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भाव का फल


“मैं सर्वज्ञ तीर्थंकर हूँ। महावीर स्वामी खुद को तीर्थंकर कहते है पर वे एक ढोंगी है!”

महावीर भगवान के शिष्य गोशाला ने, जिसने महावीर भगवान से ज्ञान प्राप्त किया था उसने ही इस तरह की बातें फैलाना शुरू किया। यह बात महावीर प्रभु के परम शिष्य गौतम स्वामी के कानों में भी पड़ी और उन्होंने महावीर प्रभु से पूछा कि, क्या यह बात सच है? गोशाला खुद को सर्वज्ञ कहता है ?

वीतराग भगवान ने केवल इतना ही कहा, “यह बात सच नहीं है !”

यह सुनकर गोशाला क्रोध से भड़क उठा। अपनी हकीकत सबके सामने आने के डर से वह बोला “अपने आपको तीर्थंकर कहलवाते हो! मैं आपको वाद-विवाद में हरा दूँगा ताकि लोगों को पता चल सके कि सच्चा सर्वज्ञ कौन है?” और फिर वहाँ से चला गया।

महावीर भगवान ने अपने शिष्यों से कह रखा था कि गोशाला यहाँ आएगा और उल्टी-सीधी बातें भी करेगा। वह चाहे तिरस्कार करे, अपमान करे, तुम सब मौन रहना।

गौतम स्वामी ने प्रभु से पूछा कि गोशाला के द्वेष का कारण क्या है? तब महावीर भगवान ने उनसे कहा कि यह पूर्व जन्म का हिसाब है और सारी बात बताने लगे। महावीर भगवान के 27 भव पहले भी भगवान महावीर और गोशाला गुरु-शिष्य थे। एक बार महावीर ने अहिंसा पर उपदेश दिया। तब गोशाला को लगा कि ऐसी अहिंसा का पालन तो कैसे हो सकता है ? इसके बजाय मैं कोई दूसरा मार्ग खोज़ लूँ। और इस तरह गोशाला गुरु से अलग हो गया। उसी भव में बिजली गिरने से गोशाला की मृत्यु हो गई और मृत्यु के समय गुरु के प्रति अत्यंत द्वेष होने के कारण उसका जीव अधोगति में गया। अधोगति में अनेक भव गुजारने के बाद फिर से इस भव में वह महावीर भगवान का शिष्य बनकर वापस आया। पूर्वभव के ऋणानुबंध के कारण वह उनके साथ-साथ ही रहा लेकिन पूर्वभव के द्वेष का हिसाब चालू ही रहा।

अगले दिन गोशाला भगवान महावीर के पास आकर उल्टा सीधा बोलने लगा और कहने लगा कि, तेजोलेश्या फेंककर मै आपको जला डालूँगा। प्रभु शांत चित्त से सब कुछ सुन रहे थे। लेकिन उनके दो शिष्य जिन्हें भगवान पर अत्यंत अनुराग था उनसे यह सहन नहीं हुआ। सर्वानुभूति और सुनक्षत्र इन दोनों मुनियों ने गोशाला को समझाने का प्रयत्न किया, “हे गोशाला ! तुमने प्रभु को गुरु माना था। उन्होंने तुम्हें ज्ञान दिया है और उन्हीं गुरु की तुम अवहेलना कर रहे हो? क्या यह तुम्हें शोभा देता है?”

क्रोध में आकर गोशाला ने मुनियों पर तेजोलेश्या फेंकी और दोनों को जला डाला और फिर महावीर भगवान को जलाने के लिए उनके उपर तेजोलेश्या फेंकी। तेजोलेश्या प्रभु को जलाने में असमर्थ रही। प्रभु के शरीर की प्रदक्षिणा करके तेजोलेश्या घूमकर गोशाला के शरीर में ही प्रवेश कर गई। तेजोलेश्या के प्रभाव से गोशाला को शरीर में भयंकर जलन होने लगी।

भगवान ने गौशाला से कहा, “मुझे कुछ नहीं होगा। अभी भी जीवों का कल्याण करने के लिए मेरा चौदह वर्ष का आयुष्य शेष है। पर जो तेजोलेश्या तुमने मेरे ऊपर फेंकी, वह तुम्हारे शरीर में ही प्रवेश कर गई है। अब सात दिनों में तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।”

यह सुनकर गौशाला एकदम घबरा गया। मृत्यु के भय से उसने कहा कि मैं तीर्थंकर नहीं हूँ। और अपने शिष्यों के सामने जाकर आलोचना की कि मुझसे भूल हुई है। भगवान महावीर ही तीर्थकर है, तुम सब उनके पास जाना। और सात दिनों के बाद गौशाला की मृत्यु हो गई।

तब फिर से गौतम स्वामी ने प्रभु से पूछा कि “गौशाला कौन सी गति में जाएगा?”

भगवान ने कहा “वह देवगति में जाएगा।”

यह सुनकर गौतम स्वामी को आश्चर्य हुआ कि उस भव में गुरु से द्वेष करने के कारण उसकी अधोगति हुई थी। और इस बार इतना बड़ा गुनाह करने के बाद भी गौशाला देवगति में जाएगा, वह कैसे?

भगवान ने कहा, “मरते समय उसने बहुत पछतावा किया था और अपने शिष्यों के सामने आलोचना की थी, जिसका फल उसे देवगति मिलेगी। लेकिन उसके बाकी के कर्म भोगना शेष रहने के कारण वह कई जन्मों तक भटकेगा।”

कर्मों की गति न्यारी है। हमारा अगला जन्म कौन सी गति में होगा, वह मृत्यु के समय हमारी आंतरिक दशा और ऋणानुबंध के आधार पर तय होता है।