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अनोखी दुल्हन

               अनोखी दुल्हन


"कहते हैं धरती पर पहला जीव, अजैव पदार्थों की रासायनिक क्रिया से पैदा हुआ। फिर चरण-बद्ध तरीके से एककोशिक से बहुकोशिक और सरल से जटिल सरंचनाओं की ओर जीवन क्रम बढ़ता गया। 

असंख्य प्राणी इस धरती पर प्रकट हुए। आए गए। इन्हीं में बुद्धि का धनी, सामाजिक प्राणी मानव भी अवतरित हुआ। जी हाँ मानव, जिसने प्रकृति का दोहन या कहिए कि शोषण अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू किया…."

पर्यावरण सुरक्षा पर आयोजित कार्यशाला में रेखा बोले जा रही थी। सबका ध्यान उस पर टिका हुआ था। इसका कारण रेखा की भाषण शैली ही नहीं अपितु उसका दैहिक सौंदर्य भी था। सैंकड़ों महिला प्रतिभागियों में वह सबसे कम उम्र की और सुंदर जो प्रतीत होती थी। हर टेढ़ी नजर से बेपरवाह  वह अपनी बात को पुरजोर तरीके से रख पायी। कदाचित उसके शब्दों ने  श्रोताओं को प्रभावित किया ही, इसीलिए उसके भाषण की समाप्ति पर तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूँज उठा।

सत्र के समाप्त होने पर  सारिका ने उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहा, "यार, तूने तो कमाल कर दिया  इस सत्र में सबसे प्रभावी प्रस्तुति तेरी रही। यह मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि तेरे विचारों ने कई लोगों को प्रेरित और प्रभावित किया है।"

"दावे के साथ, वाकई! और ज़नाब के दावे का आधार क्या है?"

रेखा ने सारिका को छेड़ते हुए पूछा।

"देखा नहीं सबकी नज़र तुझ पर अटकी हुई थी?"

"मैडम, नजरों से नहीं कानों से सुना जाता है। अगर कोई किसी की तऱफ देख रहा है तो जरूरी नहीं कि वह उसे सुन भी रहा हो। देख तो कोई बहरा भी लेता है।"

सारिका ने उखड़ते हुए कहा, " प्रस्तुतीकरण के बाद की ज़ोरदार तालियों के बारे में क्या कहोगी?"

" सुनते-सुनते बोर हो रहे लोग भाषण खत्म होने पर खुश हो गए होंगे कि जान छूटी। इसीलिए तालियाँ पीट दी।"

"तू हर बात को ऐसे क्यों घुमा देती है?"

"अरे भई, छोड़ भी अब, देख चाय तैयार है, चल पीने चलते हैं।"

रेखा ने बात को इतनी खूबसूरती से काटा कि सारिका को उसके आगे हथियार डालने ही पड़े और वह मुस्कराते हुए उसके साथ चाय के स्टॉल की ओर बढ़ गयी।

सुशील और बलकार भी उसी कार्यशाला में आए हुए थे। बलकार दिलफेंक किस्म का शख़्स था और सुशील जरा-सा गम्भीर प्रतीत होता था। बलकार की नज़रें आदतन भ्रमण पर थीं और सुशील की नजरें बलकार की दौड़ती नज़रों का पीछा करने की कोशिश कर रहीं थीं। अचानक बलकार की नजरें एक स्थान पर जम गईं और सुशील के मस्तक पर प्रश्नवाचक चिह्न खिंच गया। उसने देखा कि बलकार अब टकटकी लगाए एक ही ओर देख रहा था और साथ ही कुछ बुदबुदा भी रहा था। 

"क्या बड़बड़ा रहा है जो कहना है स्पष्ट कह दे।"

सुशील ने उसे टोक ही दिया।

"हाँ.., बड़बड़ा नहीं, गुनगना रहा हूँ ज़नाब।"

"अच्छा, साहब क्या गुनगुना रहे हैं?"

"अरे यार, फूल को देखकर भँवरा मंडराने भी लगता है और गाने भी लगता है। अब हम मंडरा तो नहीं रहे, बस गुनगुना ही लेते हैं।"

 यह कहते हुए बलकार ने एक शेर पढ़ना शुरू किया,

"वो बाजू से मेरे करते सितम निकले,

अब न जुदाई का गम निकले, न दम निकले।"


"अरे मेरे शायर दोस्त, यहाँ भी शुरू हो गए। तू जानता है यहाँ जितने भी प्रतिभागी आएँ हैं, लगभग सब शादीशुदा हैं। कोई तेरी तरह सार्वकालिक  प्रेमी या प्रेमिका बन कर घूमने वाला नहीं है।"


"बस यही पाखंड हमसे नहीं होता। यार, मैं जैसा हूँ, वैसा ही दिखते रहना चाहता हूँ। मेरे मन में जो है, वही मेरे आचरण में है। कोई बनावट नहीं।"


" कहना क्या चाहता है? यहाँ सब पाखण्डी हैं!"


 "देख, यहाँ ज़्यादातर पुरुष अधेड़ हैं और बाल-बच्चेदार भी, जिनमें ऐसे ही पांखण्डी नज़र आ रहे हैं। जिनकी नज़रें एक ही कमसीन देह का भेदन कर रही हैं। इन नजरों से टपकती वासना को क्या तू देख नहीं पा रहा है ?"


बलकार के इस कथन ने सुशील को चुप करा दिया।


आकर्षण सौंदर्य का दास ही तो होता है। भौतिक सुंदरता की ओर हर जीव  खिंचा चलता है। यहाँ तक कि यह आकर्षण कभी-कभी घटपर्णी की तरह जान लेने वाला भी हो जाता है। दैहिक सौंदर्य भी आकर्षण को कसे हुए ही है। रेखा तो सौंदर्य की देवी प्रतीत होती थी। इसलिए किसी भी सामान्य पुरुष का उसके प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। 

बलकार और सुशील की बातों का केंद्र भी रेखा का भौतिक सौंदर्य और सामान्य पुरुष का यह स्वभाव ही था। 


बलकार की आयु बत्तीस वर्ष हो गयी थी। वह राजकीय विद्यालय में विज्ञान शिक्षक के पद पर कार्यरत था। विवाह करने में उसकी रुचि अभी तक बन नहीं पायी थी। दो भाइयों व दो बहनों में वह सबसे छोटा था। बाकी तीनों अपने-अपने घर बसा चुके थे। सबका लाडला होने के कारण किसी ने भी विवाह के लिए उस पर अतिरिक्त दबाव नहीं बनाया, वह भी अपनी जिंदगी में खुश व मस्त था। 


दो दिवसीय कार्यशाला का अंतिम सत्र खत्म हुआ। जिसके बाद भोजन करके सबको अपने-अपने कार्यक्षेत्र के लिए निकलना था। जब तक भोजन तैयार होता तब तक सब ने अपना-अपना सामान समेट लिया। सब के बैग लगभग तैयार थे। इसी बीच भोजन के लिए सीटी बजी। सब खाने के लिए स्टॉल्स के पास पंक्तिबद्ध हो गए। संयोग से रेखा और बलकार  एक ही मेज  पर बैठ कर भोजन करने लगे। रेखा का अक्सर यह प्रयास रहा करता कि वह किसी भी पुरुष से आँखें न मिलाए। ऐसा ही वह अब कर रही थी, चुपचाप भोजन। बलकार ने भोजन करते हुए उसकी ओर देखा लेकिन उसकी मुद्रा में कोई भाव परिवर्तन न हुआ। इससे बलकार भी असहज-सा महसूस करने लगा। वह किसी लड़की से कभी बात करते हुए या बात की शुरुआत करने में नहीं झिझका था। लेकिन आज उसके होठ सिल गए। उसे लगा कि शब्द उसके दिमाग में कौंध तो रहे थे लेकिन वे बोल नहीं बन पा रहे थे।

तभी सारिका भी खाने से भरी प्लेट लिए रेखा के साथ वाली खाली कुर्सी पर आ बैठी। रोटी के टुकड़े में सब्जी लपेटकर मुँह की तरफ़ बढ़ाते हुए उसकी नज़र बलकार पर पड़ी। उसकी हालत को भाँपते हुए उसने उसकी ओर नजरों के इशारे से प्रश्न किया। बलकार अब कुछ सहज तो हुआ, लेकिन बोला कुछ नहीं। तीनों धीरे-धीरे बिना कुछ बोले खाना खाते रहे।

कुछ देर बाद वह बोला, "आपने भाषण की अच्छी तैयारी की थी। आपका विषय रखने का तरीका भी प्रभावी था।"


रेखा ने बिना उसकी तरफ देखे गर्दन हिलाते हुए रूखा-सा अभिवादन पेश किया। सारिका ने मौक़ा लपकते हुए कहा, "जी सर, यही बात तो मैं इसे तब से ही कहे जा रही हूँ, पर मैडम मानें तभी न।"

रेखा अब सारिका की ओर घूर रही थी, जबकि बलकार मुस्कुरा रहा था। वह फिर बोला, "ऐसे भाषण केवल मनोरंजन के लिए नहीं सुने जाते। कही गयी तथ्यगत बातों को व्यवहार में लाना जरूरी है।"

"यही तो मैं चाहती हूँ सर, तभी इन कार्यशालाओं का लक्ष्य सिद्ध होगा।"

रेखा ने भी समर्थन किया। अब वे आपस में सहज महसूस कर रहे थे। तीनों में भोजन के साथ-साथ बातें भी होती रहीं। चेहरों के बदलते भावों से लग रहा था विषय गम्भीर रहा होगा। भोजन समाप्त करने पर सब एक-दूसरे से रुख्सत होकर चले। चलते हुए सारिका बलकार से बतियाते हुए ठिठक गई। रेखा काफी आगे निकल गयी थी। उसे आभास हुआ तो उसने पीछे मुड़कर देखा और आवाज़ लगाई, "ओ मैडम, अब दोनों में क्या खिचड़ी पकाई जा रही है। चलना नहीं है क्या?"

सारिका बलकार की तरफ थम्स अप करते हुए लंबे डग भरती हुई आगे बढ़ गयी।

रास्ते में सुशील ने बलकार को छेड़ा, "क्यों आवारा भँवरे, पहुँच ही गया था फूल तक।"

"तू भी यार, हर शीशी में शराब देखता है।",  बलकार ने झल्लाते हुए मज़ाक किया।

"तो और क्या होता है बे? और तूने कब से अलग शीशी देखनी शुरू कर दी!"


"भाई मेरे, किसी शीशी में दारू हो सकती है तो किसी में दवा और हाँ, किसी में ज़हर भी।"


"इस शीशी के बारे में क्या खयाल हैं ज़नाब के?", सुशील ने टकाटक की शीशी हिलाते हुए पूछा। लेकिन बलकार उसके इशारे को समझ रहा था। 


"वक्त आने पर सब पता चल जाता है।",  कह कर बलकार मुस्कराने लगा तो सुशील भी हँस दिया।


बलकार का तबादला करनाल से पंचकूला के मोरनी हिल्स क्षेत्र के गाँव बलहरी ठाकुरान  के मिडल स्कूल में हुआ। उसका बड़ा मन था पंचकूला में नौकरी करने का। क्योंकि यह हरियाणा का चंडीगढ़ के सबसे नजदीक का शहर है। उसके फूफा चंडीगढ़ प्रशासन में कर्मचारी थे। उसने स्कूली शिक्षा भी चंडीगढ़ से अपनी बुआ के घर रहकर पूरी की थी। यहाँ उसके कई पुराने दोस्त भी थे। लेकिन सब कुछ मन मुताबिक तो नहीं हो पाता। हालाँकि पंचकूला जिला का मुख्यालय चंडीगढ़ के पास था लेकिन बलहरी ठाकुरान का रास्ता इतना सुगम नहीं था। पहाड़ी इलाके में यह एक दूरस्थ गाँव था। जिला मुख्यालय से पचपन किलोमीटर दूर। बलकार जिस कल्पना के साथ यहाँ आया था, उसे उससे बहुत  विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।


शहर की बजाय उसने गाँव में ही किसी के घर पेइंग गेस्ट के रूप में रहने की सोची। लेकिन बात नहीं बनी। एक मकान में एक कमरे का सेट किराए पर लिया। वक्त सबसे बड़ा उस्ताद है। अब तक जिसे एक प्याज काटने तक की जरूरत न पड़ी थी अब उसे खाना स्वयं बनाना था और अपना धोभी भी स्वयं ही बनना था। चौका-बर्तन सब कार्य खुद करने थे। 

विद्यालय की हालत भी चलताऊ ही थी। छवीं कक्षा से आठवीं कक्षा तक कुल तीस बच्चे विद्यालय में अध्ययनरत थे। जहाँ हैडमास्टर के अलावा अन्य कोई शिक्षक नहीं था। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी व एक मिड डे मील वर्कर। हैडमास्टर अधिकतर सरकारी डाक पूरी करने में लगा रहता था। शिक्षा राम भरोसे थी। कोई समय-सारणी भी नहीं बनी थी। दिन भर में चार बार घण्टी बजती थी: सुबह विद्यालय लगने के समय, मध्यांतर होने और बंद होने के लिए व छुट्टी के समय।

बलकार ने यह सब देखा तो उसने समय-सारणी सुधार करने के लिए हैडमास्टर से बात करने की कोशिश की।

उसकी मंशा को भांप कर हैडमास्टर बोला, "आप क्या समझते हो मुझे नहीं दिखता कि बच्चे नुकसान झेल रहे हैं! लेकिन क्या कीजियेगा जब व्यवस्था ही ऐसी है। आस-पास के अध्यापक शहर के नजदीक स्टेशन लेकर शहर जाकर बस गए। कोई अनजान ही यहाँ आकर फँसता है। उसकी आस्था नहीं बन पाती। यह मेरा तो गाँव है और मुझे शहर में जाकर रहने की कोई इच्छा नहीं। मेरे बच्चे बाहर पढ़ रहे हैं।  शुरू-शुरू में मैं भी आपकी ही तरह जोशीला हुआ करता था।  पर अब….. अकेला चना क्या भाड़ फोड़े?"


बलकार को हैडमास्टर की तड़प उसकी आँखों में दिख रही थी। 


हैडमास्टर आगे बोला, "जब यहाँ हैडमास्टर और हर विषय का अध्यापक सब मैं ही हूँ तो किसके लिए समय-सारणी बनाऊँ।  बस थोड़ा-थोड़ा हिसाब लगाकर यथासमय सब कक्षाओं को विषयानुसार काम करवाने की कोशिश करता हूँ। कई बार कोशिश सफल हो जाती है। कई बार कोशिश करने का ही समय नहीं मिलता। गाँव वाले मेरी शर्म करते हैं या इज्जत जो ये बच्चे यहाँ पढ़ने आ रहे हैं। वर्ना इनको भी स्कूल से हटा लिया होता।"


"कुछ अभिभावक निजी विद्यालयों का खर्च वहन ही नहीं कर सकते।", बलकार ने बात जोड़ी।


"हाँ, ये बात भी है।"


फिर कुछ सोचकर हैडमास्टर ने समय-सारणी बनवा दी और उसे कक्षा अनुसार लिखवाने के लिए बलकार को देते हुए कहा, "फिर भी  अब हम दो जन हैं समय विभाजन कर ही कक्षाओं को पढ़ा लिया करेंगे। जब तक तुम यहाँ से अपने तबादले का जुगाड़ नहीं लगवाते तब तक तो बच्चे कम से कम कुछ सीख कर ही जाएंगे।"


हालाँकि बलकार इस स्टेशन से खुश नहीं था, फिर भी उसे हैडमास्टर की यह बात तीर की तरह चुभी। उसने इस बात पर कोई प्रतिक्रिया न दी और कक्षाओं को समय-सारणी लिखवाने चला गया।


बलकार मेहनती के साथ-साथ सूझ-बूझ वाला शिक्षक था। उसके शिक्षण के सकारात्मक प्रभाव विद्यार्थियों पर नजर आने लगे। इसी के साथ  बच्चों के अभिभावक व हैडमास्टर भी उससे प्रभावित हुए। 

एक दिन हैडमास्टर ने उसे पास बुलाकर कहा," बलकार जी, 

हम दोनों अधिकतम दो-दो विषय अच्छे से पढ़ा सकते हैं। आप तो चार विषय पढ़ाने की कोशिश करते हैं।"

"जी सर, जिस विद्यालय में स्टॉफ अधिक हो, क्या हम वहाँ से किसी भाषा शिक्षक को डेपुटेशन पर बुलाने के लिए अर्जी नहीं दे सकते?", बलकार ने जरा-सी हिम्मत करके पूछा। 

"सबके सब जुगाड़ी हैं। हम आज डीओ से डेप्युट करवाएंगे। वह सिफारिश लगवा कर निरस्त करवा लेगा। पिछले तीन साल से यही चल रहा है।"


"ओह्ह, ये बात है। एक उपाय और भी है सर।"


हैडमास्टर ने बलकार से आँखों ही आँखों में प्रश्न किया। जवाब में बलकार ने कहा, " गाँव में यदि कोई पढ़ा-लिखा लड़का, लड़की अथवा महिला हो तो स्कूल प्रबंधन समिति व पंचायत की सहायता से व्यवस्था की जा सकती है। जिसके मानदेय की व्यवस्था हम लोग व्यक्तिगत आंशिक आर्थिक सहयोग से कर सकते हैं। थोड़ा-बहुत पंचायत व प्रबंधन समिति सदस्यों  की तरफ से भी हो सकता है।"


हैडमास्टर यह बात पहले भी सोचता था, लेकिन एक से अधिक अध्यापकों की व्यवस्था करने में उसे अधिक आर्थिक बोझ महसूस होता, जिसके डर से उसने ऐसी बात ही नहीं चलाई। अब केवल एक अध्यापक की जरूरत थी और आर्थिक सहयोग करने वालों की संख्या अधिक होने की संभावना थी। इसलिए उसने बलकार की इस बात पर गौर फरमाते हुए प्रयास किए और एक अध्यापक की व्यवस्था हो गयी। इससे विद्यालय में शिक्षा का स्तर सुधरना लाज़िमी था। 

विद्यालय सँख्या की दृष्टि से छोटा जरूर था लेकिन इसका प्रांगण बहुत बड़ा था। बलकार ने खेलने के स्थान को छोड़कर बाकी क्षेत्र में बागवानी करने की ठान ली। विद्यालय में कोई माली नहीं था। इस कार्य की जिम्मेवारी बलकार ने अपने कंधों पर ले ली। हैडमास्टर उसके काम से प्रभावित था ही इसलिए उसने बलकार का पूरा सहयोग किया। बरसात का मौसम जाते-जाते विद्यालय की वाटिका रंग-बिरंगे फूलों से महकने लगी। इस दौरान जो सैंकड़ो पौधे व त्रिवेणी रोपी गईं थीं सब वयस्क होने की ओर वृद्धि कर रहे थे। अबकी बार जुलाई मास में विद्यार्थियों, अभिभावकों और पंचायत के सहयोग से अनेक पौधे गाँव के आस-पास खाली जगह पर लगाए गए। बलकार की प्रेरणा से जिनकी देख-रेख की जिम्मेवारी विद्यार्थियों ने ली। 

जाड़ों का मौसम आते-आते बलहरी ठाकुरान के सरकारी विद्यालय और गाँव की चर्चा पूरे क्षेत्र में होने लगी। 

रक्षाबंधन के दिन हर बार की तरह रेखा ने धागे रूपी राखियों व तिलक से थाली सजा रखी थी। वह एक-एक करके उन्हें राखियाँ बाँधकर तिलक किये जा रही थी। जब वह यह क्रिया करती तो उसकी माँ थाली को सँभाल लेती। 

हरियाणा के शिवालिक क्षेत्र के एक छोटे-से गाँव बंझोल के एक खेत के सभी छोटे-बड़े वृक्ष फिर रेखा के साथ रक्षाबंधन मना रहे थे। जिनकी रक्षा की जिम्मेवारी रेखा ने संभाली हुई थी। 


इन्हीं के बीच खेलती हुई रेखा बड़ी हुई। उसमें प्रकृति के प्रति प्रेम की भावना का विकास हुआ। जिसे उसने अपने जीवन की साधना बना लिया। पर्यावरण विज्ञान में एक स्कॉलर रेखा दुनिया भर में पर्यावरण आधारित सेमिनारों में भाग ले चुकी थी। अनेक जर्नल्स में उसके शोधपत्र प्रकाशित हो चुके थे। एक कुशल पर्यावरणविद एवं पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में उसने बहुत ख्याति प्राप्त कर ली थी। 

पर्यावरण सुरक्षा के लिए अनेक कार्यशालाओं में उसे बतौर प्रशिक्षक बुलाया जाता था। जिस जिम्मेवारी को वह बखूबी निभा भी रही थी। उसे अपने गाँव और प्रकृति से इतना लगाव रहा कि वह जहाज के पंछी की भांति इसे कभी न छोड़ पाई।


उसके पिता एक  प्राथमिक अध्यापक थे जो स्वयं प्रकृति प्रेमी थे। पर्यावरण पर उनकी लिखी बालकविताएं उनसे पढ़ने वाले हर बच्चे को कंठस्थ थी। रेखा में यह गुण पैतृक संस्कार की वजह से ही था। दुर्भाग्यवश वे रेखा की किशोरावस्था में ही चल बसे। रेखा उनकी इकलौती संतान थी। उसकी माँ और वह एक-दूसरे का सहारा थीं।


रेखा की माँ ने आज फिर उसे टोका, "बेटा, तू इतनी पढ़ लिख गयी है। ईश्वर का दिया सब है हमारे पास। अब तो तू तीस बरस की होने को आई । मान जा अब तो घर बसा ले। एक अच्छा रिश्ता आया है। लड़के ने फिजिक्स में एम एस सी की हुई है। किसी कॉलेज में एडहॉक पर पढ़ा रहा है। घर-परिवार भी अच्छा है।"


"और माँग भी होगी कुछ?", रेखा ने टोका।


"बेटा, मेरा जो कुछ है वह सब तेरा ही तो है। अब तुझे दूँ या तेरी ससुराल वालों को बात तो एक ही है। काम तो तेरे ही आना है।"


"मैं समझ गयी माँ। मुझे नहीं करनी शादी-वादी और आप इसके लिए मुझ पर दबाव नहीं बनाओगी बस।" 


रेखा ने हर बार की तरह अपनी माँ को चुप कराने की कोशिश की।


"यदि तुझे कोई भी लड़का पसंद हो तो बता, मैं वहाँ बात चला लूँगी।"

"माँ, आप बात को नए कोण से पेश कर रही हो।"


"यह क्या बात हुई!"


"ठीक है, मैं लड़के के घर बारात लेकर जाऊँगी और उसे ब्याह कर यहाँ लेकर आऊँगी। हाँ, उसे इस बात का भी पता न हो कि मैं आपकी इकलौती संतान हूँ। यदि ऐसा कोई है तो मैं शादी करने के लिए तैयार हूँ।",  रेखा ने प्रस्ताव रख दिया।


"बेटा, अपनी न को तो तूने जबर्दस्त कोण पर घुमाया है।", उसकी माँ ने जवाब दिया और चुप हो गयी।

फिर मन ही मन प्रार्थना करने लगी, " हे ईश्वर, इस छोरी को सद्बुद्धि दे!"


महीनों बाद सारिका रेखा से मिलने आई। रेखा बगीचे में हर्बल पौधों का निरीक्षण कर रही थी। उसकी माँ ने खिड़की से आवाज देकर उसे बुलाया। सारिका को देखते ही वह खिलखिलाती हुई बोली, "आज कैसे राह भूले मैडम?"

"तूने तो हमारे पास चक्कर लगा- लगाकर रास्ते ही जमींदोज कर दिए, है न!", सारिका ने भी मीठा तंज कसा।

वे दोनों बैठ कर बातें करती रही इसी बीच रेखा की माँ चाय और मैथी के पकौड़े ले आई। सारिका को ये पकौड़े विशेष पसंद थे। इसलिए जब इस मौसम में उसका आना होता तो यही स्नैक्स खाने को मिलते।

सारिका ने पूछा, "आजकल टीचर्स के लिए प्रशिक्षण कार्यशालाएँ नहीं लग रहीं? काफ़ी समय हो गया हमें भी ऐसी कार्यशाला में भागीदारी करे।"

"अपने राज्य में तो नहीं लगी। पर अन्य राज्यों में मेरा जाना हुआ। हिमाचल और राजस्थान में गयी थी।"

"अच्छा!"

यह कहकर सारिका कुछ सोचती हुई-सी चुप हो गयी।

"क्या सोचने लगी?", रेखा ने प्रश्न किया।

"यही कि कोई नमूना मिला या नहीं?"

सारिका ने छेड़ते हुए पूछा।

"यार, तू नहीं सुधरेगी। फिर वही बातें।"

"अरे, माफ़ कर बाबा। चलो हम नहीं करेंगे ऐसी कोई बात।"

दोनों में मस्ती में बातें होती रहीं। रेखा की माँ ने भी सारिका के घर-परिवार और नौकरी का हाल चाल लिया।

चलते हुए सारिका ने कहा, " अगले रविवार को पंचकूला आ एक खास प्रोजेक्ट पर बात करेंगे। कोई नए कार्यकर्ता भी शामिल होना चाहते हैं।"

"ऐसा क्या, फिर तो जरूर आएंगे।"


रविवार के दिन रेखा पंचकूला पहुंच गई। सारिका ने उसे फोन पर रेड कैस्टल रेस्टोरेंट में बुलाया। समयानुसार दोनों वहाँ पहुँच गईं। 

अभिवादन के बाद दोनों बैठीं। कुछ इधर-उधर की बातें हुईं। फिर रेखा ने बात शुरू की, "प्रोजेक्ट क्या है और नए कार्यकर्ता कौन हैं?"


"तुझे प्रोजेक्ट में रुचि है या कार्यकर्ता में?", सारिका ने छेड़ा।


"देख सारिका, तू हर बात को ऐसे मत घुमाया कर।"


"ठीक है बाबा, थोड़ा इंतज़ार कर। वे भी आते ही होंगे।"


"तुम्हारे पड़ोस का एक गाँव और उसका सरकारी स्कूल आजकल पूरी सुर्खियों में है।  तुझे मालूम भी है ?"


"हाँ, बलहरी ठाकुरान। थोड़े ही वक्त में वह विद्यालय चमक गया है। उमसें बेहद खूबसूरत वाटिका जिसमें छोटा-सा हर्बल पार्क भी है। सैंकड़ो नए पेड़ उभर रहें हैं। विद्यालय और ग्रामीणों ने मिलकर पेड़ों को बच्चों की तरह पालना शुरू कर दिया। मैं खुद एक-दो बार छुट्टी वाले दिन उस तरफ हो कर आई। वाकयी प्रशंसनीय और अनुकरणीय कार्य है।"


"तू प्रभावित हुई!"


"ऐसा होना स्वाभाविक है।"


"जानती है यह थोड़े ही दिनों में कैसे हो गया?"


"हूँ… सुना है कि कोई नया विज्ञान अध्यापक आया है। वह रह भी गाँव में ही रहा है। पर्यावरण प्रेमी है।"


"हाँ प्रेमी तो है।", सारिका ने भौहें मटकाते हुए फिर छेड़ा।


रेखा ने भौहें तानते हुए कहा, "मतलब!"


"ये ले, आ गया तेरा प्रेमी।"


रेखा उस पर तमतमाने लगी। तो वह बोली, "मतलब कि पर्यावरण प्रेमी…..अरे, वही पर्यावरण प्रेमी…. कार्यकर्ता।"


रेखा ने मुड़कर देखा और याद करते हुए बोली, " मुझे लगता है हम इनसे  पहले भी कहीं मिले हैं।"


"हो सकता है।"


रेखा फिर सोचने लगी। तब तक वह उनके नजदीक पहुंच चुका था। उसने अभिवादन किया, कुर्सी मेज से पीछे सरकाई और बैठ गया।

सारिका ने पूछा, " क्या लेंगे?"

रेखा के चेहरे से लग रहा था कि उसे इन बातों में अधिक रुचि नहीं थी।

सारिका ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा, "बोलो भी। ये आजकल बलहरी ठाकुरान में विज्ञान अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। इनके प्रयास को ही तुम प्रशंसनीय और अनुकरणीय कह रही थी।"


रेखा जैसे एक नींद से जागी हो। अब वह एक दम सतर्क होकर सारिका की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगी।

"याद करो, हम इनसे कहाँ और कब मिले थे?", सारिका ने रेखा से पूछा। वह मौन रहकर उनकी वार्ता को सुन रहा था।


रेखा  कंधे उचकाते हुए मुँह बिचकाकर फिर प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गयी।

इतनी देर में बैरा ऑर्डर लेने आ गया। सारिका ने संकेत से दोनों से उनकी कुछ मंगवाने की इच्छा जाननी चाही। उन्होंने भी इशारे से ही कह दिया, "कुछ भी।"

सारिका ने बैरे को कहा, "फिलहाल तीन कॉल्ड कॉफी।" 

बैरा चला गया।

रेखा की ओर देखते हुए सारिका बोली, "प्रोजेक्ट पर बात की जाए।"

"हाँ, क्यों नहीं।"

"प्रोजेक्ट क्या मेरे लिए तो एक मिशन कहिये मैडम।",सारिका थोड़ा गम्भीर होते हुए बोली।

"अरे, हम तुम्हारे मिशन को पूरा करने के लिए जी-जान लगा देंगे। बताओ तो मिशन क्या है?"

"तुम्हारी शादी।"

रेखा ने चौंकते हुए उसकी आँखों में देखा। 

सारिका ने बोलना जारी रखा:

"याद आया, इन ज़नाब से तुम पहले कहाँ मिली थी? डेढ़ साल पहले किसी कार्यशाला में भोजन करते हुए इनसे संक्षिप्त चर्चा हुई थी। तुम्हारे और इनके छत्तीस गुण मिलते हैं। तुम्हारी जन्म कुंडलियों वाले नहीं, कर्मकुण्डलियों वाले।"


रेखा ने असमंजस में कहा,

"मैं कुछ समझी नहीं।" 

"तुम्हारी तरह ही प्रकृति प्रेमी और पर्यावरण कार्यकर्ता।"

"ओह,   हाँ।"

"इसके साथ-साथ ये तुमसे प्रेम भी करते हैं।"


इस पर वह बोला, "रेखा, मैं आपके लिए ही यहाँ तबादला करवा कर आया हूँ। आपको अपने परिवार के साथ ही रहना है और दुल्हन नहीं दूल्हे की तरह शादी करनी है। मैं आपके लिए दुल्हन की तरह रहने के लिए तैयार हूँ। मेरे परिजनों को इससे कोई एतराज नहीं है और हाँ, वर पक्ष होने के नाते आपकी और कोई माँग भी है तो बता दीजिए।"

अकस्मात आए प्रस्ताव से रेखा असमंजस में थी। कुछ देर के लिए वह विवेक शून्य हो गयी।


सारिका ने कहा, "याद करो, चलते समय मैं इनसे बात करते हुए पीछे रह गयी थी और तुमने खिचड़ी पकाने की बात कहते हुए टोका था।"

"हाँ, याद आया।"

"तो मैडम, हम  तबसे अब तक यही खिचड़ी पकाने की ही कोशिश में लगे हुए हैं। ये महाशय उसी दिन से तुमसे दिल लगा बैठे। तुम्हारी माँ से भी इस विषय में बात हो चुकी है। वे भी खुश हैं। तुम्हें तो अनोखी दुल्हन मिल रही है, सर्वगुणसम्पन्न। अब तो खुश हो जाओ दूल्हे राजा।"

 

रेखा चुप थी और उसकी आँखें झर रहीं थीं। उसने बलकार के हाथों को अपने हाथों में कसते हुए काँपतें होठों से कहा, "मुझे अपनी होने वाली दुल्हन से बेहद प्रेम हो गया है। अब मैं भी इसके बिना नहीं जी सकती।"

 पंचकूला के एक लॉन में बलकार की शादी हो रही थी। उसका दोस्त सुशील भी  आया हुआ था। शादी में एक अनोखी बात हुई लड़की घोड़ी पर बैठकर बारात लेकर आई और विवाहोपरांत लड़के को साथ लेकर विदा हुई। विदाई के समय सुशील बलकार के पास आकर बोला, "शीशी में विलायक था जिसमें मेरा दोस्त विलेय बन कर घुल गया।"

बलकार मुस्कुराने लगा।


अगले दिन सुबह-सुबह बलकार, रेखा और रेखा की माँ विवाह में मिले उपहारों के साथ खेत में खड़े थे। उपहार में तरह-तरह के पौधे थे जिन्हें वे खाली जगहों पर रोपने लगे। उन्हें रोपने के बाद रेखा ने उँगली से इशारा करते हुए कहा, "ये सब मेरे भाई हैं।"


बलकार ने टोका, "और, मेरे भी।" 

पूर्व से सूरज का उजाला छितरने लगा था। पंछी पेड़ों पर चहचहा रहे थे।  

 


सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'

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