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हवेली - 8

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चारों तरफ सन्नाटा राज़ कर रहा था। सारे विद्यार्थी अपने-अपने कमरे में आराम कर रहे थे। हवेली की सारी बत्तियाँ बंदकर चौकीदार जा चुका था। अन्वेशा पलंग पर अस्त-व्यस्त सोई हुई है। यह बताना मुश्किल है कि वह नींद में है या नहीं, वह नींद में बड़बड़ा रही थी। जैसे वह किसी से बात कर रही हो या कोई उसे पुकार रहा हो। एक अनजान-सी पुकार उसे व्यस्त कर रही थी। वह न चाहते हुए भी उस पुकार को नज़रअंदाज नहीं कर पा रही थी। शायद इस वजह से वह कुछ परेशान लग रही थी। वह तय नहीं कर पा रही थी कि उसे जाना चाहिए या नहीं। लेकिन अन्वेशा की मनःशक्ति से ज्यादा वह पुकार उसे हिला रही थी। वह अन्यमनस्क ही उस शक्ति के आगे बेबस लाचार लग रही थी। पलंग से नीचे उतरकर उस अनजानी पुकार के पीछे बिना कोई रोक-टोक चलने लगी।

जैसे एक कठपुतली की तरह किसी के इशारे पर चलती जा रही है । दरवाजा खोलकर बरामदे में आई। बरामदा खाली था। वॉचमैन रात को सारी बत्ती बंदकर हवेली छोड़कर चला जाता है, मगर आज वहाँ मेहमान होने के कारण एक लालबत्ती छोड़कर सारी बत्तियाँ बंद कर दी थीं।

अन्वेशा को लालबत्ती या हवेली के अँधेरे से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। वह अपने आप अँधेरे में चलती जा रही है, जैसे नींद में है। बिना कोई रुकावट, बिना कोई सहारा, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसका हाथ पकड़कर ले जा रही हो और उसके पीछे चलते-फिरते खिलौने की तरह वह चलती जा रही है। न अँधेरा उसे रोक पा रहा था न नई जगह का एहसास। बस चलती जा रही है जैसे कि पहले से ही उस जगह से वाकिफ हो।

बरामदे से सीधे दस मिनट चलने के बाद नीचे की ओर सीढ़ियाँ नजर आयी। सीढ़ियाँ उतरते ही सामने एक लोहे का कपाट था। उसे देखकर कोई भी आसानी से ये अंदाजा लगा सकता है कि वह कपाट बरसों से बंद पड़ा है। कपाट पर कोई चाबी नहीं थी। मगर उसे जंजीर से जकड़ा गया था। इस्तेमाल न होने के कारण उस कपाट पर पूरी तरह जंग लगी हुई थी । अन्वेशा सीढ़ियों से उतरकर उस लोहे की कपाट के पास आकर खड़ी हो गई। एक हाथ से वह जंजीर को छूते ही अंदर जाने का रास्ता खुल गया।

नीचे की तरफ जाते हुए कुछ सीढ़ियों को एक-एक कर पार करते उतरने लगी। वहाँ से नीचे सीढ़ियों की तरफ देखा जाए तो एक अँधेरे कुएँ की तरह दिखाई दे रहा था। उस अँधेड़ कुएँ में न जाने कितने नाग फुंकार लगाए बैठे हैं, किस नाग में जहर कितना है उसका पता सिर्फ समय ही जानता है। जिसका एहसास अन्वेशा को बिल्कुल नहीं है। अतीत की यह परछाई किस रूप से बाहर निकलेगी इसकी भी खबर नहीं।

जैसे-जैसे वह आगे बढ़ने लगी अंधेरा भी गहराने लगा। वह चुपचाप सीढ़ियाँ उत्तर रही थी जैसे कि यह वहाँ के हर कोने को बखूबी जानती हो। न अंधेरा उसे रोक पा रहा था न ही डर, बस चलती जा रही थी नीचे, नीचे और नीचे उस हवेली से अति परिचित कोई भी व्यक्ति उस अंधकार में जाने को घबरा जाएगा, लेकिन अन्वेशा ये सब कुछ सोचने या समझने से परे थी। बस उसकी मंजिल उसे बुला रही है और वह चलती जा रही है। उस रास्ते जिस रास्ते उसके पैर उसे ले जा रहे थे। उस अंधेरे कुएँ में न जाने कितने रहस्य दफन होकर रह गये हैं, जिनका पर्दाफाश होने से न जाने किसकी जिंदगी पर इसका असर पड़ेगा पता नहीं।

सीढ़ियों से नीचे उतरकर बाईं तरफ कुछ दूर जाने के बाद एक लंबा बरामदा दिखाई देने लगा। अंधेरे में भी आँखों को वहाँ का साफ नज़ारा दिख रहा था। धुँधली-सी कोई छाया आँखों के सामने हिल रही थी। एक लाल रंग की बत्ती उस जगह को आलोकित कर रही थी। कुछ लोग यहाँ-वहाँ भटक रहे थे, अपने-अपने कार्य में कार्यरत थे। कुछ लोगों की रोने की आवाज रह-रहकर सुनाई दे रही थी। लग रहा था अन्वेशा की मौजूदगी उनमें कोई नयापन या कोई रुकावट नहीं कर पा रही है। उस स्वप्निल लोक, एक अनजाने माहौल से बाहर आना अन्वेशा के लिए नामुमकिन था। सीधा कुछ दूर जाने के बाद अचानक अन्वेशा के पैर रुक गये। उसके दोनों तरफ लोहे के बड़े-बड़े कपाट नज़र आ रहे थे। जैसे कि कोई कैदखाना है।

“पानी....., पानी, मुझे कोई पानी दो।" अति व्याकुल थी वह आवाज़।

"पानी........” जैसे किसी सूखे हुए गहरे कुएँ से आवाज़ निकल रही हो। अन्वेशा के पैर अपने आप ही रुक गए। वह आवाज कान में गूँज रही थी। वह बहुत ही नज़दीक से आ रही थी, लेकिन बहुत ही कष्ट से। सूखे होंठ से निकलते हुए वह आवाज़ बहुत मुश्किल से सुनाई पड़ रही थी। जैसे-जैसे अन्वेशा आगे बढ़ने लगी वैसे-वैसे वह आवाज़ भी बहुत नज़दीक सुनाई देने लगी। कोई यहीं कहीं हो अति पास बहुत करुण है वह आवाज़, अन्वेशा इधर-उधर देखने लगी।

"कौन, कौन है वहाँ ?" अन्वेशा ने पूछा।

कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो गया। एक कैदी घूरती हुई नज़र से उसे देख रहा था। उसकी आँखें अचानक आई उस लड़की को पहचानने की कोशिश कर रही थी। उसकी आँखों में आश्चर्य “सुलेमा, सुलेमा.. तुम आ गई।" आश्चर्यजड़ित आँखे उसे देख रहीं थीं।

"हाँ ये सुलेमा की आवाज़ है। " कोई बड़बड़ाया।

"सुलेमा तुम आ गई। मुझे पता था तुम ज़रूर आओगी। मुझे पता था मुझे बचाने तुम जरूर आओगी। मुझे बचा लो.... मुझे इस कैदखाने से मुक्त कर दो। सुलेमा..... मुझे बचाओ।"

अन्वेशा ने उस तरफ देखा, “अंधेरे कोने में मोटे-मोटे लोहे से बँधी हुई एक परछाई अपने आपको घसीटकर अन्वेशा के पास आने की कोशिश कर रही है, वह परछाई को देखते ही कोई भी डर से काँप जाए। फटे कपड़े, दाढ़ी बढ़कर आधा शरीर ढँक रही थी कि चिड़िया भी घोसला बना सकती है। आँखें लाल, खड़े होने की ताकत भी नहीं पैरों में, शायद कोई पागल या दीवाना अपने दीवानेपन की सजा भुगत रहा है। या कोई बहुत बड़ा जुर्म कर सालों से तयखाने में बंद है। रेंगते हुए वह लोहे की कपाट की तरफ बढ़ रहा था।" उसे देखकर दो कदम पीछे हट गई अन्वेशा । फिर धीरे से उस दरवाज़े के पास जाकर अंदर झाँककर देखा, शायद उस आदमी को पहचानने की कोशिश कर रही है। धीरे-धीरे आँखें नम होने लगीं, कौन कौन हो तुम ?" संदिग्ध नज़र से प्रश्न करने लगी।

"मैं कबीर।"

"कबीर....?"

"हाँ, पहचानने की कोशिश करो सुलेमा, मैं तुम्हारा कबीर।'

"क..बी...र.!" अन्वेशा के होंठ उस शब्द को बार-बार दोहराने लगे।

“हाँ, मैं तुम्हारा कबीर सुलेमा।”

“मेरा कबीर...” अनजाने ही अन्वेशा की आँखों में अश्रु झलक रहे थे।

“पहचानने की कोशिश करो सुलेमा, मैं तुम्हारा कबीर ही हूँ।"

“नहीं, तुम कबीर नहीं हो सकते। कबीर तो....।”

"मर चुका है यही न ! लेकिन देखों मैं तुम्हारे सामने हूँ और इन सब ने मेरी क्या हालत बना दी है। "

"कबीर, कबीर... तुम कबीर हो। "

"लेकिन तुम तो... नहीं यह मेरा भ्रम है, तुम कबीर नहीं हो सकते। कबीर तो मर चुका है।"

"मैं कबीर ही हूँ सुलेमा सालों से यहीं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ। तुम गईं थीं  सुलेमा,मुझे मिलने क्यों नहीं आईं।”

अन्वेशा काँप रही थी। वह युवक अन्वेशा को सुलेमा कहकर पुकारता रहा था। तब कुछ लोग अंदर आये। उनकी पोशाक से उस जेल के पहरेदार लग रहे थे। उनका चेहरा और शरीर लोहे की ढाल से ढँका हुआ था। लोहे की जंजीर उनके हाथों में थी, लोहे के कपाट खोलकर उस आदमी को वहाँ से ले जाने लगे। वे बस अपना काम कर रहे थे, अन्वेशा की मौजूदगी से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था या अन्वेशा के उस जगह पर होने का कोई अस्तित्व ही नहीं था।

"मुझे बचाओ सुलेमा, मुझे यहाँ से ले चलो। देखो, सुलेमा वे आ रहे हैं, मुझे यहाँ से ले जाएँगे और फिर लोहे की छड़ी से मुझे...., वह आ रहा है। सुलेमा मुझे बचाओ।" उस आदमी के हाथ अन्वेशा की तरफ मदद के लिए पुकार रहे थे, आँखों से नीरव अश्रु बहने लगे

अन्वेशा की आँखों से आँसू बह रहे थे और वह निर्लिप्त ,निःशब्द, निर्विकार देख रही थी। वह खुद नहीं जानती थी कि उसे क्या करना है। वह अपने आप में बड़बड़ाने लगी, "उसे छोड़ दो, उसे छोड़ दो। "

जंजीर से बँधा हुआ आदमी यह जान गया था कि उसकी आखिरी विदाई का समय आ पहुँचा है। जाने से पहले वह सुलेमा को एक नजर जी भरकर देखकर उन लोगों के साथ वहाँ से रुखसत हो गया।

"रुक जाओ, उसे छोड़ दो।” काँपते हुए होंठों से अन्वेशा बड़बड़ाने लगी। ' "रुको छोड़ दो, छोड़ दो उसे।"

अचानक ही उस लोहे की कपाट को पकड़कर जोर-जोर से हिलाते हुए अन्वेशा अपने आप में बड़बड़ाने लगी। अन्वेशा के चेहरे का रंग उड़ चुका था। उसकी अस्पष्ट आवाज़ समझना मुश्किल था। चेहरे पर अजीब-सी घबराहट और परेशानी, होंठों को जोर से दबाते हुए, मन में क्रंदन ,कुछ करने की चाह मगर कुछ न कर पाने की मजबूरी, धीरे-धीरे हाथ की पकड़ ढीली होती रही और आवाज कम होने लगी। वह वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ी।