Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 129 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 129


जीवन सूत्र 336 कर्म का त्याग करें तो चिंतन भी ना करें



भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है: -

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5/12।।

इसका अर्थ है,कर्मयोगी कर्मफलका त्याग करके ईश्वर से योग रूपी शान्ति को प्राप्त होता है।कामनाओं की इच्छा से काम करने वाला मनुष्य फल में आसक्त होकर बँध जाता है।

कर्म करने वाले दो तरह के होते हैं।एक ओर कर्मयोगी होता है, जो कर्मों के फल की प्राप्ति की भावना का त्याग करते हुए कार्य करता है। वह न केवल भोग के साधनों का त्याग करता है,बल्कि उसके मन में भी उस त्याग दी गई चीज के प्रति थोड़ा भी आकर्षण शेष नहीं रहता। जैसे किसी ने संकल्प लेकर मिठाई के खाने का त्याग कर दिया लेकिन बार-बार उसका ध्यान मिठाई की ओर जा रहा है तो यह कोई त्याग नहीं हुआ।कर्मयोगी का ध्यान उस विषय की ओर भी नहीं जाता।वह यह भी नहीं सोचता कि देखो मैंने कितना बड़ा त्याग किया है और मैं अपनी संकल्प शक्ति में विजय हुआ हूं।


सूत्र 337 में की भावना का करें विसर्जन


वह अपनी इस मैं की भावना का भी विसर्जन कर देता है,जो उसके भीतर कर्तापन और फिर इस कर्तापन की पुष्टि के लिए आसक्ति को बढ़ाता है।

कर्मयोगी के विपरीत वे मनुष्य होते हैं,जो केवल फल की प्राप्ति के उद्देश्य से काम करते हैं।उनका चिंतन,उनकी चेष्टाएं,उनके कार्य, उनकी योजना, उनकी रणनीति आदि केवल अभीष्ट फल की प्राप्ति तक सिमट कर रह जाते हैं और अगर वह फल प्राप्त नहीं हुआ तो जैसे उन्हें लगता है,उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है।वे निराशा में डूब जाते हैं।


जीवन सूत्र 338 निराशा की स्थिति स्वभाविक लेकिन उबरने का जल्द शुरू करें प्रयास


इन पंक्तियों के लेखन का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य के जीवन में निराशा की स्थिति नहीं बनती है या नहीं बननी चाहिए।आशा निराशा के मनोभाव भी स्वाभाविक हैं,लेकिन यहां कसौटी इस बात की है कि कोई मनुष्य कितनी जल्दी इस वास्तविकता को समझ लेता है कि जिस चीज को उसने खो जाना समझ रखा है,वास्तव में वह कभी उसका था ही नहीं। ऐसी निराशा और किसी दुख की स्थिति से बहुत जल्दी उबरने की कोशिश करने में ही जीवन की सार्थकता है।


जीवन सूत्र 339 बार-बार प्रयास है अपने हाथ

इन सबसे बाहर आने के लिए मुझे जो मिल जाए वह प्रभु इच्छा समझकर स्वीकार और गुंजाइश होने पर मैं एक और प्रयास करूंगा के मनोभाव रखना आवश्यक है।


जीवन सूत्र 340 निराशा का दौर ना खिंचने दें लंबा



अगर निराशा का दौर लंबा चलता है तो हम जो खो चुके हैं,उसके साथ-साथ वह भी खोने लगते हैं,जो अभी तक हमारे पास है।

योगेंद्र

(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय