Bandhan Prem ke - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

बंधन प्रेम के - भाग 7

बंधन प्रेम के भाग 7

शांभवी उठकर भीतर गई और फिर कॉफी बनाकर ले आई। मेजर विक्रम ने कहा,

"यह तुम्हारे हाथों में क्या है शांभवी?"

शांभवी ने कहा,"विक्रम जी, मेजर शौर्य भी तुम्हारी तरह डायरी लिखा करते थे। अब आगे की कहानी इसी डायरी के आधार पर होगी, क्योंकि मुझे भी उनके जाने के बाद का पूरा घटनाक्रम इसी डायरी से पता लगा।"

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चांद आकाश में धीरे-धीरे मुस्कुरा रहा था। डायरी के पन्ने पलटते हुए शांभवी ने मेजर शौर्य के अतीत को पढ़ना शुरू किया:-

............मैं मेजर शौर्य,अपनी मातृभूमि के इस जन्नत कहे जाने वाले हिस्से में तैनात हूं नवंबर का महीना है।ठिठुरा देने वाली ठंड में भी सैनिक मातृभूमि के प्रति अपने धर्म निभाते हैं ।अभी बर्फबारी शुरु नहीं हुई है।यह प्रायः दिसंबर अंत से शुरू होती है।बर्फबारी के मौसम में लहराती बलखाती नदी और इसके आसपास शंकु के आकार के देवदार तथा चीड़ के खूबसूरत पेड़ों से गिरते बर्फ़ के टुकड़े और आसपास गिरती बर्फ़ की चादर से इलाके की खूबसूरती और निखर उठती है।वैसे अभी पतझड़ का वातावरण भी सुरम्य है।उसकी तैनाती धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले राज्य में है।वह पश्चिम हिमालय के दो मुख्य पर्वत स्कंधों में से एक के आसपास के किसी इलाके में है।पास ही झेलम नदी इलाके में वह कस्बाई स्थान भी है ,जहां पड़ोसी राष्ट्र के घुसपैठियों ने दो साल पहले धोखा देकर एक बड़े कायराना हमले को अंजाम दिया था।

घुसपैठ रोकने के लिए पानी से भरे थोड़े दलदली इलाके में कँटीली तार लगाना तो असंभव है। ऐसे में सैनिकों को अग्रिम चौकी से निकलकर शिफ्टवाइज़ नियंत्रण रेखा तक आना पड़ता है।मेजर शौर्य सिंह भी अपनी राइफल लेकर नियंत्रण रेखा के बिल्कुल नज़दीक इस पार कहीं तैनात है।अभियान का नेतृत्व वे स्वयं करते हैं और सैनिकों को हमेशा उत्साहित करते रहते हैं। वे केवल अपनी सुविधा और अपने सामानों के ढोने के लिए एक-दो सैनिकों को अपने साथ नहीं रखते, बल्कि पूरी टुकड़ी बराबरी से अपना काम खुद करती है।यहां एक कमांडर तो है, लेकिन सारे बराबर के श्रम करने वाले हैं।

कहानी सुनाते- सुनाते शांभवी जैसे अपनी आंखों के सामने घटित हो रही घटना को ज्यों का त्यों बता रही हो........... मेजर शौर्य सिंह,उम्र लगभग छब्बीस बरस।चुस्त कसरती शरीर। कॉलेज के दिनों से ही उसे कसरत और जिम का जैसे जुनून था ।उसे मीलों तक लंबी दौड़ लगाने का अभ्यास था। उसने अपने शरीर को किशोरावस्था में ही एक सैनिक की आवश्यकता के अनुरूप ढाल लिया था । उसे लगता था कि वह शरीर को जितना फिट रखेगा, वह देश की सेवा उतने ही अच्छी तरह से कर सकेगा।

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अभी मेजर शौर्य सिंह जहां हैं, वहां गाड़ियों से आने का प्रश्न ही नहीं था।ये लोग घंटों पैदल चलकर यहां तक पहुंचे थे। जिस टुकड़ी को उन्होंने रिलीव किया था, उन्हें भी कैंप तक पहुंचने में घंटों ही लगे होंगे।अपनी राइफल को उन्हें हर समय लोडेड रखना पड़ता है ।रात को नाइट विजन दूरबीन बहुत काम काम आती है। दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने के बाद से आए दिन कॉम्बेट होते रहती है।मेजर ने एक बार फिर चहलकदमी शुरू की। काफी देर तक पैदल गश्त लगाने के बाद वे थोड़ा थक गए और एक पेड़ के नीचे बैठकर तने से टिककर सुस्ताने लगे।वह तब भी चौकन्ने थे।उनका एक हाथ राइफल पर था और सीधे हाथ से वे दूरबीन पकड़ कर दूर का नजारा देख रहा था। नियंत्रण रेखा के उस तरफ भी ऐसा ही भूगोल था और पेड़ों के कारण अधिक दूरी तक तो नहीं देखा जा सकता था लेकिन उन्होंने अपेक्षाकृत कुछ ऊंची जगह का चयन किया था ।वहां से उनकी दृष्टि दूर तक जा पाने के साथ-साथ,एक छोटे नाले पर भी बराबर बनी रह सकती थी ।

यह नाला गहरा था और इसमें पर्याप्त पानी बहता था।इस पर एक बहुत पुराना लकड़ी का पुल था जो जगह-जगह से जर्जर हो गया था। शायद 65 या 71 की लड़ाई में जब सैनिकों को यह इलाका पार कर शत्रु के इलाके में घुसना पड़ा था,तभी इस कामचलाऊ पुल को भी बनाया गया होगा।पुल की तख्तियों पर हल्की काई जमी दिखाई देती है।कहीं-कहीं बेलें भी उग आई हैं। ऐसा लगता है कि दशकों से किसी ने इस पुल पर पैर नहीं रखा है। यह कई जगहों से टूटा फूटा पुल है फिर भी साबुत है।लेकिन है इतना जर्जर कि किसी के द्वारा इसका प्रयोग करने का प्रश्न ही नहीं था। इस दुर्गम इलाके से विशेषकर इस पुल से होकर आज तक कभी घुसपैठ भी नहीं हुई होगी। फिर भी सावधानी के तौर पर यहां भी गश्त लगाई जाती है।

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……..शौर्य सिंह ने मुस्तैदी से एक बार फिर आसपास के एरिया में गश्त लगाया और अपने साथियों से बात की।उन्हें लगातार गश्त करते रहने के बारे में उन्होंने निर्देश भी दिए। अभी शाम ढलने में एक से डेढ़ घंटा है। वह 18 वर्ष पूर्व की यादों में डूब गया। सात साल के एक छोटे से बच्चे ने स्कूल से घर आकर अपना बैग रखते हुए मां से पूछा-

- माँ-माँ, पिताजी कब आएंगे?

-बेटा,उन्हें आना तो जल्दी चाहिए था पर अभी तक कोई खबर नहीं है।

-कोई बात नहीं माँ,आ जाएंगे। और ऐसा तो अक्सर होता रहता है।

- हाँ रे!तू बड़ी समझदारी की बातें करता है। वैसे तूने सच ही कहा है।ऑपरेशनल एरिया में वे कहां पर हैं और शत्रुओं से कैसे मुकाबला कर रहे हैं,इसकी जानकारी तो शायद यहां के सीओ साहब को भी कई बार नहीं होती है।

- पता है, पता है मां !आखिर बड़ा होकर मुझे भी तो फौज में जाना है।

- नहीं-नहीं, मैं तुम्हें फौज में नहीं जाने दूंगी, तुम्हारे पिता की तरह। एक तो उनके बाहर ड्यूटी पर रहने के समय मेरा दिल तब तक जोरों से धड़कते ही रहता है, जब तक वे घर ना आ जाएं और ऊपर से तू फौज में जाने की बात करता है।

- ठीक है मां जैसा तुम कहोगी मैं वैसा करूंगा।

-अच्छा अब तो हाथ मुंह धो ले।मैं तुम्हारे लिए खाना लगाती हूं ।

- हाँ मां!

शौर्य सिंह के पिता कैप्टन विजय फौज में हैं ।और तैनाती भी इसी सीमाई राज्य में है,जहां आए दिन उन्हें ऑपरेशनल एरिया में जाना पड़ता है । सीमा पर तनाव के कारण अक्सर उनकी छुट्टियां रद्द हो जाती हैं और कई बार तो वे कई-कई दिनों तक घर नहीं आ पाते हैं। विजय की पत्नी दीप्ति आर्मी एरिया के सुरक्षित क्वार्टर में अपने बेटे शौर्य सिंह के साथ रहती है। बड़ी रिहायशी कॉलोनी में होने के कारण रोजमर्रा के जीवन में कोई तकलीफ नहीं है।वह आर्मी जीवन के उतार-चढ़ाव की भी अभ्यस्त हो गई है।शौर्य आर्मी के स्कूल में पढ़ता है।खेलने के लिए बड़ा मैदान है। कई तरह की सुविधाएं हैं और फौजियों की पत्नियों के साथ खुद दीप्ति का दोपहर का समय अच्छे से कट जाता है।वह आर्मी विमेन वेलफेयर सोसाइटी से जुड़ी भी है इसलिए समाज सेवा के कामों में भी अपना वक्त देती है।

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शाम का वक्त है।दीप्ति पड़ोसी महिलाओं के साथ क्वार्टरों के आगे वाले खुले स्थान में बैठी हुई है। गपशप हो रही है।बच्चे मैदान में खेल रहे हैं ।आर्मी की एक-दो गाड़ियां कमांड ऑफिस की तरफ से आती-जाती दिखाई देती हैं। आर्मी के कुछ जवान मैदान के एक सिरे पर वॉलीबॉल खेलने में व्यस्त हैं। सब कुछ अपने ढर्रे पर है लेकिन दीप्ति का ध्यान सभी से बातों में मशगूल होने के साथ-साथ अपने पति की ओर भी लगा हुआ है।आज तीन दिन हो गए। विजय का न कोई फोन आया, ना आर्मी की ओर से कोई सूचना ही प्राप्त हुई।

जब विजय घर से निकलते हैं तो सामान्य सूचना अवश्य देते हैं कि कितने दिन लगने वाले हैं।इस बार उन्होंने संभावित समय तीन दिन ही बताया था,इसलिए वह सुबह से ही प्रतीक्षा कर रही है कि आज वह अवश्य लौट आएंगे क्योंकि आर्मी वालों का किसी भी ऑपरेशन को लेकर किया गया पूर्वानुमान प्रायः सही ही निकलता है।लेकिन इस बार इन तीन दिनों में उनका एक भी फोन नहीं आया। शाम ढलने लगी थी और सूर्य के प्रकाश को सांझ का स्याह आवरण अपने में समेट रहा था। आर्मी ग्राउंड के चारों ओर बने पेड़ों में पक्षियों का कलरव ठीक शाम के समय तेज हो जाता है लेकिन जब रात अपने पंख फैलाने लगती है तो पक्षी भी खामोश हो जाते हैं ।यह इस बात का संकेत होता है कि वे अपने-अपने नीड़ों तक पहुंच चुके हैं लेकिन दीप्ति का क्या? वह तो अपने घोंसले में अभी तक प्रतीक्षारत है।शौर्य सिंह खेल कूद कर घर लौटा और घर पहुंचकर 'पापा कब आएंगे' 'पापा कब आएंगे' की ही रट लगाए रहा। खाना खाकर वह मां की गोद में जल्दी ही सो गया।दीप्ति पुत्र शौर्य सिंह का सर अपनी गोद में रखे रखे ही ऊँघने लगी। रात को 11:00 बज चुके थे और तभी मोबाइल की घंटी घनघनाई।

-अरे दीप्ति,अब तक जाग रही हो।

-ओहो! कहां हो आप? आप ठीक तो हो ?घर तो नहीं पहुंचे आप।क्या बात है?एक फोन भी नहीं किया।

-सॉरी बाबा।वे आतंकवादी अभी तक चूहों की तरह अपने घर के बनाए बंकरों में घुसे हुए हैं और हमने उन्हें मजबूती से घेर रखा है। हो सकता है एक-दो दिनों में वे ट्रेस हो जाएं।

-अच्छा।

-और मुझे तो लगता है कि इनके घर भी भूमिगत सुरंगों की सहायता से इंटरकनेक्टेड हैं। इसलिए एक घर ढूँढ़ो,पक्की सूचना के बाद, तो भी वहां नहीं मिलते।

-ओह, पर अपना ध्यान रखना।

-और शौर्य कहाँ है?वह तो सो गया होगा।

-हां,आपको आज आना था और आपकी राह देखते-देखते वह सो ही गया।

यह सुनकर विजय का गला रुंध गया और बेटे से बात न कर पाने की मजबूरी उसकी भरभराई आवाज से साफ-साफ प्रकट हो रही थी। थल सेना के कैप्टन विजय ने फोन रख दिया। दूसरे दिन सुबह टीवी पर ही न्यूज में दीप्ति को सूचना मिली कि सुरक्षाबलों के घेरे में आखिर वे तीनों आतंकवादी हाथ आए और बड़ी मशक्कत के बाद मुठभेड़ में उन्हें मार गिराया गया। सुरक्षा बल के किसी भी जवान को कोई क्षति नहीं पहुंची। दीप्ति ने राहत की सांस ली।

इधर कहानी सुनते हुए नजर विक्रम ने भी राहत की सांस ली।

उन्होंने कहा - सचमुच ऐसी स्थिति हम सभी सैनिकों की होती है शांभवी, जब हम किसी विशेष ऑपरेशन में जाते हैं।"

शांभवी ने कहा -कहानी ज़रा लंबी है मेजर साहब !क्या सुनने को तैयार हैं आप?

विक्रम -जरूर शांभवी, ऐसी कहानी जो पहले मैंने कभी सुनी है,न आगे शायद कभी सुनने को मिलेगी......

(क्रमशः)