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सत्या

सत्या


उन दिनों मैं नेहरु प्लेस की एक कम्पनी में काम करता था | एक दिन सुबह ऑफिस पहुँच कर बैठा ही था कि फ़ोन की घंटी बज उठी |
दक्षिण भारतीय लहजे में किसी व्यक्ति की भारी आवाज आई - “ नमस्कार ! मैं सत्या बोल रहा हूँ | आप के जीजा जी ने उदयपुर से कुछ सामान आपके लिए भेजा है | क्या आप आज ही करोल बाग में मेरे ऑफिस से इसे ले सकते हैं ? कल मैं कई दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ |” उसने ऑफिस का पता बता दिया |
दोपहर बाद मैं उसके ऑफिस पहुँच गया | जानी-मानी सरकारी कम्पनी का बड़ा ऑफिस था | मैंने ‘रिसेप्शनिस्ट’ से ‘मि. सत्या’ से मिलवाने के लिए कहा | उनका नाम सुनकर उसने मुझे बडे आदरपूर्वक बैठने के लिए कहा और चाय के लिए पूछा | फिर मि. सत्या से फ़ोन पर बात करके मुझे बताया कि वे एक मीटिंग में हैं | दस मिनट प्रतीक्षा करनी होगी | मेरे लिए उसने चाय भिजवा दी | जब वो थोडा फुरसत में हुई तो मैंने मि. सत्या के बारे में साधारण जानकारी करने के लिए पूछा :
- “ सत्या साहब किस पद पर कार्य करते हैं ? ”
- “ सर, वे ‘आई.टी. मैनेजर’ हैं | बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति हैं | ऑफिस में सभी लोग उन्हें बेहद पसंद करते हैं |”
मेरा एक नियम है कि मैं किसी नए व्यक्ति से मिलने से पहले हमेशा उसके बारे में शुरुआती जानकारी लेने की कोशिश करता हूँ | विशेष रूप से, यह व्यक्ति यदि कोई उच्च अधिकारी है तो पहले उसके सेक्रेटरी या अन्य लोगों से हर संभव जानकारी जुटाता हूँ, जिसके आधार पर मैं अपनी ‘मीटिंग’ की रणनीति तय करता हूँ |

इस बीच सत्या केबिन से दो लोग बाहर निकले | ‘रिसेप्शनिस्ट’ ने इशारा करके मुझे अन्दर भेज दिया | वहाँ पहुँच कर मैंने अपना नाम बताया तो सत्या कुर्सी से उठ कर आगे आया और तपाक से गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया | मुझे बैठने के लिए कहा और फ़ोन पर किसी को दो कॉफ़ी का आर्डर देकर बोला :
– “ सर, मैं अपने काम के सिलसिले में उदयपुर जाता रहता हूँ | आपके जीजा जी मेरे क्लाइंट हैं और अब हम बहुत अच्छे दोस्त भी हैं | उन्होंने ये सामान आपके लिए दिया था ” - यह कहते हुए उसने दराज से पैकेट निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया | उस दिन व्यस्तता के कारण उससे थोड़ी सी ही बात हो पाई, परन्तु दुबारा जल्दी मिलने का वादा लेकर उसने मुझे विदा किया | ऑफिस के बाहर तक मुझे छोड़ने भी आया |

आधे घंटे की इस मुलाकात में उस ने मेरे दिल की बहुत सारी जगह पर चुपचाप कब्ज़ा कर लिया था | सत्या मध्यम कद में साँवले रंग का २३-२४ साल का लड़का था | देखने में बहुत मजबूत और चुस्त बदन का था | घने घुँघराले काले बाल उस पर अच्छे लग रहे थे | उस के चेहरे की बनावट के हिसाब से उसे बिलकुल सुन्दर नहीं कहा जा सकता था, परन्तु उसका आत्म-विश्वास और बेहद मिलनसार स्वभाव किसी को भी आकर्षित करने में सक्षम थे | मैंने जीजा जी को सामान मिलने की सूचना देने के लिए फ़ोन किया तो उन्होंने और मेरी बहन ने सत्या की बहुत तारीफ की |

कुछ दिनों के बाद सत्या ने घर पर फ़ोन करके मुझे पत्नी के साथ अगले रविवार को साथ में खाना खाने का निमंत्रण
दिया | वह अभी अविवाहित था और सातों दिन काम करता था | काम को धत्ती की तरह करने की अपनी आदत के बारे में उसने मुझे पहली मुलाकात में ही बता दिया था | उसने बताया कि वह एक सरकारी हॉस्टल में रहता था, जिसका पता उसने दे दिया |

हॉस्टल पहुँच कर हमने तीसरी मंजिल के लिए लिफ्ट ली | इस हॉस्टल में अविवाहित सरकारी कर्मचारी ही रहते थे | लिफ्ट ऑपरेटर से सत्या के कमरे के बारे पूछा तो उसने बताया कि ‘सत्या साहब’ तो उसके दोस्त हैं और उसका बहुत ख्याल रखते हैं |

सत्या के फ्लैट में एक छोटा 10 x10 का कमरा था, जिसके एक ओर टॉयलेट और एक छोटी सी किचन थे | बाहर एक नन्हीं सी बालकनी थी, जिसमें बस दो व्यक्ति कुर्सी डाल कर बैठ सकते थे | कमरे के बीचों-बीच एक भारी भरकम ‘पंच बैग’ लटका हुआ था | दीवार के साथ एक चटाई बिछी थी, जो रात में चादर-तकिया लगने के बाद सत्या का बिस्तर बन जाती थी | चटाई के एक ओर लोहे की दो सफ़ेद ‘फोल्डिंग’ कुर्सियाँ मेज के साथ रखी थीं | दो और कुर्सी बंद करके एक कोने में रखी हुई थीं | थोड़े से कपडे, ढेरों किताबें तथा कुछ अन्य सामान बेतरतीब ढंग से इधर-उधर रखा हुआ था | कमरे को देखकर साफ़ लगता था कि वो झाड़-पोंछ करने को लेकर थोड़ा बेपरवाह था | यूं तो मैं भी कम सामान में जीने वाला व्यक्ति हूँ, मगर सत्या के कम सामान और सादगी को देखकर तो मैं उसके लिए नतमस्तक हो गया था |

सत्या नें हमें बिठाया और अपने लिए कोने में खड़ी एक कुर्सी पर कई दिनों से जमीं हुई धुल झाड़कर मेज के पास रखता हुआ बोला –
“ मुझे अच्छी चाय बनानी नहीं आती, क्या आप लोग कॉफ़ी पीना पसंद करोगे ?” कॉफ़ी हमें भी पसंद है, मैंने तुरंत ‘हाँ’ कर दी | किचन में पहले से ही बिस्कुट, चिप्स, नमकीन और बेसन के लड्डू आदि खाने का सामान रखा हुआ था | वो कॉफ़ी बनाने के लिए उठा तो मैं भी उसके साथ किचन में चला गया |
कॉफ़ी पीते हुए मैंने अपनी उत्सुकता जाहिर कर ही दी :
- “ ये पंच बैग क्यों टंगा है ? क्या घूंसेबाजी करते हो ?”
- “ जी हाँ, मुझे पुराना घूंसेबाज़ी का शौक है | मैंने कॉलेज के दिनों में जूडो कराटे भी सीखा था और ‘ब्लैक बेल्ट होल्डर’ हूँ |”
उसके गठीले बदन और फुर्ती का राज़ समझ में आ गया था | सत्या वैसे तो तेलगु-भाषी था, मगर फर्राटेदार हिंदी बोलता था | दक्षिण भारत के रिवाज के अनुसार उसके नाम में खानदान, गाँव, जिले का पूरा चिटठा था, पर मैंने उस में से अपने लिए ‘सत्या’ चुन लिया था | उसे भी ये संबोधन आत्मीय लगा |

गपशप करते-करते उसने बताया कि वह दिल्ली यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में एम्. टेक. था | डिग्री पूरी होने से पहले ही कंप्यूटर बनाने वाली इस सरकारी कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गयी | बडे ग्राहकों के कंप्यूटर की मरम्मत और रख-रखाव करने के लिए उसे कई कई हफ़्तों तक एक ही शहर में रहना पड़ता था | इसी सिलसिले में वो एक महीना उदयपुर में था | मेरे जीजा जी कंप्यूटर साइंस में पी.एच.डी. थे और एक बड़ी सरकारी कंपनी में ‘कंप्यूटर डिपार्टमेंट’ के अध्यक्ष थे | वे बहुत कम बोलते थे | सिर्फ कुछ ही लोगों के साथ खुल कर बातचीत या हंसी-मजाक करते थे | सत्या अब तक उन थोड़े से लोगों में शामिल हो चुका था | जीजा जी कभी सत्या के मजेदार चुटकुलों पर हँसते-हँसते सोफे पर लोटपोट होते दिखते थे, तो कभी उसको किसी बात पर डाट पड़ रही होती थी | सत्या उम्र में उनसे 8-10 साल छोटा था | उस एक महीने में सत्या का उन पर ऐसा जादू हुआ कि जीजा जी सत्या के अच्छे दोस्त बन गए थे |

डिनर पर बाहर जाने से पहले हॉस्टल में ही कॉफ़ी के तीन दौर चले और बातूनी सत्या कई घंटे तक अपने और हमारे बारे में बात करता रहा | शाम होते होते नवम्बर की हल्की सर्दी होने लगी थी | हम तीनों पैदल चलकर ही नजदीक में ‘उड़पी रेस्टोरेंट’ पहुँच गए | वहाँ हॉल में घुसते ही लगा कि होटल के सब वेटर उसको जानते थे | एक वेटर ने लम्बा सेलूट मार कर उसे ‘गुड इवनिंग’ किया और हमें कोने की एक टेबल तक ले गया |‘मेनू’ में दो प्रकार की थाली थी: ‘लिमिटेड’ (6 रूपए) और ‘अनलिमिटेड’(8 रूपए) | मैंने और पत्नी ने दो ‘लिमिटेड’ और सत्या ने ‘अनलिमिटेड’ आर्डर किए | ‘अनलिमिटेड’ पर अपनी सफाई देते हुए सत्या ने खुद पर ही चुटकी ली – “ मैं चन्दगी राम की तरह इसलिए कसरत करता हूँ जिससे मथुरा के पंडों की तरह खा सकूँ |” वो वाकई पंडों की तरह ही खा रहा था | इतना सब के बाद स्वीट डिश के नाम पर भी वो चार गुलाब जामुन खा गया | नीचे आकार हम लोग वहीँ से विसर्जित हो गए |

सत्या मूल रूप से हैदराबाद का रहने वाला था | उसके पिता युवावस्था में नौकरी के लिए दिल्ली आ गए थे | हैदराबाद में उनका एक बहुत बड़ा पुश्तैनी घर था, लेकिन उन्होंने करोल बाग में भी एक बड़ा घर ले लिया था | करोल बाग में लम्बे समय से बड़ी संख्या में दक्षिण भारत के लोग रहते आए हैं | इस कारण करोल बाग को कुछ लोग दिल्ली की ‘मद्रासी कॉलोनी’ भी कहा करते थे | उन के लिए दक्षिण भारत का हर आदमी ‘मद्रासी’ होता था | आज के ‘चेन्नई’ का पुराना नाम ‘मद्रास’ था और उस समय राज्य का नाम भी ‘मद्रास’ होता था, जिसे बाद में बदल कर ‘तमिलनाडु’ कर दिया गया था |

सत्या सात भाइयों में बीच में था – तीन उससे बडे थे और तीन छोटे | सत्या के बाद एक बहन वृन्दा थी जिसे घर में सब लोग ‘विज्जू’ कहा करते थे | विज्जू अकेली लड़की होने की वजह से सबकी लाडली थी और सारे भाइयों पर पूरा रौब जमाती थी | माँ-बाप को भी नहीं बख्शती थी | घर में किसी की क्या मजाल कि विज्जू की बात न माने- पूरे घर में हंगामा कर देती थी | पढने में अच्छी थी और उसे दिल्ली के मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया | पढ़ाई के बाद दिल्ली में ही सरकारी अस्पताल में नौकरी मिल गयी | अब तो उसके बच्चे भी बडे होने लगे हैं, मगर उसका रौब डालने का स्वभाव आज भी वैसा का वैसा है |

सत्या के सबसे बडे भाई ने एम. कॉम. किया था और एक बैंक में मेनेजर थे | प्रतिभा के धनी थे, अच्छी तरक्की मिलती रही | उन में ‘बडे भाई’ के सारे गुण थे और वे परिवार का ध्यान रखते थे | संयोग से सत्या के दूसरे भाई पढ़ने में उतने अच्छे नहीं रहे | बडे भाई साहब ने अपने संपर्कों की सहायता से उन सब को बैंक में नौकरी दिला दी | उस ज़माने में बैंक मेनेजर से जान-पहचान होने से ही क्लर्क के पद पर भर्ती आसानी से हो जाया करती थी | सत्या सारे भाईयों से बिलकुल अलग सोच वाला था | पढाई पर तो वो जिन्न की तरह चिपट जाता था | दसवीं में स्कूल में टॉप किया और रिजल्ट वाले दिन ही घर में घोषणा कर दी – “ मुझे सिर्फ साइंस पढ़नी है | बैंक की बाबूगिरी से मझे सख्त चिढ़ है |” दिल्ली यूनिवर्सिटी के सबसे नामी कॉलेज ‘सेंट स्टीफेंस’ में जब ‘एम.एस.सी’ में उसके दाख़िले की खबर मिली तो पूरे घर में जश्न का माहौल हो गया | सेंट स्टीफेंस में घुसना आखिर कोई मज़ाक नहीं है | रिश्तेदारों, मित्रों ने भी खूब बधाई सन्देश भेजे |

कॉलेज में पहलवानी का शौक रखने वाले एक सहपाठी नकुल से सत्या की मित्रता हो गयी | दोनों ही पढ़ने में तेज थे और क्लास में टॉप करने को लेकर दोनों में स्पर्धा रहती थी | अंत में टॉप सत्या ने ही किया | नकुल के सान्निध्य से सत्या को कसरत करने का शौक पड़ गया, जो चलते चलते उसे कराटे की ‘ब्लैक बेल्ट’ तक ले गया |

सत्या को नौकरी करते हुए चार अब साल हो गए थे | इस दौरान उसने हस्त रेखा विज्ञान पढ़ना शुरू कर दिया था | अगर देसी भाषा में कहूँ तो उसने कीरो की किताब इसी तरह ‘घोट’ ली थी, जैसे कि वो कोर्स की किताबों के साथ किया करता था | एक बार जीजा जी ने बताया कि सत्या जब भी उदयपुर आता है तो शाम को ‘पार्क होटल’ में (जहाँ वो हमेशा रुकता था) उस के मित्र (और उनके रिश्तेदार भी) ‘हाथ दिखाने’ के लिए लाइन लगा कर बैठने लगे थे | ‘पंडित जी’ मुफ्त में हाथ देखते, ऊपर से चाय भी पिलाते | लोग उसके इस ज्ञान से प्रभावित थे | होटल के मालिक ने ‘दिल्ली वाले पंडित जी’ के नाम से सत्या का प्रचार भी शुरू कर दिया |

एक दिन तो सत्या ने मुझे बिलकुल चौंका दिया | ऑफिस में काम ख़त्म करके मैंने सोचा कि सत्या को ‘सरप्राइज’ दूंगा | ये सोच कर बिना सूचना दिए उसके हॉस्टल पहुँच गया | उसके कमरे का दरवाजा खुला देखकर राहत की साँस ली | वहाँ देखा कि जनाब एक दम्पत्ति को किसी बच्चे के बारे में कुछ समझा रहे थे | एक 7-8 साल का उग्र सा दिखने वाला बच्चा साथ में बैठा था, शायद उनका बेटा ही होगा | उनकी बातचीत समाप्त हो चुकी थी, सो मेरे पहुँचने पर वे लोग चले गए |
सत्या बताने लगा - “ये मेरा मित्र राजू है, मेरी कम्पनी में ही इंजिनियर है | इसका बेटा बहुत चिडचिडे स्वभाव का हो गया है, उसे लेकर परेशान है | आज मैंने ‘काउंसलिंग’ के लिए बुलाया था |” सत्या क्या बोल रहा था, कुछ भी मेरी समझ में नहीं आया |
- “भाई, तुम ‘काउंसलिंग’ कैसे करने लगे ?”
– “मनोविज्ञान पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है और ‘चाइल्ड साइकोलॉजी’ मेरा पसंदीदा विषय है | कभी कभी लोग बच्चों की समस्या लेकर आ जाते हैं | उनकी मदद कर देता हूँ, मुझे भी अच्छा लगता है |”

सत्या के बारे में उस दिन ये अनूठी जानकारी सामने आयी | उस के विशाल ज्ञान और व्यक्तित्व की नयी नयी परतें खुल रही थीं | कहाँ इलेक्ट्रॉनिक्स और कहाँ मनोविज्ञान ! अगले साल मेरी बहन ‘साइकोलॉजी’ में पी.एच.डी. कर रही थी, तो सत्या उनसे लम्बी चर्चायें करता था | बहन को थीसिस लिखने में भी उसने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए |

सत्या से २-३ महीने में मेरे घर या उसके हॉस्टल में एक बार मुलाकात हो जाती थी | मैं धीरे-धीरे महसूस कर रहा था कि वो मुझ में अपना बड़ा भाई देखने लगा था | अपनी छोटी-बड़ी सब तरह की बातें वो हम लोगों से ‘शेयर’ करता था | समय निकलता रहा और कब ये रिश्ता तीन साल का हो गया, पता ही नहीं चला |

एक दिन उसने ऑफिस से फ़ोन किया :
- “आज शाम को घर आ रहा हूँ | भाभी से कहना ढेर सारी आलू-टमाटर की सब्जी और पूरी बना लें | खाना वहीँ खाऊंगा |” उस दिन फ़ोन पर कुछ ज़्यादा खुश लग रहा था | उसे वैसे तो हर मिठाई अच्छी लगती थी, पर बंगाली रसगुल्ला देखकर वो बेकाबू हो जाता था | दस से कम में उसकी तसल्ली नहीं होती थी | इसलिए घर आते हुए दस -दस रसगुल्लों के दो कुल्हड़ मैं ले आया |

छह बजे से कुछ पहले ही उसने दरवाजे पर दस्तक दे दी |
- “भाभी, मुझे एक अच्छा सा आशीर्वाद दे दो | अब आप लोग मेरे ‘मकान’ में नहीं, मेरे ‘घर’ में आया करेंगे |” अन्दर घुसते ही पत्नी के पैर छू कर बात को घुमाते हुए बोला |
- “कल मम्मी, पापा, सबसे बडे भाई साहब और विज्जू के साथ दूर के रिश्ते में एक लड़की देखकर आया था | लड़की का नाम मंजुला है और इलेक्ट्रॉनिक्स इंजिनियर है | ओखला में एक कंपनी में काम करती है | सबको परिवार और लड़की बहुत पसंद हैं |” इतना कह कर उसने बैग से मंजुला की दो फोटो निकाल कर मेरी पत्नी के हाथ में थमा दी | फोटो से मंजुला पतली-दुबली आकर्षक लड़की लग रही थी | सत्या ने उस दिन मेरे भी पैर छू कर आशीर्वाद माँगा | उम्र के लिहाज़ से वह मुझसे आठ साल छोटा था | मैंने उसे गले लगाया तो मेरी ऑंखें भी नम हो गयीं |

मंजुला का परिवार दिल्ली में रहता था, सो दोनों परिवारों ने मिल कर अगले महीने में शादी की तारीख तय कर दी | उसके पिता अपने भाइयों में सबसे बडे थे | वे कई साल पहले गुजर चुके थे और अब चाचा लोग मिलकर मंजुला के विवाह की जिम्मेदारियाँ निभा रहे थे | ‘मलाई मंदिर’ के बडे हॉल में दक्षिण भारतीय पद्धति से सादे समारोह में शादी संपन्न हुई | अगले दिन सत्या के परिवार की ओर से मित्रों और रिश्तेदारों के लिए विशाल भोज का आयोजन किया गया | दो दिन में सारे मेहमान भी चले गए थे | सत्या ने शादी से पहले हनीमून के लिए कश्मीर का प्लान बना रखा था | मंजुला के सामने प्रस्ताव रखा तो वो कहने लगी कि उसने अभी तक समुद्र नहीं देखा है, इसलिए वह गोवा जाना चाहती थी | सत्या को थोड़ी निराशा हुई, मगर दूसरे व्यक्ति की ख़ुशी तो सत्या के लिए हमेशा से पहले थी | अगले दिन ही उसने ‘ट्रेवल कंपनी’ में काम कर रहे एक मित्र की सहायता से गोवा के हवाई टिकट और एक सप्ताह के लिए होटल का इन्तजाम कर लिया |

शादी के बाद सत्या ने हॉस्टल छोड़ कर साकेत में दो कमरों का फ्लैट किराये पर ले लिया था | यहाँ से सत्या और मंजुला दोनों को ऑफिस जाने में सुविधा हो गयी | दो साल बीतते बीतते एक बेटी उनके जीवन में आ गयी | हम लोग अगले दिन अस्पताल गए | मंजुला के बिस्तर के बराबर में ही एक पालने में बिटिया हाथ पैर चला रही थी, बिलकुल गोरी और सुन्दर दिख रही थी |

मंजुला बेहद खुश थी | पत्नी की ओर मुड़कर बोली – “भाभी, आप तो हिंदी की ‘टीचर’ हैं | आप ही इसके लिए अच्छा सा नाम बताइए न |”
पत्नी ने अपने तर्क के साथ नाम सुझा दिया - “मंजुला, तुम कभी हार नहीं मानती हो | मैं चाहती हूँ कि तुम्हारी बेटी भी तुम जैसी ही हो | क्यों न इसका नाम ‘विजया’ रख दें ?”
सत्या और मंजुला दोनों ही एक साथ बोल पड़े – “भाभी, आपने बिलकुल सटीक नाम सोचा है | इसे हम विजया ही कहेंगे |

विजया के आने से उन दोनों के जीवन में एक सुखद परिवर्तन आ रहा था | मंजुला अपने जैसी बेटी पाकर बेहद खुश थी | उधर, सत्या के परिवार में सात भाइयों के बीच एक ही बहन थी, इस लिए घर में लड़की आने से सब बड़े खुश थे | एक दिन सत्या से मिलना हुआ तो कहने लगा – “मुझे पहले एक बेटी की ही तमन्ना थी | भगवान ने मेरी बात सुन ली |”

एक कहावत है- “ भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है |” सत्या के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा था | ऑफिस में ‘बॉस’ ने एक दिन सत्या को कमरे में बुलाया – “सत्या, तुम्हारे दिल्ली के सारे ‘प्रोजेक्टस’ पूरे हो गए हैं, तुम्हारा बड़ी जिम्मेदारी लेने का समय आ गया है | पंद्रह दिन में तुम्हें हैदराबाद में ‘ज़ोनल मेनेजर’ का चार्ज लेना है |” यह पद मिलना उस के लिए एक तरह से ‘डबल प्रमोशन’ था | शाम को ही सत्या परिवार के साथ हमारे घर पहुँच गया | साथ में एक बड़ा डिब्बा मिठाई का भी लाया था |

- “मैं ‘ज़ोनल मेनेजर’ बन गया हूँ , मगर... मुझे हैदराबाद जाना होगा |” ये कहते कहते उसकी आँखें भर आयीं और शब्द गले में रुकने लगे | मैंने उसे बधाई दी और सांत्वना भी | सच यही था कि हम दोनों के लिए ये ख़बर जितनी अच्छी थी, उससे ज़्यादा बुरी लग रही थी | उस दिन की मुलाकात एक लिहाज़ से ‘फेयरवेल पार्टी’ ही हो गयी, क्योंकि उसे ‘ज्वाइन’ करने के लिए समय बहुत कम दिया गया था | ऑफिस और घर में अनेक काम पूरे करने थे | सामान ट्रक से पहले भेज दिया और बाद में वे लोग हवाई जहाज से गए | हवाई अड्डे पर उन्हें विदा करते वक्त एक अजीब से खालीपन का अहसास होने लगा | वो यहाँ था तो ज़िन्दगी भरी पूरी सी लगती थी |

मुझे सत्या से एक पुरानी मुलाकात याद आ रही है | उसकी शादी नहीं हुई थी | वो हमारे घर आया हुआ था | खाने के बाद कॉफ़ी पीते हुए बात हस्त रेखा विज्ञान की तरफ़ मुड़ गयी |
मैं बोला –“ हस्त रेखा विज्ञान कोई विज्ञान नहीं है | विज्ञान के नियम सारी दुनिया में एक से होते हैं, जब कि हस्त रेखाओं को देखने का नज़रिया अलग अलग मिलता है |” मुझे हस्त रेखा या जन्म–पत्री में कभी कोई विश्वास नहीं रहा |
- “तुम ठीक कह रहे हो | मैं भी विज्ञान का विद्यार्थी हूँ | हस्त रेखा के नियम पूरी तरह से वैज्ञानिक नहीं कहे जा सकते, परन्तु ये नियम अनेकानेक लोगों की हस्त रेखाओं का अध्ययन करने के बाद बनाये गए हैं | मैंने इस विषय को गहराई से समझने की कोशिश की है और उस ज्ञान के आधार पर हाथ देखकर जो भविष्यवाणी की हैं, उन में साठ-सत्तर प्रतिशत सही निकली हैं | विज्ञान में ये प्रतिशत सौ होता है | बस, यही अंतर है |” उसकी बात में तर्क था, जो उदयपुर में उसकी प्रसिद्धि से भी पुख्ता हो रहा था |
फिर उसने ज़ोर देकर कहा- “ मैं आज एक बात कह रहा हूँ | मैंने अपने हाथ में देखा है कि मैं एक दिन ‘मिलिअनायर’ ज़रूर बनूँगा |” उन दिनों की सरकारी कंपनी की तनख्वाह देख कर मुझे उसकी बात कोरी शेखचिल्ली की बात सी लगी | हज़ार रूपए की तनख्वाह वाला आदमी दस लाख रूपए की बात कर रहा है !
हैदराबाद जाकर मंजुला ने नौकरी करने की विचार छोड़ दिया था | सत्या की तनख्वाह भी अब अच्छी हो गयी थी | विजया चार साल की हो गयी और स्कूल जाने लगी थी | इस बीच विजया को एक छोटा भाई ‘भास्कर’ भी मिल गया | घर का काम और दो बच्चे सँभालने में मंजुला कभी कभी झुंझलाने लगती थी |

अगले कुछ सालों में सत्या का भाग्य-चक्र तेज़ी से घूमा | व्यक्ति जब अपने चरित्र और वाणी को काबू में रख कर धैर्य के साथ कार्य करता है तो उसे सफलता अवश्य मिलती है |
दो साल बाद सत्या की पदोन्नति हो गयी | ऑफिस से मकान खरीदने के लिए अब उसे एक बड़ी रकम का लोन कम ब्याज पर मिल सकता था | इस योजना का लाभ उठा कर उस ने हैदराबाद की उच्चवर्गीय कॉलोनी ‘बंजारा हिल्स’ में दो बेडरूम का सुन्दर फ्लैट खरीद लिया | नए घर में अगले वर्ष दूसरी बेटी ‘लता’ का जन्म हुआ |

इस बीच ऑफिस के काम के सिलसिले में उस का सिंगापुर जाना हुआ | वहाँ एक मीटिंग में अमेरिका की एक कंपनी के ‘चेयरमैन’ से मुलाकात हुई | उन पर सत्या का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने वहीँ पर अपनी कंपनी की भारतीय इकाई में उसे तीन गुनी तनख्वाह पर ‘वाईस प्रेसिडेंट’ पद का ‘ऑफर’ दे डाला | बीस दिन के बाद अमेरिका से नियुक्ति-पत्र भी आ गया, जिस में ‘लोन’ की बकाया रकम देने का भी प्रावधान कर दिया गया था | इस के अतिरिक्त अमेरिकन पद्धति के अनुसार नौकरी के साथ अपना निजी व्यवसाय करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था | ‘ऑफर’ इतना लुभावना था कि मना करने की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी थी | सत्या ने 15 साल की सरकारी नौकरी के बाद निजी क्षेत्र में किस्मत आज़माने का फ़ैसला कर लिया | उसने कड़ी मेहनत से कार्य किया और लगातार हर साल उसे तनख्वाह से ज्यादा बोनस मिला | अच्छी कमाई के चलते सत्या ने ‘बंजारा हिल्स’ में ही एक तीन बेडरूम वाला फ्लैट खरीद कर उसमें ‘शिफ्ट’ कर लिया | सत्या ‘की मिलिअनायर’ बनने की भविष्यवाणी बिलकुल सच हो चुकी थी |

ये वो दौर था जब इक्कीसवीं शताब्दी के आने की तैयारी चल रही थी और पूरी दुनिया में ‘वाई२के’ प्रोजेक्ट चल रहे थे | भारत में कम तनख्वाह पर काम करने वाले अनेक इंजिनियर इस कार्य के लिए उपलब्ध थे | सत्या को अमेरिका में बसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के उस के एक पुराने सहपाठी ने अपनी कंपनी का ‘वाई२के’ प्रोजेक्ट उसे देने की पेशकश की | नौकरी के साथ-साथ सत्या ने एक कम्पनी बनाकर छोटे वाले घर में काम शुरू कर दिया | प्रोजेक्ट सफल रहा | इसी मित्र की सहायता से बाद में अमेरिका की एक दूसरी कम्पनी का बड़ा प्रोजेक्ट सत्या को मिल गया | ये काफी बड़ा काम था और नौकरी के साथ नहीं चल सकता था | उस ने नौकरी छोड़ दी | तीन-चार महीने में ही पंद्रह इंजिनियर सत्या की कंपनी में कार्य कर रहे थे | इस ‘प्रोजेक्ट’ से एक बड़ी कमाई का रास्ता खुल गया |

विजया ने चंडीगढ़ से इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की और उसे वहीँ पर अच्छी कम्पनी में नौकरी मिल गयी | पढ़ाई के आख़िरी साल में उसे एक सहपाठी से प्रेम हो गया था और दोनों ने शादी का फैसला भी कर लिया था | मगर यह बात अभी तक किसी को बताई नहीं गयी थी | इस बार जब दीवाली की छुट्टियों में विजया घर आयी तो उसनें पापा से भूमिका बांधनी शुरू की :
- “पापा, मेरा एक दोस्त राजीव मेरे साथ काम करता है | बहुत अच्छा लड़का है | वो मुझे भी पसंद करता है |”
- “क्या तुम भी उसे पसंद करती हो ?” सत्या ने छोटा सा सवाल किया |

विजया के ‘हाँ’ कहने के ढंग से सत्या को सारी बात तुरंत समझ आ गयी | सत्या उसके स्वभाव को बखूबी जानता था | शाम को विजया ने झटपट ‘वीडियो कॉल’ पर राजीव से पापा मम्मी की बात करा कर उनकी ‘स्वीकृति’ ले ली थी | आज के बच्चे अपनी बात मनवाने के सारे गुर अभिमन्यु की तरह पेट से ही सीख कर आते हैं | दो महीनों में विजया की शादी धूमधाम से कर दी गयी | लड़का पंजाबी परिवार से था | लड़के के चतुर माँ-बाप ने दुनिया जहान की ‘फिजूलखर्ची’ के अलावा जी भर के नक़दी और सामान के लिए सत्या को ‘राज़ी’ कर लिया था | शादी के उत्सव में ‘दिखावे वाला’ पंजाबी असर दक्षिण भारतीय सादगी पर हावी होता साफ़ दिख रहा था | सत्या ने शान्त भाव से इस कड़वे घूंट को आसानी से पी लिया | मगर, इससे भी ज़्यादा बड़ी एक और बात थी जो सत्या को पूरी शादी भर परेशान कर रही थी |

मंजुला को जब पता चला कि विजया पंजाबी लड़के से शादी कर रही है, उसके रूढ़िवादी संस्कार उस के आड़े आ गए | यह शादी उसके गले नहीं उतरी और पूरे आयोजन के दौरान उसका ‘मूड’ ख़राब रहा | शादी के किसी भी फोटो या वीडियो में उसके चेहरे पर मुस्कराहट नहीं दिखाई दी | असल में, मंजुला ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई अवश्य कर ली थी, मगर वह अपने परिवार के रूढ़िवादी संस्कारों से नहीं निकल पायी थी | इन्हीं संस्कारों के कारण ही वह सत्या के महिलाओं से खुल कर बात करने के स्वभाव को मंजूर नहीं कर पायी थी और हमेशा सत्या को शक की निगाह से देखती थी | सत्या के समझाने का उस पर कोई असर नहीं होता था |

भास्कर को जर्मनी की हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. के लिए ‘स्कालरशिप’ के साथ दाख़िला मिल गया | पहले छह महीने तक रहने इत्यादि का खर्च उसे अपनी जेब से करना था | उसकी व्यवस्था सत्या ने कर दी | विजया की शादी के बाद भास्कर चला गया |

इधर, लता के बारहवीं की परीक्षा में 98% नम्बर आए और उसे दिल्ली की मशहूर लॉ यूनिवर्सिटी में चार साल के कोर्स में दाखिला मिल गया | मध्य-अगस्त से क्लास शरू होनी थी | लता को लेकर सत्या पहले दिन दिल्ली आ गया | हवाई अड्डे से दोनों हमारे घर आए | लता का हॉस्टल मेरे घर के नजदीक ही था | अगली सुबह बाज़ार से कुछ आवश्यक सामान लेते हुए हमने हॉस्टल पहुँच कर लता के कमरे में उसका सामान रखवा दिया और घर लौट आए | लता को दो दिन और पापा के साथ रहने का अवसर मिल गया | घर में उसका अधिकतर समय ड्राइंग रूम के एक कोने में सोफे पर लेटे हुए ‘आइपेड’ देखते हुए गुज़रता था | बीच में थोड़ी सी कुछ बात पापा के साथ हो जाती थी | मेज पर खाने के समय उसका कुछ वक्त तो ये बताने में निकल जाता था कि उसे क्या क्या पसन्द नहीं है और बाकी समय उन नापसंद चीजों को प्लेट में से चुनकर निकालने में- जैसे जीरा, साबुत धनिया, फूल गोभी, मटर के दानें, आदि | हम से उसकी बात बस न के बराबर ही होती थी | सत्या के कुछ भी समझाने पर तुनक जाती थी | नखरे करने और जरा-जरा सी बात पर अकड़ने के मामले में वो अपनी बुआ विज्जू की ‘कार्बन कॉपी’ थी |

लता के दिल्ली चले जाने से सत्या और मंजुला कुछ समय तक अकेले से हो गए पड़ गए थे, पर थोड़े दिनों में सब नार्मल हो गया | लता के रहने तक उसकी बारहवीं की पढ़ाई की वजह से घर में मित्रों का आना-जाना बहुत कम था | उसके जाने के बाद सत्या को मित्रों से मिलने का अधिक समय मिल जाता था | कभी वे लोग भी पत्नी के साथ सत्या के घर आ जाते और ख़ूब गपशप का माहौल बनता | सत्या को बहुत सारे हिंदी गाने याद थे और वो गाता भी अच्छा था | ख़ास तौर पर, मित्रों की पत्नियाँ फ़रमाइश करके अपनी पसंद के गीत सुनती थीं | मंजुला इस सब में शामिल तो होती थी, पर वो अन्दर ही अन्दर असहज महसूस करती रहती थी | उसे लगता था कि सत्या उन महिलाओं से ‘फ़्लर्ट’ करता है, जो उसे कतई पसंद नहीं था | धीरे-धीरे यह नापसंदगी मंजुला के मन में सत्या के प्रति एक शक को जन्म दे रही थी | मित्रों के साथ हुई हर पार्टी के बाद अकेले में दोनों के बीच छोटी-मोटी तकरार होने लगी थी, जो मंजुला के शक को अधिक गहरा करती जाती थी |

मंजुला हिंदी खूब समझती थी, परन्तु बोलने में उतनी प्रवीणता नहीं थी | वैसे स्वभाव से भी वो कम बोलती थी | एक तरह से सत्या को ‘पूर्ण बहिर्मुखी’ और मंजुला को ‘पूर्ण अंतर्मुखी’ कहना ग़लत नहीं होगा | मंजुला का परिवार परम रूढ़िवादी था, जहाँ पुरुषों और महिलाओं का एक साथ बैठ कर चुहलबाजी करने का प्रश्न ही पैदा नहीं हो सकता था | इसके ठीक विपरीत, सत्या दिल्ली में ही पला-बड़ा एक ‘पक्का दिल्ली वाला’ लड़का था | उस के लिए महिला या पुरुष दोस्तों में कभी कोई अन्तर नहीं रहा | वह साफ़ दिल का बातूनी इन्सान था और सब से खुल कर मिलता था | सत्या और मंजुला की सोच का ये भारी टकराव शादी से ही उनके बीच आ खड़ा हुआ था | गोवा में हनीमून के समय से ही इसके संकेत स्पष्ट दिखने लगे थे |

एक दिन बात ज्यादा ही बिगड़ गयी | सत्या को ऑफिस में देर हो गयी | थका हुआ घर लौटा और मंजुला को चाय के लिए कहा | सत्या की देरी से वो शायद पहले से ही भुनी बैठी थी, बस बिखर पड़ी |
- “जाओ, और उन्हीं से चाय मांगो जिनके साथ तुम रोज़ मज़े उड़ाते हो | मैं इतने सालों से तुम्हारा तमाशा देख रही हूँ, तुम्हें जरा भी शर्म नहीं है | ऐसे ही दोस्त पाल रखे हैं जिनकी बीबियों के साथ तुम घूमते-फिरते हो और वे यहाँ आकर मुझ पे नजर रखते हैं | बताये देती हूँ .. मुझे ये सब बिलकुल पसंद नहीं है | मुझे तुम्हारी शक्ल से भी नफरत है | अब तुम अपनी दोस्तों के साथ ही रहना | मैं कल सुबह वारंगल चली जाउंगी | अभी मेरी माँ ज़िन्दी है |”

गुस्से में उबलती हुई उठी और बेडरूम में घुसते हुए उसने दरवाजा चौखट में दे मारा | आज मंजुला ने शिष्टाचार की सारी सीमायें लाँघ दी थीं | सत्या ये सब सुनकर सन्न रह गया | वह समझ ही नहीं सका कि वो क्या बोल रही है |
सोचने लगा – “ इतना बड़ा इलज़ाम और इस तरह की भद्दी भाषा में उस पर आज तक किसी ने नहीं लगाया |”
तुरंत अन्दर से एक भयंकर प्रतिक्रिया भी उठी - “ इसकी जगह कोई पुरुष होता तो दो मिनट में उसे सब कुछ समझा देता |”
अगले ही क्षण भाव बदल गया - “ ये पागल मुझे कब समझेगी ?” उसने पानी का गिलास उठाया और पानी पी कर मन को कुछ शान्त किया | उस रात मंजुला ने खाना नहीं बनाया और दोनों भूखे ही सोये | अगले दिन मंजुला सचमुच घर छोड़ कर वारंगल चली गयी |
एक बार को तो सत्या के पैरों तले की जमीन खिसक गयी थी |
“ ये क्या कर बैठी वो ? पता नहीं, उसके पास कुछ पैसा होगा भी या नहीं ? इस हालत में वो ठीक से घर पहुंची भी होगी या नहीं ?” मंजुला को लेकर कितने ही सवाल उसके दिमाग में आने लगे थे | शाम को मंजुला को फोन किया | घंटी बजती रही मगर उस ने फ़ोन नहीं उठाया |

मंजुला के चले जाने से एक नई समस्या खड़ी हो गयी थी | सत्या को ज़िन्दगी में चाय कॉफ़ी बनाने के अलावा न तो कुछ बनाना आता था और न ही उसने घर में कभी कुछ काम किया था | उधर, ऑफिस की पूरी जिम्मेदारी सर पर थी | उसने सोचा कि मंजुला का गुस्सा 5-7 दिन में ठंडा हो जायेगा तो लौट आएगी | फिलहाल, एक टिफिन सर्विस के यहाँ बात करके शाम के खाने का इंतज़ाम कर लिया | दोपहर को ऑफिस में बाहर से कुछ मंगा लेता था | एक हफ्ता किसी तरह निकल गया | इस बीच मंजुला से एक दिन थोड़ी सी बात हो पायी थी | उसने आने से साफ़ इंकार कर दिया | सत्या ने कुछ पैसा भेजने के लिए पूछा तो उसे भी मना कर दिया | फिर भी सत्या ने शाम को तीस हज़ार उसको ‘ट्रान्सफर’ कर दिए |

सत्या से बीच बीच में फ़ोन पर मेरी बात हो जाया करती थी और दोनों को हाल चल पता लग जाते थे | संयोगवश मैं भी बहुत व्यस्त रहा और इस बीच बात नहीं हो पायी | एक दिन शाम को मैंने उसे फ़ोन कर लिया :
- “हेलो, सत्या तुम कैसे हो ?”
- “बस ठीक हूँ |” मगर, उसकी आवाज से मुझे कुछ भी ठीक नहीं लगा | कुछ क्षण उधर से कोई आवाज़ नहीं आयी | फिर वो बोला :
- “मंजुला ने मेरे चरित्र पर इतना बड़ा इलज़ाम लगा दिया और अब वारंगल भाग गयी है |” यह कहते कहते उसका गला रुंध गया | फिर थोड़ा संयत होकर उसने सारा किस्सा बताया | मैं मंजुला के शक्की स्वभाव को भली-भांति समझता था, मगर बात यहाँ तक पहुँच जाएगी, ये कभी नहीं सोचा था |
सत्या ने आगे बताया - “ मैं मंजुला को नियमित रूप से कुछ पैसा भेज देता हूँ | माँ की पेंशन में बस उनका गुजारा ही चलता है | मैं अकेला घर ‘मैनेज’ नहीं कर सकता, इसलिए एक पी.जी. ढूंढ लिया है | ऑफिस से लौटने के बाद रात में काम करने के लिए वाई-फाई आदि की सुविधा है |” अगले रविवार को घर से थोडा बहुत ज़रुरी सामान लेकर सत्या पी.जी. में आ गया |

अब कभी कभी फ़ोन पर मंजुला से उसकी बात होने लगी थी और एक आशा की किरण दिखने लगी थी कि मंजुला लौट जाएगी और बिखरी हुई ज़िन्दगी वापस ढर्रे पर आ जाएगी |

अमेरिका वाली कंपनी का ‘प्रोजेक्ट’ समाप्त हो रहा था | नए प्रोजेक्ट की बात चल रही थी और उसके मिलने की पूरी उम्मीद थी | इस बीच एक ईमेल उधर से आया कि कुछ अंदरूनी कारणों की वजह से नया ‘प्रोजेक्ट’ सत्या की कंपनी को नहीं मिल पायेगा | ये एक और पहाड़ टूट पड़ा - “कंगाली में आटा गीला” होता ही है, सब जानते हैं | सत्या की कंपनी की दो तिहाई आमदनी एक झटके में समाप्त हो गयी | सत्या को इस ‘प्रोजेक्ट’ पर काम कर रहे आठों कर्मचारी निकालने पड़े | बचे हुए लोगों की तनख्वाह मुश्किल से निकल रही थी | अब खुले हाथ से खर्चा नहीं कर सकता था, फिर भी सत्या मजबूती के साथ हालात से लड़ रहा था |

दिल्ली में लता का आखिरी साल चल रहा था | उसके जन्म-दिन पर हर साल सत्या दिल्ली आता था | अपना हवाई जहाज़ का टिकट ‘बुक’ करके मुझे प्रोग्राम बता दिया करता था | लता के, और कभी कभी सत्या के भी, सारे मित्रों के साथ होटल में जमकर बड़ी पार्टी होती थी |
इस बार भी उसका फ़ोन आया |
- “मैं कल सुबह ट्रेन से ‘नयी दिल्ली’ स्टेशन पहुँच रहा हूँ | दस बजे तक घर पहुँच जाऊंगा |”
वो हमेशा हल्के सामान के साथ ही यात्रा करता था, पर इस बार छोटे सूटकेस के साथ एक और भारी-भरकम सा बैग भी साथ लाया था |
मैंने पूछा – “ये सब क्या है इतने बड़े बैग में ?”
वो बोला - “लता ने फ़ोन पर अपने ‘बर्थडे गिफ्ट्स’ की लम्बी-चौड़ी लिस्ट बताई थी | उसका सामान है |”
फिर निकाल कर दिखाने लगा– ढेर सारी कई तरह की चाकलेट, परफ्यूम, भुजिया, नमकीन और लता के मित्रों के लिए जाने कैसे कैसे सामान | मैं हैरान हो गया -“ ये इतना सामान तुम हैदराबाद से ट्रेन में ढोकर लाये हो | सारी चीजें दिल्ली से खरीद कर दे सकते थे |” मुझे सत्या की बेवकूफी पर गुस्सा आ रहा था |
मेरे हाव भाव को वो समझ गया - “मुझे पता है यहाँ सब मिलता है | तुम मुझे भी अच्छी तरह जानते हो | लता फोन पर कह रही थी कि पापा अगर आप मेरे ‘गिफ़्ट’ हैदराबाद से ही लेकर आओगे तो मैं मान लूँगी कि आप मुझे प्यार करते हो | लाडली बेटी है, मुझसे मना नहीं हुआ |”
शायद मुझे सत्या से ऐसा कहना नहीं चाहिए था, पर मैं खुद को रोक नहीं पाया – “ये लड़की तुम्हारी भलमनसाहत का नाजायज़ फ़ायदा उठाती है | तुम्हें समझना चाहिए | इस बार तुम उसे समझा भी तो सकते थे कि व्यस्तता के कारण दिल्ली नहीं आ सकता |”
थोड़ी देर रूक कर मेरे कंधे पर हाथ रखकर हँसता हुआ बोला- “कोई मुझे बंदूक से नहीं मार सकता, लेकिन प्यार से मार सकता है |”
पता नहीं क्यों, उसका ये वाक्य मेरे दिल मैं बैठ गया | मुझे हमेशा लगता था कि लोग उसे प्यार से ही उल्लू बनाते थे | उन लोगों में उसके कई दोस्त भी शामिल थे, जिनको मैं भी जानता था | मैं सोचने लगा - “क्या ये आदमी सिर्फ दूसरों के लिए ही जीता रहेगा | अपनी तकलीफ़ के बारे में भी तो कभी सोचना चाहिए |”

हम सबने लता का जन्म-दिन अच्छे से मनाया | सत्या इस बार लम्बे अंतराल के बाद आया था, इसलिए एक दिन और हमारे साथ रुक गया था | अब तक की सारी बातें विस्तार से बताकर उसका मन थोडा हल्का हो गया | मंजुला को लेकर उसकी तमाम कोशिशें बेकार साबित हो चुकी थीं और अब उसने सारे मामले को भगवान पर छोड़ दिया था | अब सत्या ने बदलते हालात के साथ जीना सीख लिया था |

सत्या ने शुरू में कोशिश की कि उसके और मंजुला के बीच जो चल रहा था उसकी भनक बच्चों तक न पहुंचे, मगर मंजुला का इतने दिनों तक वारंगल जाकर रहने की बात किसी के गले नहीं उतर रही थी | दोनों लड़कियों को किसी तरह थोड़ी भनक लग ही गयी थी | विजया ने इसका जिक्र फ़ोन पर भास्कर से भी किया, पर उसने व्यस्तता का बहाना बना कर अपने को इस मामले से दूर ही रखा |

दीवाली की छुट्टियों में लता ने हैदराबाद जाने का विचार किया | उसने विजया से बात करके ऐसा प्रोग्राम बना लिया कि दोनों बहनें कुछ दिन एक साथ हैदराबाद में साथ रह सकें | एक दिन जब वे दोनों पापा के साथ गपशप कर रहीं थीं तो मौका देखकर विजया ने सत्या से सीधा सवाल कर ही दिया:
- “पापा, मैं देख रही हूँ कि मम्मी इतने महीनों से नानी के यहाँ चली गयी हैं और आप यहाँ पी.जी. में इस हालात में रह रहे हैं | क्या आप हमें भी कुछ बताएँगे ? हम लोग अब इतने बच्चे नहीं हैं |”

दोनों बेटियाँ पापा के जिगर के दो टुकड़े थे | दोनों के लिए पापा बचपन से ही उनके ‘आदर्श’ थे और वे उनके जैसा ही बनना चाहती थीं | दोनों बेटियों की जिद के सामने पापा ने हथियार डाल दिए और पूरा किस्सा सच सच बता दिया | वैसे दोनों ही लडकियाँ मम्मी को बहुत प्यार करती थीं, मगर उसके शक्की स्वभाव का उन्हें जितना भी अहसास था, वो दोनों को अच्छा नहीं लगता था | जब उन्हें पता लगा कि मम्मी ने पापा पर इस हद तक शक किया है और इस कारण उन्हें छोड़ कर चली गयी हैं, तो मंजुला पल भर में दोनों बेटियों के लिए सबसे बड़ी ‘विलेन’ बन गयी |
- “पापा, आपको मम्मी से बिलकुल बात नहीं करनी चाहिये, वो इस लायक नहीं हैं |”
सत्या ने दोनों को टोक कर समझाया – “नहीं, तुम्हारा ऐसा सोचना ठीक नहीं है | वो जल्दी ही सारी बात समझ जाएँगी |” लेकिन, सत्या समझता था कि उन दोनों को समझाना उस के लिए एक नयी चुनौती बन गया है |

सत्या की कंपनी के हालात सुधरने के बजाय बदतर की तरफ़ ही जा रहे थे | व्यवसायिक कारणों के अलावा इसका एक कारण मंजुला के साथ बिगड़ता रिश्ता भी ज़रूर रहा होगा | एक आत्म-सम्मानी और ऊँचे चरित्र के व्यक्ति पर उसकी अपनी ही पत्नी के द्वारा शक करना और इतना बड़ा लांछन लगा कर पति को छोड़ जाना – ऐसी स्थिति में वो जिस भयंकर मानसिक यातना से गुजरता है, उस में काम पर ध्यान लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है | उधर, दोनों बेटियाँ माँ के घोर विरोध में खड़ी हो गयी थीं | सत्या एक साथ कई चुनौतियों से जूझ रहा था |

कहते हैं जब मुसीबत आती है, तो अकेली नहीं आती | सत्या ने एक शाम को मंजुला को फोन किया तो वो ठीक से बोल नहीं पा रही थी |

उसने सत्या को बताया - “ पंद्रह बीस दिन से बहुत कमज़ोरी महसूस हो रही थी | डॉक्टर ने पांच दिन की दवाई दी थी लेकिन कुछ असर नहीं हुआ | फिर कुछ दूसरे टेस्ट कराये | रिपोर्ट देखकर उसने कैंसर का शक ज़ाहिर किया है और गहन जाँच की सलाह दी है |” यह सुनते ही सत्या ऐसा हो गया कि काटो तो खून नहीं | क्षण भर में अनजानी आशंकाओं ने उसे घेर लिया और उसे पसीना आ गया | सत्या ने तुरंत एक फ़ैसला कर लिया | अब मंजुला चाहे कुछ भी कहे, उसे मंजुला को हैदराबाद लेकर ही आना होगा |

अगली सुबह पहली बस से सत्या वारंगल पहुँच गया | उसने मंजुला से हैदराबाद जा कर आगे की जाँच करने की बात कही और किसी तरह उसे तैयार कर लिया | तीसरे पहर तक वे दोनों टैक्सी से हैदराबाद वापस आ गए | अगली सुबह सत्या मंजुला को शहर के सबसे बड़े अस्पताल ले गया | कैंसर विभाग के अध्यक्ष उसके एक मित्र के पिता थे | जल्दी ही उनसे मिलना हो गया | पंद्रह दिन तक कई प्रकार के महंगे टेस्ट होते रहे |

जिस दिन ‘बायोप्सी’ की रिपोर्ट आयी, डॉक्टर ने सत्या और मंजुला को अपने ‘चैम्बर’ में बुलाया और पूरी स्थिति विस्तार से समझायी – “मि.सत्या, ‘बायोप्सी’ की रिपोर्ट से कैंसर ‘कन्फर्म’ हो गया है | चिंता की कोई बात नहीं है | ‘किडनी’ में कैंसर की शुरुआत हुई थी और जाँच होने तक ‘लीवर’ पर भी असर आ चुका है | अभी दूसरी ‘स्टेज’ की शुरुआत भर है | हम इलाज से मंजुला जी को बिलकुल ठीक कर देंगे | हाँ, इलाज में एक से डेढ़ साल तक का वक्त लगेगा और लगभग 30 लाख रुपयों का खर्चा होगा | यदि आप तैयार हैं तो हम अगले सप्ताह से इलाज शुरू कर देंगे |” इसके बाद डॉक्टर ने सिलसिलेवार खर्चे का मोटा-मोटा अनुमान भी सत्या को बता दिया | सत्या ने इलाज के लिए वहीँ पर अपनी सहमति दे कर विदा ली |

अस्पताल से लौटते हुए पूरा समय सत्या और मंजुला में कोई बात नहीं हुई | मंजुला अपनी बीमारी को लेकर चिंतित थी | परन्तु, सत्या पर उसका पुराना रोष भी बरक़रार था | सत्या मंजुला की बीमारी से चिंतित होने के साथ-साथ थोडा हैरान भी था | वो सोचने लगा – “हम लोग हमेशा सादा भोजन करते हैं | मंजुला का शरीर हल्का फुल्का है, व्यायाम भी नियम से करती है | मैं सोचता था उसे कभी कोई गंभीर रोग नहीं होगा | फिर उसे कैंसर क्यों हुआ ? मैं तो उससे कहीं ज्यादा फिट हूँ | क्या मुझे भी ऐसा कुछ हो सकता है ? मुझे कुछ ऐसा हो गया तो क्या होगा ?”

मंजुला के इलाज के खर्च को लेकर सत्या वाकई चिंता में था | आज पहली बार उसे लगा कि उससे एक भयंकर भूल हुई है | उस के एक मित्र फिलिप एक बीमा कंपनी में ऊँचे पद पर हैं | सत्या को फिलिप से पांच साल पुरानी एक मुलाकात याद आ गयी | फिलिप ने उस दिन उसे समझाया था :
- “सत्या, तुम जब तक सरकारी कंपनी में काम करते थे, तुम्हारी हर बीमारी, अस्पताल आदि के तमाम खर्चे सरकार उठाती थी | अब तुम अपनी ‘बिज़नेस’ में हो | अपने अनुभव के आधार पर मेरा सुझाव है कि तुम को परिवार के लिए एक ‘हेल्थ पालिसी’ अवश्य खरीद लेनी चाहिए | अभी तुम लोग बिलकुल स्वस्थ हो, तुम एक अच्छी ‘पालिसी’ ले सकते हो | कोई भी गंभीर बीमारी हो जाने पर पालिसी मिलना मुश्किल या कभी कभी कभी असंभव हो जाता है |”
- “मुझे इस बीमे-वीमे के चक्कर में मत फसाओ फिलिप | ये बीमा कम्पनियां सिर्फ पब्लिक का पैसा लूटती हैं | ‘प्रीमियम’ लेती रहती हैं और ‘क्लेम’ देने के टाइम पर बहाने बनाकर पैसा नहीं देतीं | इन सब चीज़ों में मैं कोई विश्वास नहीं करता |”
सत्या ने दो-टूक बात कहकर फिलिप के सुझाव को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया था | आज उसे लगा था कि ‘पालिसी’ होती तो काफी सहारा हो जाता |

अगले सप्ताह से मंजुला का इलाज शुरू हो गया | पंद्रह दिन तक कुछ दवाईयों का कोर्स चलना था | उसके बाद एक प्रक्रिया के लिए दो दिन अस्पताल में रहना होगा | ये सिलसिला बारह महीने चलना था | सत्या के सामने अब सबसे बड़ी समस्या पैसे का इंतज़ाम करने की थी | बैंक में सब मिला कर 5-6 लाख रूपया पड़ा था | ऑफिस, घर के खर्चे और लता की पढाई- सब के लिए हर महीने दो लाख की ज़रूरत थी | कंपनी की आमदनी से बस घर का खर्च निकल रहा था | सत्या ने फिर से नौकरी ढूँढने का विचार किया और दोस्तों को फ़ोन कर दिए | सत्या के एक मित्र संपत कुमार ने सहायता की बात कही और उसे अपना ‘बायोडाटा’ मेल करने के लिए कहा | एक सप्ताह के बाद संपत ने सत्या को फ़ोन किया |

- “सत्या, क्या तुम आज 12.30 बजे मेरे ऑफिस में आ सकते हो ? ‘लंच’ साथ में करेंगे |”
सत्या ठीक समय पर संपत के ऑफिस पहुँच गया | संपत उस कंपनी का ‘मैनेजिंग डायरेक्टर’ था | ‘लंच’ के दौरान ही संपत ने सत्या को नयी नौकरी की बधाई दे डाली | बाद में ‘एच.आर. मेनेजर’ को बुलाकर सत्या से मिलवाया और कुछ आवश्यक निर्देश दिए | शाम तक सत्या के हाथ में ‘जनरल मेनेजर’ के पद का ‘ऑफर लैटर’ आ चुका था और ‘पैकेज’ भी सत्या की फ़िलहाल की सारी ज़रूरतें आराम से पूरी करने के लिए काफी था | सत्या ने मुझे फ़ोन पर नयी नौकरी और मंजुला का इलाज शुरू होने की अच्छी खबर दी | उसे ले कर मेरे मन में जो चिंता चल रही थी, वो समाप्त हो गयी |

मंजुला का इलाज सुचारू रूप से चल रहा था | पैसे की समस्या अब नहीं थी | परन्तु तेज़ दवाई और हर महीने होने वाले ‘कीमो सेशन’ के कुप्रभाव से मंजुला के सारे बाल उड़ गए | एक साल में वज़न 55 से घट कर 35 किलो पर आ गया | वो बस एक हड्डियों का ढांचा दिखने लगी थी | कमजोरी बहुत हो गयी थी| कैंसर चूँकि ‘लीवर’ पर था, इसलिए भूख नहीं लगती थी और कुछ खाने का मन नहीं करता था | इस परिस्थिति में मरीज़ का चिडचिडा हो जाना स्वाभाविक है | इसके अतिरिक्त मंजुला का आत्म-विश्वास भी डगमगाने लगा था |

सत्या ने खाना बनाने और घर के काम के लिए एक महिला को पूरे दिन के लिए नियुक्त कर लिया था | मंजुला को उसकी समस्याओं से लड़ने के लिए परिवार के सहयोग की बहुत आवश्यकता थी | यही सोचकर सत्या ने तीनों बच्चों को फ़ोन करके उन्हें कभी कभी मम्मी को फ़ोन करने के लिए कहा | उन्हें ये भी बताया कि मंजुला उन सबको याद करती रहती है और उनसे बात करना चाहती है |
भास्कर ने तो बिलकुल साफ़ बोल कर पल्ला झाड़ लिया – “पापा, मम्मी सिर्फ आपकी ‘प्रॉब्लम’ है, आपको ही सुलझानी है | मैं कुछ नहीं कर सकता | पहली नौकरी के लिए फ्रैंकफुर्ट जा रहा हूँ, वहाँ आना भी संभव नहीं है |”

विजया और लता दोनों ही पापा के प्रति मम्मी के बर्ताव को लेकर अभी तक गुस्से में थीं | विजया ने बड़ा ही अटपटा सा जवाब दिया – “ मेरे परिवार को मम्मी की सारी हरकतों की जानकारी है | हम लोग उनसे कोई बात नहीं करने वाले हैं | मेरा वैसे भी पांचवां महीना चल रहा है | ऐसे में मैं मम्मी से बात करके उनका कोई संस्कार अपने बच्चे पर नहीं पड़ने देना चाहती |” विजया ने सत्या को फिर से इशारों में बता दिया कि सत्या का मंजुला से बात करना या मिलना उसे बेटी के तौर पर बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था |

उधर लता से बात हुई तो सत्या समझ गया कि वो मम्मी के साथ-साथ उससे भी उतनी ही नाराज़ है | उसने मुँह-फट जवाब दे दिया |
- “पापा, मुझे यह समझ नहीं आया कि आप मम्मी को हैदराबाद ले ही क्यों आए | आपको उनसे बात नहीं करनी चाहिए थी और उन्हें वहीँ पड़े रहने देना चाहिए था | अब आप ही भुगतिये अपनी करनी को | मैं उनसे कोई बात करने वाली नहीं हूँ |” नौकरी में आने के बाद से लता के व्यवहार में उद्दंडता और बढ़ती जा रही थी |

आज सत्या ने पहली बार ज़िन्दगी के कड़वे सच को इतने नजदीक से देखा था | जो कुछ उसने सुना था, उसे कानों-कान विश्वास नहीं हो रहा था | उसे लगा जैसे घुटनों से जान निकल गयी हो और वो गिर जायेगा | किसी प्रकार संभल कर कुर्सी पर बैठ गया |

वो सोचने लगा –“ मैं ज़िन्दगी भर इन्हीं ‘अपनों’ के लिए जी रहा था ? अपने इसी ‘दिल के टुकड़े’ के लिए भरा हुआ बैग ढाई हज़ार किलोमीटर तक रेल में लाद कर लाया था ? क्या ये ही जवाब सुनने के लिए उस लड़के को 20 लाख रूपया देकर ‘आदमी बनने के लिए’ विदेश भेजा था ?”

पैंतीस साल की पूरी फिल्म उसके सामने कुछ ही क्षणों में घूम गयी | तीनों बच्चे मंजुला के घोर विरोध में खड़े हो गए थे | इस बात से सत्या बुरी तरह टूट गया था और आज खुद को दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख समझ रहा था | पूरी रात उसे नींद नहीं आयी और अन्दर ही अन्दर रोता रहा | सुबह उठकर मझे फोन लगाया | कल की सारी घटना बताते बताते वो रोने लगा और लगातार बहुत देर तक रोता रहा | उसकी बातें सुनकर मुझे भयंकर कष्ट हुआ | मैंने उसे सांत्वना देने की कोशिश की | कुछ संयत होने के बाद वो बोला - “तुम बिलकुल ठीक कहते थे | दुनिया मुझे ‘यूज़’ करती है | अब अपनी लड़ाई मुझे अकेले ही लड़नी है | मैं मंजुला को बहुत प्यार करता हूँ और उसे ऐसे मझधार में नहीं छोड़ सकता |”

सत्या के लिये यह समय वास्तव में कठिन परीक्षा का था | ऑफिस और घर के बीच सामंजस्य बिठाते हुए सत्या ने मंजुला को हर प्रकार से सँभालने के लिए जी जान लगा दी | उसका कब क्या खाने का मन है, उसके अनुसार ही नाश्ता, खाना बनवाने का इंतज़ाम करना, हर महीने ‘कीमो’ के लिए स्वयं गाड़ी चला कर अस्पताल ले जाना- इन सब चीज़ों का बारीकी से ध्यान रखता | उसके कपड़े, बिस्तर वगैरा समय से बदलने का ध्यान रखता था | कभी जब रात में मंजुला की बेचैनी बढ़ जाती थी, तो उसे कॉफ़ी बनाकर प्यार से पिलाता था | यह सब कुछ करने में सत्या को जो ख़ुशी मिलती थी, उसे मंजुला महसूस करने लगी थी | मंजुला का खोया हुआ आत्म-विश्वास वापस लाने में सत्या को उसके मनोविज्ञान और ‘काउंसलिंग’ के अनुभव ने बड़ी सहायता की |

दस महीने बाद मंजुला का अस्पताल का इलाज पूरा हो गया | सारी दवाइयां बंद हो गयी थीं | बीमारी समाप्त होने की वजह से उसकी रंगत बेहतर दिखने लगी थी | अब उसे भूख महसूस होती थी और अपनी पसंद का हल्का खाना बनवा कर स्वाद लेकर खाती थी | दो-तीन महीने में कमजोरी और भी कम हो गयी और पहले से भी सुन्दर बाल आ गए थे | आठ किलो वज़न बढ़ने से अब मंजुला फिर से खुद को ‘अच्छी’ लगने लगी थी | अपनी प्रगति से मंजुला खुश थी और सत्या को सुकून था | एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् वे दोनों अब प्यार भरी गपशप भी करने लगे थे |

एक दिन दोनों बिस्तर पर ही एक साथ सुबह की चाय पी रहे थे | मंजुला ने अचानक सत्या के पैर पकड़ लिए और याचना भाव से कहने लगी- “सत्या, मैं क्षमा-याचना करने लायक तो नहीं हूँ, फिर भी क्या तुम मुझे माफ़ कर सकोगे ? मैं पैंतीस साल में तुमको समझ ही नहीं पायी | मेरा कैंसर मेरे लिए वरदान बन कर आया है, जिसने मेरी आँखें खोल दीं | बस, तुम मुझे एक बार माफ़ कर दोगे तो मैं भगवान को मुंह दिखाने लायक हो जाउंगी |” यह कहते कहते उसकी आँखों से आंसू बहने लगे और वह आगे कुछ बोल न सकी | बरसों का पश्चाताप आँखों के रास्ते पिघल कर बाहर आ रहा था |
थोड़ी देर के बाद मंजुला शान्त हो गयी और “माई हस्बैंड इज़ माई बेस्ट फ्रेंड !” कहते हुए उसने ने सत्या को गले लगा लिया | उसके आंसू अभी भी थम नहीं रहे थे | उसके मन में एक ही बात चल रही होगी - ‘पति-पत्नी के बीच शक कभी नहीं आना चाहिए |’ भगवान ने मंजुला को अग्नि में तपा कर शुद्ध कर दिया था | सत्या के लिए मंजुला का यह बदलाव अप्रत्याशित था, वो बेहद खुश था |

कुछ समय बाद मंजुला का मन माँ से मिलने का हो रहा था |
- “माँ से मिले बहुत दिन हो गए हैं | तुम कहो तो कुछ दिन के लिए उनसे मिल आती हूँ |”
- “बहुत अच्छी बात है, कल चलते हैं | मैं भी उनसे मिल लूँगा |”
दिन अगले सत्या उसे वारंगल छोड़ कर शाम को लौट आया | माँ के पास मंजुला बहुत खुश थी | माँ ने आग्रह करके मंजुला को कुछ और दिनों के लिए अपने पास रोक लिया |

दिसम्बर आते आते कोरोना ने दस्तक दे दी थी | कोरोना के ‘केस’ तेजी से बढ़ने लगे और तीन महीने बाद ‘लॉक डाउन’ की घोषणा कर दी गई | हर उम्र के व्यक्ति कोरोना की चपेट में आते चले जा रहे थे | उधर, पूरे व्यापार जगत में अलग उथल-पुथल मच गई थी | ‘लॉक डाउन’ के दौरान ‘आई.टी.’ कंपनियों ने सबसे पहले ‘वर्क फ्रॉम होम’ आरंभ कर दिया था | सत्या की कंपनी में भी सारे कर्मचारियों को घर से काम करने के लिये कह दिया गया | सत्या की ज़िन्दगी फिर एक बार घर में सिमट गयी और खाने-पीने की व्यवस्था बिलकुल बिगड़ गयी | कभी ‘टिफिन सर्विस’ तो कभी ‘स्विगी’, ‘’मैकडोनाल्ड’ से काम चल रहा था | एक दिन मंजुला ने उसे फ़ोन किया |
- “मेरी तबीयत पहले से ठीक है | | वहाँ तुम्हें खाने की बहुत तकलीफ़ हो रही होगी | मैं हैदराबाद आ जाती हूँ |”
- “नहीं | तुम वहीँ रहो | तुम्हारे यहाँ आने से माँ बिलकुल अकेली हो जाएँगी | तुम साथ में रहोगी तो उन्हें तसल्ली रहेगी | मेरा काम चल रहा है, कोई परेशानी नहीं है |”
सत्या ने माँ की वजह से मंजुला को सख्ती से वहीँ रुकने की हिदायत दे दी | दूसरों की तकलीफ़ सत्या देख नहीं सकता था और उन्हें मदद करने के लिए वो कुछ भी झूठ बोल सकता था |

आदमी कितना भी मजबूत और फिट दिखता हो, आज के ज़माने में लम्बे समय तक ‘बाहर’ का खाना कहीं न कहीं ज़रूर असर छोड़ता है | वैसे भी सत्या अब साठ का होने जा रहा था | एक दिन देर रात में सत्या को तेज़ बुखार हो गया | किसी को फ़ोन करने के बजाय उसने एक ‘पेरासिटामोल’ खा ली | बदन बहुत दुःख रहा था, किसी समय नींद आ गयी होगी | सुबह तक हालत नहीं सुधरी तो डॉक्टर मित्र को फ़ोन किया | डॉक्टर ने अपने हिसाब से कुछ सवाल किये और उसके आधार पर पहले कोविड का ‘टेस्ट’ करने को बोला | सत्या ने छोटे भाई सुरेश को फ़ोन किया, जो कुछ दूरी पर बैंक कॉलोनी में रहता था | सुरेश ने सब व्यवस्था कर दी | अगले दिन रिपोर्ट आई तो कोरोना की पुष्टि हो गयी | शाम तक सत्या की तबीयत और बिगड़ने लगी | कोरोना की दूसरी लहर में अस्पताल भरे हुए थे और किसी कीमत पर भी ‘बेड’ नहीं मिल रहे थे | सरकार के ‘इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग’ के एक युवा मंत्री सत्या के मित्र थे और उसका बड़ा आदर करते थे | उन्होंने बीस मिनट में ही बडे अस्पताल में ‘बेड’ का इंतज़ाम कर दिया और एक गाड़ी भी सत्या को अस्पताल ले जाने के लिए उसके घर भेज दी | एक सप्ताह के इलाज के बाद उसका कोरोना टेस्ट ‘नेगेटिव’ आ गया और उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी | कोरोना ने तो जैसे उसकी जान ही निकाल दी थी, उसे बहुत कमजोरी लग रही थी | काम कर नहीं पा रहा था, सारा समय वो लेटा ही रहता | सुरेश अभी नौकरी में था, समय मिलने पर अपने घर से खाना ले आता था और खाना खाते हुए दोनों गपशप कर लेते थे |
- “भाई साहब, आप कहें तो मैं जाकर भाभी को ले आता हूँ | कुछ दिन साथ में रहेंगी तो आप जल्दी स्वस्थ हो जायेंगे |”
- “देखो सुरेश, परसों ही मंजुला का फ़ोन आया था | वहाँ माँ की तबीयत ढीली चल रही है | उन्हें अकेला छोड़ना उचित नहीं होगा | दुसरे, मंजुला की तबीयत अभी पूरी तरह ठीक नहीं बैठी है | मुझे अभी कोरोना होकर चुका है | मंजुला को कमज़ोरी की हालात में यहाँ बुलाने में ‘रिस्क’ भी होगा | वो मुझसे एक दो दिन के लिए वहाँ आने के लिए कह रही थी | मैंने यह कहकर टाल दिया था कि ऑफिस में काम का बहुत ‘प्रेशर’ है, थोडा रूककर आउँगा |”
सत्या ने कोरोना होने की बात मंजुला को नहीं बताई |

आठ-दस दिन मुश्किल से गुज़रे होंगे कि सत्या की तबीयत फिर से बिगड़ गयी और फिर से उसे अस्पताल ले जाना पड़ा | उसके कई प्रकार के टेस्ट किये गए, मगर डॉक्टर किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच पाए | पता नहीं ‘डायबिटीज’ की वजह से या कोरोना की वजह से, उसके ‘हार्ट’ और ‘किडनी’ ठीक से काम नहीं कर रहे थे | डॉक्टरों ने सारा ठीकरा कोरोना के नाम फोड़कर सत्या को घर भेज दिया | अच्छा खाना खाने की राय दे कर हिदायत दी कि ‘अंकल जी’ हल्का काम करें और आराम करें | कुछ दिन में ‘नार्मल’ हो जायेंगे |

सुरेश के ऑफिस के एक सहकर्मी भाटिया साहब थे | उन्होंने रिटायर होकर सत्या के घर के पास ही ‘टिफिन सेवा’ आरंभ कर दी | वे सुरेश के सन्दर्भ से सत्या को पहचानते थे और बहुत ही भले व्यक्ति थे | सुरेश ने सत्या के लिए दोनों समय का टिफिन भाटिया साहब से तय कर दिया | कभी कभी सत्या उनसे नाश्ता भी मंगवा लेता था | भाटिया साहब के पड़ोस में आ जाने से सत्या की खाने की समस्या बहुत हद तक हल हो गयी |

सत्या ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहा था, परन्तु कमजोरी के कारण देर तक लैपटॉप पर बैठ कर काम नहीं कर पाता था | उसे ज्यादा समय आराम करना पड़ता था | ऐसे में उसका शरीर तो बिस्तर पर होता था, परन्तु मन दुनिया भर में घूमता था | रह-रह कर उसे एक चीज़ खाए जाती थी कि तीनों ही बच्चों के मन में मंजुला के लिए इस कदर नफरत भर गयी थी कि वे चाहते थे कि सत्या मंजुला से कोई सम्बन्ध न रखे | ऐसा न होते देख वे सत्या से भी कटने लगे थे |

सत्या की कमज़ोर स्थिति आख़िरकार उसके ‘सीनियर मैनेजमेंट’ को खटकने लगी | कोई भी ‘व्यापारी’ काम और पैसे का नुकसान एक सीमा तक ही बर्दाश्त कर सकता है | उन्होंने तीन महीने की तनख्वाह देकर सत्या से पीछा छुड़ा लिया |

सत्या ने दोनों बेटियों से संपर्क बनाने की कोशिश की, मगर उन्होने जवाब नहीं दिया | भास्कर तो पहले ही इस सारे झमेले से दूर हो चुका था | व्हाटसेप से छुटपुट संवाद हो जाता था | उनको कहीं ये शक भी था कि सत्या को कोरोना चल रहा था | इस का बहाना बना कर मिलने से बच रहे थे |

सत्या का स्वास्थ धीरे धीरे गिर रहा था | घर में अकेलापन नहीं सुहाता था | कभी सोचने लगता था –“मैं बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाया | इस मामले में मैं ‘फ़ेल’ हुआ |” सत्या घर में तो अकेला था ही, वो खुद को दुनिया में भी ‘अकेला’ महसूस करने लगा था | विचारों के एक अजीब भँवर में फँसता चला जा रहा था | उधर, दोनों किडनी साथ छोड़ रही थीं | कुछ नहीं तो कई सौ लोगों को, मित्रों को, ‘काउन्सलिंग’ करके ‘डिप्रेशन’ से निकाल चुका ‘काउंसेलर’ आज खुद ‘डिप्रेशन’ का शिकार हो गया था | पहले कभी-कभार ‘टिफिन’ लाने वाला लड़का ‘टिफिन’ लाता तो देखता था कि पहले वाला ‘टिफिन’ ज्यों का त्यों रखा हुआ है | उसने पहले इतना ध्यान नहीं दिया | जब अक्सर ही ऐसा होने लगा तो उसने भाटिया साहब को बता दिया | उन्हें चिंता हुई कि मामला क्या है और उन्होंने सुरेश को फ़ोन करके इसकी सूचना दी | सुरेश शाम को ऑफिस से निकल कर पहले सत्या के पास पहुंचा | सत्या की गिरती हुई हालत साफ़ दिख रही थी |
- “भाई साहब, भाटिया जी कह रहे थे कि आजकल आप खाना ठीक से नहीं खा रहे हैं | तबीयत ठीक न हो तो डॉक्टर के पास चलते हैं |” अधिकतर लोग ‘डिप्रेशन’ के लक्षण समझ नहीं पाते और सुरेश भी उन में से ही था |
- “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है | कभी-कभी बस यूहीं खाने का मन नहीं करता |”

ये सच है कि ‘टेक्नोलॉजी’ के विकास के साथ दुनिया सिमट रही है | परन्तु, उससे भी बड़ा सच ये है कि नए भारत में ‘परिवार’ उससे भी अधिक तेज़ी से सिमट रहा है | सामाजिक मूल्य बदल रहे हैं | ‘परिवार’ की परिभाषा ‘पति, पत्नी और बच्चों’ पर आ कर टिक गयी है | आज के युवा को खुल कर ये कहने में ये हिचक नहीं है कि ‘वह समझदार’ है और उसके माँ-बाप ‘प्रैक्टिकल’ नहीं थे | स्वाभाविक है कि इस ‘युवा’ सोच का प्रभाव सबसे अधिक 50-60 की उम्र वाले ‘पुराने’ लोगों पर पड़ा है | सत्या यही सोच-सोचकर अकेलेपन और निराशा के बीच झूल रहा था | |

सत्या की स्थिति तेज़ी से बिगड रही थी | खाना-पीना बहुत कम कर दिया था | सुरेश अब रोज़ ऑफिस से लौटते हुए, तो कभी ऑफिस जाते हुए भी, सत्या के पास आता था | अब उठने बैठने में भी बहुत तकलीफ़ होने लगी थी | एक दिन सुरेश ने देखा कि सत्या का पाजामा और बिस्तर गीले हैं | दोपहर का ‘टिफिन’ सामने स्टूल पर अनछुआ रखा है | उठा कर देखा तो भारी लगा |
- “भाई साहब, ये कैसे हुआ ? आपने ‘लंच’ भी नहीं खाया ?”
- “हाँ, खाने का मन नहीं हुआ | सुबह से कमजोरी लग रही थी | बाथरूम जाना था, पर उठा ही नहीं गया |
सुरेश उस दिन कमरे का दृश्य देखकर अनजानी आशंका से कांप गया | वो चाह रहा था कि मंजुला को ले आए ताकि सत्या को अकेलापन न लगे |
- “मैं भाभी को ले आता हूँ | वो आपके साथ में रहेंगी तो आपका मन बदलेगा | आप मुझे उनका मोबाइल नंबर दे दीजिये | मैं बात करके उनको लाने का प्रोग्राम बना लेता हूँ |”
- “नहीं सुरेश | मेरा किसी से भी मिलने का मन नहीं होता | परसों मंजुला का फ़ोन आ रहा था, मैंने उठाया ही नहीं |”

सुरेश अभी तक पुरानी पारिवारिक परंपरा वाला व्यक्ति था | अगर बड़े भाई ने सख्ती से किसी बात के लिए मना कर दिया है, तो उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, बेशक वो बात हमें पसंद न भी हो | सुरेश इतना दुस्साहस भी नहीं कर सकता था कि चुपचाप सत्या के फ़ोन से मंजुला का नंबर निकाल ले |

जल्दी ही सत्या की स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि उसको घर में अकेले नहीं छोड़ा जा सकता था | सुरेश ने एक ‘होस्पिस केयर सेंटर’ से संपर्क किया, जहाँ ऐसे मरीजों को रखा जाता है जो अपनी देखभाल करने लायक नहीं होते और जिनके परिवार का कोई व्यक्ति उनकी देखभाल के लिए नहीं होता | केंद्र के कर्मचारी ही मरीजों की पूरी देखभाल करते हैं | सुरेश ने सत्या को अगले दिन वहाँ भर्ती कर दिया | वहाँ के नियम के अनुसार सुरेश दिन में एक बार उससे मिल सकता था | एक दिन के बाद ही सत्या ने खाना खाना बिलकुल बंद कर दिया |
हर सवाल पर उसका बस एक ही जवाब था – “मुझे जीने की कोई इच्छा नहीं है, खाने की इच्छा भी नहीं है |”
केंद्र के अधिकारियों ने सुरेश से बात की और उसे सत्या के साथ रहने की ‘विशेष अनुमति’ दे दी | सुरेश किसी प्रकार थोड़ा बहुत खिला देता था | साँस लेने में भी तकलीफ़ होने लगी थी, मगर किसी भी कीमत पर उसे दवाई लेना भी मंजूर नहीं था |

उस दिन शाम को उसने बड़ी मुश्किल से एक कटोरी खिचड़ी खायी | फिर सुरेश को बिस्तर पर ही अपने पास बैठने के लिए इशारा किया और धीरे से बोला - “ सुरेश, तुम इतने दिन से काम, घरबार छोड़ कर मुझे संभाल रहे हो | मेरी जीने की इच्छा बिलकुल खत्म हो चुकी है | जाने से पहले मैं तुमको ‘थैंक यू’ बोलना चाहता हूँ |” यह कहते हुए उसने सुरेश का हाथ अपने हाथों में ले लिया | सुरेश को सत्या का अचानक ऐसा व्यवहार अप्रत्याशित लगा |

अगली सुबह का सूरज देखने से पहले ही सत्या ने सबसे विदा ले ली |

सुरेश ने विजया, भास्कर और लता को फ़ोन से सूचना देने की कोशिश की, मगर किसी ने भी फ़ोन नहीं उठाया | हार कर उसने सबको ‘मेसेज’ कर दिए | सुरेश ही अंतिम संस्कार की सारी तैयारी कर रहा था | आखिरी वक्त तक किसी ने भी उस से संपर्क नहीं किया | अकेले सुरेश और उसके एक मित्र ने सत्या के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को पूरा किया |

यूँ तो सत्या से पहले मेरे कई दोस्त मुझे अचानक छोड़ कर चले गए थे, परन्तु सत्या के जाने से मेरे जीवन में जो शून्यता आ गयी थी, मैं नहीं कह सकता कि वो कभी भर पायेगी |

मैंने और सत्या ने चालीस साल दुःख-सुख बांटते हुए एक दूसरे की ज़िन्दगी को छुआ था | आज की दुनिया में दोस्ती तो छोडिये, खून के रिश्ते भी फ़ायदे-नुकसान के आधार पर बनते बिगड़ते हैं | सत्या आपसी रिश्तों में कभी कोई हिसाब-किताब नहीं लगाता था | कहीं मेरी सोच भी ऐसी ही है | अपनी सफलता के पैमाने हम खुद बनाते हैं | सत्या इस दुनिया का प्राणी नहीं था और अंत में उसी दुनिया में वापस लौट गया | वो दूसरों के लिए जीने को ही यहाँ आया था |

उसकी वो बात मेरे कानों में गूंज रही थी -“कोई मुझे बंदूक से नहीं मार सकता, लेकिन प्यार से मार सकता है |” वो आदमी ज़िन्दगी भर प्यार बांटता रहा और जब उसे प्यार की ज़रुरत पड़ी तो आस पास कोई नहीं खड़ा था | उस प्यार की कमी ने ही उसकी जान ले ली |
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