Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 145 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 145


जीवन सूत्र 419 विपरीत परिणाम के लिए भी रहें तैयार


भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश जारी है।

मनुष्य स्वयं अपना ही मित्र है और स्वयं अपना ही शत्रु है। किसी दूसरे के कारण उसे नुकसान नहीं पहुंचता है,बल्कि मनुष्य स्वयं अपनी रक्षा, अपने आत्म कल्याण, अपने विकास के लिए सजग नहीं रहता है इसी से वह अपने ही हाथों अपना नुकसान कर बैठता है और माध्यम बनते हैं दूसरे लोग।

इसे और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं: -

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।(6/7)।

इसका अर्थ है:-जिसने अपने-आप पर विजय प्राप्त कर ली है।शीत-उष्ण अर्थात जीवन की अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख तथा मान-अपमान में भी शांत अंतःकरण वाले मनुष्य को परमात्मा प्राप्त होते हैं।



जीवन सूत्र 420 स्वयं पर विजय पाना है महत्वपूर्ण


भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी के अर्थ से हम 'जिसने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली है'- इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।वास्तव में स्वयं पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। मनुष्य सारी दुनिया में अपने यश,अपनी कीर्ति की पताका को फहराना चाहता है।वह चाहता है दुनिया का एक श्रेष्ठ, सम्मानित और मान्य व्यक्ति बने, लेकिन दुनिया जीतने के क्रम में कहीं ऐसा न हो जाए कि मनुष्य स्वयं पर विजय न पा सके।वह बात-बात में लोगों के उकसावे पर आ जाए।उसका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण न हो।अपने मनोभावों पर नियंत्रण न हो और ऐसा व्यक्ति अधीर होता है और बहुत जल्दी अपना संतुलन भी खो देता है।

आज की ज्ञान चर्चा में श्लोक का प्रसंग आने पर विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा: -

विवेक: आजकल की परिस्थितियां इस तरह की हैं कि मनुष्य का लगभग पूरा दिन आपाधापी और दौड़ भाग में बीतता है।ऐसे में उसके लिए संयत बने रहना अत्यंत कठिन होता है। गुरुदेव, ऐसे व्यक्ति के लिए क्या उपाय है?

आचार्य सत्यव्रत: यह सत्य है कि सामान्य मनुष्य के लिए उपरोक्त वर्णित अधीरता की स्थिति अस्वाभाविक नहीं है,क्योंकि जीवन संघर्षों की कठिनाइयां,उचित अवसर प्राप्त न होना, प्रतिभा के अनुरूप कार्य का अवसर न मिलना,आगे बढ़ने के लिए उचित संसाधनों का अभाव ,अकस्मात दुर्घटना या महामारी जैसा कठिन वातावरण,ये कुछ वे कारण हैं,जिनमें बड़े से बड़ा ध्यान करने वाले योगी भी डगमगा जाए। उपाय यही है कि मनुष्य इन विपरीत परिस्थितियों के लिए पहले से ही मन को तैयार रखे। अगर मन के अनुकूल परिणाम आ गया तब तो ठीक है,अन्यथा मन इस बात के लिए पहले से ही तैयार रहता है कि अधिक से अधिक यह नुकसान हो सकता था और मुझे इससे उबरकर आगे ही बढ़ते जाना है।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय