Bandhan Prem ke - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

बंधन प्रेम के - भाग 16

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मेजर विक्रम अस्पताल में करीब एक हफ्ते रहे। वहां से छुट्टी मिलने पर शांभवी के यहां तीन दिन और रुके। इन दस दिनों में शांभवी ने पूरी लगन से उनकी सेवा की।यहां तक कि उसने दिवंगत शौर्य के गांव उनकी मां दीप्ति के पास जाने का निर्णय भी स्थगित कर दिया। पहले के तय निर्णय के अनुसार कर्नल राजवीर के नई दिल्ली से लौटने के तीसरे दिन शांभवी को दीप्ति के पास जाना था। इसके एक दिन पहले ही आतंकवादी हमले वाली घटना हो गई और इसका समाचार भी दीप्ति ने टीवी पर देख लिया था।
मेजर विक्रम का नाम सामने आने पर वह थोड़ा सोच में पड़ गई। जिन परिस्थितियों में मेजर ने बहादुरी का परिचय दिया था,वह सोचने लगी कि शौर्य अगर जीवित होता तो उसने भी इसी तरह की बहादुरी दिखाई होती ,अपनी जान पर खेलकर।अगले दिन शांभवी का फोन आया कि आंटी हमारे परिवार के परिचय के एक मेजर यहां एक हमले में घायल हुए हैं और उनकी देखरेख हमारे घर से ही हो रही है, इसलिए आंटी मैं अभी कुछ दिनों के बाद आपके पास आऊंगी।

दीप्ति-शांभवी तो यह कल रात मंदिर के पास वाली घटना तो नहीं?

शांभवी- हां आंटी एकदम वहीं घटना ...तो आपने टीवी पर देख लिया लगता है समाचार..

दीप्ति-हाँ बेटी। और उन मेजर का क्या नाम बताया तुमने?

शांभवी-जी विक्रम….मेजर विक्रम,आंटी।

दीप्ति ने प्रसन्नता जाहिर की:- ओह, तो ये विक्रम वही हैं….. उस दिन वाले बहादुर…

दीप्ति ने बताया- पता नहीं क्यों, टीवी पर इस समाचार की डिटेल देख कर मुझे ऐसा लगा कि यह शौर्य की ही उम्र के होंगे और स्वभाव में भी शौर्य जी जैसे ही बहादुर हैं…….

शांभवी- जी आंटी अब मैं तो उनके साथ ही हूं सचमुच वे शौर्य जी जैसे ही हैं और दिखते भी उनके ही जैसे हैं।

दीप्ति यह सुनकर थोड़ी भावुक हो गई और जब शांभवी ने उसे यह बताया कि वह विक्रम जी के हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होने और ठीक होने के बाद उनके पास गांव आएगी और हो सकता है, विक्रम भी शांभवी को छोड़ने के लिए गांव तक आ जाए तो यह जानकर शांभवी अत्यंत प्रसन्न हो गई। सोचने लगी कि सेना में त्याग, बलिदान और बहादुरी की परंपरा शुरू से है। अब उसे थोड़ा अफसोस होने लगा कि क्यों उसने कभी मन से शौर्य के सेना में जाने का कभी समर्थन नहीं किया। कहीं न कहीं अपने जीवनकाल में शौर्य को अपने मन में यह दुख अवश्य रहा होगा कि मेरी मां मेरे आर्मी जॉइन करने से खुश नहीं है।

दीप्ति ने शांभवी से यह विशेष अनुरोध किया कि वह विक्रम को एक बार गांव अवश्य ले आए।शांभवी ने कहा कि वह अवश्य कोशिश करेगी और जैसा वह विक्रम का स्वभाव जानती थी कि मेजर विक्रम भी शहीद शौर्य की माता से मिलने के लिए उत्सुक हो उठेंगे।

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मेजर विक्रम के मम्मी और पापा आभा तथा वीरेंद्र को एक हफ्ते बाद ही अपने शहर लौटना पड़ गया था। विशेष धारा के खत्म होने और केंद्र शासित प्रदेश के रूप में इसके पुनर्गठन अधिनियम के लागू होने के बाद लेफ्टिनेंट गवर्नर ने एक कमेटी का गठन किया था,जो राजनैतिक प्रक्रिया और विकास कार्यों को नए सिरे से शुरू करने वाली थी। यह एक स्टेट लेवल की कमेटी थी। वीरेंद्र अपने शहर के प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति थे। अतः उन्हें इस महत्वपूर्ण समिति में लिया गया था और जब इसकी पहली बैठक आयोजित की गई,तो इसमें उनका भाग लेना जरूरी था और इससे पहले आभा को उन्हें घर छोड़ना था, इसलिए वे घर लौट गए। सेना की ओर से मिले दोनों स्पेशल गार्ड भी उनके साथ रवाना हुए।

वहां से रवाना होने के समय वीरेंद्र ने रिटायर्ड कर्नल राजवीर को बहुत धन्यवाद देते हुए कहा कि आपने दोस्ती का फर्ज़ पूरी तरह निभाया है। उन्होंने कहा कि विक्रम पूरी तरह ठीक हो जाए,इसके बाद हम लोगों को विक्रम और शांभवी की शादी में देर नहीं करनी चाहिए। राजवीर और जानकी ने कहा कि हम लोग स्वयं यही चाहते हैं और शांभवी को इसके लिए मनाने की भी कोशिश कर रहे हैं। संभवतः इस बार विक्रम ने अपने स्तर पर शांभवी से बात भी कर ली है।

जानकी- लेकिन मुझे लगता है कि बात अभी भी नहीं बन पाई है, क्योंकि शांभवी के मन में शौर्य की यादें ताजा हैं और वह इन यादों को अपने मन से कभी हटाना नहीं चाहती है।

राजवीर- मैं समझता हूं भाभी कि शांभवी की दृष्टि में उसके लिए दीप्ति की सेवा करना अनिवार्य है,क्योंकि शौर्य का परिवार उसका परिवार है।

आभा- मैं कभी दीप्ति जी से मिली नहीं हूं लेकिन जब उन्हें यह बात पता लगेगी तो वह खुद प्रसन्न होंगी, क्योंकि वे स्वयं ये नहीं चाहेंगी कि शांभवी अपना जीवन यूं ही शौर्य की यादों में गुजार दे।

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मेजर विक्रम अब ठीक हो चुके थे।शांभवी को दीप्ति के पास छोड़ने के लिए वे स्वयं गए। दीप्ति के घर पहुंचकर जब विक्रम ने पहली बार दीप्ति के चरण छुए तो वह उसे देखते ही रह गई।शौर्य की कद काठी,चेहरा भी करीब-करीब मिलता-जुलता था। उन्हें देखकर दीप्ति को अपने बेटे शौर्य की याद आई। अत्यंत खुशी से विक्रम को अपने गले लगाते हुए दीप्ति ने कहा-बहुत बहुत आशीर्वाद बेटा,तुमसे मिलकर मुझे बहुत खुशी हो रही है। बिल्कुल तुम्हारी तरह ही दिखता था शौर्य।

मेजर विक्रम जैसे पहले से बहुत कुछ सोच कर दीप्ति के घर आए थे। उन्होंने एक नई कहानी प्रस्तुत करते हुए कहा-
मम्मी जी,मैं केवल शौर्य जी की तरह दिखता ही नहीं हूं बल्कि हम दोनों बहुत गहरे दोस्त भी रहे हैं। अब मैं आपको जो जानकारी दूंगा उसे सुनकर आप स्तब्ध रह जाएंगी।

दीप्ति की उत्सुकता बढ़ गई। उसने कहा-
बेटे पहले बैठोगे भी इत्मीनान से….. कि बस खड़े-खड़े ही पूरी कहानी सुनाओगे। और मैं तो तुमसे पूछना भूल ही गई कि तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है?उन दुष्ट आतंकवादियों ने तुम्हारे हाथ में गोली मार दी थी।... अरे शांभवी तुम भी खड़े खड़े क्या देख रही हो?बिठाओ विक्रम को पहले... भीतर से पहले पानी और मीठा कहवा बनाकर लाओ।

मुस्कुराते हुए उलाहना देकर शांभवी ने कहा- जी मम्मी जी, अभी लाई। अब आर्मी वालों पर आपकी विशेष कृपा होगी ही आप ने एक झटके में मुझे ही अपने से थोड़ा दूर कर दिया और विक्रम जी आप के निकट हो गए।

शांभवी ने भी मुस्कुराकर कहा- तुम तो बेटी हो और अभी यह हमारा गेस्ट है।

शांभवी भीतर गई और दीप्ति ने मेजर विक्रम को सोफे पर बिठाया। दोनों कुछ देर चुप रहे। दिवंगत मेजर शौर्य की एक बड़ी सी फोटो ड्राइंग रूम में थी। एक दूसरी फोटो में वह आर्मी की यूनिफार्म में थे और सच में आर्मी यूनिफॉर्म में सारे आर्मी वाले एक जैसे ही दिखते हैं।

खामोशी अधिक गहरी हो जाती, इसके पहले इसे तोड़ते हुए मेजर विक्रम ने कहा- अगर मैं आपको मम्मी जी कहकर बुलाऊं तो आपको बुरा तो नहीं लगेगा?

दीप्ति ने प्रसन्न होते हुए कहा- बुरा क्यों लगेगा? मुझे तो अच्छा ही लगेगा। तुम आर्मी से हो और शौर्य की ही उम्र के हो।

थोड़ी ही देर में दीप्ति पानी और राज्य का प्रसिद्ध पेय कहवा ले आई।मेजर विक्रम ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा- केवल एक ही उम्र के हैं, इतना ही नहीं बल्कि हम लोग एक जैसे ही हैं। अब मैं आपको इसके पीछे का किस्सा बताता हूं…... वैसे शौर्य से मेरा परिचय देहरादून की मिलिट्री एकेडमी में ही हुआ था और वे मुझसे एक बैच सीनियर थे। उन्होंने ग्रेजुएशन के आखिरी साल में ही सीडीएस की परीक्षा दी थी। मैं ग्रेजुएशन के बाद एक साल तक पीजी करने की सोच रहा था और एक अच्छे विकल्प की तलाश में था इसलिए मैंने यह परीक्षा उनके बाद वाले बैच में दी अन्यथा हम लोग लगभग एक ही उम्र के थे। तब प्रशिक्षण के बाद शौर्य को लेफ्टिनेंट के रूप में आर्मी ज्वाइन किए कुछ दिन ही हुए थे……. तब वे कैप्टन या मेजर नहीं बने थे ।मुझे अच्छे से याद है हमारा पहला परिचय ही एक अजीब सी स्थिति में हुआ। किसी कार्य से वे देहरादून एकेडमी जिस दिन आए थे उस दिन संयोग से राखी थी और हमारे कुछ साथी ट्रेनी ऑफिसर्स एक जगह इकट्ठा होकर इस त्योहार को मना रहे थे। तब एकेडमी की ही हमें प्रशिक्षण देने वाली कुछ महिला ट्रेनी ऑफिसर्स और कुछ एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर्स के परिवार की महिलाएं और लड़कियों ने हम लोगों को आकर राखी बांधी थी। आर्मी की हर बैच के लोग इसे करते थे…. हर साल... यह नितांत निजी आयोजन होता था और हम सबने भी इसे बड़े भावुक अंदाज में मनाया क्योंकि हम सब अपने-अपने घरों से दूर थे।

शांभवी को भी इस गढ़े-गढ़ाए किस्से को सुनने में मजा आ रहा था। वह सोचने लगी कि विक्रम जी बातें बनाने में भी माहिर हैं।

विक्रम आगे का किस्सा बताने लगे…... तो उस दिन यह हुआ कि राखी बंधवाने का कार्यक्रम समाप्त हो चुका था। ऐसे में शौर्य जी आते हुए दिखाई दिए और वहां उपस्थित लोगों ने उनका अभिवादन किया।

…..राखी के कार्यक्रम के बारे में भी वे जानते ही थे कि यह एक अघोषित परंपरा सी है।वे खुश हो गए और अपनी सूनी कलाई दिखाकर पूछने लगे कि मुझे कौन राखी बांधेगा? …..तब तक लड़कियां वापस लौट चुकी थीं…. किसी को कोई उत्तर नहीं सूझा और मैंने अपने पास रखी हुई एक राखी हाथ में लेकर उनकी ओर बढ़ाई और कहा…... सर मैं बन जाता हूं आपकी बहना…. सब खिलखिला कर हंस पड़े और शौर्य जी ने बड़े प्रेम से मुझसे राखी बंधवाई। उन्होंने मजाक में मुझसे कहा भी- देख छुटके, तूने मुझे राखी बांधी है, बहन की हैसियत से लेकिन तू मेरा छोटा भाई है और इसलिए भैया मेरे…. मैं और तुम अब सदा के लिए भाई भाई तो हो ही गए….
मैंने भी शौर्य जी को तुरंत जवाब दिया था-
-हां हां सर, यह मेरा सौभाग्य होगा।
और उन्होंने मुझे गले लगा लिया था। इस तरह हम भाई-भाई बने और जब उनका प्रमोशन लेफ्टिनेंट से कैप्टन के पद पर हुआ तो मैं प्रशिक्षण पूरा कर पहली बार लेफ्टिनेंट बना और जब वे मेजर बने तो मैं प्रमोशन से कैप्टन बना ।अफसोस कि अब जब मैं भी मेजर बन चुका हूं तो वे अभी यहां नहीं हैं....आगे -आगे शौर्य जी और पीछे पीछे मैं.......
दीप्ति यह सुनकर और भावुक हो गई।उसने कहा-
यह बड़ी विडंबना है कि इस इतनी प्यारी सी घटना के बारे में उसने मुझे कभी नहीं बताया ...शायद उसका ध्यान नहीं रहा हो…..।

विक्रम ने आगे कहा -अब बताइए मैं आपका बेटा हुआ ना?

अपने आंसू पूछते हुए दीप्ति ने कहा- हां बेटा, क्यों नहीं? और जब शौर्य ने ऐसा कहा है तब तो बिल्कुल ऐसा ही है। उन्होंने विक्रम को गले लगा लिया।शांभवी की आंखों में भी आंसू की कुछ बूँदें आ गईं। उनके मन में विक्रम के प्रति श्रद्धा और बढ़ गई। दीप्ति ने भी मेजर विक्रम को एक-दो दिनों के लिए रुकने के लिए कहा और वे मान गए।
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इन दो दिनों में मेजर विक्रम ने शौर्य की उपस्थिति को घर के हर कोने में महसूस किया।वे शौर्य के पिता के स्मारक भी गए और पूरे गांव का भी उन्होंने भ्रमण किया। शांभवी उन्हें इस घर के खेत व सेब के बाग दिखाने के लिए भी ले गई।

यहां से मेजर विक्रम को अब अपने शहर लौटना था।उसे विदा करते समय दीप्ति और शांभवी दोनों भावुक हो गए। मेजर विक्रम के इस एक वाक्य से शांभवी और अधिक भावुक हो गई कि मम्मी जी, तुम्हारा यह दूसरा बेटा अभी तो आपसे दूर जा रहा है, अपने एक और माता- पिता के पास और वहां से वह यूनिट भी चला जाएगा…. अपनी ड्यूटी करने लेकिन वह जल्दी ही तुम्हारे पास आएगा…….।

(क्रमशः)

योगेंद्र

(कहानी के इस भाग को मनोयोग से पढ़ने के लिए मैं आपका आभारी हूँ। शांभवी,दीप्ति और मेजर विक्रम की इस कहानी में आगे क्या होता है, यह जानने के लिए पढ़िए इस कथा का अगला भाग आगामी अंक में। )

(यह एक काल्पनिक कहानी है किसी व्यक्ति,नाम,समुदाय,धर्म,निर्णय,नीति,घटना,स्थान,संगठन,संस्था,आदि से अगर कोई समानता हो तो वह संयोग मात्र है।)


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