Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 14

[ मद्रास विश्वविद्यालय में शोध-वृत्ति ]

फरवरी 1913 में शिमला में 'डायरेक्टर जनरल ऑफ लेबोरेटरीज' के डॉ. गिल्बर्ट टी. वाकर मद्रास
विश्वविद्यालय आए। वह भी एक सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। वे वरिष्ठ रैंगलर, ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो तथा वहाँ गणित के लेक्चरर रहे थे। भारत में कई वर्षों से मौसम के बारे में ठीक जानकारी की कमी के कारण कई कार्य गड़बड़ाए थे और मानसून की सही जानकारी का महत्त्व बढ़ गया था। तब सरकार ने उन्हें ‘इंडियन मेट्रोलॉजिकल’ विभाग का अधिकारी बनाकर भारत बुलाया था।
सर फ्रांसिस ने उनसे रामानुजन का उल्लेख किया और रामानुजन की नोट बुक्स देखने का आग्रह किया। 25 फरवरी, 1913 को डॉ. वाकर ने रामानुजन की नोट बुक्स देखीं। वह भी उस कार्य से बहुत प्रभावित हुए। अगले दिन ही उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार को रामानुजन को शोध- विद्यार्थी बनाने की संस्तुति करते हुए इस आशय का एक पत्र लिखा—
‘जो कार्य मैंने देखा है उसे मौलिकता में मैं कैंब्रिज कॉलेज के फेलो के समकक्ष मानता हूँ, यद्यपि परिस्थितियों के कारण उसमें पूर्णत्व तथा त्रुटिहीनता की कमी स्वाभाविक है। अतः उस कार्य को स्वीकार करने से पहले ठीक करना आवश्यक है। मैं शुद्ध गणित की उस शाखा का विशेषज्ञ नहीं हूँ, जिसमें उसने कार्य किया है। इसलिए संपूर्ण विश्वास से उसकी क्षमता का सही अनुमान नहीं लगा सकता हूँ, जो उसको यूरोपीय मान्यता के समान निश्चित कर सके। परंतु यह बात स्पष्ट है कि विश्वविद्यालय को उसे कम-से-कम कुछ वर्षों तक अपना पूरा समय, जीवन यापन की चिंताओं से दूर, गणित में लगाने का प्रबंध करने का पूरा औचित्य है।’
प्रो. हार्डी एवं वाकर के इन उत्साहवर्धक पत्रों से रामानुजन की स्थिति मद्रास विश्वविद्यालय से गणित-शोध में पूर्णरूप से जुड़ने के लिए स्पष्ट सी हो गई थी। अतः मद्रास विश्वविद्यालय में इस ओर कारवाई आरंभ हुई।
डॉ. वाकर की संस्तुति के आलोक में इंजीनियरिंग कॉलेज के गणित के प्राध्यापक बी. हनुमंथा राव ने 'बोर्ड ऑफ स्टडीज इन मैथेमेटिक्स'की एक बैठक बुलाई। उसमें श्री नारायण अय्यर को रामानुजन के कार्य पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया। 19 मार्च को बोर्ड की बैठक में विश्वविद्यालय के सिंडिकेट को यह सुझाना तय किया गया कि रामानुजन को 75 रुपए प्रतिमाह की वृत्ति दो वर्षों तक गणित में शोध के लिए प्रदान की जाए।
सिंडिकेट की बैठक 7 अप्रैल को हुई। वहाँ यह प्रश्न उठा कि शोध-वृत्ति के लिए एम. ए. तक की शिक्षा आवश्यक है, जो रामानुजन के पास नहीं है। वहाँ मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री पी. ओ. सुंदरम अय्यर ने विश्वविद्यालय की प्रस्तावना में 'शोध को प्रोत्साहन' शब्दों के आधार पर किसी डिग्री विशेष की अनिवार्यता के विरुद्ध दलील दी, जो स्वीकार की गई। प्रो. हार्डी के पत्र आने के छह सप्ताह के अंदर ही सब मत रामानुजन के पक्ष में आ चुके थे। 12 अप्रैल को उन्हें शोध-वृत्ति दिए जाने की सूचना मिल गई। और अब वह अपना पूरा समय गणित में लगाने, विधिवत् कक्षाओं में तथा पुस्तकालय में जाने के लिए स्वतंत्र थे।
उन्होंने जॉर्ज टाउनवाला घर छोड़ दिया। प्रेसीडेंसी कॉलेज से लगभग डेढ़ मील दूर, हनुमंथारायन कोइल मार्ग पर स्थित घर में वह अपनी पत्नी, माता एवं नानी के साथ रहने लगे। यह घर 'पार्थसारथि मंदिर' के निकट ही था।
यहाँ उनका काम करने का एक अलग कक्ष था। वह दिन-रात शोध में ही लगे रहते थे। सुबह और शाम श्री नारायण अय्यर के साथ गणित पर कार्य करते। बहुधा कोनेमेरा पुस्तकालय, जिसमें विश्वविद्यालय की पुस्तकों का भी एक भाग था, में जाकर वे अध्ययन करते थे। उनकी पत्नी जानकी ने अपने संस्मरणों में उनके कार्य करने के बारे में इस प्रकार बताया है— ‘वह काम में इतना व्यस्त रहते थे कि बहुधा उन्हें भोजन करने के लिए भी याद दिलाना पड़ता था।’ कभी-कभी तो उनकी माँ उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाती थीं, जिससे गणित की किसी समस्या पर चल रहे उनके विचार तंत्र में बाधा न पड़े। कई बार वह अपनी माँ या नानी से रात्रि के बारह बजे जगा देने को कहकर सो जाते और रात की निस्तब्धता में घंटों काम करते रहते। जानकी अम्मल का कहना था कि रात में जब भी उनकी आँखें खुलतीं, वह उन्हें काम करते हुए ही पाती थीं।
रामानुजन की उम्र लगभग छब्बीस वर्ष थी। उनका अपनी पत्नी जानकी से बड़ा क्षीण सा संबंध था। हाँ, एक बार रामानुजन ने पानी भरकर एक नली द्वारा उस पानी को नीचे साइफन करके जानकी को गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत समझाया था। उन्हें अपनी माता द्वारा बनाई साँभर एवं रसम से चावल और बाद में दही खाना अति प्रिय था।
शोध-वृत्ति पाने के नाते उन्हें प्रति तीन माह में अपनी प्रगति का विवरण देना होता था। यह काम वह नियम से समय पर करते थे। उन्होंने पहला विवरण 5 अगस्त, 1913 को दिया। उसमें उन्होंने उस प्रमेय को लिखा, जो बाद में ‘रामानुजन्स मास्टर थ्योरम’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रमेय के प्रयोग से कितने ही नए प्रकार के ‘डेफनिट इंटीग्रल्स’ का मान निकाला जा सकता था। यह ‘फ्रूल्लानी इंटीग्रल थ्योरम’, जिस पर सन् 1902 में प्रो. हार्डी ने भी एक शोधपत्र प्रकाशित किया था, का विस्तारीकरण था।