Nilavanti Granth - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

निलावंती ग्रंथ - एक श्रापित ग्रंथ... - 4


बीस सालो तक मैं खुद का पेट भरने के लिये भटकता रहा। क्योंकि मैं सिर्फ अघोरी के साथ रहता था लेकिन मुझे सभी तांत्रिक क्रियायें नहीं आती थी तो मेरा गुजारा मुश्किल से ही हो पाता था। तो मैंने अब पिशाच्च वश करने की सोची और साल भर से मैं किसी की तलाश कर रहा था। हर ऐसे गाव मे जाकर जहाँ बाँझ औरतें है मैंने यह विधि पुरी करने का प्रयत्न किया लेकिन सफल नहीं हो सका। फिर मैं तुम्हारे गाव में आया मैंने एक पूरा सप्ताह तुम पर नजर रखी और फिर यह विधि आयोजित की जिसमें मैं पुरी तरह से कामयाब हो गया।"

"अब मुझे एक सहाय्यक की आवश्यकता है और मेरे लिये यह काम तुम करोगे। मैं तुम्हारी हर एक इच्छा पुरी कर सकता हुँ यह तुम अच्छी तरह से जानते हो। और जब मेरा अंतसमय आ जायेगा तब मैं यह पिशाच्चा तुम्हें ही सौंप दूंगा। इसके बदले तुम्हें सिर्फ इतना करना होगा की हर महीने की अमावस को बली देने के लिये एक बच्चा तुम्हें लाना होगा।" कन्नम ने बात पुरी की।

मैंने उससे पुछा की यह काम वह पिशाच्च से क्यों नहीं करवाता तो उसने कहा की यही एक काम है जो पिशाच्च नहीं कर सकता हमें पिशाच्च के लिये करना पड़ेगा। मैं मन में बहुत डर गया था। मैं सोचने लगा की जब मैंने अपनी बीवी का कत्ल किया था तब मैं होश में नहीं था और मेरा खुद पर काबू भी नहीं था। लेकिन अब मैं पूरे होश में था और ऐसा घिनौना काम फिरसे नहीं करना चाहता था। तो मैंने सोचा की जैसे तैसे इस तांत्रिक से अपना पीछा छुड़ा लूं फिर देखा जाये की क्या होगा।

अमावस की रात जैसे जैसे करीब आने लगी वैसे वैसे कन्नम मुझे किसी बच्चे को लाने के लिये पीछे पड़ गया। मैंने भी कह दिया की मैं एक बच्चे को चुन चुका हूँ और बड़ी आसानी से मैं अमावस को उसे वहाँ लाऊँगा वह बली की तैयारी की तरफ ध्यान दे। इतना कहने पर भी तांत्रिक निश्चिंत नहीं हुआ था। क्योंकि यह उसके जिंदगी और मौत का सवाल था। उसने मुझे उसी दिन उस बच्चे को हाजिर करने को कहा। मैंने कहा ठीक है और बाहर निकल पड़ा दो दिन बाद ही अमावस थी। लेकिन मैं वापिस उस जगह तभी गया जब अमावस हो चुकी थी। मैंने वहाँ जाकर देखा की कन्नम का सिर्फ शरीर पड़ा है जिसका सर नहीं है तो मैं समझ गया की अमावस को पिशाच्च अपनी बली लेने के लिये आया होगा और ना मिलने पर उसने कन्नम का सर खा लिया।

कन्नम की चाह की वजह से मेरी जिंदगी बरबाद हो चुकी थी। ना मेरा घर बचा ना मेरा परिवार। नाही मैं अब मेरे गाव ही वापिस जा सकता था। मैंने बहुत देर तक कन्नम के शरीर के पास बैठकर सोचा की आगे क्या करूँ लेकिन कुछ सुझ नहीं रहा था। मैंने कन्नम के घर यानी उस खंडहर की तलाशी ली कोई कीमती चीज तो नहीं मिली लेकिन एक मंत्रों की किताब मिल गई। जिसमें बहुत से टोटकों की जानकारी थी। मैंने वह किताब उठाई तो उसी जगह पर मुझे और एक कागज दिखा जिसपर हाथ से कुछ लिखा हुआ था। थोड़ा सा पढ़ने पर मुझे पता चला की वह अंजन बनाने की और इस्तेमाल करने की विधी है। मैंने वहाँ से एक थैला उठाया उसमें वह किताब और वह कागज डाल दिया और चल पड़ा अपनी किस्मत की परीक्षा लेने के लिये।

पास ही के पहाड़ पर मुझे एक गुफा मिल गई जहाँ पर कोई आता जात नहीं था। और कोई जंगली जानवर भी नहीं थे पास ही झरना बहता था तो पीने के पानी की कोई समस्या नहीं थी। वहाँ से थोड़ी ही दुर पर एक बस्ती थी जहाँ से मैं भिक्षा माँग कर लाता और दिन भर उन टोटकों को सिद्ध करने की कोशिश करता। मैंने सबसे आसान लगने वाले टोटके जिसमें कोई बली या किसी की हत्या की जरूरत ना हो चुने और वशीकरण, दूसरों की मन की बात जान लेना, आदि टोटके सिद्ध कर लिये। मैं अब अंजन तैय्यार करने के पीछे लग गया। उसके लिये बहुत सारी चीजो की आवश्यकता थी जिन चीजो का नाम तक मैंने कभी नहीं सुना था। लेकिन मैं कभी कभार बस्ती मे किसी से बात करता था तो वह लोग कई चीजो की जानकारी दे देते थे। और मुझे उसका और एक फायदा यह हुआ की वह लोग मुझे अब मांत्रिक कहने लगे थे। मैं भी कभी किसी का बच्चा बीमार हो जाये या किसी का जानवर, किसी की बेटी को बच्चा नहीं होता हो उसके लिये अपने पास से टोटके कर देता था। उनको जब उसके परिणाम अच्छे मिले तो वह मुझे और भी ज्यादा मान देने लगे। जैसे ही मेरे पास वह सब चीजे जमा हो गयी जिनकी अंजन बनाने के लिये जरूरत थी। मैंने रात दिन एक कर के अंजन बना ही दिया। अंजन बनाने की विधि लिखने वाले ने यह भी चेतावनी लिखी थी की यदि अंजन ठीक से नहीं बना तो वह आँख मे लगाने वाला हमेशा के लिये अंधा बन जायेगा।
मेरा मन दुविधा में पड़ गया की मैं क्या करूँ कैसे पता चले की मेरा बनाया हुआ अंजन सही तरह का बना हुआ है। वह तो आँख में लगाने से ही पता चल सकता था। मैंने आर या पार का निश्चय कर लिया और भगवान का नाम लेकर वह अंजन अपने आँखों में लगाया। पहले मेरे आँखों में इतना तेज दर्द हुआ की जैसे खौलता हुआ तेल मेरे आँखों में पड़ गया हो। मुझे लगा की मेरी आँखें चली गई मैं अंधा बन गया। मैंने जो अंजन बनाया था वह गलत बना था। ऐसे कई विचार मेरे मन में आ रहे थे मैं दर्द से चिल्ला रहा था। गुफा की दीवारों पर अपने सर को पटक रहा था। कुछ देर बाद जब थोड़ा सा दर्द कम हुआ और धुंधला नजर भी आने लगा तो लगा की मैं पुरी तरह से अंधा नहीं हुआ हूँ। लेकिन मेरी आँखों को कुछ भी नहीं हुआ था और अंजन भी सही सही बना था यह मुझे तुरंत पता चला जैसे ही मैंने अपनी आँखों को छुआ वह बिल्कुल बर्फ सी ठंडी महसूस हुई। अब समस्या यह थी की अंजन का प्रथम प्रयोग कहा किया जाये। मैंने दो दिन का समय जाने दिया जब मैं मेरे आँखों की ठंडक का आदि हो गया तो मैं तुरंत उस बस्ती में गया जहाँ भिक्षा के लिये जाता था। दो दिन आँखों के दर्द के कारण ना मैं भिक्षा के लिये गया था ना कुछ खाया था। जोरों से भूख लगी थी। मैं बस्ती में गया तो लोगों ने पुछा की दो दिन क्यों नहीं आये मैंने बताया की मेरी तबीयत ठीक नहीं थी। एक अधेड़ उम्र के आदमी ने मुझे उसके घर पर भोजन के लिये बुलाया। क्योंकि मुझे बस्ती में बहुत मान था तो मैं मना नहीं कर सका और दुसरा कारण यह भी था की अब मुझमें इतनी ताकत नहीं थी की यहाँ से भिक्षा लेकर वह गुफा में जाकत खाऊँ।

जब मै उस आदमी के घर पहुँचा जिसका नाम आत्माराम था। उसकी पत्नी ने भोजन परोसा , मैंने उसे भी अपने साथ बैठने के लिये कहा। हम दोनों ने भोजन किया और भोजन के बाद जब हम गप्पे लड़ाने के लिये बैठे तो मैंने अभी तक भूख की वजह से ध्यान नहीं दिया था की वह आदमी बहुत गरीब था। घर बहुत साधारण था और सामान तो न के बराबर था। मैंने उसे पुछा की क्या तुम्हारा गुजारा ठीक से नहीं चलता तो उसने बताया की उसे तबसे काम करने के लिये मन नहीं लगता जब से किसी बुजुर्ग ने यह बताया की उसके दादा जी ने बहुत सारा धन एक घड़े में बंद करके खेत में कही गाड़ दिया है। तो तब से वह दिन भर खेत का एक एक हिस्सा खोदता रहता है। इसलिये बाकी चीजो की तरफ ध्यान देने के लिये समय नहीं मिलता। उसकी बीवी ही किसी खेत पर रोजी के लिये जाती थी जिससे जैसे तैसे उनका गुजारा चल जाता था। जैसे ही मैंने खेत में धन की बात सुनी मुझे अंजन की परीक्षा लेने का मौका दिखा। मैंने उसे कहा की अगर मैं उसे उस धन का सही पता दूं तो क्या मुझे वह उसमें से आधा धन देगा तो उसने मेरी बात मान ली।

उसी रात मैं उसे लेकर उसके खेत मैं गया। जैसा की मैंने अंजन के उपयोग के बारे में पढ़ा था उसके लिये हिरन के सिंग चाहिये थे जो मेरे पास पहले से थे। मैं उसमें से खेत को देखने लगा। हिरन का सिंग आँख पर लगाते ही जमीन मानो जैसे काँच की बनी हुई हो ऐसी दिखने लगी। दूर एक आम के वृक्ष के नीचे मुझे कुछ चमकता दिखाई दिया मैं आत्माराम के साथ उस वृक्ष के पास गया तो मैंने फिर से हिरन का सिंग आँखों पर लगाया और उसके जड की तरफ देखने लगा। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने स्पष्ट रूप से एक पीतला का घड़ा उसके अंदर के सोने सहित जमीन के अंदर कम से कम तीन हाथ नीचे देखा। मैंने आत्माराम को वहाँ खोदने के लिये कहा। क्योंकि वह दस-बारह सालों से सिर्फ खोदने का ही काम कर रहा था तो उसने कुछ ही देर में तीन हाथ गहरा गड्ढा खोद डाला। और घड़ा साफ तौर से दिखाई देने लगा। हम दोनों ने मिलकर वह उपर निकाला जो बहुत वजनदार था। उसमें बहुत सारे सोने के सिक्के थे। जैसा की तय हुआ था। उसने ईमानदारी से उसमें से आधे सिक्के मुझे दिये मैंने उसे एक कपड़े में बाँधकर अपनी गुफा की ओर चल पड़ा । और वह अपनी घर की ओर। दूसरे दिन पुरी बस्ती में यह बात फैल गई। मेरी गुफा के चारों ओर तो मानो मेला लग गया था। उस दिन से मेरी जिंदगी ही बदल गई। खजाना ढूँढने वाला मांत्रिक इसी नाम से मेरी प्रसिद्धि हो गई। अब मेरे पास ज्यादा तर ऐसे ही लोग आते जिनको अपने खेत या घर से गड़ा हुआ धन निकालना हो। पर हर जगह धन होता ही था ऐसा नहीं है। कई जगह सिर्फ अफवाहें होती थी। फिर भी मैंने कई लोगों के घर के खजाने ढूँढने मे मदद की और उसमें से आधा हिस्सा कमाया। लेकिन अब तक की मेरी सबसे ज्यादा कमाई सिर्फ ५०० सिक्कों की थी। मैंने जब तुम्हारे मुँह से तुम्हारे खानदानी खजाने के बारे सुना तो मुझे लगा की अगर यह खजाना ढूँढने में मैं तुम्हारी मदद कर सका तो मुझे जिंदगी भर कोई काम करने की जरूरत नहीं है। मैंने मेरी पुरी कहानी तुम्हें इसलिये बताई की जब मैं तुमसे आधे खजाने की माँग करूँ तो तुम मुझे लालची ना समझो।" मांत्रिक बाबु ने बोलना खत्म किया।
रावसाहेब ने कहा " यह सब सुनकर मेरा आपके प्रति विश्वास और भी बढ़ गया है। मैं आपसे वादा करता हूँ की जब खजाना मिलेगा तब उसमें से आधा खजाना मैं आपको दूंगा ।"

मांत्रिक बाबु ने फिर रावसाहेब से कहा की हर खजाने की खोज की शुरूवात उसके जगह के पता चलने पर ही होती है। और जैसा की रावसाहेब ने बताया था की उसके पुरखो ने उनका खजाना समुद्र में डुबो दिया है तो बाबु ने उससे पुछा की उसे यह बात कैसे पता चली। रावसाहेब ने एक बही के बारे में बताया जिसमें उसके परदादा ने खजाने के बारे में लिखा था।

बाबु को भी रावसाहेब ने वह बही दिखाई जिसमें लिखा हुआ था,

‘थे खजाने बहुत दुनिया में लेकिन

यह खजाना खोजना नहीं है मुमकिन

भर जाते कुएँ सात ऐसी वह राशी धन की

देखकर वैभव सारा मिट जाती प्यास मन की

क्या कारण था पता नहीं जो आया इसकी राह में

पुश्तें कितनी चली गई इस धनराशी की चाह में

कई वीरों ने प्राण त्यज दिये धनपर्वत के इस शोध में

लेकिन डुबा दी गई अनंत धन राशी सागरतीर्थ की गोद में'

बाबु ने उस बही में लिखी यह पंक्तियाँ पढ़ी तो उसे भी कुछ समझ नहीं आया। हालाँकि रत्नागिरी के पास समुद्र तो था लेकिन बाबु को यह नहीं समझ आ रहा था की बिना किसी के जाने इतना सारा धन समुद्र में डुबाना मुमकिन नहीं है। किसी ने तो उसे देखना चाहिये था। क्योंकी अगर धन को सागर में डुबोने की बात सच है तो यह एक दिन मे नहीं हो सकता था अगर इतना सारा धन था।

बाबु ने भी बहुत सोचा मगर उसको इसका समाधान नहीं मिल पाया। उसने वह बही फिर से देखी तो उसे कई पन्नों पर कुछ उलटे अक्षर जो आसानी से नजर भी नहीं आते और पढ़े भी नहीं जाते थे दिखाई दिये। उसने उस कागज को उठाकर प्रकाश की ओर पकड़ा तो कुछ अक्षर नजर आये। उसने वह अक्षर कागज पर उतार दिये वह उलटे दिख रहे थे इसलिये आईने के सामने पकड़ लिये तो उसे एक नाम नजर आया "निळावंती" ।

मांत्रिक ने जल्दी से रावसाहेब को बुलाया और उसे उसके बारे में बताया जो उसे अभी पता चला था। निळावंती नाम सुनकर रावसाहेब भी चौक गया क्योंकि मांत्रिक बाबु और रावसाहेब भी महाराष्ट्र के बाकी के लोगों की तरह इस प्राचीन लोककथा के बारे मे जानते थे की निळावंती नाम का एक ग्रंथ है जिससे पशुपक्षीयों की भाषा समझी जा सकती है। लेकिन इसका संदर्भ इस खजाने से कैसे है यह समझ नहीं आ रहा था। रावसाहेब के हवेली पर एक नौकर काम करता था जिसका नाम था माणिक उसने उन दोनो की बाते सुनी वह भी अच्छी तरह से जानता था की उसका का मालिक वर्षों से खजाने की खोज में लगा हुआ था। तो शायद उनको अपनी जानकारी से मदद हो जाये यह सोच कर उसने रावसाहेब को कहा की वह निळावंती के बारे में कुछ जानता है।

रावसाहेब ने बताने को कहा तो उसने बताया की सुना है की निळावंती में समय में पीछे जाने का भी ज्ञान लिखा हुआ है शायद आपके पुरखे उसकी मदद से वह खजाना खोजना चाहते हो। रावसाहेब और मांत्रिक बाबु दोनों ही उस बात से सहमत हो गये क्योंकि निळावंती के बारे में जितनी भी किंवदंतीयाँ प्रचलित थी उसमें से यह भी एक थी।

रावसाहेब ने पुछा" लेकिन माणिक यह तो बताओ यह निळावंती अस्सल में है भी या नहीं। क्योंकि मैंने आजतक कइयों के मुँह से इसके बारे में सुना है लेकिन मुझे एक भी इंसान ऐसा नहीं मिला जिसने पढ़ने की बात तो दूर निळावंती देखी भी हो।"

“वह कहा है यह तो मैं नहीं जानता हा लेकिन उसे खोजने के लिये कहा जाना पड़ेगा यह बता सकता हूँ। क्योंकि मैंने जो भी सुना है उसके अनुसार महाबळेश्वर के जंगलों में बाजिंद रहता है उसे निळावंती के बारे में जरूर पता होगा क्योंकि वह भी जानवरों की भाषा बोलता है।" माणिक ने बताया।

“ठीक है तो फिर हम खुद ही बाजिंद को ढूँढेंगे और उससे निळावंती के बारे मे पता लागायेंगे। इतने सालो के बाद अब जाकर कोई सुराग मिला है खजाने के बारे में तो अब इसे ऐसे ही जाने नहीं दे सकते।" मांत्रिक ने भी सहमती दर्शायी।

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