहा-बचा प्यार भी था. उसके प्यार, उसकी दीवानगी का असर भी बाक़ी था. रोमिका को मालुम है कि, नितिन के इस यादगार गीत में अब भी कौसानी के उन तमाम पहाड़ों की यादें बाक़ी थी, जिनको वह कभी मजबूरीवश नकारकर छोड़ आई थी.
उस गीत में कौसानी की चट्टानों की बेहद प्यारी खामोशी बसी हुई है. उसमें कौसानी की हरेक याद थी. इस गीत के साथ वह वहां के फूलों की खुशबुयें तक समेट लाई थी. पहाड़ों से गिरते हुए झरनों का शोर, भी उस गीत में समा गया था. गीत के गुनगुनाते ही, किनारों से सचमुच ही बादल अब भी लिपट जाया करते होंगे? बागों में मुस्कराते हुए फूल अब भी शायद अपनी रोमिका के वापस आने की राह तका करते होंगें? गीत की याद में हर रात सिसकती होगी? शबनम की बैठी हुई बूंदे, कलियों के सहारे अब भी अपनी रोमिका के इंतज़ार में रोटी होंगी? झरनों में अब भी वहां का ठंडा, चट्टानी पानी बहता होगा- शायद बहुत मायूसी के साथ? आकाश में चन्द्रमा रोज़ ही अपनी तारिकाओं की बारात लिए रोमिका के लौट आने प्रतीक्षा करता होगा?
इसीलिये रोमिका जब भी उन भूली-बिसरी हुई स्मृतियों के बीच इस गीत को गाती थी तो उसका साथ देने के लिए उसकी नीली आँखों से केवल दो आंसू, उसकी पलकों से बाहर आ जाते थे. एक दर्दभरी आह के साथ. उसके इन आंसुओं में कितना अधिक दुःख था. किसकदर यादें थीं? इन यादों को केवल रोमिका ही जानती थी- केवल वही इसका भीतरी दर्द समझती थी- इस दर्द में जब भी रोमिका इस गीत को अपनी सुरीली राग में गाती थी, कुछ इस तरह से,
'पहाड़ों से गिरते हैं झरने
झरनों में बहता पानी. . .'
तब अपनी मां का साथ देने के लिए रानी भी अपनी पतली, मीठी आवाज़ में गाने लगती थी;
'पहाड़ों से गिरते हैं झरने
झरनों में बहता पानी,
बागों में फूल प्यारे
फूलों में अपनी कहानी. . .'
और सचमुच ही उस गीत के बोल में उनकी ही अपनी कहानी छिपी होती थी. जीवन की उस कहानी का एक दर्द समाया हुआ होता. लेकिन दिल के छिपे हुए इस दर्द का भेद केवल रोमिका ही जानती थी- रानी नहीं. इसलिए वही अकेली इसमें तड़पती भी थी. कभी-कभी रात में भी- चन्द्रमा को देखते हुए या जब भी उसकी आँखें क्षितिज की ओर उठ जाती थीं, तब भी उसकी आँखें भर आती थीं.
ऐसा रोमिका के साथ रोज़ नहीं होता था. कभी-कभी ऐसा हो जाया करता था. और जब भी होता था, तो अपने पूरे ज़ोर-शोर के साथ. उसकी आँखों में आंसुओं का भेद लिए हुए, पिछले अतीत का दर्द किसी सैलाब की भांति उमड़ आता था.
दिन-पर-दिन गुज़रते गये.
कई साल हो गये. लगभग सौलह वर्ष- रोमिका के लिए तो जैसे एक युग-सा बीत गया. रानी जो घर की कली थी, खिलते हुए कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों के दिलों का फूल बन गई. वह कॉलेज में जिधर से भी गुजर जाती थी, सारे विद्द्यार्थी अपना दिल थामकर ही रह जाते थे. उनके दिलो में एक हलचल-सी मच जाती थी. वह जितनी अधिक सुंदर थी, उससे भी अधिक उसकी आवाज़ भी बहुत प्यारी थी. कॉलेज में वह एक मधुर स्वर कोकिला के रूप में प्रसिद्धि पा गई. बे-मिसाल आवाज़ थी उसकी- गीत गाने का एक अलग अंदाज़ था उसका- बिलकुल ही निराला.
सौल वर्ष का अरसा एक बहुत बड़ा मायने रखता है.
जिंदगियां बदल जाती हैं- समाप्त भी हो जाती हैं. बहुत कुछ बदल जाता है- पुराना समाप्त होकर नया आ जाता है. रोमिका के लिए सौलह वर्ष का जैसे एक पूरा युग ही बीत गया था. एक जीवन बीत चुका था. उसके तपते हुए जीवन के साथ ही, वह अपने प्रेमी की यादों को भी जैसे ज़िन्दगी के सभी उतार-चढ़ावों पर अपनी अग्नि की आहुति दे चुकी थी. उसके अतीत के वह नगमें जिन्हें उसने कभी बहुत प्यार से कौसानी की मधुर जलवायु में गुनगुनाया था, वक्त के आये हुए नये पन्नों में स्वत: ही दब कर रह गये.
लोग नितिन को भूल गए. कौसानी में रोमिका को भी अब कोई याद नहीं करता था. इसके साथ ही रोमिका ने भी अपने जीवन की इस बेहद दर्दभरी, कड़वी और कटु याद को दिल के एक कोने में सदा के लिए छिपाकर रख लिया था. उसके जीवन का यह दुखों से भरा अतीत, वर्तमान की हर समय बदलती-बनती दीवारों के मध्य सबसे पहले कैद हुआ और बाद में चुप भी हो गया. अतीत की अब केवल उसके दिल पर मात्र एक छाप रह गई थी. वह भूल गई नितिन को- कौसानी को- कौसानी की हरेक याद को- नितिन के प्यार को- उसकी बेहद चाहत को- वह अपने नये बदले हुए जीवन के साथ, नितिन को एक प्रकार से अपने दिल से निकालकर, अपनी लड़की रानी के लिए जीने लगी. उसके भविष्य को बनाने में जुट गई. एक मां के रूप में अब केवल सबसे अधिक उसको अपनी एक मात्र सन्तान रानी ही की चिंता रहने लगी.
रानी ने जहां संसार में, आने से पहले अपनी मां को एक बड़ा ही कष्ट दिया था- उसे रुलाया था, वहीं अपने आने के बाद ही उसने उसकी गोद में उसकी ज़िन्दगी की खुशियों के फूल-ही-फूल लाकर भर दिए थे. जीवन की सारी खुशियों से मानो उसक-अपना घर भर दिया था. इन ढेर सारी खुशियों के अंबार देखकर रोमिका भी सब कुछ भूल तो नहीं गई थी, परन्तु अब उन्हें याद भी नहीं करती थी. इस प्रकार कि, नितिन का अभाव अब उसे सताता नहीं था. नितिन के अभाव में वह कभी जी नहीं सकी थी परन्तु अब केवल वह अपनी लड़की रानी के ही लिए जीने लगी थी. उसी के लिए वह जीवित थी. अपने पति अमलतास के लिए मुस्कराती थी. उसके चेहरे की वह खुबसूरत मुस्कान, जिसकी चाहत में नितिन ने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर खुद को बर्बाद कर लिया था, समय के चक्रों और बदली हुई परिस्थितियों के भंवरजाल में आकर आज किसी अन्य का जीवन बन चुकी थी.
रानी, जैसा उसका नाम वैसी ही वह रूप की शहजादी भी थी. शरीर की हरेक बनावट और देखने में वह बिलकुल ही अपनी मां रोमिका की 'कार्बन-कॉपी' थी. उसके अंग-अंग से जैसे सौंदर्य का सोता फूट पड़ा था था. रोमिका के समान ही उसका चेहरा था. वैसी ही नीली झील-सी गहराइयां रखने वाली उसकी आँखें भी ऐसी जो काजल की मोहताज़ भी नहीं थीं. हूबहू रोमिका की आँखें रानी के पास थीं- उनके देखने का अंदाज़ भी रोमिका ही जैसा कि, जहां भी देखें तो एक रिश्ता कायम कर लें. रोमिका ही जैसे पतले गुलाबी होठ, मानो कलियाँ खिलने के लिए आतुर हों? सुंदर फूल समान खिला हुआ, नई सुबह की ओस से नहाया हुआ उसका गोरा मुख, काली घटाओं के बीच चन्द्रमा समान- उसके कूल्हे से भी नीचे झूमते हुए क्न्बे काले बाल- उसका अपूर्व सौंदर्य, जैसे विधाता ने उसमें कूट-कूटकर भर दिया था. रोमिका और रानी बिलकुल एक समान थीं. बिलकुल हमशक्ल- दोनों में अगर कोई असमानता थी तो वह केवल दोनों की उम्रों का आपसी तकाजा. रोमिका अपनी ढलती हुई उम्र का मानो टूटा हुआ फूल थी तो रानी पहाड़ों की ओट से झांकता हुआ पूर्णमासी का चाँद- फिर, मां और बेटी में कुछ तो अंतर होना ही था. 




















31

रानी ने अपने गीतों और मधुर आवाज़ के कारण कॉलेज के हर प्रोफेसर तथा प्रत्येक विद्द्यार्थी और छात्राओं का दिल जीत रखा था. कॉलेज में उसकी गिनती एक श्रेष्ठ और होनहार छात्रा के तौर पर होती थी. इस संबंध में वह गायिका के रूप में दुसरे कॉलेजों से हुई प्रतियोगिताओं में, इनाम और शील्ड भी जीतकर लाई थी. रानी बहुत से गीतों को समय-असमय गाया करती थी, परन्तु फिर भी अपने समस्त गीतों में उसका मनपसन्द और सबसे प्यारा गीत वही था जो उसकी मां ने सिखाया था और जो उसके मूल पिता नितिन का लिखा हुआ एक यादगार गीत था. अक्सर ही वह किसी पार्टी, पिकनिक या किसी के विवाह आदि में यही गीत गाया करती थी. जितना अधिक उसको ये गीत पसंद था, उससे कहीं अधिक सुननेवाले भी यही गीत मन से पसंद करते थे- और जब वह गीत की सारी वास्तविकता और असलियत तथा उसके छिपे हुए भेद से अनजान बनकर, अपनी सहेलियों के साथ, गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ों पर भ्रमण करने कौसानी के इस डाक बंगले में बैठी इसी गीत को एक बार फिर से गा रही थी तो वहीं डाक बंगले के बरामदे एक कोने में, सर्दी से ठिठुरे हुए, रोमिका के दुःख में, उजड़े हुए बूढ़े नितिन ने अपने इस गीत को सुना तो उसके प्यासे कानों के पर्दे भी एकाएक चटक-से गये.
नितिन का चौंकना और आश्चर्य करना बहुत ही स्वभाविक था. क्योंकि, इस गीत को, इसको बोल सुनने के लिए वह कितना अधिक तरसा था, यह वह जानता था और उसका प्यार का मारा दिल? अपनी रोमिका की तलाश में वह कितना अधिक उजड़ चुका था? गीत को सुनने के बाद, फिर भी नितिन यह नहीं समझ सका कि, इस गीत को उसकी रोमिका नहीं बल्कि कोई और लड़की रानी गा रही है? उसकी लड़की रानी, जिसके हरेक भेद से वह अभी तक पूरी तरह से अनजान था. रोमिका से अलग होने से पहले वह तो यह भी नहीं जानता था कि, रोमिका उसके द्वारा गर्भवती भी हो चुकी है? मगे उस गीत को सुनने के पश्चात उसके दिल की तरसी हुई धड़कनों ने इतना अनुमान तो लगा ही लिया था कि, गीत को गानेवाली उसकी रोमिका से बहुत पास से भी अधिक संबंध रखनेवाली ही हो सकती है. रोमिका उसके सामने गूंगी थी, वह बोल नहीं सकती थी, वह तो यह गीत गा नहीं सकती है, परन्तु गीत के बारे में जानती अवश्य ही थी. उसके लिखे हुए इस गीत को रोमिका और खुद उसके अतिरिक्त किसी तीसरे को कैसे ज्ञात हो सकता है? वह नहीं जानता था कि, उसका यह गीत उसकी ही लड़की रानी के साथ-साथ आज बहुतों की जुबानों पर भी हो सकता है. ठीक उसी तरह जबकि, कभी अतीत में यह गीत उसके होठों पर भी रहता था. मगर आज रानी के द्वारा सब ही को मालुम हो चुका था.
परन्तु नितिन अभी तक इन सारे भेड़ों से अपरिचित था. वह तो केवल अपनी रोमिका की यादों में, इस गीत के साथ जैसे उसकी मीठी आवाज़ का एहसास कर रहा था. उस प्यारी आवाज़ को, जिसको उसने कभी भी सुना नहीं था. जिसको सुनने के लिए, उसके कानों के पर्दे किसी प्यासे पंछी के समान तरसकर रह गये थे.

वर्षा थम चुकी थी.
सूने, अकेले आकाश में बदलियाँ तैर रही थीं. ठंड अधिक हो चुकी थी. रात के इस दूसरे पहर में, कौसानी शहर का शायद हरेक मनुष्य मीठी नींद सो रहा होगा, परन्तु डाक बंगले के बरामदे के एक कोने में बैठा हुआ, अपनी ज़िन्दगी के प्यार का सताया हुआ, कमजोर, बीमार-सा बूढ़ा नितिन, खुशी और दर्द के समन्वय में अभी तक कोई भी निर्णय नहीं ले पा रहा था. उसकी थकी हुई कमजोर आँखों से नींद भी उड़कर न जाने किस लोक में भाग चुकी थी? अपने गीत को फिर से सुनकर उसे हंसना चाहिए या रोना? वह जानता था उसके गीत के साथ उसकी रोमिका तो नहीं आई है, पर कोई तो ऐसा अवश्य ही है कि, जिसके ज़रिये रोमिका तक पहुंचा अवश्य जा सकता है? अभी गीत भी उसने गाया है? इससे बढ़कर दूसरा ठोस प्रमाण और क्या हो सकता था?
नितिन, डाक बंगले के बरामदे के एक कोने में, ठंड के कारण सुकड़ा-सिमटा, बैठा हुआ यही कुछ सोच जाता था. हरेक क्षण बढ़ती हुई पर्वती हवाओं की सर्दी के कारण उसका कमजोर बदन काँप-काँप उठता था. वातावरण की लाश भी आकाश से गिरती हुई शबनम की बूंदों के कारण ठंड से जैसे अकड़ चुकी थी. ऊंचे-ऊंचे चिनार और चीड़ के वृक्ष बुतों समान चुप खड़े थे. सारे पर्वत भी खामोश थे. आकाश में हर पल नीचे की ओर खिसकता हुआ चन्द्रमा आज न जाने क्यों उदासीन हो चुका था? सारी मद्धिम पड़ती जा रही तारिकाएँ भी स्वयं निराश थीं. कौसानी का ये चुप्पी साधे हुए मौन वातावरण न जाने किस बात के होने की प्रतीक्षा किये जा रहा था? लगता था कि, कौसानी के इस पर्वतों से सजे हुए वातावरण में जैसे कोई विशेषता थी? इसकी भरपूर खामोशी में भी कोई भेद नज़र आ रहस था? शायद उसको किसी चीज़ की प्रतीक्षा थी? किसी घटना की- न जाने क्या होनेवाला था? कोई नहीं जानता था कि, क्या हो जाएगा?
डाक बंगले में, अंदर के कमरे में, रोमिका की लड़की रानी अपनी सहेलियों के साथ थी. रानी ने उस गीत को गाकर नितिन के दिल का रहा-बचा सारा चैन भी छीन लिया था. नितिन अभी भी बैठा हुआ, एक आशा में दूर सूने आकाश में चमकती हुई तारिकाओं को निहार रहा था. तभी अचानक से आकाश में एक तारा टूटा. बहुत मायूसी के साथ, वह तडपता हुआ, एक मोटी लकीर काफी दूर तक बनाता हुआ विलीन हो गया. नितिन की आँखें उस टूटते तारे को देखकर फटी-की-फटी रह गईं. अचानक ही उसका दिल बड़े ही ज़ोरों से धड़क गया- मस्तिष्क में उसके एक साथ कई विचार तैरने लगे. सब ही बुरे-बुरे- उसने सोचा कि, टूटते तारे को देखना शुभ नहीं होता है? फिर भी नितिन अपनी पूर्व मुद्रा में बैठा रहा. खामोश- बहुत चुप- बढ़ती हुई ठण्ड के कारण उसका बदन गठरी बना जा रहा था.
जिस तरह से बरामदे में बैठे हुए नितिन की आँखों में नींद नहीं थी- उसका दिल बेचैन था, लगभग उसी समान, डाक बंगले के कमरे में लेटी हुई रानी की भी आँखों में नींद का कोई भी चिन्ह नहीं था. जबकि, उसके साथ आई हुई उसकी सभी सखी-सहेलियां बड़े आराम से लापरवा बनी हुई सो रही थीं. वह नहीं जानती थी कि, इस अनजान और अपरिचित जगह में न जाने क्यों उसका दिल कभी-कभी, अपने आप ही बेचैन-सा हो जाता था? इस स्थान, कौसानी के इस डाक बंगले से उसका ऐसा कौन सा नाता है जो उसे सोने भी नहीं दे रहा है? कौन है यहाँ जो उसकी दिल की धड़कनों के साथ, उसकी साँसों से भी जुड़ा हुआ है? रानी कुछ भी समझ नहीं पा रही थी.
वह अभी तक जाग रही थी.
कभी-कभी उसके दिल को ये ख्याल आता था कि, जैसे कौसानी की हरेक वस्तु से उसका कोई विशेष नाता है? कोई ऐसा संबंध है कि, उसके यहाँ आते ही जैसे हरेक वस्तु, नजारों की हरेक आँख तक पुलकित हो चुकी है? यहाँ का हरेक पर्वत, उसके बारे में जैसे बहुत पहले ही से परिचित है? यहाँ के हरेक बोल्डर और हरेक चट्टानों तक पर उसकी ही कहानी लिखी हुई है? प्रत्येक वृक्ष, चिनारों के बदन, पहाड़ों की सारी वनस्पति और आकाश में इठलाते-झूमते हुए सारे बादलों के लिहाफ तक उसकी ही बातें करते दिखाई देने लगे हैं? जब से वेह यहाँ आई है, तब से ही कायनात की एक-एक वस्तु, प्रकृति में खिले हुए सारे फूल उसके ही बारे में गुपचुप काना-फूसी करने लगे हैं? जैसे यहाँ के चप्पे-चप्पे से उसका बहुत पहिले का कोई संबंध जुड़ा हुआ है? सही तो था कि, रानी को क्या पता था कि, वह अपने पुश्तैनी घर में ही आज बैठी हुई है? उसका दिल तो परेशान होना ही था.
रानी को जब इस प्रकार से महसूस होता था, तो उसका कोमल दिल अपने आप ही किसी अज्ञात शंका के भय से धड़कने लगता था. सोचने ही मात्र से उसके दिल की धड़कनों की थाप बढ़ने लगती थी. वह परेशान हो जाती. उसका सारा चैन पलक झपकते ही गायब हो जाता. ऐसी स्थिति में वह यह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि, इस तरह की अनहोनी विचारों की मिली-जुली बातें क्यों उसको परेशान करने लगती हैं? क्यों हो रहा है ये सब? कौसानी तो वह अपने जीवन में पहली बार ही आई है? यहाँ की हरेक वस्तु उसके लिए अपरिचित है?
सोचते-सोचते जब रानी अधिक परेशान हो गई तो वह डाक बंगले के कमरे को खोलकर बाहर बरामदे में आकर खड़ी हो गई. खड़ी होकर चुपचाप दूर आकाश में नीचे की ओर चन्द्रमा को निहारने लगी जो ढलती हुई रात के साथ ही डूबने का ख्याल करे हुए नीचे की ओर चला जा रहा था. वातावरण में इस समय गई रात होनेवाली बारिश के बाद हल्की कोहरे की चादर बिछ गई थी. सारी वनस्पति भीगी हुई थी.
अचानक ही बरामदे के कोने में बैठे हुए, सर्दी से ठिठुरते हुए नितिन को खांसी आई तो अकेली खड़ी हुई रानी चौंकने के साथ-साथ भयभीत भी हो गई. एक शंका से उसने कोने में बैठे हुए नितिन की ओर देखा तो उसे सहसा ही ख्याल आया कि, किसी भिखारी समान ये अजनबी तो पिछली ही शाम से डाक बंगले की शरण में है? सोचकर वह और भी अलग, एक किनारे पर आकर खड़ी हो गई. फिर कुछेक पल बीते होंगे कि, सर्दी के कारण गठरी समान बना हुआ नितिन अचानक ही थर-थर कांपने लगा. रानी से उसकी यह दशा देखी नहीं गई. उसको उस अजनबी नितिन के बूढ़े शरीर से न जाने क्यों सहानुभूति सी हो गई? तब वह उसके पास आकर, उसके बिलकुल करीब ही खड़ी हो गई. थोड़ी देर उसको निहारने के बाद, वह दया से बोली,
'बाबा !'
'?'- नितिन के कान अचानक ही चौंक गये. घोर आश्चर्य से उसने रानी की तरफ देखा, तो रानी ने उससे पूछा कि,
'तुम्हारा कोई घर नहीं है क्या?'
'?'- नितिन ने रानी को देखा. हल्के अन्धकार में, उसको पहचानने का प्रयत्न किया. फिर बोला,
'घर? कहाँ है घर? सब टूट गया. बिखर गया सब कुछ.'
कहते हुए मानो, उसका सीना जबरन फाड़कर कोई आह बेदर्दी से टपक पड़ी हो.
'रहते कहाँ हो?' रानी का अगला प्रश्न था.
'इसी संसार में.' किसी अज्ञात दुःख में अफ़सोस से नितिन ने कहा.
'वह तो मुझे भी मालुम है कि सब इसी संसार में रहते हैं, लेकिन कहीं तो, कोई तो तुम्हारा पिछ्ला या नया ठिकाना होगा ही? कहाँ से आये हो तुम?' रानी बोली.
'ठिकाना था और अब नहीं भी है बेटी. बहुत लंबी कहानी है. तुम क्या करोगी सुनकर?'
नितिन उदास हो गया.
'कहानी? कैसी कहानी ?'
रानी ने सोचा तो उसकी जिज्ञासा बहुत बढ़ गई. उसने चाहा कि, वह उसकी इस कहानी और सारी दास्ताँ को एक बार जरुर से सुन ले. परन्तु बाद में मौन रह गई, यही सोचकर कि, ऐसे तो हर भिखारी, हरेक टूटे हुए आदमी की अपनी कोई कहानी होती ही है. वह किस-किसकी सुनती रहेगी? सोचने के बाद उसने अपने मन की इस धारणा को मन के अंदर ही रहने दिया.
इस मध्य नितिन ने रानी को खामोश और चुप देखा तो उससे बोला कि,
'बेटी !'
'हां?'
'कल पिछली शाम तुम्हारी सखियों में कोई एक गीत गा रहा था- बड़ा ही प्यारा गीत गाया था उसने. कौन बेटी है वह?'
'?'- नितिन के मुख से अपने प्रति बड़ाई और तारीफ़ के शब्द सुनकर रानी के चेहरे पर मुस्कान आ गई. प्रसन्न होकर वह बोली,
'गाया था, किसी ने. तुम क्या करोगे जानकर?'
'फिर भी...?' नितिन ने अनुरोध किया.
'वह गीत मैंने ही गाया था बाबा.. . मैंने.'
रानी कुछ ज़ोर से ही कहा- कहा तो नितिन उसको और भी अपनी आँखें उसके चेहरे पर गड़ाते हुए गंभीरता से देखने लगा. फटी-फटी आँखों से- शायद उसके चेहरे में कुछ ढूँढने की चेष्टा कर रहा था? ऐसे कि वह एक दम ही तुरंत उठकर खड़ा हो गया. फिर और भी नज़दीक आकर बहुत गहराई से रानी के मुख को देखने लगा. रानी ने अचानक ही नितिन की इस परिवर्तित मुद्रा को देखा तो पीछे हटते हुए उसे फौरन ही टोक दिया. जैसे खिन्न होकर बोली,
'ऐसे क्यों घूरते हो मुझे?'
'कुछ नहीं बेटी ! कुछ भी नहीं.'
नितिन भी मानो ह्गेंपकर बोला.
रानी खामोश हो गई. साथ ही बहुत गंभीर भी. वह अपने कमरे में जाने को ही थी कि नितिन ने उसको रोका- बोला,
'बेटी !'
'?'- रानी ने उसे वहीं से पलटकर देखा.
'एक बात बता सकोगी तुम मुझे?'
'कैसी बात? रानी उसके पास आ गई.
'तुम यहाँ कहाँ से आई हो? मेरा मतलब कहाँ की रहनेवाली हो?'
नितिन ने पूछा तो रानी ने अपनी कड़ी आवाज़ में तुरंत ही उससे कहा कि,
'क्यों?'
'ऐसे ही. मुझे ख्याल आ गया था कोई.'
नितिन ने बहुत सादगी से कहा तो रानी भी जैसे खिन्न हो गई. वह क्रोध में नितिन से बोली,
'बड़े ही अजीब होते हो तुम सब लोग? तभी तुम लोगों पर कोई सहज ही विश्वास नहीं करता है. अंदर से बड़े ही खानाबदोश होते हो तुम सब? नहीं बताऊंगी मैं कि, कहाँ की रहनेवाली हूँ.'
कहकर रानी कमरे में चली गई और तुरंत ही द्वार को बंद भी कर लिया. साथ ही चटकनी भी लगा ली. नितिन उसको खड़ा हुआ जैसे अपने हाथ मलता ही रह गया. 
32


रानी झुंझलाती हुई अंदर तो चली गई परन्तु नितिन के दिल को विचलित भी कर गई. उसके मन की शान्ति छीनकर, उसमें एक तूफ़ान छोड़ गई. ऐसा तूफ़ान- तूफ़ान का वह शोर कि जिसके प्रभाव के कारण, नितिन को ये सोचना कठिन हो गया कि इस परिस्थिति में वेह अब क्या करे और क्या नहीं? उसका गीत गानेवाली एक अपरिचित और अजनबी लड़की है, उसकी रोमिका नहीं? मगर, जो कुछ उसने उसमें देखा, उससे उसे रोमिका तो नहीं कहा जा सकता है. वह रोमिका भी नहीं है. ये तो कोई अन्य है? फिर भी यह लड़की कितना कुछ रोमिका के ही समान दिखाई देती है? कितना कुछ नहीं बल्कि, बहुत कुछ उसी की रोमिका के समान ही दिखाई देती है?
लगभग वही कद, वही लम्बाई, वैसा ही शरीर और सबसे बड़ी पहचान, उसके भी कूल्हे से भी नीचे लटकते लंबे-घने, काले बाल, जैसे कि रोमिका के थे? इतना तो निश्चित है कि, यह लड़की उसकी रोमिका नहीं है, परन्तु निश्चित ही उसका रोमिका से कोई गहरा संबंध अवश्य ही है? अभी न भी, परन्तु पहले कभी जरुर ही रहा हो? ये लड़की निश्चित तौर पर अवश्य ही रोमिका के बारे में कोई-न-कोई जानकारी जरुर ही रखती होगी? इसी के द्वारा रोमिका का पता लगाया जा सकता है? ये लड़की अवश्य ही रोमिका के बारे में बहुत कुछ बता सकती है? उसे अगर नहीं भी मालुम होगा तौभी उसे कम-से-कम ये तो ज्ञात हो ही जाएगा, कि उसके पास तक, उसका लिखा हुआ ये गीत कैसे पहुंचा है?
क्योंकि, इस प्यारे और यादगार गीत के बारे में केवल वह जानता है और रोमिका. किसी तीसरे को इस गीत के बारे में तब तक नहीं मालुम होना चाहिये जब तक कि, उन दोनों में से कोई भी न बताये? इस अनजान लड़की से अवश्य ही उसको खोई हुई रोमिका के बारे में जानकारी मिल सकती है? हर हालत में.
सोचते-सोचते, नितिन वहीं कोने में सर्दी के कारण गठरी बन कर लुढ़क गया. उसे शीघ्र ही नींद भी आ गई. स्वास्थ से वह इतना अधिक कमजोर हो गया था कि, सोते हुए भी ठंड के कारण, नींद में उसके डांट बजने लगते थे. पहाड़ी वायु की शीत से भरी एक ही लहर के कारण उसका सारा शरीर काँप जाता था. कभी-कभी सर्दी के उसकी खांसी उठती थी तो, इतना अधिक ज़ोर पकड़ती लेती थी कि, उसके शोर से आस-पास घास में चिल्लाते हुए कीड़े-मकोड़ों के राग के अलाप तक बंद हो जाते थे. डाक बंगले में बैठा हुआ सन्नाटा तक गायब हो जाता था.
हर तरफ खामोशी थी.
एक भरपूर चुप्पी. पर्वत चुपचाप आकाश से गिरती हुई ओस से स्नान कर रहे थे. चिनार और चीड़ के वृक्षों की महीन सींको जैसी पत्तियों पर ओस की बूँदें अटकी हुई थीं. कभी-कभी वे नीचे टूटकर गिर भी पड़ती थीं. आकाश में धीरे-धीरे सितारे दिखना कम होते जा रहे थे. सारा आलम ओस के सहारे, कोहरे की एक धुंध में छिपता हुआ नज़र आने लगा था. चन्द्रमा अब तक न जाने थक-थकाकर, हर पल बुझता हुआ, पीछे की तरफ नीचे जाकर छुप चुका था. चांदनी का सारा प्रकाश यूँ समाप्त हो चुका था कि जैसे किसी दिए का जलते-जलते सारा तेल ही समाप्त हो चुका हो? सुबह होने की प्रतीक्षा में, सारी पहाड़ी वनस्पति हर रात के समान आज भी आस लगाकर सुबह निकलने वाली धूप की जैसे प्रतीक्षा अभी से ही करने लगी थी?

सुबह होने वाली रात अभी भी खामोश थी. कौसानी के हर इलाके में एक अजीब ही, जैसे बे-मतलब की चुप्पी विराजमान थी- और एक ऐसी ही चुप्पी नितिन के टूटे दिल में भी समाई हुई थी. परन्तु उसके दिल की इस खामोशी में भी किसी की आवाज़ छुपी हुई थी. कितनी अधिक दिल में बेचैनी थी? कैसी-कैसी किसी तूफ़ान की हवाएं आने वाली थीं, जब वह सुबह उठते ही उस लड़की से रोमिका के बारे में सवाल करेगा? नितिन के दिल में एक आनेवाला शोर समाया हुआ था- इस शोर की आवाज़ न जाने किस-किसका चैन छीन लेगी, इसका अनुमान तो वही केवल लगा सकता था. 















33


वर्षों से वह रोमिका को ढूंढ रहा था.
दिल की न जाने कितनी ढेर सारी हसरतों से उसने रोमिका के दोबारा मिल जाने की आस रखी थी? उसको याद किया था. उसकी चाहत में उसने अपने बदन की सारी ख़ाक तक धूल में मिला दी थी. अपने को प्यार की वेदी पर स्वाह तक कर दिया था. उसकी खोज में अपना सारा हुलिया, अपना समस्त जीवन तक बदल डाला था. रोमिका की यादों मरण, उसकी खोज में, उसने अपना घर छोड़ा, अपनी पत्नी मौनता को ठुकराया और खुद भी वह स्वयं खो चुका था? इतना सब कुछ त्याग करने के बाद भी रोमिका उसके पास वापस नहीं आई थी.
वह एक बार भी नहीं आई- अब केवल उसकी यादें ही शेष रह गई थीं- नितिन को अब यह एहसास हो चुका था कि, उसके प्यार की तपस्या का फल, उसके सारे जीवन की प्यार-भरी पूजा का अंजाम- बिगड़ा और तबाह हुआ एक मानव जीवन ही उसको प्राप्त हुआ था? नितिन यह भी समझ चुका था कि, पिछले इतने वर्षों के बाद भी उसकी रोमिका जरुर वापस नहीं आई थी, परन्तु उसका गीत अवश्य ही उसके पास लौटकर आया था. इसीलिये, विधाता ने भी उस पर शायद तरस खाकर उसकी लड़की रानी को भेज दिया था? ताकि वह अपना गीत फिर से सुन सके. सुने और फिर परेशान भी होए. उसके दिल के सोये हुए घाव एक बार फिर से हरे हो जाएँ.
नितिन रोमिका के गम में उसे ढूंढता-ढूंढता कमजोर हो चुका था- मानसिक रूप से और शरीर से भी- बदन के नाम पर उसके केवल ढांचा ही रह गया था- शरीर में मात्र हड्डियां ही बाक़ी थीं- आँखों के स्थान पर गड्ढ़े- उसके गाल अंदर धंसकर जबड़ों से चिपक चुके थे- सिर के बाल भी बढ़कर कंधों पर उलझ रहे थे- चेहरे पर दाड़ी की जगह झाड़ियाँ उग रही थीं.
सो ये था उसके जीवन का बदला हुआ वह रूप जो उसके प्यार के रास्तों पर चलने के कारण प्राप्त हुआ था. उसके प्यार की दीवानगी का यही हश्र था, जो उसके कॉलेज जीवन की चार दीवारी से भटककर, उसकी प्यार की पूजा के प्रसाद के रूप में उसके दोनों हाथों में दे दिया गया था. ऐसा महसूस होता था कि, उसका जीवन भी शायद ऊपरवाले ने इसीलिये बनाया भी था कि, वह इस संसार में आकर अपने प्यार की वह कहानी लिख दे कि जिसका कोई भी मेल न हो?
यदि वह रोमिका के प्यार की भंवर में नहीं फंसता- वह कौसानी नहीं आता, तो शायद उसका जीवन, एक सुखमय संसार भी बन सकता था? परन्तु जवानी के रास्ते, प्यार का चमकता हुआ बाज़ार देखकर, बहुत शीघ्र ही भटक जाया करते हैं; यही हाल उसका भी हुआ था. वह भी रोमिका के प्यार की नीली झील-सी आँखों में ऐसा डूबा था कि, उसके पल भर के प्यार की आस में कभी भी निकल नहीं सका और अंजाम !क आज वह अपना सब कुछ लुटा चुका था. लुटा दिया था उसने अपनी जीवन, अपना स्वास्थ, अपना घर, अपने मन का चैन और अपना आनेवाला कल भी.
ये सब केवल नितिन जैसे छात्र के साथ ही नहीं होता है- ये तो कॉलेज में पढ़नेवाले अधिकाँश छात्रों के साथ न जाने कब से होता आ रहा है? वे भी अपने प्यार के प्रथम चरण में ही भटक जाया करते हैं और वास्तविक मार्ग को भूल जाते हैं. जो नितिन के साथ हुआ वह उसकी किस्मत की लकीरों का दोष नहीं था, बल्कि उसके गलत मार्गों के एक गलत चुनाव का ही मार्मिक परिणाम था.
डाक बंगले के बरामदे में नितिन अभी तक ठंड के कारण अपनी दोनों टंगे, अपने पेट से चिपकाए हुए उदास बैठा हुआ था. बैठे हुए नितिन ने अपने प्यार की दीवानगी में फिर से दोहराया कि, रोमिका नहीं आई है, मगर फिर भी वह आई है? आई है, अपने गीत के ज़रिये- इस अनजान लड़की के द्वारा ही वह अपनी रोमिका के पास तक पहुँच सकता है. अब केवल यही एक रास्ता ऐसा है, जो उसको रोमिका के करीब तक जाने की उम्मीद दिला रहा है. इसी लडकी के द्वारा वह रोमिका को पा सकता है.
इसलिए, हर दशा में, वह सुबह दिन में ही वह उस लड़की का परिचय लेगा और उससे रोमिका की जानकारी भी लेगा. उससे हर तरह से पूछ्गेगा कि, रोमिका से उसका क्या संबंध है? अगर उसने नहीं भी बताया तो वह चुपचाप से उसका पीछा भी करेगा. उसकी किस्मत की यह कैसी बिडंवना थी कि, जिसकी उसने आस की, जिसकी उसने सैकड़ों दुआएं मांगते हुए वापस आने की आस की, वह तो नहीं आई थी, परन्तु उसकी लड़की आई थी? उसकी अपनी बेटी, अपना रक्त- फिर भी वह नितिन के लिए अनजान थी.
दूर क्षितिज के किनारों से अन्धकार की तनी हुई चादर प्रत्येक पल साफ़ होती जा रही थी. आधी रात से चमकता हुआ चन्द्रमा कभी का बुझ चुका था. तारे भी अब काफी धुंधले हो चुके थे. यह इस बात का संकेत था कि, अब सुबह की लाली फूटने में कोई अधिक समय नहीं रहा था. रात बहुत देर की ढल चुकी थी और दूर किसी पहाड़ी पर बने छोटे से मन्दिर में सुबह की आरती के घंटे भी बजने लगे थे.
पिछली रात की खामोशी और सन्नाटों में न जाने कितनों को सुख-चैन की नींद आई होगी? और कितनों ही का दुःख भी बढ़ चुका होगा? नितिन अभी भी उसी मुद्रा में बैठा हुआ था. अपनी सारी रात उसने मात्र सितारों को देखते हुए ही काट दी थी. रात के अन्धकार में भी वह अपने जीवन के प्रकाश को तलाशता रहा था. वह प्रकाश जिसे उसने यहीं कौसानी की घाटियों में, एक दिन रोमिका के प्यार की प्रथम चमक-दमक में ही खो दिया था.
नींद के कारण उसकी पलकें भी भारी होती जा रही थीं. अपने इन्ही ख्यालों, सोचों और विचारों में वह इस होने वाली सुबह में फिर से कब सो गया, उसे कुछ पता ही नहीं चला. जीवन की थकावट, और कई-कई रातोंयूँ ही जागते रहने के कारण, उसकी पलकें स्वत: ही बंद हो गई थीं- बंद हो गई थीं शायद एक उम्मीद पर- एक आस पर- शायद उसके जीवन की ज्योति के मिलने की पूर्व आशा में. 


















33


पूर्व दिशा में.
भीगे पर्वतों के पीछे से, एक बादल के लिहाफ को हटाकर जब सूर्य ने देखा तो बची हुई रात की धुंध का रहा-बचा मटमैलापन भी मानो अपनी दम दबाते हुए भाग गया. कौसानी के डाक बंगले में, दिल्ली कॉलेज की ठहरी हुई हसीन लड़कियां भी अब तक जाग चुकी थीं और वे अब अपनी आगे की यात्रा की तैयारियां कर रही थीं. परन्तु बरामदे में पड़ी हुई वह अनजान और अपरिचित मानव-छाया, जो नितिन है, थका-हारा अभी तक गहरी नींद में सो रहा था. बहुत बेहोशी में- बे-धड़क- निश्चिन्त- मानो, उसको जीवन की इतनी प्यारी नींद एक सदी के पश्चात प्राप्त हुई हो? उसके शरीर पर कपड़ों के नाम पर मात्र चिथड़े ही रह गये थे. वे भी स्थान-स्थान पर फटे हुए उसकी प्यार में उजड़ी और बर्बाद ज़िंधी का मानो रोना रहे थे? उसका वक्त की तन्हाइयों का मारा चेहरा उम्र से पहले ही अपने बुढ़ापे का दामन थाम बैठा था.
वातावरण में इस समय रात की सर्दी का प्रभाव अभी भी व्याप्त था. छोटी-छोटी घास, फूलों की पंखुड़ियों तथा चट्टानों पर रात में आकाश के आंचल से गिरी हुई ओस की बूंदे चमकते हुए मोतियों समान अटकी हुई थीं.
लड़कियों की बस आ गई तो, सब ही उसके अंदर अपना-अपना सामान जल्दी-जल्दी से रखने लगीं. फिर थोड़ी-सी शीघ्रता में ही सारी बस भर गई. परन्तु नितिन की आँख अभी तक नहीं खुली थी. वह अभी तक अपनी पूर्व दशा में सो रहा था. कुछेक समय के पश्चात सारी लड़कियां भी बस के अंदर, तितलियों समान बैठ गईं.
रानी ने अंतिम क्षणों में चलते-चलते कोने में गठरी बने, नितिन को देखा. देखा तो वह कुछ भी निर्णय नहीं ले पाई. सोचने लगी कि, कल रात इस बूढ़े साधू ने उससे बहुत सी अजीब बातें क्यों की थीं? क्यों उसके बारे में जानना चाहा था? यूँ भी बहुत कोमल हृदय की नारी थी. नितिन की दुर्दशा को देखकर उसे तुरंत ही पिछली रात की वह सारी बातें याद हो आई जो उसने उससे की थीं.
बस में बैठने से पहले, उसने सोचा कि, ये भिखारी? पता नहीं, क्यों उसके बारे में जानना चाहता था? क्यों उसके प्रति बहुत अधिक उत्सुक हो गया था था? शायद उसके लिए कोई विशेष बात हो, जिसको वह कहना चाहता हो? सोचने ही मात्र से उसे नितिन की दशा पर मानो तरस आ गया. उसका दिल नितिन के प्रति ढेरों-ढेर सहानुभूति से भर गया. तुरंत ही उसके मन में आया कि, वह उसे जगाकर उससे अपने उस कटु व्यवहार की क्षमा मांग ले जो उसने उससे पिछली रात किया था? साथ ही सारी बातें उससे स्पष्ट कर ले? परन्तु अब समय नहीं बचा था. बस में बैठी हुई समस्त लड़कियों की निगाहें उसकी तरफ लगी हुई उसके बस में आने की प्रतीक्षा कर रही थीं. यह देखकर वह अपने दिल में उठती हुई इस जिज्ञासा को भी पूरा नहीं कर सकी. उसके कदम लौटे-लौटते ही रह गये. वह एक सक ही स्थान पर खड़ी रहकर कोई भी ठोस फैसला नहीं कर सकी- केवल किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रही.
कहते हैं कि, यह कायनात का ही एक रिश्ता होता है कि, खून सदैव ही अपने खून की तरफ ही दौड़ा करता है. भले ही रानी इस भेद से अनजान थी कि, डाक बंगले के कोने में अपनी जर्जर हालत में लेटा हुआ नितिन उसका सच्चा पिता था, परन्तु प्रकृति का न्याय उसके मन की समस्त भावनाओं और आस्थाओं के साथ उसी की तरफ खींच रहा था. रानी भी तो नितिन का ही रक्त थी. उसकी अपनी बेटी- कुछ कर भी तो नहीं सकती थी.
'रानी ! क्या चलने का इरादा नहीं है?'
बस में बैठी हुई लड़कियों में से किसी ने उससे कहा तो उसको अपनी स्थिति का आभास हुआ. डाक बंगले का चौकीदार, बस का ड्राईवर तथा सारी लड़कियां उसे बड़ी हैरत के साथ देखे जा रही थीं.
'अब चलों भी न?' लड़कियों ने उससे एक साथ स्वर में कहा तो रानी ने खुद को संभाला. फिर वह लड़कियों से बोली,
'ज़रा, एक मिनट ठहरो.'
उसने अपने पर्स से डायरी में से एक कागज को फाड़ा और उस पर कुछ जल्दी से लिखा और उस कागज के साथ थोड़े से पैसे रखकर, उसको डाक बंगले के चौकीदार को देते हुए बोली,
'सुनो ! वे जो बरामदे में सो रहे हैं, जब जाग जाएँ तो उन्हें दे देना- जरुर से.'
यह ककर वह शीघ्रता से वह बस में जाकर बैठ गई. उदास सी- नितिन के बूढ़े शरीर और उसकी दयनीय दशा को देखकर न जाने क्यों उसके भी मन में वेदनाओं के मर्म समा चुके थे? हांलाकि, वह खुद भी अभी तक नितिन के लिए पूरी तरह से अनजान थी. बिलकुल अपरिचित- रानी ने तो नितिन को आज जीवन में पहली ही बार देखा था. फिर भी उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा था? जो कुछ भी हो रहा था, उसके लिए वे रिश्ते ही जिम्मेदार थे जिन्हें रोमिका उसकी मां और नितिन उसके पिता ने वर्षों पहले इन्हीं पहाड़ों पर बैठ कर कायम किये थे और जिनकी सच्चाई से रानी अभी तक अपरिचित थी. रानी नहीं जानती थी कि, जिस गीत को वह अपने मन से, अपनी प्रसिद्धि के लिए हर स्थान में गाती रहती है, उसमें उसके मां-बाप के बिछुड़े हुए प्यार की जैसे आहें भी विराजमान थीं. उसकी हरेक पंक्ति में वे आंसू थे जो कभी भी रोमिका और नितिन की उदास आँखों में ठहर नहीं सके थे.
लड़कियों की टूरिस्ट बस कौसानी के पहाड़ों की नागिन समान, टेढ़े-मेढ़े, घुमावदार रास्तों पर भागती चली जा रही थी. आकाश में बादल उड़ रहे थे. बहुत तेजी के साथ- शायद कहीं अन्यत्र वर्षा के लिए अतिशीघ्र ही पहुँच जाना चाहते थे? आकाश में भागते हुए बादलों के समान बस में चुपचाप बैठी रानी का भी मन कहीं उड़ा चला जा रहा था. अनेकों ख्यालों के साथ- उस भिखारी के प्रति अपनी असीम वेदनाओं को साथ लिए हुए, वह भी जैसे कहीं अन्यत्र खो गई थी.
मानव-जीवन के क्या-क्या रास्ते होते हैं? कैसे-कैसे ख्यालों के साथ वह अपनी जीवन यात्रा किया करता है? जीवन-पथ के किसी भी मोड़ पर उसे क्या-क्या नया मिल सकता है? कहाँ, किस जगह पर उसका क्या-कुछ खो जाए? किसी को भी पहले से कुछ भी ज्ञात नहीं होता है. उसे कभी भी, कैसा भी अनुभव हो सकता है? अच्छा या बुरा, कोई नहीं जानता है. मानव-जीवन के ये खानाबदोश अनुभव? शायद इसीलिये विधाता ने इनके प्रति, इनके पूर्व ज्ञान से वंचित किया हुआ है कि, इन अनुभवों की कोई छिपी हुई विशेषता कभी साकार होकर उसके सामने आये?
बस के अंदर बैठी हुई अन्य लड़कियां आपस में बातें क्या कर रही थीं, मानो सब-की-सब बैठी हुई अपनी-अपनी गाजर-मूली काट रही हों. बस भाग रही थी- उसके साथ चिनार भी भाग रहे थे. खतरनाक और जोखिम से भरी सड़क के नीचे गहरी-गहरी घाटियाँ जब भी कोई लड़की देखती थी, तो मारे भय के उसकी भी जैसे साँसे रुक जाया करती थीं. पहाड़ों पर आई हुई ये लड़कियां अपनी यात्रा का भरपूर आनन्द ले रही थीं मगर रानी? उसका दिल कहीं और खो गया था. वह बैठी हुई अपने ही ख्यालों में जैसे परेशान हो चुकी थी.
कौसानी के प्रति जो रानी के दिल का एक अनबूझा आकर्षण था, एक विशेष संबंध था, उसके लिए तो वह बिलकुल ही अनजान थी. कितना दर्द से भरा संयोग था? कितना अधिक दुखी? रानी ! जो यहीं की बेटी है- यहीं कौसानी और संपूर्ण कुमायूं मंडल के पहाड़ों की 'रानी' है- यहाँ का शायद हर पहाड़, प्रत्येक चट्टान और बादल का आकाश में मंडलाता हुआ हरेक टुकडा तक उसके बारे में जानता होगा? यहाँ के पहाड़ी फूलों में उसके भूले-बिसरे अतीत की कहानी छिपी हुई है.
एक दिन था जबकि, उसकी मां रोमिका भी यहीं रहा करती थी. इसी कौसानी घाटियों में- तब प्रत्येक पहाड़ से उसका नाता था- हरेक घाटी में उसकी बांसुरी की मधुर आवाज़ गूंजती थी- परन्तु जब से वह यहाँ से चुपचाप चली गई, तो अब उसकी मात्र यादें ही शेष रह गई थीं. इसी प्रकार रानी भी आकर वापस चली जा रही थी. अपने दिल में न जाने कौन सा तूफ़ान लेकर? कौन सा शोर भरे हुए? अपने न जाने किन-किन विचारों में? इन पहाड़ों का सारा आलम भी जानता था कि, अपनी जिन खामोशियों के साथ रानी इन वादियों में आई थी, उसी तरह चुपचाप, खामोशी के साथ चली भी जा रही थी.
डाक बंगले के बरामदे में लेटे हुए नितिन की जब आँख खुली तो बाहर अच्छी-खासी धूप निकल आई थी. वह उठकर बैठ गया. डाक बंगले के समूचे परिसर में खामोशी छाई हुई थी. डाक बंगला बिलकुल ही खाली थी और कोई भी पर्यटक अभी तक उसकी शरण में नहीं आया था.
नितिन ने अपने आस-पास मनहूस खामोशी को देखा तो उसको थोड़ा सा आश्चर्य हुआ. बहुत-कुछ बदला-बदला सा दिखाई देता था. वह अपनी सूनी आँखें फाड़कर वहां पर छाये हुए चुप माहौल का जायजा लेने लगा. अभी वह कुछ सोचने ही जा रहा था कि, चौकीदार ने उसको वह कागज़ और साथ पैसे देते हुए उससे कहा कि,
'बाबा ! यह लो. कोई लड़की तुमको दे गया है.'
'?'- लड़की? नितिन के सूने कान एकाएक जीवित से हो गये. वह आश्चर्य करते हुए चौंक भी गया. उसने चकित होक वह कागज और उसके साथ के पैसे अपने हाथ में ले लिए. फिर उस कागज को तुरंत ही खोलकर देखा. परन्तु अपने जीर्ण शरीर और कमजोरी के कारण तुरंत ही पढ़ नहीं सका. शीघ्र ही वह अपना सारा बल समेटकर उठा और बाहर लॉन में निकली हुई धूप में पढ़ने लगा,
'बाबा ! रात में हुई अपनी बदतमीजी की मैं मॉफी चाहती हूँ. यदि आपको सचमुच ही मुझसे कोई विशेष काम हो, अथवा कोई जानकारी लेनी हो तो मैं अपना पता दे रही हूँ. आप कभी भी इस पते पर आ सकते हैं.
रानी, नांगलोई, ब्लाक- 7009, मकान- 04, दिल्ली-41.
'अब इसे बाद में भी पढ़ लेना. इन पैसों से जाकर खुछ खाना वगैरह खा लो.'
तभी चौकीदार ने नितिन को जैसे टोक दिया तो नितिन की जिज्ञासा भी बीच में ही टूट गई. वह कभी कागज के टुकड़े, तो कभी रानी के दिए हुए पैसों को, तो कभी चौकीदार को हैरत के साथ देखने लगा. 










34



रानी. . .रानी. . .रानी.
नितिन के होठ अपने आप ही बुदबुदा गये. तुरंत ही उसके मस्तिष्क के बल गहरे हो गये. उसने सोचा- रानी ! उसके अतीत की कोई कड़ी? उसके अतीत की यादों में अचानक ही एक धचका लगा- रानी? तो क्या उस लड़की का नाम रानी है? रानी- बिलकुल अपरिचित- अनजान? इस नाम को तो वह अपने जीवन में पहली बार सुन रहा है? नितिन को विश्वास हो गया कि, पिछली रात उससे बातें करनेवाली, रोमिका के समान ही दिखनेवाली उस सुंदर लड़की का नाम रानी है. वह रोमिका की तरह दिखती तो है, लेकिन रोमिका नहीं हो सकती है. वह तो रानी है? वह अजनबी अवश्य ही है, मगर फिर भी उसका कोई तो सम्बन्ध रोमिका से होना ही चाहिए? यदि नहीं भी है तो पहले अवश्य ही रहा होगा? और इस सच्चाई का सबूत है, उसका ही लिखा हुआ वह गीत जो उसने यहीं डाक बंगले में बैठकर गाया था? जिस गीत को एक युग के बाद सुनने के कारण उसके दिल का घाव फिर एक बार उसके प्यार का दर्द बनकर रिसने लगा है? वह जानता है कि, उसके इस गीत ने फिर से उसके दिल के बंद दरवाज़ों पर अपनी दस्तक दी है? उन्हें खटखटा दिया गया है? उसे फिर से रुलाने के लिए यह गीत रोमिका की भी यादें साथ लेकर उसके पास आया है?
उसके बीते हुए दिनों का वह मधुर और दर्द भरा एहसास, कि जिनकी यादों के नाम पर ही, वह तड़प उठता है? सिसक-सिसक जाता है. नितिन ने इस प्रकार से खड़े-खड़े सोचा तो उसके दिल में सुरक्षित रोमिका की याद एक बार फिर से उसे सताने लगी. उसके दिल की छिपी हुई तस्वीर का गम उसकी थकी और बूढ़ी आँखों में उदासियों के भीगे बादल लेकर छा गया. ऐसे में उसे रोमिका फिर से याद हो आई. बार-बार- उसने सोचा कि- रोमिका? अब जाने कहाँ होगी? किस तरफ? किस हाल में? कितने ही साल बीत गये हैं, उससे मिले हुए? कितने वर्षों से उसने उसे एक झलक देखा भी नहीं है?
उसको देखे हुए, जैसे एक युग बीत गया है? उसके जीवन का एक अंग- रोमिका? उसके प्यार का रास्ता- रोमिका? उसका जीवन- रोमिका? उसके जीवन का आधार- रोमिका? उसके भटके हुए जीवन का कारण- रोमिका? रोमिका- उसका प्यार, उसका अतीत, उसका वर्तमान और भविष्य भी रोमिका... रोमिका... रोमिका.
वैसे भी उसका सारा जीवन अपनी रोमिका की स्मृतियों में आंसुओं को बर्बाद करके ही बीता है. यूँ ही रोमिका को ढूंढते हुए, उसके जीवन के शेष बचे हुए दिन भी इसी प्रकार से रिस-रिसकर एक दिन अपने अस्तित्व को भी समाप्त कर लेंगे. तब वह भी समाप्त हो जाएगा. इस संसार से सदा के लिए कहीं बहुत दूर चला जाएगा. और फिर रह जायेंगीं कुछ बची हुई यादें, जिनको कोई दोहराने वाला भी नसीब में नहीं होगा.
किसी भी उजड़े और तबाह जीवन का ठिकाना ही क्या? वह तो कभी भी मिट सकता है. कभी भी उसकी साँसे अपने शरीर को रोता-बिलखता हुआ छोड़कर चली जायेंगी. बिलकुल वैसे ही, जैसे एक दिन रोमिका चली गई थी? उसको बेदर्दी से ठुकराकर- यहीं कौसानी से- उसका सारा कुछ छीनकर, उसको भटकाने के लिए. शायद वह अपने नितिन को समझ नहीं पाई थी? उसके असीम प्यार को उसने पहचाना नहीं था?
सो, ये था उसका प्यार, रोमिका से प्यार करने का वह अंजाम, कि जिसके मार्गों पर चलकर वह अपनी सारी उम्र अपने ही ठिकाने को ढूंढता रहा था. फिर भी उसे मंजिल नहीं मिल सकी थी. शायद इसलिए क्योंकि उसकी मंजिल ने किसी दुसरे को ढूंढ लिया था? वह नहीं जानता था कि, उसके इस प्यार के खेल में, दोनों को अलग करने के लिए कौन दोषी था? गुजरी हुई उम्र का बीता हुआ एक पल तक कभी वापस लौटकर नहीं आता है, फिर बीती हुई उम्र के दिन कहाँ से वापस आते?
अपनी-अपनी शिकायतों को चुपचाप दोहराकर ही खुद को समझा लेना बेहतर होता है. दूसरे पर दोष देने से तो अच्छा है कि अपनी ही गलतियों पर रोकर विषय को बंद कर लें. दूसरे पर इलज़ाम लगायें इससे तो भला होगा कि, अपनी गलतियाँ मानकर, अपना ही माथा पीट लें. उसे रोमिका से कोई भी शिकायत नहीं है. कोई शिकवा नहीं- परन्तु मरने से पहले वह रोमिका से एक बार तो अवश्य ही मिलेगा. वह चाहे कहीं भी, किसी भी जगह, वह उसे अब ढूंढ ही लेगा.
उस अनजान लड़की रानी के द्वारा उसे रोमिका का पता अवश्य ही मिल जाएगा. रानी के घर पहुचकर, उसे वह सब कुछ विस्तार से बता देगी. उसे यहाँ से अब जाना चाहिए. एक बार फिर- नांगलोई- दिल्ली- जहां पर रानी रहती है. उसकी रोमिका भी अवश्य ही वहीं कहीं रहती होगी? सोचते-सोचते, नितिन के कदम स्वत: ही आगे बढ़ने लगे. कौसानी के डाक बंगले से बाहर निकलकर वह खुली सड़क पर आ गया.
कौसानी के वातावरण में आज खुली धूप पड़ रही थी. बहुत अधिक तपती हुई, मानो खिसियाकर किसी के अरमानों को जलाकर राख कर देना चाहती हो? बहुत तेज धूप थी- आकाश में बादलों का एक छोटा-सा कोई लावारिस टुकड़ा तक नहीं था. चटकती हुई धूप के सहारे आकाश में सूर्य का पिंड अपने सम्पूर्ण जोश के सहारे मुस्करा रहा था. नितिन, पैदल ही चलते हुए काफी दूर तक आ गया. 




















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डाक बंगला पीछे रह गया था.
इसके साथ ही कौसानी की हर याद भी सूखे बिखरते हुए फूलों की झड़ती हुई पंखुड़ियों के समान, एक-एक करके उसके दामन का साथ छोड़ती जा रही थी. नितिन के खामोश कदमों की तेजी को प्रकृति का हर नज़ारा मानो अपना मुंह लटकाए चुपचाप देख रहा था. एक दिन वह था जब वह भी इसी जगह पर आया था. तब रोमिका के प्यार के सुनहले सपनों के साथ उसे यही जगह किसी भी स्वर्ग से कम महसूस नहीं हुई थी. परन्तु उसके चले जाने के पश्चात, उसके सपनों का स्वर्ग आज उसके लिए नर्क बनकर रह गया था.
कौसानी की वादियों में वह फलता-फूलता आया था और आज वह दिन था कि, यहीं से वह बहुत निराश मन से किसी लुटे हुए सामरी (सामरी- इस्राएल की एक कहानी का वह यात्री जिसे मार्ग में ही डाकुओं ने लूट लिया था.) यात्री के समान चला जा रहा था. अपना रास्ता ढूंढता हुआ- अपने दिल में नांगलोई की याद को बसाए हुए- रोमिका से मिलने की शायद अंतिम इच्छा का हाथ थामे हुए?
ज़िन्दगी के प्यार भरे रास्ते मानव को अक्सर अपने वास्तविक मुकाम से भटका ही देते हैं. आज के विद्द्यार्थी जीवन का अधिकाँश भाग इन्हीं मार्गों पर चलकर ख़ाक होता जा रहा है. अपने असफल प्यार में उजड़े हुए विद्द्यार्थी बर्बाद जीवन ही शायद उसकी विशेषता बन चुका है?
नितिन, उजाड़ कामनाओं की भटकी हुई लाश समान कौसानी के बस स्टैंड पर आकर रुक गया. यहाँ से उसको काठगोदाम रेलवे स्टेशन जाना था. काठगोदाम रेलवे स्टेशन से ही वह दिल्ली के लिए रवाना हो सकता था. उसके हाथ अपनी फटी जेबों की तरफ गये तो वहां पर केवल रानी के द्वारा दिए गये बीस रूपये ही थे. बीस रूपये देखकर वह निराश हो गया क्योंकि, बस से काठगोदाम रेलवे तक का किराया पच्चीस रूपये था. उसके नसीब में पेट के लिए दो वक्त की रोटी नहीं थी, किराए के लिए वह पैसे कहाँ से लाता?
सोचकर वह बस स्टैंड से भी चला आया और काठगोदाम जानेवाली पहाड़ी सड़क पर पैदल ही चलने लगा. किसी भूले-भटके पथिक के समान- फिर भी उसके कदम बहुत तेज चलते जा रहे थे. समय से पहले ही हुए बूढ़े और कमजोर शरीर में बल नहीं था, मगर दिल में अपार जोश भरा हुआ था. मन में एक आशा थी कि, कम-से-कम उसके इन आख़िरी वक्त की घड़ियों में उसकी भेंट रोमिका से तो अवश्य हो जायेगी? अंतिम बार वह उसे देख तो लेगा, यही उसके लिए बहुत होगा. 

















37


हर तरफ खामोशी थी.
गगन को चुमते हुए पर्वतों पर खामोशी थी और उनके नीचे घाटियों में भी मौन पसरा हुआ था. प्रकृति का हरेक दृश्य अपनी झुकी-झुकी निगाहों से नितिन को देखे जा रहा था. चिनार के सारे लंबे-लंबे वृक्ष एक-के-बाद-एक उसको बुझी-बुझी निगाहों से नमस्कार करके पीछे छूटते जा रहे थे. मानो उसकी उजाड़ हुई ज़िन्दगी का हरेक काला वक्त भी, उससे पीछे छूटता जा रहा था.
सहसा कुछेक फर्लांग चलने बाद ही नितिन को महसूस हुआ कि, अब वह यहाँ से आगे एक कदम भी नहीं चल पायेगा. उसकी साँसे धोंकनी की भाँति चल उठी थीं. इसी बीच, खांसी भी उसको झंझोड़ कर रख देती थी. उसका बूढ़ा और कमजोर शरीर- हाथ-पैरों में जान नहीं- पेट में भी सिवाय पानी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं- ऐसी दशा में कहाँ तक वह पैदल चल सकता था? उसकी खांसी थी कि, अगर एक बार उठ जाए तो बंद होने का नाम ही नहीं लेती थी. आँखों की दृष्टि में भी, दो पग चलते ही धुंध छा जाती थी.
नितिन से जब आगे चला नहीं गया तो वह वहीं सड़क के किनारे एक ओर बैठ गया. बैठकर वह अपनी बूढ़ी किस्मत पर आंसू बहाने लगा. उसने सोचा कि, इस प्रकार तो वह कभी भी नांगलोई नहीं जा सकेगा. नहीं जा सकेगा तो जीवन में उसकी फिर कभी भी रोमिका से भेंट नहीं हो सकेगी? वैसे भी ऊंचे-नीचे, पथरीले पहाड़ी रास्तों पर कुछेक कदम चलने पर ही सांस फूल जाया करती है. फिर, उसका तो बूढ़ा और कमजोर शरीर है- बिलकुल मरियल सा- आँखों में ज्योति की कमी- ठीक से दिखाई भी नहीं देता है. अगर वह ऐसे ही पैदल चला तो उसकी साँसे कभी भी अपना दम तोड़ देंगी.
नितिन ने सोचा तो उसे लगा कि, जैसे जीवन का सफर पूरा हो चुका है? उसकी आत्मा को उसका शरीर छोड़ देने का समय आ चुका है? हो सकता है कि, शायद यही उसका अंतिम समय है? बार-बार ज़ोरों से आनेवाली खांसी के कारण, पल भर में उसके समस्त शरीर की ऊर्जा समाप्त हो जाती थी. अब तो कभी भी नांगलोई नहीं पहुँच सकेगा. नहीं पहुंचेगा तो फिर वह अपनी रोमिका को दोबारा देख भी नहीं सकेगा.
नितिन ने सड़क के किनारे बैठे हुए सोचा तो उसकी सूनी और दर्द से भरी आँखों में, आंसू आ गये. आँखें भर आईं. शायद तुरंत ही छलक जाना चाहती थीं? ईश्वर के सामने उसने ऐसा कौन सा पाप किया था कि, जिसके कारण उसको एक पहाड़ी लड़की से अथाह प्यार करने की यह मनहूस सज़ा मिली है? जिसके कारण उसकी यह अंतिम इच्छा भी अब पूरी नहीं हो सकेगी. वह अब तक अपने सारे जीवन रोमिका के लिए तरसा था- हर समय तड़पा था- सैकड़ों दिन-रात उसने अपनी रोमिका की दुखभरी स्मृतियों में गम की वेदी पर बर्बाद कर दिए थे; परन्तु वह उसको ढूंढ नहीं सका था.
और अब जबकि, उसको रोमिका की उपस्थिति थोड़ा-सा आभास मिला भी है तो उस तक पहुंचने के लिए उसका शरीर साथ देने के लिए इनकार करने लगा है. हो सकता है कि, उसका अंतिम मिल्न भी उसके ईश्वर को स्वीकार न हो? तो इस दुनिया में व्यर्थ ही आया है? न जाने अपनी किस भूल के कारण यह दुनिया बनाने वाले ने उसे इस संसार में ठोकरें खाने के लिए भेज दिया है? उसका जीवन तो बेकार और निरर्थ ही साबित हुआ है. किसी के काम भी वह नहीं आ सका है. दुनियां वालों ने उसे क्या दिया है और खुद उसने दुनियां वालों को क्या दिया है, वह नहीं जानता है.
आकाश में फिर से बादल मानो उसका तमाशा देखने के लिए एकत्रित होने लगे थे. बादलों की टोलियों की टोलियाँ आ रही थी. दूर से हवा के सहारे बड़े वेग से उड़े आते हुए बादल सारे वातावरण में अपनी धुंध फैलाने लगे थे. इन्हीं बादलों के समान ही नितिन का उदास दिल भी कहीं ख्यालों में उड़ा जाता था. न जाने कहाँ चले जाना चाहता था? कितना अधिक वह भटक चुका है, अपने इस जीवन में? इतना अधिक कि, अब उसके वास्तविक ठिकाने के मिल जाने की कोई उम्मीद भी बाक़ी नहीं थी.
अचानक ही सड़क के पिछले मोड़ से एक ट्रक आकर मुडी तो नितिन बगैर कुछ भी सोचे हुए सड़क के बीच में आकर खड़ा हो गया. उसे देखकर ट्रक उसके सामने आकर खड़ा हो गया. तब ट्रक के ड्राईवर ने अपनी गर्दन खिड़की से बाहर निकालकर नितिन को घूरा- ड्राईवर कुछ उससे कहता उससे पहले ही, नितिन उसके सामने गिड़-गिड़ाता हुआ बोला,
'बाबू साहब ! मुझे बहुत दूर जाना है. हाथ-पैरों में दम नहीं रही है. काठगोदाम तक सहारा दे दो. ईश्वर आपका बहुत भला करेगा.'
'हूँ !'
ड्राईवर ने नितिन की दशा को गौर से निहारा- उसे देखा- सोचा- फिर कहा कि,
'चल पीछे ट्रॉली में बैठ जा. छोड़ दूंगा.'
नितिन ने उसे बड़ी कृतज्ञता से देखा फिर शीघ्र ही पीछे की तरफ बढ़ गया और ट्रॉली में बैठने लगा. वहां पर पहले ही से दो और यात्री बैठे हुए थे. नितिन से ऊपर चढ़ा नहीं जा रहा था, तब उनमें से एक यात्री नें उसे अपना हाथ बढ़ाकर ऊपर खींच लिया. उसके अंदर बैठते ही ट्रक फिर से चल पड़ा. अंदर बैठते ही नितिन को एक राहत आई. दिल में उसके एक उम्मीद की किरण चमकने लगी. यही सोचके कि, अब उसकी रोमिका से भेंट हो जायेगी? वह नांगलोई जरुर पहुँच जाएगा. 

































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आगरा फोर्ट.
आगरा फोर्ट रेलवे स्टेशन की छोटी लाइन का प्लेटफ़ॉर्म.
इसी प्लेटफ़ॉर्म पर काठगोदाम एक्सप्रेस अभी-अभी आकर रुकी थी. यात्रियों की भीड़ के कारण सारा प्लेटफ़ॉर्म खचाखच भरा हुआ था. प्लेटफ़ॉर्म के सामने ही उस पार मुगलों के बनाये हुए किले की प्राचीन, लाल ईंट और लाल पत्थरों से बनी हुई मजबूत लाल रंग की दीवारें आज भी अपने अतीत को दोहरा रहीं थीं. आगरा फोर्ट के इस रेलवे स्टेशन का सारा वातावरण धुएं ने अपनी लपेट में ले रखा था. काठगोदाम एक्सप्रेस में आये हुए यात्रीगण अपना सामान उठाये हुए शीघ्रता में बाहर की ओर बढ़ते जा रहे थे.
दिन के करीब नौ बज रहे थे.
नितिन भी गाड़ी से उतरकर प्लेटफ़ॉर्म पर आ गया था.
वह भी अन्य यात्रियों के साथ आगे बढ़ने लगा. यहाँ से उसे आगरा सिटी रेलवे स्टेशन से दिल्ली की तरफ जानेवाली किसी भी गाड़ी में बैठना था. यही सोचता हुआ वह भी बाहर की तरफ निकल गया. स्टेशन के बाहर आकर नितिन अजनबियों के समान आगरा शहर के समूचे वातावरण को निहारने लगा. सब कुछ उसका पहले ही से देखा हुआ सा था, फिर भी उसे अजीब ही लग रहा था. न जाने क्यों हर वस्तु बदली-बदली सी नज़र आ रही थी. सही भी था, पिछले सौलह सालों में बहुत कुछ बदल चुका था. किसी भी परिवर्तन के लिए ये पन्द्रह-सौलह वर्ष बहुत होते हैं. वह एक पूरा जीवन व्यतीत करके कौसानी से निराश होकर आया था. कौसानी के वातावरण में और यहाँ की हवाओं में बहुत अंतर था. वहां हर समय सर्दी का आलम था और यहाँ पर सुबह होते ही गर्मी अपना प्रभाव दिखाने लगी थी. वहां प्रकृति का सौंदर्य था और यहाँ पर सजावट थी. वहां आकाश पर हर समय ही बादल बैठे रहते थे और यहाँ पर उनके ठहरने के लिए जैसे प्रतिबन्ध लगा हुआ था- आसमान बिलकुल ही साफ़ था.
चूँकि, नितिन इससे पहले भी कई बार आगरा आ चुका था और यहाँ की हर जगह उसकी देखी हुई थी, वह चुपचाप आगरा की रंगीन और व्यस्त सड़कों को पहचानता हुआ, आगरा सिटी के रेलवे स्टेशन की तरफ बढ़ने लगा. उसके कदमों जान नहीं थी, फिर भी उसे जाना था. शरीर साथ नहीं देना चाहता था, पर वह हिम्मत किये हुए अपने को संभाले हुआ था. उसकी शारीरिक दशा इतनी अधिक बिगड़ चुकी थी कि, लोग उसका हुलिया देखते ही, उससे दूर हो जाते थे. इसकदर उसका बुरा हाल हो चुका था कि, उसकी सूरत देखते ही उस पर दया आती थी.
परन्तु नितिन को इन सारी बातों की ज़रा भी परवा नहीं थी. कौन उसे देख रहा है? उसे देखकर लोगों पर क्या प्रतिक्रिया होती है; उसे इन सब बातों से कोई भी सरोकार नहीं था. वह तो अति शीघ्र ही नांगलोई पहुँच जाना चाहता था. रोमिका की क्षण मात्र की झलक देखने की लालसा लिए हुए वह अपने दिल को संभाले हुए था. शरीर में बल नहीं था पर दिल में हिम्मत और साहस था, इसीलिये वह चल रहा था- रुक-रुक कर- स्थान-स्थान पर बैठकर, सुस्ताते हुए, दीवानों समान वह चला जा रहा था. कोई उसको देखता, तो यह नहीं कह सकता था कि, ये कभी किसी कॉलेज का हंसमुख और हैंडसम वह छात्र भी था जो अपने प्यार की राहों पर चलकर अपनी ज़िन्दगी के हसीन लम्हों को उजाड़ चुका है. किसी लड़की के प्यार में बर्बाद हो चुका है? 
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नांगलोई-
दिल्ली की एक भयावही और तूफानी रात.
नितिन जब नांगलोई पहुंचा तो सारे शहर का वातावरण भारी वर्ष में मानो भरपूर स्नान कर रहा था. सारे शहर को तूफानी बारिश ने अपनी चपेट में ले रखा था.
हवाओं की तेजी से संघर्ष करता हुआ वातावरण. बादलों का पागलपन और भारी वर्षा के बीच टक्करें खाता हुआ माहौल. समूचे नांगलोई पर लगता था कि, जैसे वर्षा और बिगड़ी हुई हवाओं ने सारे इलाके पर अपना आंतक फैला रखा है? इसके साथ ही रह-रहकर बिजली की खिसियाई हुई कौंध भी बराबर अपना अत्याचार कर रही थी. बादल भी दन-दनाकर अगर गरजते थे तो फिर लगातार गरजते ही चले जाते थे. वर्षा और तूफ़ान के कारण वातावरण का बिगड़ा हुआ माहौल जैसे क्रोध में सारी मानव जाति का सारा दम ही खींच लेना चाहता था. बिजली की एक ही कौंध में सारा इलाका सहम जाता था.
वर्षा का प्रकोप इतना अधिक तेज था कि, उसकी बूंदों के प्रहार से शरीर पर चोटें लगने लगती थी. हवा की सांय-सांय, बादलों की दम तोड़ देने जैसी गड़-गड़ाहट, बिजली की भयावह कौंध और बढ़ती हुई रात? न जाने क्या अरमान थे इस बिगड़े हुए वातावरण के? हवाओं की तेजी पर वर्षा की बूंदों का रेला दूर-दूर तक उड़ा चला जाता था.
और इसे तूफ़ान के खौफनाक इरादों से भयभीत और अनजान रोमिका अपने घर की खिड़की के शीशे से अपना मुंह टिकाये हुए, बाहर के संघर्ष करते हुए वातावरण की दुर्दशा को देख रही थी. जीवन में इतना बिगड़ा हुआ वर्षा और हवाओं का तूफ़ान उसने इससे पहले कभी नहीं देखा था. वर्षा और हवाओं के जोश के कारण वातावरण में सर्दी भी बहुत बढ़ चुकी थी. रोमिका बादलों में बिजली की तडपती हुई कौंध को देखती तो उसका भी दिल किसी अज्ञात भय के कारण तड़प जाता था. बादल गरजते थे तो उनकी गर्जन के साथ ही उसका भी जैसे कलेजा बैठ जाता था. हवाओं के कारण वातावरण का शव का शव कांपता था तो उसका भी शरीर काँप जाता था. मन-ही-मन, पता नहीं, इस अचानक से आई हुई तूफानी रात का क्या इरादा था? क्या मकसद था? क्यों आया है? न जाने किसका घर उजाड़ने के लिए? रोमिका सोचती थी तो मन-ही-मन भय से काँप भी जाती थी.
सहसा ही वर्षा के तूफ़ान से बचने के उद्देश्य से शरण लेने के लिए, एक छोटा-सा पक्षी रोमिका के घर की खिड़की से चिपककर फड़-फड़ाने लगा. बिलकुल छोटा-सा पक्षी था. शायद इस बारिश के तूफ़ान में अपना नीड़ उजड़ जाने के बाद ही, उसकी शरण में आना चाहता था? उसके छोटे-छोटे पंजों के नाख़ून शीशे पर छाई हुई बूंदों पर फड़-फड़ाकर लकीरें बना रहे थे. रोमिका ने देखा तो उस पक्षी की दशा देखते ही उसका नारी कोमल दिल तड़पकर ही रह गया. उसके दिल में दया आ गई. उसने सोचा कि, यदि इस बेचारे पक्षी को कहीं भी शरण नहीं मिली तो वह इस जानलेवा तूफ़ान में कहीं का भी नहीं रहेगा. सर्दी से ही ठिठुरकर मर जाएगा. तूफ़ान में फंसे हुए किसी परिंदे की जान ही कितनी होती है? वह तो कहीं भी उलझकर अपना दम तोड़ देगा. यही सोचते हुए रोमिका खिड़की की सिटकनी खोलने लगी ताकि वह पक्षी सुरक्षित घर के अंदर आ जाए. मगर जब तक वह सिटकनी खोल पाती, तब तक वह पक्षी फिर से उड़कर तूफानी हवाओं में कहीं खो गया.
वह शायद गलती से यहाँ आ गया था? यह उसका घर और ठिकाना नहीं था? रोमिका कुछेक पलों तक किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रह गई. पक्षी के यूँ अकेले ही तूफ़ान में उड़कर चले जाने के कारण उसका भी मन मलिन हो गया था. साथ ही उदास भी. खिड़की का दरवाज़ा खोलने से पहले ही वह फिर से तूफ़ान की चपेट में चला गया था- सोच-सोचकर रोमिका का कोमल दिल मानो परेशान होने लगा था?
अचानक ही घर के बाहरी दरवाज़े पर किसी ने बड़ी ज़ोर से दस्तक दी.
'खट...खट...खट !'
'?'- रोमिका ने चौंकते हुए आश्चर्य से दरवाज़े की तरफ देखा. फिर दीवार पर लगी हुई घड़ी को देखा- रात के करीब दस बजना चाहते थे.
उसने सोचा कि, 'इतनी रात कौन हो सकता है?'
तभी किसी ने फिर से दस्तक दी- 'खट ...खट ...खट?'
रोमिका दिल में अनेकों विभिन्न ख्याल लिए हुए दरवाज़े के समीप आई. कुछेक पलों तक यूँ ही खड़ी सोचती रही. अमलतास अपने कमरे में कोई किताब पढ़ने में व्यस्त था और उसकी मां भी बहुत पहले ही सो चुकी थी. फिर इतनी रात कौन उसके घर आया होगा? रानी तो चार दिन बाद ही आयेगी? फिर न जाने कौन हो?
तभी रानी दरवाज़े के बाहर से ही चिल्लाई- बड़ी ज़ोरों से,
'मम्मी...मम्मी दरवाज़ा खोलो जल्दी से. मैं भीगी जा रही हूँ?'
'?'- रोमिका ने रानी की आवाज़ पहचानते ही तुरंत ही दरवाज़ा खोल दिया. द्वार खुलते ही रानी बारिश में भीगी हुई तुरंत ही घर के अंदर आ गई.
'तू...?...इतनी रात?'
रोमिका ने चौंककर उससे पूछा.
'हां- मम्मी. इतनी देर से दरवाज़ा खटखटा रही थी. अलार्म का बटन भी कई बार दबाया था?'
रानी ने अंदर आते ही अपनी मां के गाल चूम लिए. बाहर दरवाज़े पर टैक्सी खड़ी थी. टैक्सी के ड्राईवर ने रारानी का सामान अंदर पहुंचा दिया और जब वह भी अपना भाड़ा लेकर चला गया तो रोमिका ने चकित होकर रानी से पूछा,
'तुझे तो चार दिन बाद आना था?'
'सब बताऊंगी मम्मी. बहुत ज़ोरों से ठण्ड लग रही है.' रानी बोली.
'अच्छा तू पहले कपड़े बदल ले जल्दी से. तब तक मैं तेरे लिए कॉफ़ी बनाती हूँ.'
कहते हुए रोमिका रसोई की तरफ चली गई. 


















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रानी सीधे ही अपने पिता अमलतास और दादी से मिलने चली गई. बाहे बारिश का तूफ़ान अपना शोर मचाता रहा. प्रत्येक क्षण- बारिश का भारी प्रकोप अपना जोश दिखा रहा था. बादलों की आकाश में उनकी गड़-गड़ाहट के साथ जैसे होड़ लग चुकी थी?
रोमिका ने जब तक कॉफ़ी बनाई, तब तक रानी भी अपने कपड़े बदलकर आ गई. फिर दोनों मां-बेटी मिलकर कॉफ़ी पीने लगीं. अमलतास को उसकी कॉफ़ी रोमिका उसके ही कमरे में दे आई थी.
'हां तो इतनी जल्दी कैसे लौट आई तू? तुझे तो चार दिन बाद आना था?' रोमिका ने अपनी बात शुरू कर दी.
'बस मम्मी, लौट ही आई मैं? ऐसे ही अच्छा नहीं लगा था मुझे वहां पर. आपकी याद सताई और फिर वहां कौसानी में...न जाने क्यों मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगा था. सो मैंने भी वापस आना ही ठीक समझा था- बस वापस आ गई.'
कौसानी. . .?
रोमिका के होठों से कॉफ़ी का मग जाते-जाते थम गया. कौसानी के नाम पर रोमिका का दिल अचानक ही धड़क कर रह गया. उसने रानी से आश्चर्य से पूछा. वह बोली,
'कौसानी भी गई थी तू क्या?'
'हां- केवल एक रात के लिए ही.'
'ठहरी कहाँ थी?'
'वहीं, पुराने से डाक बंगले में.'
'?'- रोमिका चुप हो गई.
थोड़े से पलों के बाद रानी ने अपनी बात फिर से शुरू की. वह बोली,
'परन्तु, वहां जाकर न जाने क्यों मेरा मन अजीब सा, उदास हो गया था? कुछ कह नहीं सकती. ऐसा लगता था कि, जैसे वहां की हर वस्तु मुझसे कोई शिकायत-सी करना चाहती है. मुझे सारी रात, उस डाक बंगले में नींद भी नहीं आई थी.'
'?'- रोमिका अपना दिल थामकर बैठ गई.
कॉफ़ी का मग उसने ट्रे में रख दिया. बगैर पिए हुए ही. कौसानी के नाम पर फिर एक बार, उसके अतीत के दुखभरे घाव हरे हो गये थे. उसने बैठे-बैठे उदास होकर सोचा कि, 'उसकी बेटी ठीक ही तो कहती है? वहां पर उसका मन सचमुच अजीब ही हो गया होगा? कौसानी के चप्पे-चप्पे से उसका कितना गहरा संबंध है, रानी इस वास्तविकता को क्या जाने?
'और कोई नई बात तो तेरे साथ वहां पर नहीं हुई?' रोमिका ने आगे पूछा.
'नई क्या मम्मी- हां, ऐसा जरुर हुआ था कि, जब हमारा पूरा ग्रुप वहीं डाक बंगले में ठहरा हुआ था और रात में जब सब सो गये तो मुझे फिर नींद ही नहीं आई.'
'फिर?'
'तब मैं दरवाज़ा खोलकर डाक बंगले के बरामदे में आकर खड़ी हो गई. रात में सब ही सो रहे थे, मगर फिर भी वहां पर एक आदमी था जो डाक बंगले के बरामदे के एक कोने में बैठा हुआ जाग रहा था. उसने मुझसे कई-एक बातें भी पूछी थीं.'
'कौन था वह? तूने पूछा था?'
रोमिका का दिल एक अज्ञात भय की शंका से अचानक ही धड़क गया.
'यह तो मालुम नहीं मम्मी, परन्तु दिखता तो वह कोई भिखारी, साधू जैसा ही था? उसकी हालत बिलकुल ही खस्ता- देखते ही न मालुम क्यों तरस आता था, उस बेचारे पर?'
'उसने तुझसे क्या-क्या पूछा था तुझसे?' रोमिका बोली.
'मैंने मम्मी वही गीत जो आपने मुझे सिखाया है, सबके बीच गाया भी था. उसी गीत के बारे में जानने के लिए वह बहुत ही अधिक उत्सुक था.'
'क्या कहा तूने?' रोमिका अचानक ही चौंक गई.
'हां, वह पूछ रहा था कि, यह गीत तुमने कहाँ से सीखा है? तुम बेटी कहाँ रहती हो?'ऐसे उसने बहुत से सवाल मुझसे किये थे.
'ओह ! रोमिका के होठों पर एक आह-सी तड़पकर रह गई. रानी भी एकाएक, अपनी मां के मुख के पल-पल में बदलते हुए भावों को देखने लगी. बहुत हैरानी से- रोमिका के चेहरे के वह विचार जो अचानक से अपने विभिन्न रंगों के साथ आये थे और एक क्षण में लुप्त भी हो गये थे.
'फिर क्या बताया तूने, उस आदमी को?' रोमिका ने फिर से अपने धड़कते हुए दिल से पूछा.
'मैं क्या बताती उस अनजान, अपरिचित आदमी को? कोई बताने वाली बात थी भी क्या? एक डांट लगाकर चुप कर दिया था उसे.' रानी ने कहा.
'ये तो तूने अच्छा नहीं किया बेटी.'
'क्या?' अपनी मां की बात पर रानी भी आश्चर्य से उसका मुख देखने लगी.
'उस भिखारी को नाहक ही डांट लगाकर. जाने क्या सोचता होगा वह?' रोमिका ने दूर ख्यालों में खोते हुए कहा.
'कुछ भी सोचा हो उसने? मुझे उससे कोई मतलब नहीं. मेरे लिए तो वह अनजान ही था.'
'?'- रोमिका इस पर कुछ भी नहीं बोली. वह खामोश हो गई. साथ ही उदास भी. गंभीर होकर वह कहीं अन्यत्र सोचने लगी. सोचने लगी अपने गुज़रे हुए दिनों के दर्द के विषय में- उन लम्हों के बारे में, जो कभी उसने नितिन के प्यार का सहारा लेकर, उसकी बाहों से लगकर, कौसानी की घाटियों में व्यतीत किये थे. उन प्यारी-प्यारी और तसल्ली भरी बातों को जो कभी नितिन ने उसके साथ पहाड़ों की वादियों में बैठकर कही थीं. उन यादों को जिन्हें वह अपनी बेटी रानी के भविष्य के कारण लगभग भूल चुकी थी. परन्तु आज रानी ने आज फिर उसके दुःख से अनभिज्ञ बन उसको चोट पहुंचा दी थी.
रोमिका बहुत देर से इन्हीं समस्त बातों को सोचती रही. अपनी सोचों में वह बार-बार कौसानी पहुंचती और फिर एक झटके के साथ ही अपने घर के माहौल में कैद होकर ही रह जाती. विचारों की दुनियां में खोकर रोमिका ने अनुमान लगाया कि, 'वह भिखारी, वह अजनबी, पता नहीं कौन था? कहीं वह उसका नितिन ही तो नहीं था जो अभी भी उसकी प्रतीक्षा में अपने आंसू बहा रहा हो? यदि वह नहीं था तो उसने रानी से इस तरह के प्रश्न क्यों पूछे हैं? क्यों उसने रानी से उस गीत के बारे में पूछा था कि जिसे उसने ही लिखा था? बहुत अधिक संभावना है कि, वह नितिन ही है? परन्तु भिखारी? हालत खस्ता? क्या इतना अधिक बुरा परिवर्तन उसमें आ चुका है कि, उसे पहचानना भी मुश्किल हो गया हो? फिर वह वहां ही क्यों है? डाक बंगले में? उसे तो अपने घर फतेहगढ़, अपनी पत्नी मौनता के पास होना चाहिए? पता नहीं रानी की बातों में कहाँ तक सच्चाई हो सकती है? अनुमान भी तो हो सकता है?
'मम्मी ! क्या हो गया है आपको अचानक से?'
रानी ने अपनी मां को गंभीर और ख्यालों में गुम देखा तो टोक दिया.
'हां !' रोमिका ने कहा.
'क्या सोचने लगी थी?' रानी बोली.
'कुछ भी तो नहीं बेटी.'
रोमिका ने अपने को सामान्य करते हुए कहा.
रानी ने भी इस पर अपनी मां से आगे और कुछ नहीं पूछा. वह अपनी बात बढ़ाते हुए आगे कहने लगी कि,
'और दूसरी बात यह हुई थी कि, जब मैं नैनीताल पहुंची, तो वहां की झील देखकर मेरा भी मन बोटिंग करने को हुआ था. इसी ख्याल से मैं एक खाली नाव पर चढ़ गई. परन्तु...'
'परन्तु...क्या?' रोमिका आश्चर्य से बोली.
'उस नाव पर चढ़ने के लिए एक औरत ने मुझे मना कर दिया था. वह मुझसे बोली थी कि, इस मनहूस नाव पर कोई भी नौका-विहार को नहीं जाता है. अशुभ होता है.'
'?'- रोमिका चुप ही रही.
रानी ने आगे कहा कि,
'जब मैंने इस बात का कारण पूछा तो उसने बताया था कि, यह अशुभ नाव कौसानी की एक ऐसी गूंगी,दुखिया लड़की की है जो कुंवारी ही मां बनने वाली थी, परन्तु लोक-लाज के कारण उसने इसी झील में कूदकर अपनी जान दे दी थी. सो जो भी उसमें बैठेगा, उसको उस लड़की की आत्मा झील में डुबो देगी.'
'?'- रोमिका ने रानी की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया. कोई भी उत्तर नहीं दिया. अतीत के छिपे हुए किसी दर्द के कारण रोमिका की आँखों में आंसू छलक आये थे. मन उदास हो गया था. वह चुप ही रही.
'?'- रानी ने अपनी मां को देखा. आश्चर्य किया. फिर बोली,
'ये क्या मम्मी? आप क्यों रोने लगीं?'
'कुछ नहीं बेटी. ऐसे ही कुछ याद आ गया था.'
इतना कहकर रोमिका ने फिर एक बार अपने दिल के छिपे दर्द के कारण को अपनी बेटी रानी से छिपा लिया. अपनी पलकों के आंसू पौंछकर वह वर्षा और हवाओं के कारण अस्त-व्यस्त हुए खिड़की और दरवाज़ों के पर्दे ठीक करने लगी. यूँ ही जब उसने एक खिड़की को खोलकर बाहर के मौसम का जायजा लेने के लिए बाहर देखा तो, वर्षा की बूंदों ने उसके मुख की सारी उदासी को पलभर में ही धो दिया. अपने मुख पर वर्षा की बूँदें आते ही उसने तुरंत ही खिड़की के दोनों पट बंद कर दिए. फिर आकर उसने रानी से कहा कि,
'तुम्हें कुछ खाना है तो जाकर खा लो, नहीं तो अब आराम कर लो. रात बहुत हो चुकी है असुर अभी तक बारिश हो ही रही है.'
अपनी मां के कहने पर रानी भी उठ गई. उसने रसोई में जाकर थोड़ा-बहुत कुछ खाया, फिर शीघ्र ही अपनी मां के पास आ गई. रोमिका अभी भी सोफे पर बैठी हुई जाग रही थी. अमलतास भी उसी के पास बैठा हुआ था. तब रानी भी उन दोनों के पास ही आकर बैठ गई.
तीनों ही लगभग मौन थे.
केवल अमलतास ही कभी-कभी रोमिका से कोई बात कर लेता था. बाहर लगता था कि, वर्षा अब और भी अधिक तेज होती जा रही थी. वैसे भी जून माह के अंतिम दिन शुरू हो चुके थे. जुलाई से वर्षा का मौसम आरम्भ होता है. शायद यही कारण था कि, वर्षा जैसे रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. बाहर बारिश का बढ़ता हुआ शोर था तो इसी के साथ-साथ रोमिका के भी दिल और दिमाग में भी एक शोर था. उसके दिमाग में फिर से ताज़ा हुए उसके अतीत के जिए हुए दिनों की यादों ने जैसे एक खलबली मचा कर रख दी थी. 
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अमलतास और रानी; दोनों ही जैसे बाहर की वर्षा का शोर सुन रहे थे, परन्तु रोमिका अब बिलकुल ही चुप और शांत थी. वह उदास के साथ गंभीर भी थी. अमलतास चुपचाप बैठा हुआ रोमिका के उदास चेहरे को देखता था और उसके दर्द को भी महसूस कर लेता था. फिर भी रोमिका का दुखी दिल बार-बार सारे बिगड़े हुए वातावरण से बेखबर होकर तुरंत ही कौसानी पहुँच जाता था.
वर्षों का भुलाया हुआ नितिन आज फिर से एक बार उसके दिल-ओ-दिमाग के पर्दे पर छा गया था. इसीलिये रोमिका को रह-रहकर कौसानी याद आ रहा था. कौसानी की हर याद आज उसको सता रही थी. हर समय वह यही सोच रही थी कि, पता नहीं उसके बाद नितिन का क्या हुआ होगा? वह कहाँ गया होगा? न जाने किधर होगा वह? उसने इन पिछले सोलह वर्षों में एक बार भी तो उसकी न कोई खबर ली और ना ही उसके लिए सोचा तक? एक बार भी उसके लिए विचार नहीं किया. यदि रानी का कहा सत्य निकला, कौसानी के डाक बंगले में उससे बातें करने वाला वह अनजान, भिखारी सा दिखने वाला नितिन ही हुआ तो फिर क्या होगा? कहीं सचमुच ही वह उसको ढूंढते-ढूंढते भिखारी न बन गया हो? उसकी याद में प्रतीक्षा करते-करते यदि नितिन सचमुच ही भिखारी हो गया हो तब क्या होगा? क्या होगा, तब वह क्या ऐसी स्थिति में अपने को मॉफ भी कर सकेगी? कदापि नही !
सचमुच ही उसने अपने जीवन को बदलकर नष्ट कर दिया हो तब? तब तो वह कभी भी अपने दिल को क्षमा भी नहीं कर सकेगी? वह दोषी कहलायेगी- एक अपराधिन. उसके यूँ बिना कहे, बगैर बताये हुए चले आने के कारण नितिन पर क्या बीती होगी? इस बात का तो उसने कभी अनुमान तक नहीं लगाया है? अब पता नहीं नितिन का उसके बाद क्या हुआ होगा? उसने सचमुच ही यह गलत किया है कि, उसे नितिन के पास से यूँ चुपचाप नहीं चले आना था? कम-से-कम वह उसे बताकर तो आती? रोमिका इसी प्रकार से सोच-सोचकर अपने को एक उलझन में उलझाए हुए थी.
रानी के कथन के अनुसार सचमुच ही नितिन का जीवन नष्ट हो चुका है. उसने अपनी रोमिका के दुःख में खुद को उजाड़ कर डाला है. वह सारे जीवन हर रोज़ ही रोया होगा? कौसानी के हरेक पहाड़ पर बैठकर उसने घंटों उसकी राह देखी होगी? उसकी यादों में न जाने कितनी ही रातें आँखों में ही गुजार दी होंगी? नितिन ने अपनी रोमिका की, उसके प्यार में उसकी पूजा की. अपनी सारी जान और आत्मा की गहराई से, हमेशा उसके प्यार में आराधना ही करता रहा. और उसकी पूजा के फल में, वरदान के स्थान पर उसे शाप मिल गया? शाप भी मिला तो दर-दर भटकने का- हर दरवाज़े पर भीख मांगने का? एक उजाड़ ज़िन्दगी का- वह भिखारी बन गया. अपने प्यार में, रोमिका के इश्क में, उसके इंतज़ार में, वह अपना सारा जीवन ही तबाह कर बैठा? केवल अपनी रोमिका से एक बार मिलने आशा में, वह अपनी सारी उम्र कौसानी के सूने पहाड़ों से अपनी किस्मत फोड़ता रहा. वहां की गहरी-गहरी घाटियों में उसको पुकारता रहा. . .'

'. . . और आज भी वह उसकी चाहत में, उसकी प्रतीक्षा में, उससे मिलने की अपनी अंतिम इच्छा के वशीभूत किसी भी तरह से, गिरता-पड़ता नांगलोई चला आया है. मगर यहाँ आते ही वातावरण के अत्याचार ने भी उस पर ज़रा भी रहम नहीं किया है. वह आज भी नांगलोई की अनदेखी और कभी भी न पहचानी जानेवाली सड़कों पर आवारा-सा भटक रहा है? बारिश के चट्टानी थपेड़ों में वह किसी-न-किसी प्रकार से रानी के घर तक पहुँच जाना चाहता है. केवल इसी आस पर कि, शायद अपने जीवन के अंतिम क्षणों में वह अपनी रोमिका से एक बार मिल तो सकेगा. वह उसको देख ले- केवल एक बार ही- वह यह तो जान ले कि, कैसी है वह अब?
अचानक तेज तूफानी हवाओं का तो नितिन के कदम भी लड़खड़ा गये. उसने खुद को गिरने से बचाने के लिए, अपने को संतुलित करने का बहुत अधिक प्रयास किया, परन्तु शरीर की कमजोरी ने उसका साथ नहीं दिया. वह वहीं पर गिर पड़ा. गिरते ही तेज-तेज साँसे लेने लगा. इसी बीच उसको खांसी भी ज़ोरों से आ जाती थी. आकाश में बारिश के पानी से भरे बादल जैसे खिसियाते हुए दौड़ रहे थे? वे भाग ही नहीं रहे थे, बल्कि कभी-कभी चीख भी पड़ते थे. मानो बदहवास में लम्बी दौड़ लगाने पर अमादा हो चुके थे. अंधेरी रात के सायों में, तेजी से होती हुई वर्षा की गूंज में बिजली की एक ही कौंध नागिन के समान फुफकारती हुई नांगलोई के सारे इलाके का दिल दहला देती थी. हवाएं इसकदर तीव्र थीं कि, उनके प्रभाव के कारण बारिश का प्रकोप भी बढ़ जाता था. इतना अधिक कि, उनकी बूंदों से नितिन के शरीर पर पत्थरों जैसी चोटें-सी लगती थी.
बड़ी देर से होनेवाली बारिश के कारण अब ठंड भी अधिक बढ़ चुकी थी. हवाएं तेज, बादलों की गड़-गड़ाहट, बिजली की कौंध, वर्षा की बूंदों का शोर- पूरा तूफ़ान का बिगड़ा हुआ रूप था. नांगलोई शहर का चप्पा-चप्पा अपना प्रचंड रूप दिखाने पर मानो उतावला हो चुका था. शहर का शायद हर मनुष्य, हरेक पशु-पक्षी तक इस तूफ़ान से बचने के लिए, किसी-न-किसी सुरक्षित स्थान की शरण में अपने को बचाए होगा, परन्तु अपने प्यार में मारा, अपनी रोमिका का दीवाना नितिन, इस वर्षा के थपेड़ों और बिजली की चमक में भी अपनी प्रेयसी से मिलने के लिए जी-तोड़ संघर्ष कर रहा था. इतना अधिक वह थक और परेशान हो चुका था कि, उसे अपनी काया और शरीर तक की भी चिंता नहीं रही थी.
उसके सिर के बड़े-बड़े, कंधों तक झूलते हुए बाल भी की स्थानों से उलझकर उसके मुंह और गले से चिपक गये थे. वस्त्र भी भीगकर उसके बदन से ऐसे चिपके हुए थे कि, रात में होने वाली वर्षा के अन्धकार में यह अनुमान भी लगाना कठिन होता था कि, वह अपने शरीर पर कोई वस्त्र भी पहने हुए है अथवा नहीं? उसका पेट भी समय-असमय खाने से उसकी पीठ की हड्डियों से चिपक चुका था. हवाओं की तेजी से बार-बार उसकी आँखों के गड्ढ़ों में पानी की बूँदें भर जाती थीं. की-एक स्थानों पर गिरने और फिसलने के कारण उसके चोटें भी लग चुकी थीं.
बिजली बराबर अपने समय पर जब भी चमकती थी तो पल भर के लिए नांगलोई का सारा इलाका दूर-दूर तक उसके प्रकाश में चमक जाता था. बादल भी अगर एक बार गरजते थे तो फिर लगातार वे गरजते ही चले जाते थे. वर्षा और हवाओं के साथ इस तूफ़ान में जैसे पहले से भी अधिक तेजी आ चुकी थी- सारे शहर की बिजली बहुत पहले ही से सुरक्षा की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए बिजली विभाग की तरफ से काती जा चुकी थी- सारा शहर अन्धकार की चपेट में जैसे किसी अज्ञात भय की शंका से दुबका पड़ा था.
पता नहीं इस बिगड़े हुए तूफानी वातावरण में, वर्षा और तेज हवाओं का क्या इरादा था? न जाने किसका घर उजाड़ देने के लिए आया हुआ था? हर तरफ भयंकरता छाई हुई थी. नान्ह्ग्लोई के हरेक घर में भी शायद इसका भय समाया हुआ था?
नितिन अभी भी बारिश की तेज बौछारों और उसके धुएं में बढ़ता जा रहा था. कभी वह हवाओं की तीव्रता के कारण सड़क पर गिर पड़ता था तो कभी थक कर वहीं बैठ भी जाता था. शरीर में जैसे उसके अब कोई जान ही नहीं रही थी. केवल तेज चलती हुई साँसे ही उसके जीवन के चिन्हों के रूप में बाक़ी बची हुई थीं.

कौन जानता था कि, शायद यह बिगड़ी हुई तूफानी रात ही नितिन के जीवन की आख़िरी रात हो? यहीं उसके जीवन-सफर की मंजिल का अंतिम पड़ाव हो? पता नहीं कि, इसके बाद वह कल की सुबह का उजाला देख भी पायेगा अथवा नहीं? शायद इस तूफ़ान की समाप्ति पर उसके भी जीवन का अंतिम बिगुल बज जाए?
नितिन अपने इन्हीं बुरे ख्यालों में, गिरता-पड़ता नांगलोई के सिटी बस स्टैंड के चौराहे पर आ गया. वहां पर कहीं भी कोई मनुष्य तक नहीं दिखाई दे रहा था. वर्षा के कारण आस-पास की समस्त दुकाने, मकान आदि सब बंद पड़े हुए थे. केवल उनकी खिड़कियों और जंगलों के पीछे से बंद, हल्का मद्धिम प्रकाश ही झलकता हुआ किसी की उपस्थिति का आभास करा रहा था.
नितिन ने स्ट्रीट लाईट के खम्बे के सहारे आकर एक बार सारे माहौल को देखा- चारों तरफ भयावह अन्धकार की चादर पसरी पड़ी हुई थी. वर्षा और हवाओं के इस तूफ़ान में, सड़कों पर पानी नदियों समान बहता हुआ, उसे जहां भी जगह मिल रही थी, वहीं भरता जा रहा था. नांगलोई के इस पिछड़े और नये विकसित हुए इलाके में दूर-दूर तक गरीबों की झुग्गियां बनी हुई थीं. इन्हीं झुग्गियों के सामने सरकारी कॉलेज के रहने वाले प्रोफेसरों, अध्यापकों आदि के मकान और फ्लेट बने हुए थे. यहीं पर अमलतास का घर भी था और इसी घर में रानी भी रहती थी- नितिन को यहीं रानी के घर तक जाकर रोमिका के बारे में जानकारी लेनी थी.
नितिन को विश्वास था कि, रानी के ही घर में अवश्य ही उसका वह छूटा हुआ प्यार भी होना चाहिए कि, जिसे एक दिन रोमिका उसे बताये बगैर नकार आई थी. फिर भी नितिन को रोमिका या रानी का घर अभी भी ढूंढना ही था और उसकी हिम्मत, शरीर की ताकत जैसे जबाब देने लगी थी. वह जानता था कि, जैसे-तैसे वह कौसानी जैसे पहाड़ी इलाकों से यहाँ नांगलोई तक आ सकता और अब वह रानी का घर और उसका नंबर आदि किस प्रकार से पता करे?
बारिश के कारण एक भी मनुष्य सड़क पर असता-जाता हुआ नहीं दिखाई देता था. बारिश थी कि वह थमने का नाम ही नहीं लेती थी- कभी वह धीमी पड़ जाती थी और फिर थोड़े से पलों के बाद ही फिर से तेज भी हो जाती थी. वह कैसे रोमिका या रानी का घर ढूंढें? नितिन ने सोचा कि, अगर वर्षा का यही हाल रहा तो वह रोमिका को कभी भी नहीं ढूंढ सकेगा. उससे वह मिल भी नहीं पायेगा- अंतिम बार भी नहीं.
ऐसा सोचते ही नितिन की आँखों में फिर से बेबसी के आंसू आ गये. दर्द से भरे आंसू- इन आंसुओं में उसके जीवन का अपार दर्द भरा हुआ था. कितना अधिक? किसकदर रंज और अफ़सोस था? यह वह जानता था और उसका दिल. चलते हुए बार-बार उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा जाता था. इतना अधिक वह थक चुका था कि, हवाओं के मात्र एक ही झोंके में वह तुरंत गिर भी पड़ता था. उसे लगता था कि, जैसे उसका शरीर अब जबाब देने लगा है? साँसे भी शरीर के साथ बनाये हुए रिश्ते का साथ जैसे छोड़ देना चाहती थीं? अधिक शारीरिक दुर्बलता के कारण उसके कदम, सड़क पर बहते हुए पानी के बहाव में भी नहीं टिक पा रहे थे. सदी के कारण उसका समूचा बदन काँप-काँप जाता था. बारिश अभी तक हो तरही थी और हवाओं में अभी भी वही तेजी दिक्गाई पड़ जाती थी. आकाश में भी न जाने कहाँ से आने वाले बादलों की कोई होड़ लगी दिखाई देती थी. जाने कहाँ से वे आते हुए एकत्रित हो जाते थे?
कौंधती हुई बिजली अभी तक अपना करिश्मा दिखाई देने से बाज़ नहीं आ रही थी. पता नहीं यह तूफ़ान कभी रुकेगा भी अथवा नहीं? शायद नहीं भी? और जब तक वह थमे भी तब तक कहीं उसका इस संसार से नाता ही न टूट जाए? दरिया के किनारे आकर भी वह प्यासा था. उसके प्यार की मंजिल भी उसके सामने ही कहीं पर थी, परन्तु फिर भी उसके लिए कोसों दूर थी.
सोचते-सोचते नितिन ने अपने कंधे पर पड़ी, भीगी हुई पोटली में से, किसी प्लास्टिक के टुकड़े में बंद टटोलकर कोई कागज़ निकाला- यह वही कागज़ का टुकड़ा था कि जिस पर रानी ने, कौसानी के डाक बंगले से जाने से पहले अपने घर का पता लिखकर उसे दिया था. उसे खोलकर उसने बहुत ही धुंधले प्रकाश में, पढ़ने का प्रयत्न किया. बूढ़ी और जीवन से थकी हुई उसकी आँखें थीं- बहुत कमजोर भी- उसका किस्मत का मारा हुआ थका-थका शरीर- नितिन उस कागज पर लिखे अक्षरों को शीघ्र ही पढ़ भी नहीं सका और हाथों की कंप- कंपाहट का लाभ उठाकर, वर्षा की बूँदें उसे भी छीनकर ले गईं. कागज का वह छोटा-सा, अकेला टुकड़ा भी नीचे गिर पड़ा और सड़क पर बहते हुए पानी के बहाव में बहता हुआ कहीं दूर चला गया. नितिन उसे मजबूरी में देखता ही रह गया. फिर भी उसने उसमें कुछ तो पढ़ ही लिया था. नांगलोई, ब्लॉक नंबर 7009. इतना ही पढ़कर उसने तसल्ली कर ली.
यह तो नितिन को पता ही था कि, वह अब नांगलोई में ही खड़ा है और उसे अब केवल ब्लॉक नंबर ही ढूंढना था. एक बार हब ब्लॉक मिल जाएगा तो फिर रानी का घर ढूंढना कोई मुश्किल नहीं होगा. सड़क के किनारे एक खोके जैसी दूकान के अंदर से किसी लालटेन का प्रकाश दिखाई देता था. नितिन ने उस पर दस्तक दे दी तो उसकी छोटी-सी खिड़की को खोलकर किसी बूढ़े आदमी ने अंदर से झांककर नितिन को देखा- देखा तो नितिन ने उससे ब्लॉक नंबर 7009 पूछा.
'जहां पर खड़े हो, वह ब्लाक नंबर आठ है. आगे जाकर ब्लाक 9 आरम्भ होगा.'
कहते हुए उस बूढ़े ने खिड़की को तुरंत ही बंद कर लिया.
इतना सुनते ही नितिन के कदमों तीव्रता आ गई. सड़क के उस पार ही ब्लाक नंबर 7009 था. इसी में कहीं रोमिका या फिर रानी का घर होना चाहिए. वहां तक तो वह साहस करते हुए पहुँच ही सकता है. यही धारणा मन में बसाते हुए वह तेजी से चलने लगा. चलते हुए वह बार-बार लड़खड़ा भी जाता था. हर कदम पर उसकी टांगें हार मानने को तैयार होती थीं. परन्तु उसके दिल में एक लालसा थी- जोश भी था- रोमिका से मिलने की आशा में, वह अपना दुःख, अपने तमाम कष्टों को भूल भी जाता था. इसीलिये वह जबरन अपने कदम बढ़ाते हुए चला जा रहा था.
जैसे-तैसे नितिन ने सड़क पार कर ली. सड़क पर बेशुमार नाली जैसा पानी भरा हुआ था. कुछ पता नहीं चलता था कि, सड़क का दायरा खान से आरम्भ होता है और कहाँ पर जाकर समाप्त हो रहा है? सड़क पार करने के बाद जैसे ही उसने अपना कदम आगे बढ़ाया वह सड़क के किनारे बनी नाली में अचानक ही गिर पड़ा. गिरते ही उसके मुंह, आँखों और कानों में गंदा पानी भर गया. परन्तु उसे इस नाली से बाहर तो निकलना ही था, इसीलिये वह अपने शरीर की समस्त ऊर्जा के साथ उठा- पैर के पंजों के बल घिसटता हुआ नाली से बाहर निकला. निकलकर वहीं नाली की मुंडेर पर नीचे टाँगे लटकाए हुए गहरी-गहरी, लंबी साँसे लेने लगा. अपने आस-पास, इधर-उधर उसने सहायता की दृष्टि से एक आशा से देखा; परन्तु उसकी मदद करनेवाला वहां कोई भी नहीं था. जैसे सब-के-सब उसको बहुत पहले ही छोड़ चुके थे.
किसी तरह उठकर वह फिर से आगे बढ़ने लगा. तूफानी हवाएं बार-बार उसके मार्ग को रोकने का प्रयास क्र रही थीं. उसके सामने क ओई पचास कदम की दूरी पर आधुनिक मकानों की बनी हुई कोई बस्ती नज़र आ रही थी. यही ब्लॉक नंबर 7009 है? सोचकर वह आगे बढ़ने लगा. कभी-कभी हवाओं के वेग से जब बारिश तेज हो जाती थी तो उनके प्रहार से बारिश की बूँदें भी उसके मुख पर पत्थरों समान चोटें मारती थीं. नितिन ने फिर भी इन सब कठिनाइयों की कोई भी परवा नहीं की. वर्षा भी उसे अब कोई भी डर नहीं तरहा था. दिल में उसके केवल एक ही ख्याल था- रोमिका ! उससे मिलने का- उसके एक बार दर्शन करने का- वह बढ़ता गया- गिरकर- उठते हुए- फिर गिर-गिरकर- और एक बार फिर से उठकर.
चलते हुए अचानक ही एक मकान की बाहरी दीवार के सहारे, नितिन की छाती में बड़े ही ज़ोरों का दर्द उठने लगा. इस प्रकार की शरीर की सारी पेशियाँ उसका सारा दम ही खींच लेना चाहती हों? उसने इस दर्द को कम करने के लिए अपने सीने पर अपना एक हाथ रख लिया. उसे थोड़ी बहुत राहत सी मिली. परन्तु तभी उसे खांसी भी आ गई. आँखों के सामने उसके अन्धेरा भी छाने लगा. उसने सोचा कि, इसी मकान का दरवाज़ा खट-खटाकर वह किसी से सहायता की भीख मांग ले. शायद कोई तो उसकी मदद कर ही दे? यही सोचता हुआ वह दीवार के सहारे-शार्टे मकान के दरवाज़े तक गया. मगर दरवाजे के सामने आकर ही वह बारी सीढ़ियों पर ही गिर पड़ा. उसके दिल में उठने वाला दर्द अब और अधिक बढ़ गया था. उसका सीना और पीठ जैसे फटे जा रहे थे. तब भी उसने नीचे सीढ़ियों पर गिरे हुए ही मकान का दरवाज़ा खटखटाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया- परन्तु हाथ दरवाज़े तक पहुँच तो गया- इतनी दूर कि, वह उसे खट-खटा नहीं सकता था. वह फिर भी अपनी पूरी ताकत के साथ धीरे-धीरे दरवाज़े को धकेलने-सा लगा. परन्तु दरवाज़ा भी अंदर से जैसे सख्त बंद था. उस पर ज़रा भी असर तक नहीं हुआ. दूसरा वर्षा का शोर- उसकी आँखों में घना, काला घटाटोप अन्धेरा छा गया. हाथ-पैर ढीले पड़ने लगे. शायद उसकी साँसे शरीर से मुक्ति पाना चाहती थीं? अपनी इस दुर्दशा पर नितिन की आँखों में फिर से आंसू आ गये. मगर वर्षा की बौछार ने तुरंत ही उसके आंसुओं को साफ़ कर दिया.
नितिन को तनिक होश आया तो उसने फिर एक बार दरवाज़े को अंदर की ओर धकेलने की कोशिश की. अपनी पूरी ताकत लगाते हुए- परन्तु तभी उसकी सारी ताकत भी जबाब दे गई कि तुरंत ही उसकी आँखों के समक्ष अन्धकार छा गया. हाथ अपने ही स्थान पर जम से गये. जैसे उनमें जान ही नहीं थी. वह वहीं अपना सिर गिराकर लुढ़क गया. शरीर से जैसे उसकी रही-बची साँसों को कोई जबरन ही खींच रहा था. उसके मस्तिष्क पर पसीना आ गया. सारा शरीर उसका पसीने से भर गया. जीवन-मृत्यु की इस शैया पर संघर्ष के समय जीवन के अंतिम चिन्ह के रूप में, बदन पर आये हुए पसीने के साथ ही, उसकी पलकें भी स्वत: ही बंद होती गई. उसके हाथ-पैर भी ढीले पड़ चुके थे आसुर मुख शांत हो चुका था. होठ भी जैसे कुछ कहते हुए खुले ही रह गये थे.
अचानक ही सारी बस्ती में कहीं कुत्ते रोने लगे.
इस वर्षा के समय भी, जहां भी कुत्ते थे, वे सभी रोने लगे थे. तभी बरसते हुए वर्षा के जल के साथ बिजली अपने पूरे वेग से, खिसियाती हुई बिना पानी की मछली के समान तड़पी तो मकान की खिड़की का शीशा चटककर दो टुकड़े हो गया. उसके सहारे बैठे हुए पक्षी के पंख-पखेरू उड़ कर तूफ़ान की चपेट में चले गये.
रोमिका ने सोफे पर बैठे हुए अपने घर का शीशा टूटते हुए देखा और वर्षा के कारण उस शरण लिए हुए बैठे पक्षी का जब यह बुरा हाल देखा तो न जाने किसी अज्ञात भय की शंका से उसका दिल धड़क कर ही रह गया. भय के कारण वह अंदर-ही-अंदर काँप गई. वह नहीं समझ पाई कि, पिछली रास्त से ही आये हुए इस तूफ़ान में न जाने क्या होने वाला है? जाने क्या हो गया है? सारी बस्ती में अभी भी, कभी-कभार जंगली कुत्तों के रोने की डरावनी आवाजें सुनाई दे जाती थीं. और जब वे रोते थे तो मानो चुप होने का नाम ही नहीं लेना चाहते थे. रोमिका ने सोचा कि, वैसे भी कुत्तोंनका रोना रात में अच्छा नहीं माना जाता है. बहुत ही मनहूस होता है.
कुत्तों के रोने के कारण वर्षा में भीगी रात का वातावरण और भी अधिक भयानक प्रतीत हो रहा था. बारिश वैसी ही तीव्र न होकर अब जैसे कुछ-कुछ शांत होती प्रतीत होने लगी थी. आकाद में बादल भी अब मात्र गड़गड़ा हे रहे थे. बिजली का कौंधना शांत होने लगा था. हवाओं के कारण वातावरण मानो किसी ठंडी लाश के समान ठंडा हो चुका था.
रोमिका अभी भी खिड़की के पास खड़ी हुई उस अकेले ही पक्षी के विषय में सोच रही थी जिसके प्राण पिछली रात के तूफ़ान में बिजली की कौंध और उसकी आग एक क्षण में ही डकार गई थी? केवल उस पक्षी के टूटे हुए कुछेक पंख ही टूटे हुए खिड़की के शीशे से चिपककर रह गये थे.
रोमिका खामोश खड़ी हुई एक अन्य खिड़की से बाहर तूफ़ान के कारण हुए अत्याचार को देख रही थी. रानी अपने बिस्तर पर लेटी हुई अपनी यात्रा की थकान मिटा रही थी. अमलतास भी सो गया था, परन्तु रोमिका, अभी तक इस आये हुए तूफ़ान के बारे में ही सोच रही थी. खड़ी-खड़ी, अकेली, बहुत, न जाने क्यों उदास? सोच रही थी कि, इस तूफ़ान में न जाने क्या-क्या उजड़ गया होगा? जाने कितनों ही के घर बर्बाद हो चुके होंगे? न जाने कितने ही बे-जुबान परिंदों के नीड़? जाने कितने भटक गये होंगे? और भी न जाने क्या-क्या हो गया होगा? तूफ़ान के पूरी तरह से शांत हो जाने के बाद ही सब कुछ पता चल सकेगा?
रोमिका, अपने घर की खिड़की से सटी खड़ी हुई, ऐसा ही कुछ सोचे जा रही थी. सोच रही थी और उदास होते हुए कभी-कभी रो भी लेती थी. चुपचाप- भीतर-ही-भीतर, अकेले-ही-अकेले, बगैर किसी को भी, ज़रा भी खबर लगे हुए, मानो वह अपना अनकहा दर्द कम कर लेना चाहती थी? आज जीवन के सोलह वर्ष, हंसी-खुशी से व्यतीत करने के पश्चात, उसके मन में वही वेदना, वही दुःख, वही दर्द और वही याद, जो कभी नितिन की अनुपस्थिति में उसके दिल की पोर-पोर में बसी रहती थी और जिसे एक दिन अमलतास उसके इस दुःख को बांटकर, सदा के लिए, अपने घर नांगलोई ले आया था; यही सोचकर कि, रोमिका के सामने न उसका कौसानी का घर होगा, न वे पहाड़ होंगे, न पहाड़ों की खुबसूरती होगी, न चांदनी रातों में उसके बदन से सिमटकर की गई प्यार की बातें होंगी, न वे यादे होंगी और ना ही नितिन की बाहों से फिर कभी लिपटने की कोई भी उम्मीद होगी तो एक दिन वह सदा के लिए, अपने इस दुःख को भूल भी सकेगी?
और रोमिका, यहाँ नांगलोई आने के बाद, बहुत कुछ बदल भी गई थी. काफी कुछ अपना अतीत भूली नहीं थी, मगर फिर भी वह उसे याद भी नहीं करती थी. नितिन के साथ के गुजारे हुए प्यार के दिनों की वे बातें कि, जिनकी स्मृति मात्र से ही कभी उसकी आँखें आंसुओं से भर आती थीं; नांगलोई आने के बाद बाद सूनी हो गई थीं- यह बात सही थी कि, अमलतास से पहले उसकी आँख के बहने वाले आंसू किसी ने पोंछे नहीं थे, मगर फिर भी अमलतास का साथ पाते ही वक्त ने उन्हें सुखा अवश्य ही दिया था. अब वह इन सारी बातों को एक प्रकार से भूल भी चुकी थी.
परन्तु, पिछली रात के आये हुए तूफ़ान और रानी के द्वारा बताई गई उससे संबंधित उन्हीं घाटियों, पर्वतों और नैनीताल की बातें सुनकर, उसके सोये हुए अतीत के दर्दभरे घाव जैसे फिर से कुरेद दिए गये थे. वह नहीं जानती थी कि, नितिन उसको यह तूफ़ान देखकर फिर से याद आने लगा था अथवा, रानी ने उसकी यादों को फिर से जगा दिया था? दिल का उसका जाने कौन सा छिपा हुआ भेद था कि, जो बहुत चाहते हुए भी प्रगट नहीं होना चाहता था. न जाने कौन सा डर रोमिका के हृदय में था कि, मात्र शंका ही से उसका मन बैचैन हो उठता था? न जाने किस अनहोनी के भय से उसका दिल धड़क-धड़क जाता था? कौन सी भटकी हुई आत्मा की पुकार थी कि, जिसकी आवाज़ को सुनते ही उसके मन-आत्मा का चैन बिलकुल ही खो गया था?
ऐसा कौन था कि, जिसने चुपके से उसकी सोई हुई यादों में पत्थर मार दिया था? नितिन ने या किसी अन्य ने, कि जिसकी बजह से उसका दिल बैचैन हो गया था? बार-बार उसके कोमल नारी दिल को यही आभास होता था कि, उसे सब कुछ मिलने के पश्चात भी, आज उसके दोनों हाथ खाली ही हैं- उनमें कुछ भी ऐसा नहीं है कि, जिसे वह संभालकर, बचाकर तरख सके? आज जैसे उसका सब ही कुछ नष्ट हो चुका था? ऐसे किसी दुःख का उसको एहसास होता था कि जिसकी वजह से उसे अपने बदन का कोई अंग फटा हुआ महसूस होने लगा था. अनजाने में ही, जैसे कि वह अपने जीवन की कोई बड़ी महत्वपूर्ण बाज़ी जीतकर भी हार चुकी है?
रोमिका यहा सब सोचे जाती थी और इसी परेशानी में वह अभी भी बाहर खिडकी से रात में बवाल मचाने वाली उन तूफानी हवाओं के सहारे हिलते हुए चीड़ और चिनार की पत्तियों को देखने लगती थी, कि जिनको हिलाने वाली हवाए अब मंद हो चुकी थीं. वर्षा की रिमझिम अभी भी बाक़ी थी- आकाश में बिजली की कौंध अब बंद हो चुकी थी- कहीं बहुत दूर क्षितिज में कभी-कभार बादलों की गर्जन सुनाई दे जाती थी. तूफ़ान के डर के कारण बुझा हुआ चाँद फिर से बदलियों के पीछे से मुस्करा उठा था.
खड़े हुए रोमिका के मन-मस्तिष्क में फिर विचार आया कि, ना मालुम इस आये हुए खतरनाक तूफ़ान के क्या अरमान थे? किसके कारण यह पिछली सारी रात शहर में किसी बिगड़े हुए हाथी के समान चिंघाड़ता रहा था? क्यों इतना अधिक शक्तिशाली था ये? किसका घर नष्ट करना था इसे? किस कमजोर का नीड़ या बसेरा उजाड़ देना था इसे?
'रोमिका !'
अचानक ही अमलतास ने अपनी नींद भरी आँखों को मलते हुए पीछे से उसके कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा.
'?'-
रोमिका ने अपनी उदास नज़रों से पीछे मुड़कर अमलतास को देखा- लेकिन कुछ कह नहीं सकी. अपने दिल में छिपे हुए दर्द को चुपचाप ही पीने का एक असफल प्रयत्न करने लगी.
'तुम अभी तक सोईं भी नहीं? देखो तो रात कितनी अधिक हो चुकी है?'
'?'- रोमिका फिर भी खामोश ही रही. कुछ भी नहीं बोली. फिर कह ही क्या सकती थी वह? कहने की भी आवश्यकता नहीं थी उसे. उसका उदास और लटका हुआ चेहरा ही उसके दिल की सारी बातों का बयान कर रहा था.
अमलतास ने उसके गंभीर मुखड़े को देखा- उसकी नीली आँखों में चमकती हुई आंसुओं की बूंदों को पाया तो वह बाहर शांत हुए तूफ़ान का वातावरण देखते हुए उससे बोला कि,
'कल की तूफानी हवाएं थीं. अब शांत हो चुकी हैं. चलो, अब तो आराम कर लो?
कहते हुए अमलतास ने रोमिका को कंधे से सहारा देते हुए संभाला तो वह भी वृक्ष से किसी टूटी हुई टहनी के समान उसकी बाहों में झूल गई.
इसी एक सहारे के कारण तो वह एक दिन नितिन को अपने प्यार का सहारा देना भूल गई थी.
बाहर बारिश शांत हो रही थी. रात भर ऊधम मचाकर तूफ़ान भी शांत हो चुका था. सारी रात में वह न जाने कब तक चीखता-चिल्लाता रहा था? रोमिका के दुखी दिल के समान ही- जो अब जाकर थमा था.
रात अभी भी मानो आंसुओं से सिसक रही थी? शायद रात में हुए वर्षा और हवाओं के द्वारा हुए उन अत्याचारों के कारण, जो उसके लिए असहनीय हो चुके थे? रोमिका भी सिसक रही थी- मन-ही-मन- उसके दिल का छिपा हुआ दर्द भी शायद स्वयं उसके लिए भी असहनीय हो चुका था? 
चतुर्थ,
अंतिम परिच्छेद



42

नई सुबह.
नया दिन. नया संदेश. रात भर चिंघाड़ता हुआ तूफ़ान सुबह होने तक शांत हो चुका था. दूर-दूर तक भारी वर्षा के कारण, ताल-तलैया एक हो गये थे. हर स्थान पर पानी भरा हुआ था. पक्षियों के नीड़ उजड़े पड़े थे. बहुत से पक्षी तूफ़ान की चपेट में अपने पंख-पखेरू खोकर, यह दुनिया ही छोड़ चुके थे. लेकिन, रात भर के इस तूफ़ान के कारण वातावरण में छाई हुई एक अच्छी शान्ति थी. हर तरफ चैन दिखाई देता था. लगता कि जैसे रात के आये हुए तूफ़ान में हर किसी के दिल का सारा मैल भी धुल चुका था? मानो हरेक की शिकायतों का उत्तर मिल चुका था?
रोमिका अभी भी बिस्तर पर नींद में उनींदा हालत में सोई और जाग-सी रही थी. सारी रात्व वह सोई नहीं थी अथवा जागती ही रही थी; कोई नहीं जानता था. जब तक वह जागी थी तो केवल तूफ़ान का शोर ही सुनती रही थी. दिल में आये हुए तरह-तरह के अच्छे-बुरे ख्यालों में ही भटकती फिरी थी. सहसा ही घर की नौकरानी भयभीत होकर, उसके कमरे में आकर खबर दी. वह हतो-हताश होते हुए बोली,
'बीबी . . .जी, बीबी. . .जी... गज़ब हो गया !'
'?'- क्या है?'
रोमिका आश्चर्य से बिस्तर पर ही उठकर बैठ गई.
इतनी ही देर में नौकरानी की भयातुर आवाज़ सुनकर रानी भी अपना बिस्तर छोड़कर रोमिका के कमरे में आ गई. अमलतास भी उसकी आवाज़ को सुनकर आ चुका था. अमलतास की मां भी अपनी लकड़ी से चलती हुई आ गई थी- सब ही आश्चर्य से उसकी भयभीत आवाज़ को सुनकर आ चुके थे.
'क्या हो गया है?' अमलतास ने आश्चर्य से नौकरानी से पूछा.
'घर के दरवाज़े पर. . .?'
डर के कारण नौकरानी की आवाज़ भी नहीं निकली.
'क्या हुआ घर के दरवाज़े पर? बोलती क्यों नहीं है?'
रानी ने जैसे कड़कते हुए पूछा.
'कोई आदमी मरा पड़ा है?'
'व्हाट ...?'
अमलतास घबराकर बाहर के दरवाज़े की तरफ भागा. उसके पीछे रानी भी पहुँच गई. साथ में अमलतास की बूढ़ी मां और रोमिका भी पहुँच गईं.
अमलतास ने जो इतना भयावह और रोंगटे खड़े कर देनेवाला दृश्य देखा तो फौरन ही हताश हो गया. वह बदहवाश-सा हो गया. सचमुच घर के दरवाज़े पर सीढ़यों पर किसी आदमी की लाश पड़ी थी. रोमिका की तो देखते ही चीख निकल गई. कोई फटेहाल में, रात के तूफ़ान की बलि चढ़ चुका था.
अमलतास ने तुरंत ही पुलिस स्टेशन को फोन कर दिया. फिर थोड़ी ही देर में नांगलोई थाने की पुलिस भी आ गई. पुलिस के आने पर लाश को देखा गया- उलट-पुलटकर- उसकी फटी हुई पेंट की जेबें भी देखी गईं, परन्तु कोई भी सुराग नहीं मिला. कोई भी उसको पहचान नहीं पा रहा था. मरने के बाद लाश का चेग्रा पहले से भी अधिक विकृत हो गया था. लाश बिलकुल ही ठंडी थी- बर्फ के समान- अकड़ी हुई.
पुलिस ने अनुमान लगाया कि, शायद कोई भिखारी था? पुलिस के एक सिपाही ने लाश के कंधे पर पड़ी हुई पोटली को खोलकर देखा- उसमें भी कुछ नहीं था; केवल एक कागज़ में रखे हुए कुछेक फूलों के अतिरिक्त.
रोमिका ने खड़े-खड़े उन फूलों को गौर से देखा? केवल फूल थे- सूखे और बे-जान- भटके और मुरझाये हुए- वर्षा में भीगे हुए- जंगली फूल- पहाडी इलाके के?
रोमिका देखते ही आश्चर्यचकित रह गई. देखकर उसकी आँखें, फटी-की-फटी रह गईं. फिर उसने धड़कते दिल से लाश के चेहरे को पहचाना? दिल की धड़कनों पर हाथ रखकर पहचाना- पहचानते ही उसकी यादों के तमाम काफिले एक ही स्थान पर आकर खड़े हो गये- उसका नितिन था? उसका ही? एक भिखारी की हालत में? जो भटकते-भटकते आज उसके ही कदमों, उसके ही द्वार पर अपनी जान गंवा बैठा था? और इस बात का, इस सच्चाई का सबूत थे, उसकी पोटली में पड़े हुए पहाड़ी फूलों के वे अवशेष, जिन्हें एक दिन उसने कौसानी की पहाड़ियों पर, नितिन की याद में तोड़कर बर्बाद किये थे? उन पहाड़ी जंगली फूलों से तब उसने नितिन का नाम भूमि पर लिखा था- हिन्दी भाषा और अंग्रेजी भाषा में भी- कितने मन से- 'नितिन'- 'Nitin'.
नितिन ने भी तब उन फूलों को बहुत प्यार के साथ, सदा के लिए, अपने दामन में समेट लिया था. अपनी रोमिका के प्यार की पूजा के लिए? और वह तब से अपनी सारी उम्र उन फूलों को पूजता रहा होगा? नितिन ने उसके पीछे उसको कितना प्यार किया होगा? कितना अधिक चाहा था? किसकदर उसकी प्रतीक्षा की थी? उसके दरवाज़े पर, उसके पैरों की पायल पर पड़े हुए उसके फूलों के साथ, उसका बे-जान शरीर, स्वयं अपनी गवाही देने के लिए आ गया था.
रोमिका से जब अधिक नहीं देखा गया तो वह भीतर अपने कमरे में भाग गई और बिस्तर पर गिरते ही फूट-फूटकर रो पड़ी. कितना बड़ा अत्याचार किया था उसने नितिन पर? उसको कहीं भी जीने के लिए नहीं छोड़ा था? उसे भटकाकर रख दिया? इतना अधिक कि, भटकाते हुए उसे उजाड़ ही डाला? कितना अधिक दर्दनाक उसके जीवन का अंत हुआ था? नितिन ने उसको कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा होगा? जाने कहाँ-कहाँ उसको ढूंढते हुए मारा-मारा फिरता रहा होगा? और जब नहीं ढूंढ सका तो एक दिन थका-हारा उसके ही द्वार पर अपनी जान भी गंवा बैठा?
कितना सच्चा उसका प्यार था? कितना बड़ा? कितना बड़ा महान? कितना पवित्र? और कितना अधिक निस्वार्थ? उसने अपने प्यार की पूजा में अपना सब ही कुछ लुटा दिया था? अपना सब कुछ छोड़ दिया था- छोड़ दिया था, अपना घर, अपनी पत्नी, अपना परिवार. केवल उसके ही लिए. उसी की खातिर; और एक वह इतनी अपने प्यार में कमजोर साबित हुई कि, नितिन के महान प्यार को पहचान भी नहीं सकी? उस पर विश्वास भी नहीं कर सकी? नितिन के प्यार की आराधना के समक्ष, उसका प्यार कितना अधिक छोटा साबित हुआ है कि, उसके प्यार की आरती के दिए, उसके सामने जलते होकर भी उसके लिए अंधकारमय बनकर ही रह गये? नितिन के निस्वार्थ प्यार के सामने उसकी चाहत कितनी अधिक नीचे चली गई है?
यदि देखा जाए तो वही अकेली नितिन की इस कठोर और दर्दनाक मौत की असली कातिल है? उसी ने उसको उजाड़ा है. वही एक प्रकार से पापिनी है. उसी ने नितिन की जान ली है. अब वह क्या करे? क्या कहे? वह नितिन को जानती है, पहचानती है, उससे उसका एक बहुत बड़ा रिश्ता कायम रहा है? प्यार का- वह उसका दिल का राजा था- उसका महबूब था; लेकिन वह अपने दिल के इस भेद को भी तो किसी से ज़ाहिर नहीं कर सकती है? अगर ज़ाहिर कर दिया तो सब ही उसके प्रति न जाने क्या-क्या सोचते फिरेंगे? रानी के दिल पर क्या असर होगा? वह क्या सोचेगी अपनी मां के लिए? उसका पुजारी- उसके प्यार का अथाह दीवाना- उसके दिल के देवता का बे-जान बदन उसके घर के द्वार पर, उसके ही कदमों में पड़ा हुआ था और वह अभागिन उस पर अपनी श्रृद्धा का एक फूल भी नहीं रख सकती थी? उसके मान-सम्मान में, एक फूल भी उसके मृत शरीर पर बर्बाद नहीं कर सकती थी? नितिन को शायद यह बात और रोमिका की मजबूरी पहले ही से मालुम होगी? इसी कारण वह अपने साथ फूल भी लेकर आया था? धरती का कफ़न तो उसके लिए पहले ही से तैयार हो चुका था. वह वही फूल अपने साथ लेकर आया था, जिन्हें एक दिन रोमिका ने कौसानी के पहाड़ों पर बैठकर नितिन की याद और उसकी प्रतीक्षा में तोड़े थे. उन जंगली फूलों से तब उसने उसका नाम लिखा था- और आज फिर एक बार उसी के वही फूल स्वयं उसके ही दरवाज़े पर पड़े हुए, उसके बेवफा प्यार की दुःख देनेवाली यादों को दोहरा रहे थे. कौन जानता था कि, रोमिका के उन बारिश में भीगे, पहाड़ी जंगली फूलों से कितना अधिक गहरा रिश्ता है? कितने पास से वह नितिन और उसके फूलों को वह पहचानती ही नहीं बल्कि जानती भी है?
वे फूल जो उस लावारिश लाश के हमसफर बनकर साथ आये थे, रोमिका के निजी जीवन से उनका कितना बड़ा महत्व था? फूल थे- रोमिका के हाथों से तोड़े हुए फूल- रोमिका के फूल- आज से सोलह वर्ष पुराने फूल- निराशा और घोर उदासियों के प्रतीक- भटके और बे-जान- उनकी एक-एक पंखुड़ियों में भी नितिन के निस्वार्थ और सच्चे प्यार की खुशबू बसी हुई थी. वह खुशबू आज भी अपनी ताज़ा महक के साथ, रोमिका से उसके प्यार का मानो तकाजा मांग रही थी?उन फूलों की छिपी हुई खुशबू आज फिर एक बार वही पुरानी कहानी को दोहरा रही थी. कौसानी के प्यारे-प्यारे पहाड़ों की कहानी- वहां के चिनारों की करुण कहानी- वहां के झरनों का शोर- उन झरनों में नितिन का प्यार था- उसकी भूली-बिसरी यादें शेष थीं- उसके खोये हुए अतीत का दुःख और रंज था- उन दिनों के वह सुनहले प्यार भरे पल थे, जो आज वक्त की जंजीरों में जकड़कर सदियों भर के ज़ख़्मी घाव बन गये थे. उन पर्वती फूलों में नितिन की असीम मुहब्बत थी. असीम चाहत थी और रोमिका का ठुकराया हुआ, उसके प्यार का नितिन के लिए एक कठोर तमाचा भी था. वह तमाचा कि जिसके कारण नितिन के जीवन की यह दुर्दशा हुई थी.
वह अपने कॉलेज विद्द्यार्थी से निकलकर, अपने प्यार के रास्तों पर भटक कर एक भिखारी बन गया था. रोमिका की खुबसूरती, उसकी नीली आँखों में डूबकर, उसके प्यार में अपनी सारी हस्ती तक गंवा बैठा था. अपना सब ही कुछ वह लुटा आया था. लुटा दिया था उसने अपना दिल, तोड़ डाला था अपना जिगर, अपना मन- अपनी समस्त हसरतें और अपनी जान तक वह रोमिका के प्यार की धूल में मिटा चुका था.
रोमिका ने खूब देर तक रोने के बाद, सोचा- बहुत सोचा- उसके फिर दिल में आया कि, वह यहीं सिर पटक दे? पटक-पटक कर फोड़ डाले- यह सब कुछ देखने से पहले वह पिछली रात के जानलेवा तूफ़ान में मर क्यों नहीं गई? उसकी जान क्यों नहीं निकल गई? परन्तु वह अब कर भी क्या सकती थी? कल और आज में सदा से ही बहुत बड़ा अंतर बना रहा है. कल उसके सपनों में, उसकी प्रतीक्षा में जागने-सोनेवाला, आज सदा के लिए उसके पैरों में सो चुका था. आज रोमिका को जीवन में पहली बार महसूस हुआ था- सच्चे प्यार का राज़, प्यार का अंजाम और अपनी एक छोटी-सी भूल के कारण वह किसी के बर्बाद जीवन का कारण बन गई थी?
नांगलोई पुलिस की जीप नितिन की लाश को उठाकर ले भी गई और रोमिका उसकी झलक तक नहीं देख पाई. फिर दूसरे दिन ही अखबार में खबर के रूप में, उसकी सुर्ख़ियों में ही प्रकाशित हो गया कि,
'नांगलोई.
श्री अमलतास के घर के द्वार पर एक अनजान और लावारिश भिखारी की लाश पाई गई. जो शायद पिछली रात के भयंकर तूफ़ान में मर चुका था. मरने के बाद उसके पास केवल कुछ पहाड़ी जंगली फूलों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया गया.'
रोमिका ने पढ़ा तो सिसक उठी. उसकी आँखों में आंसू भर आये. आँखें भी बुरी तरह से छलक गईं. परन्तु यह उसकी कैसी बिडंवना थी कि, वह खुलकर रो भी तो नहीं सकती थी. उसके जीवन में कितना बड़ा तूफ़ान आ चुका था? उन फूलों के साथ ही- उसके प्यार का अतीत भी वापस आ गया था. वे फूल जो किसी दिन उसने दिल की अथाह गहराइयों से नितिन के प्यार के इंतज़ार में तोड़कर फेंक दिए थे, आज उसकी गोद का उपहार बनते-बनते उसकी सारी ज़िन्दगी भर के कांटे बन गये थे. फूल? रोमिका के फूल- फूलों का रहा-बचा अस्तित्व- उसके फूल या रोमिका के फूल जो नितिन की अर्थी पर रखने के लिए खुद ही उसके साथ आये थे.
समाप्त



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© Sharovan
U.S.A.
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