Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 138 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 138


जीवन सूत्र 381 इंद्रियों और विषयों के संयोग से बनने वाले सुख अस्थाई


भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा जारी है।

जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले भोग(सुख) हैं,वे आदि-अंत वाले और दुःख के ही कारण हैं।

(22 वें श्लोक के बाद आगे का वार्तालाप)

जिन चीजों को मनुष्य सुख मानता है,वे विषयों और इंद्रियों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब हमारे मन में सुखों की प्राप्ति के लिए तीव्र चाह उत्पन्न होती है तो यह कामना हमारे सारे कार्यों की दिशा को उसी कामना की प्राप्ति की ओर मोड़ देती है।


जीवन सूत्र 382 कामना प्रभावित सुख क्रोध के कारण



जब हम इन सुखों को अपने लिए अपरिहार्य मान लेते हैं और जब इन सुखों की निर्बाध आपूर्ति में कोई बाधा पहुंचती है तो हम क्रोधित हो उठते हैं।इन प्रक्रियाओं में हमारे भीतर काम (तीव्र कामना) और क्रोध का वेग उठता है। भगवान श्री कृष्ण आगे की चर्चा में कहते हैं: -

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5/23।।



जीवन तो 383 आवेगों को सहना सीखे

हे अर्जुन!इस मनुष्य-शरीर में जो कोई (मनुष्य) शरीर के समापन से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है,वह मनुष्य योगी है और वही सुखी है।

भगवान कृष्ण ने इस श्लोक में एक ऐसी आदर्श स्थिति का निर्देश दिया है जो हम साधारण मनुष्यों के लिए प्रारंभ में अभ्यास से ही संभव प्रतीत होती है।इस आदर्श स्थिति की पराकाष्ठा के रूप में भगवान ने इस देह के अंत से पूर्व इन दोनों आवेगों अर्थात काम और क्रोध के विसर्जन की बात कही है।


जीवन सूत्र 384 मनमाना जीवन जीने से बचें


आज की ज्ञान चर्चा में इस श्लोक का प्रसंग आने के बाद विवेक ने सहज जिज्ञासावश आचार्य सत्यव्रत से पूछा:-

विवेक: गुरुदेव! तो इसका अर्थ यह हुआ कि जीवन में हम चाहे जैसा जीवन जीते रहें और अवस्था हो जाने के बाद इस देह की पूर्णता के पूर्व तक हम इन दोनों आवेगों को अवश्य अपने अधीन कर लें।

सत्यव्रत: नहीं इसका यह अर्थ नहीं है कि हम अपने वर्तमान जीवन को मनमाने ढंग से ही जीते रहें और फिर आगे चलकर कभी यह अवस्था प्राप्त कर लें कि ये दोनों आवेग हमें सताए ना।वहीं इसका तात्पर्य यह है विवेक कि हम अभी से अपनी अनावश्यक अनंत कामनाओं पर लगाम लगाना शुरू करें और क्रोध की स्थितियों से बचने का अभ्यास करते रहें ताकि एक समय आने पर हम इस जीवनकाल में ही इन दोनों आवेगों से मुक्ति प्राप्त कर लेवें।



जीवन सूत्र 385 सुख का करें विस्तार


विवेक: इससे लाभ क्या होगा गुरुदेव?

आचार्य सत्यव्रत: इससे लाभ यह होगा कि हमें अपने जीवन के आगे की अवस्था में उस सुख आनंद और योग युक्त अवस्था की अनुभूति हो जाएगी,जो इस जीवन के समापन अवसर पर और उसके बाद मोक्ष के पूर्व तक आगे की यात्रा के लिए उपयोगी रहेगी।जैसे-जैसे हमारी अवस्था बढ़ती है,कम से कम वैसे-वैसे तो हमें मोह माया और सांसारिक जंजाल से मुक्ति का उपाय करना ही होगा ताकि एक अवस्था वह आ जाए जब हम अपने आराध्य के ध्यान में डूब सकें और बिना किसी बाह्य सुख के साधनों की सहायता लिए उस आंतरिक सुख को अपने अंदर स्थाई रूप से अनुभव करने की पात्रता हासिल कर लें।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय