Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 24

[ भारत में उनके पीछे घर का वातावरण ]

प्रारंभ में रामानुजन दो वर्ष की छात्रवृत्ति पर कैंब्रिज आए थे। यद्यपि उनकी छात्रवृत्ति का समय बढ़ गया था, पर दो वर्ष इंग्लैंड में रहने के पश्चात् भारत अपने परिजनों व मित्रों से मिलने के लिए जाना चाहते थे। विश्वयुद्ध छिड़ने के कारण वह नहीं जा पाए। इसका एक दूसरा कारण उनकी माँ थीं, जो अपने प्रतिभावान् पुत्र को सफलता के शिखर पर देखना चाहती थीं। रामानुजन को बी. ए. की उपाधि मिलने के पश्चात् वह चाहती थीं कि वह वहाँ से एम. ए. भी कर लें। अतः उनकी माता ने उन्हें पत्र लिखकर सलाह दी कि वह घर आने के स्थान पर वहाँ रहकर ही एम. ए. कर लें।
रामानुजन के इंग्लैंड चले जाने पर उनके घर में काफी तनाव आया। रामानुजन को पत्नी जानकी का कोई पत्र नहीं मिला। ऐसा नहीं था कि जानकी ने पत्र लिखे नहीं, रामानुजन की माँ ने बीच में ही उनको रोक दिया। शायद रामानुजन के पत्र भी वह जानकी को नहीं देती थीं। जानकी की आयु कम थी, अतः माँ उनकी प्रत्येक बात पर कठोर दृष्टि रखना संभवतः अपना दायित्व समझती थीं।
एक समय रामानुजन ने अपनी माँ को यह भी लिखा कि जानकी उनके पास इंग्लैंड आ जाए। जानकी को बिना बताए ही उन्होंने रामानुजन को लिख भेजा था कि जानकी का इंग्लैंड जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। सास-बहू में तनाव की ऐसी स्थिति अवश्य आ गई थी कि रामानुजन के पिता, जो परिवार के मामलों से निर्लिप्त से थे, को जानकी का पक्ष लेना पड़ता था।
घर की घुटन से निकलने का जानकी को एक अवसर मिला। उनका एक मात्र भाई श्रीनिवास आयंगर तब कराची में कार्य करता था। वह अपने विवाह के लिए अपने नगर राजेंद्रपुरम आया। जानकी इस अवसर पर अपने मायके गईं। वहाँ से वह भाई के साथ कराची भी चली गईं। वहाँ से उन्होंने रामानुजन को भाभी के लिए विवाह पर नई साड़ी खरीदने के लिए धन भेजने के लिए लिखा तो रामानुजन ने तुरंत इस माँग को पूरा किया।
घर के तनाव के कारण रामानुजन ने घर पत्र लिखना कम कर दिया। सन् 1914 में वह तीन अथवा चार पत्र प्रतिमाह घर लिखते थे। सन् 1916 में वह संख्या घटकर दो अथवा तीन रह गई और 1917 में उन्होंने कोई पत्र घर लिखा ही नहीं। परिणामतः घर से भी पत्रों का आना कम हो गया था। विशेष रूप से बीमारी के समय रामानुजन को घर से पत्र न मिलने का खेद भी होता था और रोष भी।
रामानुजन का इंग्लैंड से कोई जुड़ाव नहीं था और इधर परिवार से वह कट से गए थे। यह उनके मानसिक संतुलन के हित में नहीं था। स्वास्थ्य पर भी इसका प्रभाव पड़ना साधारण बात थी।

[ रामानुजन बीमार ]
युद्ध के कारण इंग्लैंड में खाद्य पदार्थों की कमी हो गई थी। मूल्य लगभग 65 प्रतिशत बढ़ गए थे। इंग्लैंड के निवासियों को दूध, मक्खन, आलू और चीनी मिलने में कठिनाई हो रही थी। फलों का मिलना और भी दूभर हो गया था। रामानुजन तो कच्चा-पक्का खाने के साथ दूध एवं फलों से जीवन चला रहे थे, इसलिए उन्हें कष्ट होना स्वाभाविक था।
भोजन की अनियमितता, पौष्टिक पदार्थों की कमी, कार्य की बहुलता, सामाजिक विरक्ति, एकाकीपन, कैंब्रिज की सर्दी, खराब मौसम, सब ओर से चिंता आदि रामानुजन के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थे। अप्रैल 1917 के आस-पास वह बीमार पड़ गए।
थोड़ी-बहुत दवा से काम नहीं चला तो नेविल के घर के निकट के एक निजी ‘नर्सिंग होम’ में उन्हें दाखिल करा दिया गया। उनकी हालत चिंताजनक हो गई। प्रो. हार्डी ने घबराकर भारत में रामचंद्र राव के पास शीघ्र समाचार भेजने के लिए 'मास्टर ऑफ ट्रिनिटी' से कहा। बाद में जब हालत कुछ सुधरी तो उन्होंने रामचंद्र राव को चिंता न करने के लिए सुब्रमण्यम से संपर्क करने के लिए कहा। हार्डी तथा अन्य सूत्रों से पता चलता है कि बीमारी की हालत में रामानुजन को सँभालना सरल नहीं था। वह जिद्दी थे, दर्द से परेशान होकर खूब चिल्लाते थे। दवा लेने में आनाकानी करते थे। उन्हें दवा पर विश्वास नहीं था। आरंभ में वह डॉक्टर पर विश्वास अवश्य कर लेते थे, परंतु जब शीघ्र ही कोई लाभ नहीं होता तो वह उस डॉक्टर को बेकार मानने लगते थे। भोजन के बारे में बहुत नाक-भौह सिकोड़ते थे। बीमारी में कहीं वह जीवन का अंत निकट देखते थे। इंग्लैंड के डॉक्टर उनसे इतना परेशान हो जाते थे कि वे उनका उपचार करने से कतराते थे। दो वर्ष की बीमारी के दौरान वह लगभग आठ डॉक्टरों के पास तथा पाँच अस्पतालों में उपचार के लिए गए।
आरंभ में उनका उपचार ‘गैस्ट्रिक अल्सर’ मानकर किया गया, परंतु बाद में क्षय रोग का निदान किया गया और उसका ही इलाज चला। तब तक क्षय रोग में उपयोगी ओषधि स्ट्रेप्टोमाइसीन का पता नहीं लगा था। क्षय रोग को एक असाध्य रोग माना जाता था। उससे उबरने के लिए दूर ठंडे प्रदेशों में प्रकृति के बीच सेनेटोरियम बनाए गए थे, जहाँ स्वस्थ वातावरण में पौष्टिक भोजन और पूर्ण आराम से रोगी को स्वास्थ्य लाभ होता था। ऐसा भारत में भी काफी बाद तक होता था। रामानुजन को क्षय रोग में लाभ प्राप्त करने के लिए सेनेटोरियम में लंबे समय तक रहना पड़ा।
कदाचित् अक्तूबर में वह सोमरसेट में वेल्स नगर के निकट स्थित ‘मेंडिप हिल्स सेनेटोरियम’ में चले गए। वहाँ उन्हें भारतीय डॉक्टर मुथु मिले, जो तीन वर्ष पूर्व उनके साथ नेवासा समुद्री जहाज में ही इंग्लैंड आए थे।
नवंबर में उनको वहाँ से मैटलॉक हाउस सेनेटोरियम में स्थानांतरित कर दिया गया। वह स्थान उनको रास नहीं आया। इस बात का पता प्रो. हार्डी को लिखे उनके एक पत्र से मिलता है। उन्होंने लिखा था—
‘‘मुझे यहाँ आए एक माह हो गया है और एक दिन भी आग सेंकने की अनुमति नहीं दी गई। मैं कितनी ही बार ठंड में ठिठुरता हूँ और कई बार तो भोजन तक नहीं कर पाया हूँ। आरंभ में मुझे बताया गया था कि एक-दो घंटे तक केवल स्वागत रूप आग सेंकने देने के अतिरिक्त मुझे यह सुविधा नहीं मिलेगी। एक पखवाड़ा रुकने के बाद मुझे बताया कि आपका एक पत्र आया है। जिस दिन मैं गणित का कोई गंभीर काम करूँ उस दिन मुझे सेंकने के लिए आग दे दी जाएगी। वह दिन भी अभी तक नहीं आया है और मैं यहाँ भयानक खुले ठिठुरते कक्ष में पड़ा हूँ।”
ऐसा नहीं था कि मैटलॉक के कर्मचारी रामानुजन को आग की गरमी की सुविधा न देकर उनके प्रति क्रूर व्यवहार कर रहे थे। खुली खिड़कियों वाले ठंडे कक्ष में रखना तब क्षय रोग का निदान माना जाता था।
यहीं प्रो. हार्डी को रामानुजन के घर पर चल रहे तनाव का पता चला था और यह ज्ञात हुआ था कि उनका अपने घर से पत्र व्यवहार रुक गया है।