Katasraj... The Silent Witness - 60 in Hindi Fiction Stories by Neerja Pandey books and stories PDF | कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 60

Featured Books
  • हीर... - 28

    जब किसी का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से किया जाता है ना तब.. अचान...

  • नाम मे क्या रखा है

    मैं, सविता वर्मा, अब तक अपनी जिंदगी के साठ सावन देख चुकी थी।...

  • साथिया - 95

    "आओ मेरे साथ हम बैठकर बात करते है।" अबीर ने माही से कहा और स...

  • You Are My Choice - 20

    श्रेया का घरजय किचन प्लेटफार्म पे बैठ के सेब खा रहा था। "श्र...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 10

    शाम की लालिमा ख़त्म हो कर अब अंधेरा छाने लगा था। परिंदे चहचह...

Categories
Share

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 60

भाग 60

मंदरा स्टेशन तो ठीक ठाक था सारी सहूलियतें उपलब्ध थी यहां। पर एक्सप्रेस गाड़ियों का ठहराव बस दो मिनट के लिए ही था। साजिद ने पहले ही पता कर लिया था। इस लिए सारा सामान अच्छे से बांध बंध कर तैयार कर लिया और दरवाजे के सामने रख दिया। साजिद ने सबको समझा दिया कि पहले सलमा उर्मिला और पुरवा जल्दी जल्दी से उतरेंगी। फिर अशोक। उसके बाद अमन ऊपर ही रुक कर साजिद और अशोक को फटाफट समान पकड़ाता जाएगा। वो तो जवान जहान है,अगर गाड़ी खुल भी गई तो वो आराम से उतर लेगा।

सबको समझा कर स्टेशन आने का इंतजार किया जाने लगा।

ज्यादा इंतजार नही करना पड़ा। थोड़ी ही देर में मंदरा स्टेशन आ गया। गाड़ी एक झटके के साथ चूं… की तेज आवाज के साथ रुक गई।

पर प्लेटफार्म नीचे था ये अशोक ने देख लिया। इसलिए अशोक खुद जल्दी पहले उतर गया और सलमा उर्मिला और पुरवा को सहारा दे कर, हाथ थाम कर उतरने में मदद की। फिर उसके बाद साजिद के उतरते ही अमन ने फुर्ती से सारा सामान थमाना शुरू कर दिया।

जब आखिरी अटैची पकड़ाई तभी ट्रेन तेज सीटी देते हुए खुल गई।

सलमा और उर्मिला उससे जल्दी से उतने की गुहार लगाने लगीं। पर वो बोला,

"रुक जाओ अम्मी..उतरता हूं। एक नजर देख लूं कुछ छूटा तो नही है।"

इसके बाद भीतर जा कर ऊपर नीचे देखने लगा। गाड़ी अपनी रफ्तार पकड़ रही थी।

अंदर देख कर अमन ने तसल्ली कर ली कि कुछ रह तो नही गया। फिर दरवाजे के पड़वा कर हत्थे को थाम कर संतुलन बना कर दौड़ते हुए गाड़ी से नीचे उतर गया।

इस चक्कर में वो उन लोगों और समान से थोड़ी दूर आ गया।

डर से सलमा की जान निकली जा रही थी कि कहीं अमन गिर ना जाए.. कहीं उसे लग ना जाए। वो तब तक गाड़ी के साथ चलती रही जब तक कि अमन नीचे उतर नही गया।

उसके उतरते ही सलमा उसे चारों ओर से सहला सहला कर देखने लगी और पूछने लगी कि कहीं लगी तो नही बेटा..?

अमन सलमा का प्यार देख कर अभिभूत हो गया। वो कंधे से अम्मी को पकड़ कर समझाने लगा।

"अम्मी… आप बिना वजह ही परेशान हो रही हैं। देखिए मैं बिल्कुल ठीक ठाक हूं।"

सलमा उसे गले से लगा कर बोली,

"बेटा..अमन..! गाड़ी खुलते देख मैं डर गई थी। कही तुम उतरते वक्त गिर ना जाओ।"

अमन अम्मी को साथ ले कर वापस लौट पड़ा सभी की ओर और बोला, चलो अम्मी..! अब और अपने घर से दूर नही रहा जा रहा है। बस दिल कर रहा है कि जल्दी से उड़ कर अपने घर पहुंच जाऊं।"

साजिद ने कुली बुला कर सामान लदवा दिया उनके सिर और हाथों में। फिर हल्के सामान को खुद हाथ में ले कर स्टेशन से बाहर के लिए चल पड़े।

इस गाड़ी से कटास राज के दर्शन को बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते थे। उनकी सुविधा के लिए यहां से चकवाल होते हुए चोवा सैदान शाह के लिए छोटी बस चलती थी।

वो बस इसी गाड़ी के इंतजार में खड़ी थी कि ये आए और इससे उतरे तीर्थ यात्रियों को ले कर ये अपना सफर शुरू करे।

साजिद बाहर सभी को साथ ले कर ऐसी और बस कंडक्टर से बात कर चकवाल तक चलने के लिए बात कर ली।

कुली ने एक एक कर सारा सामान बस में चढ़ा दिया।

सभी अंदर बस में आकर अपनी अपनी सीटों पर बैठ गए।

बस ऊबड़ खाबड़ रास्ते से होते हुए अपने सफर के लिए चल पड़ी।

बस में कुछ अन्य गांवों के बाशिंदे भी सफर कर रहे थे। वो अपना अपना गांव आने पर बस रुकवाते और उतर कर चले जाते।

इस तरह कई जगह रुकते रुकाते बस आखिर चकवाल भी पहुंच ही गई। उनका घर मुख्य सड़क पर ही था। इस लिए साजिद ने बस ड्राइवर को बोल कर यहां घर के बिलकुल सामने ही साजिद ने बस रुकवाई। और फिर बस रुकते ही सबको उतरने को बोला।

अभी तक सफर का आनंद उठा रही थी पुरवा। पर अब उसे यहां उतार कर किसी अनजान सी जगह किसी दूसरे के घर जाना था।

साजिद को सब के साथ बस से उतरते दूर से उनके घरेलू नौकर ने देख लिया था। वो सामान उठाने के लिए आ गया।

साजिद अशोक को साथ आने को बोल कर आगे बढ़ गए। सलमा भी उर्मिला के साथ घर की ओर जाने को मुड़ी। पर पुरवा और उर्मिला के कदम जैसे मन मन भर भारी हो गए थे। पांव उठ ही नही रहे थे।

संकोच से भर उठी वो। ना जाने कैसे लोग होंगे इनके घर में..! कैसे रहेगी वो एक बिलकुल अनजान घर में। अब उसे अम्मा बाऊ जी के यहां आने के फैसले पर बड़ा ही गुस्सा आ रहा था। खुद आए तो आएं ना.. वो भला कौन होती है रोकने वाली..! पर उसे जबरदस्ती क्यों साथ में घसीट लाए..!

लगभग यही हाल उर्मिला का भी हो रहा था। पर उसके और पुरवा की हालत में ये फर्क था कि उसे गुस्सा नही आ रहा था। और गुस्सा आता भी तो किस पर..! क्योंकि आने का फैसला उसने भी लिया था। उसे गुस्से की जगह संकोच और घबराहट हो रही थी। बिलकुल अनजान जगह इतनी दूर किसी के घर जाने में।

पुरवा और उर्मिला दोनों के ही मन की घबराहट उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। कोई भी बड़े आराम से उनकी घबराहट को चेहरे पर पढ़ सकता था।

अशोक ने जब पत्नी और बेटी को पीछे देखा तो उनका चेहरा देख कर सब समझ गए। वो उनके पास आ कर धीरे से बोले,

"क्या बात है..? तुम दोनो इतना घबरा क्यों रही हो..?"

उर्मिला भी धीरे से फुसफुसा कर अशोक से बोली,

"आने की तो यहां आ गए हम पुरवा के बाऊ जी..! पर अब जाने क्यों अच्छा नही लग रहा। वहां की बात अलग थी, यहां की बात अलग है। कैसे रहेंगे हम इनके यहां..!"

अशोक समझाते हुए बोले,

"कुछ नही होगा। बहुत अच्छा लगेगा। ये घबराहट छोड़ दो। दोनो के चेहरे पर उड़ रही हवाई साफ नजर आ रही है। क्या सोचेंगे ये लोग..! इतना खयाल तो रक्खा इन्होंने पूरे रास्ते। और क्या कर सकता है कोई..! इनके अपनापन का अपमान मत करो तुम दोनों।"