Anokhi Prem Kahani - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

अनोखी प्रेम कहानी - 17

• बंदीगृह में राजमाता के आदेश से हलचल मच गई . बंदी युवराज को तत्काल राजमाता के कक्ष में उपस्थित किया गया । बेड़ियों में जकड़ा युवराज चन्द्रचूड़ शांत था । उसकी आकृति पर मृत्यु भय की छाया तक नहीं थी । राजमाता के सम्मुख आते ही उसने शांत - मुद्रा में उनका शिष्टतापूर्वक अभिवादन करते हुए कहा- राजमाता के श्रीचरणों में उत्कल युवराज चन्द्रचूड़ का प्रणाम स्वीकार हो माता ! आपके दर्शन की अभिलाषा आज पूरी हुई .... मेरे लिए क्या आदेश है राजमाता ? ' राजमाता के नयन फिर से छलक गए . ' यह क्या ... मेरे लिए राजमाता की आँखों में आँसू ? आश्चर्य ... यह मैं क्या देख रहा हूँ माते ? ' ' क्यों ... क्यों किया तुमने ऐसा ? ... तुम्हारे लिए क्या जग में सुन्दरियों की कमी थी ? ... तुम्हारी एक इच्छा पर न जाने कितनी कुमारियाँ न्यौछावर हो जातीं । तुम्हारे जैसे सुदर्शन , शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न युवराज के लिए इस जग में क्या मेरी निर्मोही पुत्री ही बची थी , पुत्र ? क्यों किया तुमने ऐसा ... कहो मुझे क्यों किया ... ? ' ' मेरे लिए आपके हृदय में इतनी संवेदना है , यही बहुत है राजमाता ... ! रही भुवनमोहिनी की बात तो जान लें , माता ... मेरा हृदय - कमल उसी निर्मोही के लिए खिलता है । • जगत की दूसरी किसी सुन्दरी के लिए मेरे अंतस् में कोई स्थान नहीं । मैंने अपने मन - प्राण और जीवन उसी को समर्पित कर दिए हैं । अब मेरे जीवन की स्वामिनी आपकी पुत्री ही है । इसे वह स्वीकार करे तो मेरा सौभाग्य , तिरस्कार करे तो मेरा दुर्भाग्य और मेरे प्राण हर ले तो यह अधिकार है उसका ... वस्तु तो अंततः उसी की है माता ! ' ' धन्य हो पुत्र ... ! तुम्हारी जननी भी धन्य है , जिसने अपनी कोख से तुझ जैसे रत्न को जन्म दिया । मेरी पुत्री तुम्हें वर लेती तो उस जैसी बड़भागी भला कौन होती इस धरा पर .. परन्तु विधाता के लेख को भला कौन मिटा पाया है ? अब तो मेरी पुत्री भी टंका कापालिक से वचनबद्ध हो चुकी है । मृत्युदण्ड देकर वह तुम्हें इस दुर्दान्त कापालिक को सौंप देगी । मैं भी कितनी विवश हूँ , पुत्र .... कि चाहूँ भी तो उस कापालिक का तिरस्कार कर तुम्हें मुक्त नहीं कर सकती । उसकी सिद्धियां उसकी शक्ति इतनी अपरिमित हैं कि इच्छा मात्र से सम्पूर्ण शंखाग्राम को क्षण में श्मशान बना दे वह क्या करूँ मैं पुत्र ... क्या करूँ ? ' कहते - कहते राजमाता का कंठ अवरूद्ध हो गया । ' आप इस प्रकार व्यथित न हों , माता ! ... मृत्यु - वरण हेतु अब मुझे प्रस्थान करना है ... मुझे आज्ञा दें माता ! ' फफककर रो पड़ी राजमाता और जंजीरों में जकड़ा युवराज चन्द्रचूड़ , माता को अंतिम प्रणाम कर हतप्रभ सैनिकों के साथ लौट चला । चार हाथ ऊँचे काले भुजंग कापालिक टंका की वेशभूषा भी काली थी । पैरों में व्याघ्रचर्म की पादुका , कमर से बंधी काली धोती । वक्ष पर लटके बंदरों के मुण्डों की माला कमर तक फैली लम्बी जटाएँ । भाल पर सिन्दूर का गोल टीका और बड़ी बड़ी प्रज्वलित आँखें । दोनों आँखों के ऊपर आपस में जुड़ी मोटी भवें और कानों में कुण्डल की तरह लटकती मानव उंगलियों की हड्डियां । कलाइयों में कौड़ियों के कंगन तथा हाथ में बड़ा चिमटा । देखते ही सिहरन उत्पन्न हो जाए , ऐसा ही था विकट कापालिक टंका का स्वरूप । मुस्कुराता तो उसकी मुस्कान जहरीली हो जाती । हँसता तोहँसी विद्रूप हो जाती और ठहाके लगाता तो वह विकट अट्टहास हो जाता । सहज मानवीय गुणों से विरक्त टंका कापालिक मानव शरीर में जीवित पिशाच ही था । उसकी आँखों में रक्त की पिपासा और जिह्ना पर उष्ण रूधिर की प्यास हमेशा बनी रहती । मुण्ड से विच्छेदित बलि पड़ चुके तन की तीव्र छटपटाहट देख उसका चित्त प्रसन्न हो जाता । इच्छा होती , ऐसा उत्सव उसके जीवन में नित्य आये परन्तु वचनबद्ध था वह । अधीर हृदय से वर्ष भर विवशता में उसे प्रतीक्षा करनी होती थी , तब शंखाग्राम की ओर से बलि हेतु उसे एक कुँवारे तरूण का दान प्राप्त होता था । ऐसी ही दुर्दान्त और दुर्द्धर्ष विकट - सिद्धियों से युक्त था कापालिक टंका । आज वह अत्यधिक प्रसन्न था । चन्द्रचूड़ जैसा सुन्दर , सजीला , सशक्त एवं पुष्ट शरीर का तरुण आज बलि के लिए उसे प्राप्त होगा । उसके उष्ण - रूधिर से जब माता का वह अभिषेक करेगा तो माँ कितनी प्रसन्न हो जाएँगी ! इन्हीं विचारों में मुदित टंका आ पहुँचा भुवनमोहिनी के नृत्योत्सव में । नर - नारी और बाल - वृद्ध से भरे प्रेक्षागृह में मानो साक्षात् काल का ही पदार्पण हुआ । सभी में तत्काल भय की लहर दौड़ गयी । नृत्य - महोत्सव के विशाल मंच पर राजमाता के साथ विराजी भुवन मोहिनी टंका को देखते ही मुस्कुरायी- आओ कापालिक पधारो ! तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी । माता का पूजन सम्पन्न करचुकी हूँ ... तुम्हारा प्रसाद तुम्हारे समक्ष उपस्थित है । इस धृष्ट युवक को बलि हेतु स्वीकार करो , कापालिक ! ' टंका की भूखी दृष्टि उत्कल युवराज चन्द्रचूड़ पर गयी । राजकीय वेशभूषा और आभूषणों से युक्त युवराज का समस्त शरीर बेड़ियों में बँधा था । परन्तु युवराज के नेत्रों में भय की छाया तक नहीं थी । शांतचित्त वह खड़ा था । प्रेक्षागृह में उपस्थित सहस्र जोड़ी नेत्रों में विवश - सहानुभूति भरी थी । इतने तेजस्वी युवराज की निरर्थक बलि से सभी के हृदय संतप्त थे । हा विधाता ! यह तेरी कैसी निर्मम लीला है ! हमारी भुवनमोहिनी , जिसकी अंकशायिनी बनकर अपने जीवन को सार्थक कर सकती थी , उसी निर्मोही ने युवराज को प्राण - दण्ड देकर कैसा अनर्थ कर दिया ! जनसामान्य की वेश - भूषा में कुँवर दयाल सिंह , आ माधव तिरहुतिया और उसकी पत्नी अमला तिरहुतिया के साथ दर्शकों के मध्य विराजे हुए थे । भगवती बंगेश्वरी मंदिर के विस्तृत प्रांगण में एक ओर भगवती की भव्य प्रतिमा स्थापित थी , दूसरी ओर विशाल मंच पर शंखाग्राम की स्वामिनी अपने परिजनों , अधिकारियों , वादकों एवं प्रतियोगियों के साथ उपस्थित थी । मंच पर ही बेड़ियों में जकड़ा भयमुक्त युवराज , भावना - शून्य मुखमुद्रा में एक ओर निर्भय खड़ा था और भयंकर मुद्रा धारण किये टंका कापालिक मंथर गति से उसकी तरफ बढ़ा चला जा रहा था । दोनों की तीक्ष्ण दृष्टि एक - दूसरे की आँखों में गड़ी थी । युवराज की भयमुक्त मुद्रा कापालिक को असहज कर रही थी । युवराज के पास पहुँच कर कापालिक टंका ने कटाक्ष किया ' मूढ़ ! कदाचित् तुम्हें ज्ञात नहीं ... तुम्हारी इह - लीला के अवसान का क्षण आ उपस्थित हुआ है । मैं अपनी इन्हीं भुजाओं से तुम्हारी बलि देकर माता को प्रसन्न करूंगा । ' ' मुझे ज्ञात है ! ' निर्भीक वाणी में युवराज ने कहा- परन्तु पुत्र की बलि लेकर भला किस माता को प्रसन्नता हो सकती है , कापालिक ? ... और जिसे मैंने अपने हृदय - कमल सहित अपने मन और प्राण समर्पित कर दिये हैं उस निर्मोही की प्रसन्नता के लिए यों भी मैं बलि हेतु स्वयं प्रस्तुत हूँ कापालिक ! ' चंद्रचूड़ के निष्कपट स्वर के कम्पन ने क्षणभर के लिए भुवनमोहिनी की चेतना को कम्पित कर दिया । ऐसा निर्दोष समर्पण ! विस्मित हो सोचा उसने , परन्तु अगले ही क्षण संवेदनाओं की इस दुर्बलता से वह बलात् मुक्त हो गयी । विकट अट्टहास गूंजा कापालिक का । उसके अट्टहास से वायुमंडल में भय का संचार हो गया । भयाक्रांत दर्शक आश्चर्य से भर गये । युवराज की दृढ़ता ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था । उसके प्रति सबके हृदय से मूक साधुवाद के स्वर फूटने लगे । कापालिक के नेत्रों से निकलने वाली क्रोधाग्नि मंद हो गयी । उसके अधर पर विद्रूप मुस्कान उभर आयी , टंका आज तुम पर अतिप्रसन्न है देवी भुवनमोहिनी ... ! तुमने आज इस अमूल्य मानव तन का उपहार देकर मुझे पूर्ण संतुष्ट किया है ... ! कहो , प्रतिदान में तुम्हें क्या दूं ? ... इस क्षण जो चाहोगी , तत्क्षण तुम्हें प्रदान करूंगा । ' भुवनमोहिनी टंका से कुछ कहती कि तभी उसकी दृष्टि प्रेक्षागृह में उपस्थित कुँवर दयाल सिंह की ओर अनायास चली गयी । कुँवर उठकर दृढ़ता से मंच की ओर चला आ रहा था । कापालिक की दृष्टि भी तत्काल दयाल सिंह पर पड़ी यह अद्भुत तेजस्वी प्राणी कौन है देवी ? ' उत्सुक कापालिक ने कहकर सोचा- ऐसे देवदूत की नरबलि यदि उसे प्राप्त हो जाए तो समस्त जीवन ही धन्य हो जाये ! ' मैं स्वयं विस्मित हूँ कापालिक ! ' भुवनमोहिनी ने कहा- हमारे शंखाग्राम में ऐसा पुरूष - सौंदर्य ! ... यह तो कोई देव - पुरुष प्रतीत होता है कापालिक ! ' तब तक कुँवर मंच पर उपस्थित हो चुका था । उसने शीश नवाकर कापालिक को प्रणाम किया । तत्पश्चात् भुवनमोहिनी की वंदना कर उससे विनती की ' मैं कुँवर दयाल आपके श्रीचरणों में नमन करके कुछ निवेदन करना चाहता हूँ देवि ! आज्ञा हो तो निवेदित करूँ ... ? ' मुग्ध नेत्रों से कुँवर को निहारती भुवनमोहिनी ने हाथ उठाकर आज्ञा दी ' अवश्य ! अवश्य कहो कुँवर ! शंखाग्राम की स्वामिनी भुवनमोहिनी आज इस समारोह में तुम्हारा अभिनंदन करती है । हमारे अंचल में तुम्हारा स्वागत है । तुम्हारी देह - यष्टि एवं मुखाकृति देवताओं के सदृश है । तुम्हारे मुखमण्डल पर अपरिमित तेज की आभा है । तुम्हें अनायास देख कर ऐसा प्रतीत हुआ मानो गंधर्वो के राजकुँवर ही स्वयं हमारे महोत्सव में पधारे हैं । तुम्हें अपने मध्य उपस्थित पाकर मेरा हृदय प्रफुल्लित है ... कहो , तुम कौन हो और क्या कहना चाहते हो ? " कुँवर ने विनीत भाव से कर जोड़ते हुए कहा- मैं देवि कामायोगिनी का शिष्य और एक तुच्छ जिज्ञासु हूँ देवी ! उन्होंने कृपापूर्वक अपने षट्चक्र - नृत्य की मेरी साधना सम्पन्न कराने के उपरांत शेष शिक्षण हेतु , आपके शिष्यत्व में उपस्थित होने की प्रेरणा दी है ... मुझपर यदि आप प्रसन्न हैं ... तो मुझे अपनी शरण में लेने की कृपा कर मेरी अभिलाषा पूर्ण करें देवी ... ! ' विस्मय - विमुग्ध हो भुवनमोहिनी मुस्कुराई , फिर बोलीं- ' बड़े चतुर हो योगी ... और क्यों न हो ? ... षट्चक्र - नृत्य की विख्यात • नृत्यांगना देवी कामायोगिनी ने जिसे शिष्यत्व प्रदान किया तो वह पुरूष साधारण मानव तो कदापि नहीं हो सकता । परन्तु तुमने अर्द्ध परिचय देकर मुझसे अपना शेष परिचय छिपा लिया है प्रिय ... ! ' कहकर वे हँस पड़ी । फिर हँसते हुए ही पुनः कहा- अपने शंखाग्राम में मैं तुम्हारा स्वागत कर ही चुकी हूँ । अब यह जानकर कि तुम्हें देवी कामायोगिनी ने मेरे पास भेजा है ... मैं पुनः तुम्हारा स्वागत करती हूँ और प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अपना • शिष्य ग्रहण करती हूँ ... परन्तु इसके पूर्व वह कहो , जो निवेदित करना चाहते हो ... ! ' कुँवर ने नतजानु हो भुवनमोहिनी को नमस्कार करते हुए कहा ' देवी ... आपने मुझे शिष्य स्वीकार कर मेरी अभिलाषा पूरी कर दी है ... कृपया अपने शिष्य का सर्वप्रथम नमन स्वीकार करें ! " फिर उठकर उसने विनीत भाव से कहा- देवी अब मुझे निवेदन की आज्ञा दें । ' ' कहो प्रिय ... ! क्या कहना चाहते हो ... ? ' मुग्ध भाव से भुवनमोहिनी ने कहा । ' यदि आप रुष्ट न हों तो शिष्य निवेदन करे । ' ' निर्भय ! निःसंकोच कहो प्रिय ... ! ' मुदित भुवनमोहिनी ने कहा । ' जग में नरबलि की जघन्य - प्रथा सर्वत्र समाप्त हो चुकी है देवी ! हम सभी जगन्माता की संतान हैं ... इस सर्वथा निर्दोषयुवराज के तर्क से मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ देवी ... ! अपने ही पुत्र की बलि भला माता कैसे स्वीकार कर सकती हैं ? ' ' चुप हो जा मूढ़ । ' अचानक ही कापालिक की चीख गूँजी . हाथों में चिमटा उठाये कापालिक के नेत्रों से अंगारे बरसने लगे । कुँवर के अत्यंत पास आकर क्रोधित कापालिक ने चेतावनी दी - ' काल - मोह से ग्रस्त युवक ! मेरी उपस्थिति में ही मेरी अवहेलना का दुस्साहस ! मूर्ख , क्या तुझे अपने प्राणों का कोई भय नहीं ? ... क्या तुझे पता नहीं ... तेरी विषाक्त वाणी का प्रतिकार टंका कैसे करेगा ? ... अथवा तूने मेरे विकट कोप के प्रतिकार में स्वयं को समर्थ समझने की भूल कर दी है ? ' ' शांत टंका ... ! शांत ... ! ' भुवनमोहिनी ने अपनी भुजा उठाते हुए हस्तक्षेप किया- ' इस युवक का वह उद्देश्य नहीं जो तुमने समझा है । इसने मात्र अपना निर्दोष विचार प्रकट किया है ... तुम्हारा अपमान अथवा तिरस्कार नहीं किया है ... इसने । ' ' तुम कुछ भी कहो देवी भुवनमोहिनी , परन्तु मैं इसे स्वयं का अपमान ही मानता हूँ । ' क्रोधित टंका ने पुनः कहा - ' इसने तत्काल मुझसे क्षमा याचना न की तो आज सभी देख लेंगे ... किस प्रकार मेरी कोपाग्नि में दग्ध होकर यह तत्काल राख में परिणत हो जाएगा । ' ' ऐसा दुस्साहस न करना टंका ! " शांत स्वर में ही भुवनमोहिनी ने कहा । ' मुझे चेतावनी दे रही हो देवी भुवनमोहिनी ? " भुवनमोहिनी के अधरों पर रहस्यमयी मुस्कान उभरी । मुस्कुराकर उसने कहा - ' कदाचित् तुम्हारे अंहकार ने तुम्हें भ्रमित कर दिया है टंका ! तुम्हारे साथ - साथ शंखाग्राम के निवासी भी यही समझते हैं कि तुम्हारे भय से भयभीत होकर मैं नर बलि हेतु प्रत्येक वर्ष एक तरुण तुम्हें अर्पित करती हूँ । परन्तु आज सब जान जाएँ उच्च - स्वर में उसकी उद्घोषणा गूँजी - ' मैं भुवनमोहिनी किसी के भय से नरबलि देने हेतु विवश नहीं हूँ । प्राण - दण्ड प्राप्त अपराधियों को मैं स्वयं दण्डित करूँ अथवा तुम जैसे किसी कापालिक को बलि हेतु दे दूँ , मेरी दृष्टि में दोनों एक ही है । ' भुवनमोहिनी के कथन ने जहाँ शंखाग्राम के निवासियों में उत्साह का संचार कर दिया , वहीं राजमाता अत्यधिक भयभीत हो गयीं । कापालिक टंका कुछ क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ रहकर अपमान - बोध के कारण अत्यंत कुपित हो गरजा ' सावधान भुवनमोहिनी ... ! वहीं ठहरी रह ... ! तेरे अहंकार का तत्काल नाश करता हूँ मैं । ' कहते ही अत्यंत वेग से वह भुवनमोहिनी की ओर लपका । समस्त जनों की सांसें जहाँ की तहाँ रूक गयीं , तभी कुँवर | दयाल ने बलपूर्वक टंका की बांह पकड़कर उसे रोका रुक जाओ कापालिक ! तुम्हारा मूल अपराधी तो मैं हूँ ... देवी भुवन मोहिनी नहीं ... ! मेरे प्राण लेकर यदि तुम्हारा क्रोध शांत हो जाए तो मैं प्रस्तुत हूँ कापालिक ! ' क्या कहा ? ' क्रूरतापूर्ण वाणी में कापालिक ने कहा ! ' तू अपना | बलिदान करेगा ? ... हा ... हा ... हा ... ! ' विकट अट्टहास किया उसने । उसकी मुखाकृति पर धूर्ततापूर्ण मुस्कुराहट उभर आयी और उसने कहा- अपनी इच्छा से स्वीकार करता है तू ... बोल , इस धृष्ट युवराज के स्थान पर अपनी बलि देगा ? ' ' अवश्य कापालिक ... ! मेरी बलि दे दे तू ... परन्तु वचन दे मुझे कि यह तुम्हारी अंतिम नर - बलि होगी । मेरे पश्चात तू किसी नरकी बलि नहीं देगा । ' फिर से हँस पड़ा कापालिक । अट्टहास रुका तो उसने कहा ' तेरी निर्भीकता पर प्रसन्न हूँ मैं ... परन्तु तू क्या इस स्थिति में है युवक कि मुझसे अपनी शर्त्त मनवा ले ? ' यह कहकर कापालिक फिर से हँस पड़ा । वस्तुतः इस देवदूत की कांति वाले तरुण को बलि हेतु प्राप्त होता देख उसका मन अत्यंत मुदित था । परन्तु उसके दुस्साहस ने उसे खिन्न कर दिया । फिर भी , अनायास प्राप्त हुए इस परम सौभाग्य से वह कदापि विमुख होना नहीं चाहता था । उसके नेत्रों में धूर्त्तता भर आयी । धूर्त्तताभरी वाणी में ही उसने पुनः कहा , ' बोल अपनी बलि स्वीकार है तुझे ? ' जनसमूह में कोलाहल भर आया । सबसे बुरी स्थिति आढ़तिया माधव और उसकी पत्नी अमला की थी । अनायास उपस्थित इस संकट को दोनों विवश हो देख रहे थे । हे कमला मैया .. ! रक्षा करना । नेत्रों को बंदकर आढ़तिया माधव ने प्रार्थना की । भगवती बंगेश्वरी ऐसी ही प्रार्थना उसकी पत्नी भी कर रही थी । भुवनमोहिनी मंद - मंद मुस्कराती मौन खड़ी थी । आज इस मूर्ख कापालिक को वास्तविक ज्ञान होना आवश्यक है । अपनी तामसी सिद्धियों के अहंकार में यह मूढ़ कुछ विशेष ही मतवाला हो गया है । तत्काल बने अपने शिष्य की रक्षा में तत्पर हो वह खड़ी खड़ी मुस्कराती रही । ' बोलता क्यों नहीं मूर्ख ... ! ' कापालिक ने फिर से सक्रोध प्रश्न किया - ' अपनी बलि स्वीकार है तुझे ? " ' स्वीकृति तो प्रदान कर ही चुका हूँ कापालिक ! ' कुँवर ने हँसते हुए ही कहा- मेरी बलि तुम्हें स्वीकार है या नहीं इसका निश्चय तुम्हें करना है । यद्यपि मेरे अनुरोध को मानना तुम्हारी बाध्यता नहीं , तथापि वास्तविकता यही है कि मैंने स्वयं अपनी बलि हेतु स्वयं को प्रस्तुत किया है इसीलिए बलि के पूर्व तुम्हें मेरी इच्छा स्वीकार करनी चाहिए ... बोलो ... ! वचन दो मुझे । ' ' यह सत्य है युवक ' कापालिक ने कहा ॥ ' आज तक किसी ने अपनी इच्छा से बलि नहीं दी अपनी । तुमने स्वयं को समर्पित कर वास्तव में मुझे प्रसन्न कर दिया है । तुम पर प्रसन्न होकर तुम्हें एक अवसर प्रदान करता हूँ । तुमसे मैं पाँच प्रश्न करूंगा । तुमने मेरे पाँच प्रश्नों में से किसी एक का भी उत्तर दे दिया तो तुम्हारी इच्छा पूर्ण करते हुए तुम्हें वचन दे दूंगा । तुम्हारे पश्चात् यह टंका कापालिक किसी नर की बलि नहीं देगा । ' कुँवर की प्रतिक्रिया के पूर्व ही देवी भुवनमोहिनी तत्परतापूर्वक कापालिक के समीप आ गयी । मुस्कुराते हुए उसने कहा- यदि मेरे शिष्य ने तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिए , तो क्या करोगे टंका ? ' ' करूँगा क्या ? ... मेरी प्रतिज्ञा तो सर्वविदित ही है ... कापालिक का दृढ़ स्वर गूँजा ' मुक्त कर दूंगा इसे ... साथ ही नर बलि भी समाप्त कर दूंगा । ' ' ठीक है टंका ! ' भुवनमोहिनी ने कुँवर से कहा- तुमने देवी कामायोगिनी के षट्चक्र - नृत्य की साधना की है प्रिये ... ! मुझे विश्वास है ... टंका के प्रश्नों का समाधान सहजतापूर्वक करने में तुम सक्षम होगे । ' प्रत्युत्तर में कुँवर मुस्कराकर रह गया । उसके मौन पर भुवनमोहिनी ने पुनः कहा - ' आज भगवती बंगेश्वरी देवी की अनुकम्पा से वह घटित होगा , जो पूर्व में कभी घटित नहीं हुआ ।... टंका की शंकाओं का समाधान करके तुम इससेअपनी शंकाएँ प्रस्तुत करना । प्रत्येक वर्ष टंका ही प्रश्न करता आया है ... आज इससे तुम प्रश्न करना प्रिय .... !! ' जो आज्ञा देवी ! ' कुँवर ने मस्तक झुकाकर कहा- कमला मैया की यही इच्छा है तो , यही हो ! मैं कापालिक के प्रश्नों के लिए तैयार हूँ । ' ' ठहरो ! ' राजमाता ने इस बार अपना मौन तोड़ा- अब इस उत्कल देश के युवराज को बंदी बनाकर रखने का कोई औचित्य शेष नहीं रहा । इसे प्राण दण्ड से मुक्ति प्राप्त हो चुकी है । इसे मुक्त कर उपर्युक्त आसन प्रदान करो ! ' ' हाँ ... हाँ ... मुक्त कर दो इसे । ' कापालिक ने भी उत्साह में कहा । युवराज चन्द्रचूड़ की बेड़ियाँ तत्काल खोल दी गयीं । बेड़ियों से मुक्त चन्द्रचूड़ तीव्रगति से कुँवर दयाल के समीप आया । उसकी आँखें सजल हो गयी थीं । मुग्ध नेत्रों से कुँवर को निहारता उसने अनायास कुँवर को अपने आलिंगन - पाश में पूरी शक्ति से आबद्ध कर लिया । कापालिक टंका के नेत्रों में चमक भर गयी । चन्द्रचूड़ के प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध कुँवर का प्रभायुक्त नर - तन उसे विमोहित कर रहा था । टंका की कल्पना में भगवती बंगेश्वरी की बलिवेदी साकार हो गयी । उसने मुदित हो देखा - पीठ पीछे दोनों हाथ बांधे यह युवक मलकाठ पर गर्दन रख कर बैठा है । उसके कपाल पर सिन्दूर पुता है और वह अपनी दोनों भुजाओं में गड़ासा उठाये भगवती की वंदना कर रहा है । अपनी कल्पना पर विमुग्ध हो गया टंका । ऐसा निर्दोष मानव तन ! वाह टंका- वाह ... ! धन्य है तू ... धन्य है ! अब उसे क्षण भर भी निरर्थक व्यर्थ न कर इस अमूल्य नर तन को प्राप्त करना है । आतुर हो उसने कहा- बस अब बंद करो यह निरर्थक आलिंगन प्रत्यालिंगन , ' युवराज ! इस हठी के कारण अकारण ही तेरे प्राण आज बच गये । अब मुक्त हो तू जीवन का आनंद भोग और मूढ़ युवक ... ! तू तैयार हो जा मेरे प्रश्नों के लिए । ' युवराज चन्द्रचूड़ को अपने आलिंगन से अलग करते हुए कुँवर मुस्कुराया । स्निग्ध नेत्रों से वह मुस्कुराता हुआ कापालिक के समीप आया । ' बोल तैयार है तू ? ' सिद्धि से मदांध टंका ने पुनः पूछा । ' पूछ कापालिक टंका ... ! क्या पूछना चाहता है ? ' हँस पड़ा कापालिक ! पंछी स्वयं जाल में आ पहुँचा । आँखें बंदकर उसने ध्यान किया । हे देवी ... ! इस मूढ़ की प्रज्ञा हर ले तू ... हर ले देवी ! | इसे ऐसा भ्रमित कर दे कि इसकी चेतना और बुद्धि - दोनों स्तम्भित हो जाएँ .... और मैं इसके चमकीले केश खींचता तेरी वेदी तक लेता चला जाऊँ । ' ' किस चिन्तन में डूब गया टंका ' ! मुस्कराया कुँवर । ' तुम्हारे लिए ही प्रार्थना कर रहा था , देवी से ' , कापालिक ने • कुटिलतापूर्ण मुस्कान के साथ कहा - ' तुम्हारी बलि स्वीकार कर तुम्हें मुक्ति प्रदान करने की वे कृपा करें । ' कहकर उसने पुनः • विकट अट्टहास किया । वातावरण पुनः भयाक्रांत हो गया । वातायन में उसकी विषैली हँसी गुंजायमान हो गयी । हँसी रुकी तो उसने कहा - ' बड़े - बड़े योगी ज्ञानी और मुझ जैसे तंत्र - विशारद जिस मुक्ति हेतु • जीवनपर्यन्त साधना और प्रार्थना में निमग्न रहते हैं और फिरभी उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं होती ... आज यह टंका तुम्हें सहज ही मुक्ति देगा ... सहज ! ' ' यह मुक्ति क्या है टंका ? ' - विनोद किया कुँवर ने । ' उत्तम ! ' हँसा कापालिक शिकार ने स्वयं अवसर प्रदान कर दिया ... चलो , प्रथम प्रश्न से ही इसे धराशायी कर दूँ । इस विचार ने उसे अतिप्रसन्न कर दिया । उसने गरजकर कहा- ' मूढ़ , प्रश्न तू नहीं ... मैं करूँगा । तो बता मुझे । मेरा प्रथम प्रश्न यही है • कि ज्ञान क्या है ? जीवन की परम उपलब्धि क्या है और मुक्ति का मार्ग क्या है ? ' कहकर परम संतुष्टि से टंका मुस्कराया । कुँवर ने माता कमला को अपने अंतस् में प्रणाम कर शांत वाणी में कहा- ' क्या सत्य है , क्या असत्य - उसके भेद को जान लेना ही ज्ञान है टंका । किसे कहें है और किसे कहें नहीं है इन दोनों के मध्य भेद - रेखा खींच लेना ही जीवन की परम उपलब्धि है और क्या ' स्वप्न ' है क्या ' यथार्थ , इसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग है कापालिक ! ' देवी भुवनमोहिनी की प्रारंभिक तालियों पर जनसमूह ने करतल ध्वनि करते हुए कुँवर दयाल को साधुवाद दिया । चारों ओर हर्ष की लहरें फैल गयीं । टंका हताश हो गया । देवी भगवती ने उसकी प्रार्थना क्यों ठुकरा दी ? पराजय की कुंठा ने उसे कुपित कर दिया । अब वह स्वयं इसकी मेधा , इसकी बुद्धि हर लेगा । कापालिक ने अपने नेत्रों को बंद कर लिया । मोहन और वशीकरण क्रिया के प्रयोग , अनुष्ठान , पटल , पद्धति और पुरश्चरण को चेतना में भली भाँति स्थापित कर मंत्रोच्चारण प्रारंभ किया । अब वह पूर्ण संतुष्ट था । उसे विश्वास था , उसने इसकी मेधा हर ली थी । अब इसकी बुद्धि बालक के सदृश अबोध हो चुकी है । संतुष्ट कापालिक के नेत्रों में पुनः धूर्त्तता का संचार हो गया । मंद - मंद हँसते हुए उसने कहा- मेरे प्रथम प्रश्न का तुमने समुचित उत्तर देकर मुझे संतुष्ट कर दिया युवक ! मैंने वचन दिया था तुम्हें । मेरे एक भी प्रश्न का तुमने समाधान कर दिया तो तेरी बलि के उपरांत यह कापालिक टंका पुनः किसी नर की बलि नहीं देगा । आज मैं इस स्थल पर इसकी घोषणा करता हूँ । शंखाग्राम के निवासियों को मैं इसी क्षण से भय मुक्त करता हूँ ।'- कहकर कुटिलतापूर्वक मुस्कराते हुए उसने कुँवर की आँखों में अपनी दृष्टि गड़ा दी । ' तुम्हारे बुद्धि - कौशल और मेधा अपूर्व है , युवक ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ और अपना दूसरा प्रश्न इसी विषय पर करता हूँ । ध्यान से मेरा प्रश्न सुनो और अच्छीतरह विचारकर सावधानीपूर्वक इसका उत्तर दो ... यह बुद्धि क्या है ... बुद्धि में संशय क्यों होता है और इस द्वंद्व से मुक्ति कैसे संभव है ? ' ' चतुर कापालिक ! ' हँसकर कहा कुँवर ने एक प्रश्न के नेपथ्य में तुम तीन प्रश्नों को उपस्थित कर देते हो । अपने प्रथम प्रश्न में तुमने यही किया था और द्वितीय में भी ... परन्तु फिर भी मैं बताता हूँ तुम्हें ... ध्यान से सुनो ! शक्ति ही चेतना है , चेतना ही मेधा और मेधा ही बुद्धि है । परन्तु , जहाँ बुद्धि है , वहाँ संशय है और जहाँ संशय है , वहाँ द्वंद्व है । द्वंद्व मनुष्य का स्वभाव है । धैर्यपूर्वक द्वंद्व से पार हो जाना ही तपश्चर्या है । इस तपश्चर्या से ही द्वंद्व से मुक्त हुआ जा सकता है और कोई विकल्प नहीं । ' पुनः करतल ध्वनि के मध्य टंका का मन करने लगा कि वह अपनी लम्बी जटाओं को नोंचकर फेंक दे । प्रथम बार उसके मंत्र निष्फल हुए थे । असंभव ही घटित हुआ था उसके जीवन में यह भला संभव कैसे हुआ ? सोचा उसने । उसने पूरी एकाग्रता से मंत्रों का विधिपूर्वक संकल्प के साथ संधान किया था , फिर यह किस प्रकार असफल हो गया ?' तृतीय प्रश्न उपस्थित करो टंका ! ' यह मधुर स्वर देवी भुवनमोहिनी का था - ' तुम्हारी चतुराई मैंने देखी थी , परन्तु फिर भी मौन थी । अपना तृतीय प्रश्न पूछो । ' देवी भुवनमोहिनी के कारण टंका को अतिरिक्त अवकाश न मिला , अन्यथा अन्य अमोघ प्रहार का विचार वह अवश्य करता । तभी कुँवर ने भी और पास आकर कह दिया , ' हाँ ... हाँ ... कापालिक ! क्या है तुम्हारा अगला प्रश्न ? ' कुपित टंका ने कहा- यह जीवन क्या है और जीवन पर्यन्त मनुष्य करता क्या है ? सावधानीपूर्वक विचार करके बताओ अन्यथा बलि हेतु तैयार हो जाओ ! " ' जीवन एक अज्ञात यात्र है कापालिक । इसका प्रारंभ और अंत एक समान नहीं होता । अंत सदा अनिर्णीत है । । मनुष्य जो इच्छा करता है , वह सदा पूर्ण होती नहीं । इसीलिए जीवन की प्रारम्भिक इच्छा इसकी अंतिम निष्पत्ति नहीं । मनुष्य अपने भाग्य के निर्माण में चेष्टारत तो हो सकता है , परन्तु अंतिम निर्णय उसके वश में नहीं होता , निष्पत्ति विधि के अनुसार ही होती है और जैसा कि तुमने पूछा है जीवन पर्यन्त मनुष्य करता क्या रहता है तो मेरे विचार से जीवन पर्यन्त वह मरने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता । मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन मृत्यु का एक निर्धारित क्रम है , जिसका प्रारंभ मनुष्य के जन्म से होकर मृत्यु में पूर्ण होता है । " कुँवर के कथन ने परिवेश को मौन - शांत कर दिया । व्याकुल कापालिक अति सावधान हो चिन्तनमग्न हो गया । यह युवक वह नहीं , जो दीखता है । उसके अमोघ मंत्र इस पर निष्प्रभावी हो गये । इसके नेपथ्य में अवश्य कोई महान् रहस्य है । इसके स्वरूप को पूर्णरूपेण जाने बिना उसकी योजना निश्चय ही असफल हो जाएगी । वास्तव में यह है कौन ? और वह कौन - सी अदृश्य शक्ति है , जिसका आश्रय इसे प्राप्त है ? इन्हीं विचारों में वह मग्न हो गया । इसी क्षण देवी भुवनमोहिनी ने कुँवर को पास बुलाकर मंद स्वर में कहा- ' कापालिक टंका ने मंत्र - बल से तुम्हारी चेतना कुंद करने की अफसल चेष्टा की थी प्रिय ! मुझे सुखद आश्चर्य है कि माता आदि शक्ति ने स्वयं तुम्हारी सहायता की । परिणामस्वरूप , इस विकट कापालिक की धूर्त्तता व्यर्थ हो गयी । परन्तु अब तुम्हें अत्यंत सावधान हो जाना है प्रिय ! यह दुष्ट अब कुछ भी कर सकता है । ' ' आपने सत्य ही कहा है देवि ... ! परन्तु आप चिन्तित न हों ... मुझे मेरी माता पर पूर्ण विश्वास है । यों भी सदाचार को नष्ट करने की शक्ति कदाचार में नहीं होती है देवि ... ! ' | संतुष्ट हो गयी देवी भुवनमोहिनी । प्रसन्न होकर उसने कहा ' तुम्हारा कल्याण हो वत्स ... ! परन्तु सावधान रहना आवश्यक है । ' ' मैं सावधान ही हूँ देवि ... ! और अब तो आपकी भी शुभकामनाएँ मेरे साथ हैं । मुझे आज्ञा दें तो कापालिक के सम्मुख जाऊँ । ' ' जाओ प्रिये ! ' कुँवर जब लौटकर टंका के पास पुनः आया , तब अपने नेत्र बंद किये अपनी योगिनियों का आह्वान कर रहा था । ' हे तमोगुणी योगिनियो ! आज तुम्हारा अनन्य भक्त टंका तुम्हारा आह्नान कर रहा है । मैंने तुम सबको संतुष्ट कर डाकिनी , शाकिनी , हाकिनी , धूमावती , नागमोहिनी , अधोर , कपालसंकलिनी , प्रेत , पिशाच और वैताल विद्याओं को सिद्ध किया है । मारण , मोहन , वशीकरण , उच्चाटन , विद्वेषण , शांतिकर्म आदि षट्कर्म तथा विभिन्न प्रकार के तमोगुणी तांत्रिक | सिद्धियों के विकट अनुष्ठान करके मैंने पूर्णता प्राप्त की है । क्या मेरी समस्त सिद्धियाँ इस एक अकेले मानव के समक्ष परास्त हो जाएँगी ? क्या तुम सब यों मेरी उपेक्षा कर दूर खड़ी मूक बनी रहोगी ? आओ मेरे पास आओ ... !! तत्काल नृत्यमंच का वायुमण्डल भारी हो गया । समस्त योगिनियां सूक्ष्म रूप में टंका के समक्ष आ उपस्थित हुई । ' हे माता आदि शक्ति ! ' -योगिनियों के सूक्ष्म अस्तित्व का भान होते ही भुवनमोहिनी ने नेत्रों को बंद कर प्रार्थना प्रारंभ कर दी । और विजयी भाव से मुस्कुराते कापालिक टंका ने अपने नेत्र खोले । कुँवर उसके समक्ष शांत भाव से खड़ा था । कापालिक को नेत्र खोलते देख उसने शांत भाव से ही कहा ' चिन्तन हो चुका हो तो प्रश्न करो टंका ? " ' इतने प्रसन्न मत हो मूढ़ ! ' आक्रोशित टंका ने समस्त योगिनियों को उपस्थित पाकर विषाक्त मुस्कान के साथ कहा- बता वह क्या है जिसके न होने की सम्भावना ही नहीं और वह क्या है , जो न कभी था और न कभी हो सकता है ? ' जनसमुदाय में व्याकुलता भर गयी । लोगों में कानाफूसी होने लगी । इस प्रश्न में रहस्यमय चतुराई भरी है । कापालिक ने अबूझ प्रश्न किया है , इस बार उसने इस युवक को वाक् - जाल में उलझा दिया है । इसे प्रश्न बदलना होगा । चतुर्दिक् ऐसी ही चर्चा होने लगी , परन्तु कुँवर हँस पड़ा । ' तुम्हारे प्रश्नों में तुम्हारी जिज्ञासा नहीं है टंका ! ' कुँवर ने विहँस कर कहा - ' अपने प्रत्येक प्रश्न के उत्तर तुमने पूर्व से ही निर्धारित कर रखा है और यह भी सत्य है कि मेरे उत्तर तुम्हारे द्वारा पूर्व • निर्धारित उत्तर से अलग हैं , फिर भी मैंने जो कहा है , वह शाश्वत है । इसीलिए तुम्हें विवश होकर सहमत होना पड़ रहा है । इस बार तुम्हारे चतुर्थ प्रश्न में तुम्हारी धूर्त्ततापूर्ण चतुराई छिपी है , फिर भी सुन- ' तुमने पूछा है । वह क्या है , जिसके न होने की सम्भावना ही नहीं , तो मेरा उत्तर है- जो सदैव से है जिसके न होने की सम्भावना ही नहीं , वह ' सत् ' है और कभी नहीं था और फिर कभी नहीं हो सकता है , वही ' असत् ' उत्तर देकर कुँवर शांत भाव से मुस्कुराया और प्रेक्षागृह जन • समूह की करतल ध्वनि से पुनः गूंज उठा । व्यग्र कापालिक ने व्यथित हो अपनी योगिनियों को बंद नेत्रों से देखा । उसकी अतीन्द्रियों में विस्मय भर गया । कुष्ठ - ग्रस्त एक बुढ़िया ! उसके चतुर्दिक् आनंदमग्न योगिनियाँ कर जोड़े खड़ी थीं । कौन है यह बुढ़िया ? इसके रोम - रोम से घृणित कुष्ठ का स्राव हो रहा है और ये योगिनियाँ चारों ओर से इसे घेरे आनंदित हो रही हैं । अपनी चेतना को एकाग्र कर उसने जिज्ञासा की । वीणा के तार - सी मधुर वाणी उसके अंतस् में गूंजी- ' मूर्ख ! इनके वास्तविक स्वरूप के दर्शनों का अभी तू अधिकारी नहीं बना है । योगियों के सहस्त्रों जन्मों के पश्चात् ही जब उनके पुण्य का उदय होता है तो वे इनके स्वरूप दर्शन के अधिकारी होते हैं । तुमने इनके वीभत्स रूप का दर्शन कर लिया , इसे ही इनकी कृपा और अपना सौभाग्य मान और इनके कृपा - पात्र उस नर - रत्न की शरण ले , जिसकी बलि की लालसा में तू अपने ही सर्वनाश को उद्यत है । 'चकित टंका ने तदुपरांत अपने मानस में देखा , मुस्कराते हुए युवक के शरीर की आभा सूर्य के समान प्रज्वलित हो गयी है और कुष्ठ - पीड़ित वह वृद्धा उसके ही अंदर खड़ी मंद - मंद मुस्करा रही है । ज्ञान - चक्षु के खुलते ही कापालिक के नेत्र खुल गये । उसके नेत्रों से जल - प्रवाह प्रवाहित होने लगा और वह कुँवर के प्रति अगाध श्रद्धाशिक्त हो तत्काल दंडवत् हो गया । ' क्षमा स्वामी ... ! ' लेटे हुए ही उसने मस्तक उठाकर कर जोड़ते हुए कहा- मुझे क्षमा प्रदान करें , अब किसी और प्रश्न की धृष्टता मैं नहीं कर सकता स्वामी ! ' कह कर कापालिक वहीं नतजानु होकर बैठ गया । उसके नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाहित होने लगे । अत्यंत विनीत स्वर में उसने पुनः कहा- मुझ मूढ़ को उपदेश दें स्वामी ... ! मैं अपनी शक्तियों के मोह से मोहित हो गया था ... मुझे उपदेश देकर मेरे अंतस् के अंधकार को समाप्त कर दें , स्वामी ... !! ' शांत हो कापालिक ... शांत ! ' करुणा से भरे कुँवर ने कहा- तुम्हें कदाचित् भ्रम हो गया है । मैं न कोई सिद्ध हूँ न योगी । मैं कोई संत - महात्मा भी नहीं हूँ , कापालिक ! मैं तो एक साधारण विवश मानव हूँ , जो प्रयोजनवश पहले कामरूप और अब शंखाग्राम आया है । देवी कामायोगिनी ने कृपा करके मुझे कामरूप में शिक्षा दी और उनकी ही प्रेरणा से इस शंखाग्राम में देवी भुवनमोहिनी की शरण में उपस्थित हूँ । प्रयोजन पूर्ण होते ही अविलंब अपने अंचल में लौटना है मुझे । मुझ पर और मेरे अंचल पर बड़ी भारी विपदा आन पड़ी है , जिसका निवारण किये बिना मुझे शांति नहीं प्राप्त होने वाली है । इसीलिए , उठो कापालिक ... ! मैं तुम्हारी श्रद्धा - भक्ति के अनुकूल नहीं ... मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझे अपना स्नेह प्रदान करो ! " ' नहीं स्वामी ... ! मुझे अपने उपदेश से अनुगृहीत करें ! मेरी समस्त शक्तियाँ आज क्यों इस प्रकार निष्फल हो गयीं ? यह अकारण नहीं हो सकता स्वामी ! ' ' तुम शक्ति के उपासक हो कापालिक ; क्योंकि तांत्रिक साधना का अर्थ ही है शक्ति की साधना शक्ति स्वयं में निष्पक्ष और निरपेक्ष होती है टंका । शक्ति स्वयं में न शुभ है , न अशुभ परन्तु , शक्ति न किसी का कल्याण करती है न अकल्याण | अग्नि से प्रकाश भी हो सकता है और आग भी लग सकती है । परिणाम तो प्रयोग पर निर्भर है । यह शुद्ध अंतःकरण वालों को भी उपलब्ध हो सकती है और शुद्ध अंतःकरण वालों को भी और विडम्बना यह है कि शुद्ध अंतःकरण वाले साधकों को यह शीघ्र ही उपलब्ध हो जाती है । ' ' वह क्यों स्वामी ? ' विस्मित टंका ने जिज्ञासा की । ' क्योंकि शक्ति की आकांक्षा शुद्ध हृदय की आकांक्षा है । शुद्ध अंतःकरण वाले साधक - गण शक्ति की साधना शक्ति - अर्जन के लिए नहीं , अपितु शांति और आनंद की उपलब्धि के लिए करते हैं । शक्ति शुद्ध हृदय की वासना है और शुद्ध हृदय की कामना । शक्ति से शुद्धि और अशुद्धि का कोई सम्बन्ध नहीं है , क्योंकि इसकी उपलब्धि होती है साधना से । ' ' शक्ति का स्रोत क्या है स्वामी ? ' उत्सुक टंका ने पूछा । ' शक्ति का स्रोत मन है । जब हम क्रोध में होते हैं तो मन स्थिर हो जाता है । इसीलिए क्रोधी मनुष्य को ऐसा आभास होता है कि उसकी शक्ति कई गुणा बढ़ गयी है । वास्तव में क्रोध में स्थिर मन एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता से शक्ति उत्पन्न होती है । अच्छे और बुरे हृदय में शक्ति का स्रोत एक ही है ,परन्तु हृदय- हृदय में अंतर है । यदि हृदय शुद्ध है तो शक्ति अमृत का कार्य करेगी और हृदय शुद्ध है तो वही शक्ति विष बन जायेगी । मेरी कामना है कापालिक की तुम्हारी विषाक्त शक्तियाँ अमृत बन जाएँ । इससे तुम्हारा भी कल्याण होगा और जगत का भी । ' गद्गद् हृदय से उठकर टंका खड़ा हो गया- आपके आदेश का इसी क्षण से पालन होगा स्वामी ! अब यह टंका कापालिक आपकी ही सेवा में रत होकर जगत के कल्याणार्थ ही कार्य करेगा । मैं मूढ़ ... अज्ञानी अपनी तुच्छ सिद्धियों के अहंकार मद में चूर था ... मुझे क्षमा करें ! मैं आज और इसी क्षण से आपका दास बन गया स्वामी ... ! मुझे आज्ञा दें ... ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं क्या करूँ ? ' मंद - मंद मुस्कराते हुए दयाल ने कहा- ' अपने आराध्य की • प्रसन्नता के लिए तुमने आज तक जो भी उचित अथवा अनुचित किया , सम्पूर्ण समर्पित भाव से किया । क्षमा अथवा पुरस्कार .... जो देना होगा तुम्हें वही देगा कापालिक ! ... और मैं तुम्हें स्वामी नहीं , मित्र भाव से स्वीकारूँगा । तुम्हें स्वीकार हो तो आओ ... ! ' कहकर दयाल ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं । पाषाण में भी जल होता है , नहीं तो टंका की आँखें कैसे भर | आई ? विह्वल कापालिक लिपट गया अपने स्वामी से हर्षातिरेक में वादकों की हथेलियाँ बरबस मृदंग पर जा पहुँची और प्रेक्षागृह के नर - नारी हर्ष में कोलाहल करने लगे । करतल ध्वनि से समस्त वातावरण गूंज उठा । कुँवर के आलिंगन से मुक्त होकर कापालिक ने अपना | मुण्डमाल उतार कुँवर को समर्पित कर कहा- मेरी समस्त सिद्धियां आपको समर्पित हैं स्वामी ! कृपाकर इसे ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत करने की कृपा करें । आपके ग्रहण करते ही यह मुण्डमाला स्थूल नेत्रों से अदृश्य होकर सूक्ष्म रूप में सदा आपके साथ रहेगी । इसे ग्रहण करें स्वामी ... ! " आश्चर्य से सभी की आँखें फैल गयीं । कुँवर ने ज्यों ही अपने वक्षस्थल पर कापालिक का मुण्डमाल ग्रहण किया ... भक्क की ध्वनि हुई और वह तत्काल अदृश्य हो गयी । ' अब मुझे आज्ञा दें तो मैं देवी भुवनमोहिनी सहित समस्त | उपस्थित जन से क्षमा याचना करना चाहता हूँ । ' कापालिक ने कर जोड़कर कहा । कुँवर के अधरों पर स्नेहिल मुस्कान खेलने लगी । उसकी मूक सहमति पर हँसती हुई भुवनमोहनी ने आगे आकर कहा ' इसकी अब कोई आवश्यकता शेष नहीं टंका । इस मनमोहन ने तुम्हारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को परिवर्तित कर स्थिति ही बदल दी है । सकारात्मक स्वरूप ग्रहण करते ही तुम्हारी समस्त शक्तियां स्वयमेव द्विगुणित हो जाएँगी ... विश्वास करो ... ! ' ' आपका आभारी हूँ देवी ... ! इस अहंकारी कापालिक ने आपके भी गुप्त स्वरूप को आज ही पहचाना है । आप महान् हैं देवी ... ! मुझे क्षमा करते हुए प्रस्थान की आज्ञा दें ... ! ' ' जाओ ... प्रसन्नतापूर्वक जाओ टंका ! ' भुवनमोहिनी ने आशीर्वाद की मुद्रा में कहा- ' तुम्हारा कल्याण हो ! ' टंका ने विनयावनत हो कुँवर को करबद्ध हो कर कहा- यह दास सदा - सूक्ष्म रूप में आपके साथ उपस्थित रहेगा स्वामी ... ! परन्तु दास के इस स्थूल शरीर को अब आज्ञा दें ... ! '