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मंगलसूत्र - 7

मूल लेखक - मुंशी प्रेमचंद

बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं। उनके देहांत होने के बाद उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रुपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी, पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रद्धा थी वह उसे इस घर से बाँधे हुए थी। और यहाँ अनादर और अपमान सब कुछ सह कर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डाँटते रहते थे, पर उनके डाँटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड़ के थे। लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खिलाया था। अब वही तिब्बी उसे डाँटती थी और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनों ही घरों में लड़कियाँ भी थीं, बहुएँ भी थीं। सब उसका आदर करती थीं। बहुएँ तो उससे लजाती थीं। अगर उससे कोई बात बिगड़ भी जाती तो मन में रख लेती थीं। उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहा। बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष ले कर उनसे लड़ती थी। और यह लड़की बड़े-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती। लोग कहते हैं पढ़ने से अक्ल आती है। यही है वह अक्ल। उसके मन में विद्रोह का भाव उठा - क्यों यह अपमान सहे? जो लड़की उसकी अपनी लड़की से भी छोटी हो,उसके हाथों क्यों अपनी मूँछें नुचवाए? अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता। वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पा कर मर्माहत हो जाता है।

घूरे ने टी-टेबल ला कर रख दी, पर आँखों में विद्रोह भरे हुए था।

तिब्बी ने कहा - जा कर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाए।

घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुना कर अपनी एकांत कुटी में जा कर खूब रोया आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता।

बैरा ने चाय मेज पर रख दी। तिब्बी ने प्याली संतकुमार को दी और विनोद भाव से बोली - तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं।

संतकुमार ने एक घूँट पी कर कहा - कम-से-कम इसका स्वाँग तो करते ही हैं।

- मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूँ। जिसे प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाए। मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूँ, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाए।

- उस पर भी तो पुरुषों पर आक्षेप किए जाते हैं।

तिब्बी चौंकी। यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है।

अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पड़ेगा - तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरुष देवता होते हैं? आप भी जो वफादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से। मैं इसे वफादारी नहीं कहती। बिच्छू के डंक तोड़ कर आप उसे बिलकुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता।

संतकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा - अगर मैं भी यही कहूँ कि अधिकतर नारियों का पतिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी?

तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा - मैं इसे कभी न स्वीकार करूँगी।

क्यों?

- इसलिए कि मर्दों ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती है, उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं। बिन ब्याहा पुरुष चैन से खाता है, विहार करता है और मूँछों पर ताव देता है। बिन ब्याही स्त्री रोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है। यह सारा मर्दों का अपराध है। आप भी पुष्पा को नहीं छोड़ रहे हैं, इसीलिए न कि आप पुरुष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता!

संतकुमार ने कातर स्वर में कहा - आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं। मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड़ रहा हूँ कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता। अगर मैं आज उसे छोड़ दूँ तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी।

तिब्बी मुस्कराई - मेरी तरफ से आप निश्चिंत रहिए। मगर एक ही क्षण के बाद उसने गंभीर हो कर कहा - लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूँ।

- मुझे आपके मुँह से ये शब्द सुन कर कितना संतोष हुआ। मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूँ और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पड़े।

- आपके ऊपर मुझे सचमुच दया आती है। क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए। शायद मैं उन्हें रास्ते पर ला सकूँ

संत कुमार ने ऐसा लंबा मुँह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उसके मर्म पर चोट लगी है।

- उसका रास्ते पर आना असंभव है, मिस त्रिवेणी। वह उलटे आप ही के ऊपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएँ कर बैठेगी। और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जाएगा।

तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा - तब तो मैं उससे जरूर मिलूँगी।

- तो शायद आप यहाँ भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी।

- ऐसा क्यों?

- बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाए और आप उसकी हिमायत करने लगें।

- तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतरफा डिग्री दे दूँ?

- मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूँ, आपसे अपनी मनोव्यथा कह कर दिल का बोझ हलका करना चाहता हूँ। उसे मालूम हो जाए कि मैं आपके यहाँ आता-जाता हूँ तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।

तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया - तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं? डरना तो मुझे चाहिए।

संत कुमार ने और गहरे में जा कर कहा - मै आपके लिए ही डरता हूँ, अपने लिए नहीं।

तिब्बी निर्भयता से बोली - जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए।

- मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता।

- आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं?

- यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं।

- मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे।

- दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं।

- अधिकतर शिकारी किस्म के। स्त्रियों में तो वेश्याएँ ही शिकारी होती हैं, पुरुषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं।

- जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं।

- स्त्री रूप नहीं देखती। पुरुष जब गिरेगा रूप पर। इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मेरे यहाँ कितने ही रूप के उपासक आते हैं। शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों। मैं रूपवती हूँ, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं। मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे।

संत कुमार ने धड़कते हुए मन से कहा - आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं?

तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा - आपको तो मैं अपने चाहनेवालों में समझती ही नहीं।

संतकुमार ने माथा झुका कर कहा - यह मेरा दुर्भाग्य है।

- आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती। आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं।

- यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूँ

- मैं रहस्य नहीं हूँ। मैं तो साफ कहती हूँ मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूँ, जो मेरे हृदय में सोये हुए प्रेम को जगा दे। हाँ, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो। आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई। मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है। और उससे ऊब गई हूँ। अब जीवन का अँधेरा पहलू देखना चाहती हूँ, जहाँ त्याग है,रुदन है, उत्सर्ग है। संभव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाए, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी ऊँचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जानेवाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए। श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पड़ता है। आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है। मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूँ। बाबू जी को एक हजार रुपए अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है? मगर यह सब समझ कर भी मुझ में कर्म करने की शक्ति नहीं है। इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है। और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा। मेरे मुँह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाए तो मैं बावली हो जाती हूँ। बुद्धि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड़ सकता वही दशा मेरी है। उसी की भाँति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।

तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता था, क्योंकि शंका होती थी कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फब्तियाँ कसने लगेगी। पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है। उसकी आँखें आर्द्र हो गई थीं। मुख पर एक निश्चिंत नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। संतकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है। जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।

बोला - कितनी ही बार। बिलकुल यही मेरे विचार हैं। मैं आपसे उससे बहुत निकट हूँ, जितना समझता था।

तिब्बी प्रसन्न हो कर बोली - आपने मुझे कभी बताया नहीं।

- आप भी तो आज ही खुली हैं।

- मैं डरती हूँ कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं। अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती। इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए। मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए।

संतकुमार ने रसिक भाव से कहा - मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आँखों से देखा।

तिब्बी ने आँखें नीची नहीं कीं। उनका हाथ पकड़ कर बोली - आप तो दिल्लगी करते हैं। मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूँ। मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता।

और जैसे वह आज संतकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती। मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूँढ़ रही थी वह एकाएक मिल गया है।

संत कुमार ने रुखाई भरे स्वर में कहा - स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा दिलेर होती हैं, मिस त्रिवेणी।

- अच्छा, आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें?

इस विशुद्ध मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए संतकुमार का हृदय काँप उठा।

- कुछ न पूछो। बस आदमी एक आह खींच कर रह जाता है।

- मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूँ और वही स्वप्न देखती हूँ। देखिए दुनियावाले कितने खुदगर्ज हैं। जिस व्यवस्था से सारे समाज का उद्धार हो सकता है वह थोड़े-से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है।

संतकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा - उसका समय आ रहा है और उठ खड़े हुए। यहाँ की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो

तिब्बी ने आग्रह किया - कुछ देर और बैठिए न?

- आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आऊँगा

- कब आइएगा?

- जल्द ही आऊँगा।

- काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती।

संत कुमार बरामदे से कूद कर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए। तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही। वह कठोर थी, चंचल थी, दुर्लभ थी, रूपगर्विता थी, चतुर थी, किसी को कुछ समझती न थी, न कोई उसे प्रेम का स्वाँग भर कर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से संतकुमार ने वह आसन पा लिया था और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। संतकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता। अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरुष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है। इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे। पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बन कर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी संतकुमार का उसे गले बाँधे रखना देवत्व से कम नहीं। उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे।

4

संतकुमार यहाँ से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्दी देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को उँगलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती। अब उन्हें विलंब न करना चाहिए। कौन जाने कब तिब्बी विरुद्ध हो जाए और यह दो ही चार मुलाकातों में होनेवाला है। तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे। वहीं मतभेद हो जाएगा। यहाँ से वह सीधे मि. सिन्हा के घर पहुँचे। शाम हो गई थी। कुहरा पड़ना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खड़े थे। इन्हें देखते ही पूछा -

- किधर से?

- वहीं से। आज तो रंग जम गया।

- सच।

- हाँ जी। उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी फेर दी हो।

- फिर क्या, बाजी मार ली है। अपने फादर से आज ही जिक्र छेड़ो।

- आपको भी मेरे साथ चलना पड़ेगा।

- हाँ, हाँ मैं तो चलूँगा ही मगर तुम तो बड़े खुशनसीब निकले - यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है। मैं तो स्वाँग रचता हूँ। और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूँ। जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पाँव ही नहीं रखती। मगर एक बात है, औरत समझदार है। उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाऊँ, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है, और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है। और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाए तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है।

संतकुमार को आश्चर्य हुआ - तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे।

- हाँ, अब भी हूँ, लेकिन रुपए की जो शर्त है। डॉक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूँ। शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता।

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए। देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ। उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है, उसने सदैव उनको ढाढ़स दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे, लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए। बोले - मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर।

संत कुमार ने निस्संकोच भाव से कहा - जरूरत सब कुछ सिखा देती है। स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है। वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है।

- वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो, मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है। मैं थोड़े-से रुपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता।

दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए। कितनी पुरानी दलील है। और कितनी लचर। आत्मा जैसी चीज है कहाँ? और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहाँ रही? अगर सौ रुपए कर्ज दे कर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, फाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद्द कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो?

संतकुमार ने तीखे स्वर में कहा - अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पड़ेगा। इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है। और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है? धर्म वह है जिससे समाज का हित हो। अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो। इससे समाज का कौन-सा अहित हो जाएगा, यह आप बता सकते हैं?

देवकुमार ने सतर्क हो कर कहा - समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है। उन मर्यादाओं को तोड़ दो और समाज का अंत हो जाएगा।

दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे। देवकुमार मर्यादाओं और सिद्धांतों और धर्म-बंधनों की आड़ ले रहे थे,, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेर कर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे, उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते धुन डालते थे, धुनक कर उड़ा देते थे।

सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा - बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं। कानून से हम जितना फायदा उठा सकें,हमें उठाना चाहिए। उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाए। अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है। और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गईं। क्या आप इसे अधर्म कहेंगे? व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम इन कानूनी साधनों से अपना काम निकालें। मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है। संत कुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूँ। मानें या न मानें, आपको अख्तियार है।

देवकुमार ने लाचार हो कर कहा - तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो?

- कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरूद्ध कोई कार्रवाई न करें।

- मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता।

संतकुमार ने आँखें निकाल कर उत्तेजित स्वर में कहा - तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पड़ेगी।

सिन्हा ने संतकुमार को डाँटा - क्या फजूल की बातें करते हो, संत कुमार! बाबू जी को दो-चार दिन सोचने का मौका दो। तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो। तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है। वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जाएगी तो देखना वह क्या करते हैं। हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे, और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है। हिंदुस्तान जैसे गर्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं। हम सिविल सर्जन से इसकी तसदीक करा देंगे।

देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा - मेरे जीते-जी यह धाँधली नहीं हो सकती। हरगिज नहीं। मैंने जो कुछ किया सोच-समझ कर और परिस्थितियों के दबाव से किया। मुझे उसका बिलकुल अफसोस नहीं है। अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता हूँ।

और वह आवेश में आ कर कमरे में टहलने लगे।

संतकुमार ने भी खड़े हो कर धमकाते हुए कहा - तो मेरा भी आपको चैलेंज है - या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी। आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे।

- मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है।

सिन्हा ने संत कुमार को आदेश किया - तुम आज दर्खास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें। आपको हिरासत में ले लिया जाए।

देवकुमार ने मुट्ठी तान कर क्रोध के आवेश में पूछा - मैं पागल हूँ?

- जी हाँ, आप पागल हैं। आपके होश बजा नहीं हैं। ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं। पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौड़े। आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरुद्ध व्यवहार करना भी पागलपन है।

- तुम दोनों खुद पागल हो।

- इसका फैसला तो डॉक्टर करेगा।

- मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है?

- जी हाँ, यह पक्के सिरफिरों का काम है। कल ही आप इस घर में रस्सियों से बाँध लिए जाएँगे।

- तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो मैं गोली मार दूँगा।

- बिलकुल पागलों की-सी धमकी। संतकुमार, उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाए, वरना जान का खतरा है।