Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 68 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 68

भाग 67 जीवन सूत्र 81, 82, 83


81 मोह-माया के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का मार्ग


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3/28।।

इसका अर्थ है, हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग की वास्तविकता (तत्त्व)को जानने वाला ज्ञानी पुरुष यह जानकर कि "गुण ही गुणों में व्यवहार कर रहे हैं,"अभीष्ट कर्म में आसक्त नहीं होता।

प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था है।बुद्धि संसार का पहला अविभाज्य तत्व है। इससे अहंकार (मैं पन) का चेतना के रूप में अगणित अहंकारों में विभाजन होता है।अहंकार से मन और ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा)संबंधित होती हैं।पांच कर्मेंद्रियां(हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग)विभिन्न कार्यों को करती हैं।साथ ही पाँच तन्मात्राएँ (रूप,रस,गंध, स्पर्श और शब्द) और पाँच महाभूत(अग्नि,जल,पृथ्वी,वायु,आकाश)संबंधित होते हैं।प्रकृति जड़ एवं पुरूष चेतन तत्व है। प्रकृति से यह संसार उत्पन्न होता है।पुरूष चेतना युक्त और आत्मा तत्व है।यह 25वां तत्व उक्त 24 कहे गए ( संयुक्त रूप से गुण विभाग कहे जाने वाले) तत्वों की सक्रियता का प्रज्वलन स्रोत है। इस गुण विभाग की चेष्टा ही कर्म विभाग है। चाहे विराट ब्रह्मांड हो या एक मनुष्य।यह गुण विभाग अपने विभिन्न रूपों में हर कहीं है और इनसे बरतता हुआ वह परमात्मा तत्व या प्राणियों के भीतर स्थित आत्मा तत्व भी हर कहीं है।

जीवन सूत्र 82 :आत्मा पर मोह माया की छद्म परतें ना चढ़ने दें

जरा सोचें,आत्म तत्व(पुरुष तत्व) अगर इनसे निर्लिप्त रहते हुए काम न करे,यह साक्षी भाव से कर्मों को केवल नियंत्रित करने के बदले स्वयं इनमें शामिल हो जाए तो क्या होगा? यह पुरुष तत्व भी मोह माया के अधीन हो जाएगा।हम आत्मा का मूल कार्य छोड़कर उसे बंधनों में बांधने की कोशिश करने लगेंगे।हमारी आसक्ति, हमारी मोह माया की परतें उस पर चढ़ती जाएंगी।मोक्ष के रूप में सहायक हो सकने वाले इस मानव देह को तब हम अनेक जन्म और जन्मांतर के चक्र में फंसा देंगे।

जीवन सूत्र 83 :दुर्गुणों को छोड़ना होगा एक झटके में

भगवान कृष्ण निर्देश देते हैं कि गुण ही आपस में व्यवहार कर रहे हैं और ज्ञानी व्यक्ति इन्हें समझते हुए इनसे निर्लिप्त ही रहे तो कल्याण है।मोह माया के बंधनों से एक झटके में बाहर निकल आना तो मुश्किल है,लेकिन अपने कल्याण के लिए और इस दलदल युक्त बंधन से बचाव के लिए कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी।


(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय