Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 28 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 28

भाग 26: जीवन सूत्र :28 एक निश्चयात्मक बुद्धि का करें अभ्यास

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2/41।।

इसका अर्थ है,हे कुरुनन्दन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां(संकल्प,दृष्टिकोण) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं, क्योंकि वे अस्थिर विचार वाले और विवेकहीन होते हैं।

वास्तव में मनुष्य का मन दिन भर में हजारों विचारों के आने - जाने का केंद्र होता है। कभी उसके मन में एक विचार आता है तो कभी दूसरा,और आगे ऐसे अनेक विचार आते रहते हैं।वह इन विचारों और तर्कों के खंडन - मंडन में ही अपना पूरा समय निकाल देता है। कभी उसे लगता है, यह विचार सही है तो कभी लगता है कि नहीं इससे बढ़िया यह होगा।वह अपने सामने किसी भावी स्थिति की कल्पना करता है और फिर उसके गुण और दोष का मूल्यांकन कर एक निर्णय लेने की कोशिश करते रहता है। रात को जब वह सोता है तब भी वह अपना सब कुछ,अपना चिंतन,अपनी कामनाएं अपने आराध्य को समर्पित कर चैन की नींद सोने के बदले तमाम तरह की कामनाओं, चिंताओं को नींद में भी जीता है। उसे नींद में भी विश्राम नहीं है।यही सब अनेक बार दु:स्वप्न बनकर उसे नींद से भी जगा देते हैं।

किसी भी तथ्य के अच्छे और बुरे का मूल्यांकन तो होना चाहिए। जीवन में कोई निर्णय गुण दोषों को देख कर ही लिया जाना चाहिए। वहीं इसका मतलब यह नहीं है कि काल्पनिक या भावी स्थितियों को लेकर हम पहले ही अत्यधिक गुणा भाग करते रहें और उसी में अपना दिन निकाल दें। रात में भी इसे लेकर चिंतित रहें। हम अपने कर्म को अलग मानकर जोड़-तोड़ करते बैठे रहते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि मनुष्य के कर्म भी आपस में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं। मानव समाज एक अदृश्य सामूहिक कर्म के सिद्धांत पर ही कार्य करता है। निश्चय ही आपके कर्म पथ पर अनायास आपकी सहायता के लिए अनेक लोग होंगे या ऐसे लोग मिलेंगे जिनका और आपका कर्म पथ साझा है। अतः निश्चिंत रहें कि आपको आपके कार्य में अभीष्ट सहायता कहीं न कहीं से अवश्य उपलब्ध होगी।अधिक से अधिक यह हो सकता है कि जिनसे आपने सहायता की अपेक्षा रखी है या जो आपकी योजना में शामिल हैं,वे ऐन वक्त पर आपकी मदद ना कर पाएं। तब आप ने भले ही प्लान बी बना कर रखा हो या ना रखा हो, लेकिन ऐसे समय में ईश्वर और उनके प्राकृतिक न्याय का प्लान बी काम कर जाता है और कोई न कोई व्यक्ति आपके सम्मुख आपकी सहायता के लिए उपस्थित हो ही जाता है।

ऐसी स्थिति में अधिक सोच-विचार का क्या? कर्म पथ पर आगे बढ़ते रहें। विवेक से निर्णय लें। निर्णय गलत हो जाए तो स्वयं को कोसें नहीं। जीवन में अवसर फिर लौट कर आते हैं।

वास्तव में हमारा मन समुद्री तूफान में हिचकोले खाने वाली किसी नौका की तरह होता है,उसे किसी एक लक्ष्य पर स्थिर रख पाना अत्यंत कठिन होता है। बड़े-बड़े साधु, तपस्वी और योगियों के लिए भी एक निश्चयात्मक बुद्धि प्राप्त करना कठिन होता है, फिर साधारण लोगों को तो पग-पग पर जीवन में उपस्थित होने वाले आजीविका, भविष्य आदि के प्रश्न सताते रहते हैं। मनुष्य के सामने भूख और रोटी का प्रश्न बहुत बड़ा है जिसके लिए उद्यम करने, उसे हाथ पैर चलाने ही होते हैं,इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि उसके मन का विचलन भी पग-पग पर हो।

जीवन की अनंत कामनाओं को कम करते हुए धीरे-धीरे एक परमात्मा की ओर मोड़ना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि यह कामनाएं अनंत आवश्यकताओं को हमारे जीवन के लिए अपरिहार्य बना देती हैं।मेरे जीवन में 'यह आवश्यक' और 'यह प्राप्त करना भी आवश्यक' के फेर में पड़कर हम न सिर्फ अपनी प्रतिभा, परिश्रम और अपने संसाधनों को बहुविभाजित कर देते हैं बल्कि हमारा मन भी अस्थिर और चलायमान रहता है।संतुलन,एकाग्रता तथा हमारे प्रयासों को एक दिशा में मोड़ने के लिए निश्चयात्मक बुद्धि का होना आवश्यक है,जो हमें विचलित होने और कई दिशाओं में भागने से बचाती है। अगर हम जीवन में अनावश्यक चीजों के त्याग का संकल्प कर लें तो हमें एक बार ही त्याग भावना मन में लानी होगी और अनेक कामनाओं से हमारे मन का नाता स्वतः ही टूट जाएगा।बहुत मुश्किल होने पर भी यह असंभव नहीं है।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय