Bandhan Prem ke - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

बंधन प्रेम के - भाग 13

अध्याय 13

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अभी सूर्योदय होने में थोड़ा समय था.....पर.....रात लगभग बीत चुकी थी। रात में अंबर के एक कोने से दूसरे कोने तक खेलने कूदने और धमाचौकड़ी मचाने वाले तारे अब थक कर सो गए हैं और इक्का-दुक्का कोई तारा ही कहीं दिखाई देता है।इन तारों को जैसे सूर्य ने अपने उजाले के धुंधले प्रकाश की पतली चादर ओढ़ा दी हो और ये तारे सूर्य भवन में अब दिन भर आराम करने के बाद रात को पुनः अंबर में दिखेंगे और खिलखिला कर हंसने लगेंगे। जैसा प्रकृति का नियम है।रात्रि विश्राम के बाद लोग फिर एक नई सुबह का स्वागत कर रहे हैं और यह छोटा शहर जैसे रघुनाथ जी के मंदिर की घंटियों की आवाज से ही जागता है। प्रातः की सैर पर सड़कों में निकले लोग, दूध वाले, सफाई वाले,ठेलों में घूम-घूम कर सब्जियां बेचने वाले,अखबार के हॉकर, मंदिर के सामने फूल प्रसाद और पूजा सामग्री की दुकान लगाने वाले सब अपने अपने कार्यों में व्यस्त हैं।

शांभवी और मेजर विक्रम दोनों की आंखें उनींदी हैं। वे दोनों अपने-अपने आँसू पोंछ चुके हैं लेकिन अभी भी जड़वत बैठे हैं।भोर में चिड़ियों की चहचहाहट से जैसे उनकी तंद्रा टूटी ।भीतर से मम्मी बरामदे में आती हैं।

उन्हें बैठा देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हुए मम्मी ने कहा -अरे आप लोगों ने रात भर यहीं बैठ कर बिता दी। शांभवी तुमने विक्रम के आराम का ध्यान नहीं रखा?

विक्रम ने उन्हें गुड मॉर्निंग आंटी कहा और बस मुस्कुरा कर रह गए।

शांभवी ने बताया- मम्मी अब हम दोनों की नींद नहीं पड़ रही थी इसलिए हम दोनों रात भर यही बैठे-बैठे बातें करते रह गए, लेकिन मैंने मेजर साहब को समय-समय पर चाय और कॉफी पिलाई है।

मम्मी- लेकिन बेटी, वे कल से थके हुए हैं।उन्हें आराम करने दो।जाओ उन्हें उनके कमरे में ले जाओ।…. विक्रम बेटे तुम्हें किसी भी चीज की जरूरत होगी तो शांभवी से मांग लेना।

विक्रम- जी आंटी।

मम्मी पूजा के लिए फूल तोड़ने गार्डन में गई। मेजर विक्रम और शांभवी घर के भीतर गए।शांभवी उन्हें ड्राइंग रूम के साथ ही बने हुए गेस्ट रूम में ले गई।

शांभवी ने मेजर से पूछा- और कुछ चाहिए विक्रम जी?

मेजर विक्रम ने कहा- बस एक कप चाय….. सोने से पहले, अगर फिर एक बार मेरे साथ बैठ कर तुम भी पी लो।

शांभवी- अब आपको साथ चाहिए तो मैं अवश्य पियूंगी, ऐसा कह कर शांभवी किचन की ओर गई।मेजर विक्रम बिस्तर पर लेट गए।

शांभवी कुछ ही देर में चाय बना कर ले आई और उसके आने की आवाज से उनींदे मेजर विक्रम फिर चैतन्य हो गए।

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मेजर विक्रम दोपहर देर तक सोते रहे।उन्होंने अपने मम्मी और पापा को फोन कर बता दिया था कि मैं अब शाम तक ही घर लौटूँगा।शांभवी की मम्मी और पापा को पता लग ही गया था कि शांभवी और विक्रम ने आज बरामदे में बैठकर बातें करते हुए रात बिताई है।इसमें उन्हें असामान्य कुछ नहीं लगा और वे चाहते भी यही थे कि शांभवी का विवाह मेजर विक्रम से हो जाए।

शांभवी पर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था।शौर्य के जाने के बाद महीनों तक शांभवी विचलित रही।शौर्य की मम्मी दीप्ति को शांभवी के घर में रहने से बहुत सहारा मिला था। शौर्य के पार्थिव शरीर के गांव पहुंचने से पहले ही शांभवी और उसके माता-पिता दीप्ति के घर पहुंच गए थे।पूरा वातावरण गमगीन था। हजारों नम आंखों ने शौर्य को अंतिम विदाई दी थी।इसमें बिना किसी धर्म के भेदभाव के सभी लोग शामिल हुए और सभी अपने गांव के लाडले सपूत और भारत माता के वीर बेटे को अंतिम विदाई देना चाहते थे। जिला मुख्यालय में आयोजित श्रद्धांजलि कार्यक्रम में रक्षा मंत्री, चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, थल सेनाध्यक्ष, केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासनिक प्रमुख लेफ्टिनेंट गवर्नर भी शामिल हुए।सभी राजनैतिक दलों के स्थानीय प्रतिनिधि भी इसमें शामिल थे। सेना और सरकार ने दिवंगत मेजर शौर्य के नाम की सिफारिश शांति काल में बहादुरी के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च वीरता सम्मान के लिए की।

शोक में डूबी दीप्ति को शांभवी ने ही संभाला था।दीप्ति के आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं लेते थे।शांभवी को देखकर उन्हें कुछ ढांढस बंधता था लेकिन शौर्य के प्रति शांभवी का अतिशय प्रेम जानकर उन्हें दुख होता था। शांभवी के जीवन में शौर्य के प्रेम की प्रतिपूर्ति असंभव थी।

एक सप्ताह बाद मम्मी और पापा शांभवी को दीप्ति के पास छोड़कर शहर लौट आए थे। इस बीच दीप्ति ने शांभवी को बहुत समझाने की कोशिश की, कि वह अपने घर लौट जाए और सामान्य जीवन शुरू करे लेकिन शांभवी उसे छोड़कर जाने को तैयार नहीं थी। एक दिन सेना मुख्यालय की ओर से उन्हें दिल्ली आने का आमंत्रण मिला क्योंकि मेजर शौर्य को शांति काल में वीरता के लिए देश के सर्वोच्च बहादुरी के सम्मान के लिए चयनित किया गया था। इस वजह से दीप्ति भी गांव से बाहर निकलने को तैयार हुई और शांभवी के साथ वह शांभवी के शहर पहुँची जहां से वे लोग राजधानी गए और गणतंत्र दिवस के अवसर पर देश के राष्ट्रपति के करकमलों से उन्हें यह सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ। दीप्ति की आंखें नम थीं।

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राष्ट्रीय राजधानी से वापसी के समय शांभवी ने जिद करके दीप्ति को अपने घर में दो-तीन दिनों के लिए रोक लिया।शांभवी के माता-पिता भी बार-बार दीप्ति से यही कहते रहे कि यह आपका ही घर है और आप गांव जाकर क्या करेंगी?आप यहीं रहिए,लेकिन दीप्ति अपने पति और पुत्र की यादों को हृदय में संजोए हुए थी। वह अपने गांव को नहीं छोड़ना चाहती थी। विदाई का यह क्षण बहुत भावुक था। कहने को तो शांभवी और दीप्ति में कोई रिश्ता नहीं था लेकिन जाते-जाते शांभवी ने दीप्ति से एक वचन लिया।
शांभवी ने पूछा-

- मम्मी, शौर्य आपके बेटे हैं ना?

- हां शांभवी।

- अगर शौर्य जी से मेरी शादी हो जाती तो मैं आपकी क्या होती?

-बहू शांभवी।- ऐसा कहते-कहते दीप्ति की आंखें भर आईं।

- और बहू को आप अपने घर में किस तरह रखतीं?

-बेटी की तरह।- दीप्ति ने थोड़ा मुस्कुरा कर कहा।

- जब आपके बेटे ने मुझे आपकी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था तो मैं आपकी बेटी ही तो हुई ना?

ऐसा कहते हुए शांभवी दीप्ति से लिपट गई। भर्राए गले से दीप्ति ने कहा- हां शांभवी, तुम मेरी बेटी ही हो। मुझे आज महसूस हो रहा है कि बेटा चला गया तो बदले में भगवान ने मुझे बेटी दी है।

शांभवी के पापा ने आगे बढ़ते हुए कहा-बहन, आज से शांभवी तुम्हारी बेटी ही है और इस पर पहला अधिकार तुम्हारा ही है हमारा नहीं।
शांभवी की मम्मी ने भी कहा- हां हम वचनबद्ध हैं दीप्ति बहन। समझो शांभवी का एक घर गांव का तुम्हारा घर हुआ और दूसरा शहर का यह घर हुआ। अभी तो यह समझो कि शांभवी पढ़ाई लिखाई के लिए हमारे साथ शहर में है लेकिन वह तुमसे मिलने बीच-बीच में जाया करेगी और तुम्हारी अनुमति से ही यहां आया करेगी।

दीप्ति ने इतने प्रेम की कल्पना नहीं की थी। वह फूट-फूट कर रोने लगी।

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मेजर विक्रम शाम को अपने घर के लिए रवाना होने वाले थे।स्नान के बाद उन्होंने रघुनाथ जी के मंदिर के बारे में शांभवी से पूछा।वे वहाँ दर्शन के लिए जाना चाहते थे। विक्रम ने मम्मी-पापा से भी कहा कि हम सब साथ चलते हैं, किंतु उन्होंने कहा हम घर में ही हैं। आप और शांभवी मंदिर से होकर आ जाओ।

मंदिर घर से लगभग एक किलोमीटर के फासले पर है।मेजर विक्रम ने बाइक के बदले पैदल ही जाने का निश्चय किया शांभवी और वे शहर की सड़कों पर पैदल चलते हुए मंदिर की ओर आगे बढ़े।शांभवी के हाथ में पूजा की सामग्री और फूलों से भरा हुआ बास्केट था।मेजर विक्रम ने पूजा के लिए एक हाथ में जल का पात्र रखा हुआ था। बहुत देर तक वे दोनों मौन चलते रहे।
फिर शांभवी ने ही बात शुरू की:-

-मुझे अफसोस है विक्रम जी, मेरे कारण आपको इतना कष्ट पहुंचा।

- ऐसा क्यों कहती हो शांभवी? यह सब सुनकर मेरा मन तुम्हारे प्रति श्रद्धा से और भर उठा है। वहीं मेजर शौर्य ने मेरे दिलो-दिमाग में एक विशेष जगह बना ली है। मैंने मुंबई बटालियन की पोस्टिंग में रहते हुए एक बड़ी घुसपैठ के विफल होने के बारे में सुना था लेकिन बहुत ज्यादा डिटेल मुझे नहीं पता था शांभवी।
….. और ठीक-ठीक अब मुझे वह दिन भी याद आ रहा है…. जिस दिन यह घटना हुई उस दिन हम आर्मी ऑफिसर्स की टीम मुंबई के भ्रमण पर थी और जब हमने यह समाचार सुना था तो हम लोग सिद्धिविनायक जी के मंदिर में थे।…….
मेजर विक्रम ने आगे कहा- यार शांभवी,मैं तुमसे कुछ नहीं मांग रहा हूं बस एक छोटा सा अनुरोध है …. मेरी दोस्ती के प्रस्ताव को स्वीकार कर लो……

शांभवी- वह तो हम लोग हैं ही विक्रम जी। आप बहादुर हैं। मैं आपका सम्मान करती हूं और हमें लगता है कि हमारे जीवन के लिए यह रिश्ता पर्याप्त है और फिर आपके सामने तो पूरी जिंदगी है विक्रम जी….. मेरे सामने तो मम्मी और पापा के अलावा शौर्य जी का परिवार भी है… मैं अब दीप्ति आंटी की बेटी जो बन गई हूं…..
बातें करते-करते रघुनाथ जी का मंदिर आ गया। दोनों मंदिर के मुख्य द्वार से लगभग 200 मीटर की दूरी पर थे। अचानक मेजर विक्रम ने मंदिर के आसपास एक असामान्य हलचल देखी।

(क्रमशः)

( कहानी के इस भाग को मनोयोग से पढ़ने के लिए मैं आपका आभारी हूँ। आखिर रघुनाथ जी के मंदिर के पास कौन सी असामान्य हलचल हो रही थी?शांभवी और मेजर विक्रम की इस कहानी में आगे क्या होता है, यह जानने के लिए पढ़िए इस कथा का अगला भाग आगामी अंक में। )

(यह एक काल्पनिक कहानी है किसी व्यक्ति,नाम,समुदाय,धर्म,निर्णय,नीति,घटना,स्थान,संस्था,आदि से अगर कोई समानता हो तो वह संयोग मात्र है।)

योगेंद्र