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फादर्स डे - 14

लेखक: प्रफुल शाह

खंड 14

मंगलवार, 30/11/1999

‘संकेत कल शाम तक घर वापस आ जाएगा...संकेत वापस आ जाएगा...वह घर आ जाएगा...’ साई विहार में इस समय मौजूद सभी लोगों के कानों में ज्योतिषी द्वारा कहे गये ये शब्द बार-बार गूंज रहे थे। सूर्यकान्त ने उस ज्योतिषी को कुछ पैसे देने के लिए अपनी जेब में हाथ डाला। उसने लेने से इंकार कर दिया। उसने कहा इस समय वह कोई भी रकम नहीं लेगा। उसने कहा संकेत के वापस लौटने के बाद वह खुशी-खुशी पैसे स्वीकार कर लेगा। साई विहार में कई लोग उपस्थित थे, वह एक भला आदमी मालूम पड़ता था और दूसरों को वह भगवान का एक अवतार मालूम पड़ रहा था।

उस ज्योतिषी ने सभी लोगों से विदा ली। प्रतिभा तो अपने ही ख्यालों में खोई हुई थी। सूर्यकान्त उस ज्योतिषी को साई विहार के गेट तक छोड़ने के लिए गया। लौटते हुए, वह भी विचारों में खो गया। ‘सामान्यतौ पर, संकेत यहीं कहीं खेलता रहता। जब भी वह उसे देखता, वह मुझे अपने साथ खेलने के लिए बुलाता था, दुर्भाग्यवश मेरे पास उसके लिए कभी भी वक्त नहीं रहा।’ एक पिता का दिल अपने बेटे को याद कर रहा था और उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था। इस बीच, विष्णु भांडेपाटील ने साई विहार में प्रवेश किया और अपने बेटे को कंधे से थाम लिया। सूर्यकान्त ने अपने पिता को झुककर प्रणाम किया। कुछ कहने के बजाय, पिता ने उसके कंधों पर थपकी दी। सूर्यकान्त ने अपनी मां को भी प्रणाम किया। वह भी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं थी। “घाबरायचं नाहीं(डरना मत),” मां ने हिम्मत बंधाई।

वे सभी साई विहार के अंदर चले गए। विष्णु और सूर्यकान्त सामने वाले कमरे में बैठ गए। सौरभ बाहर आकर अपने दादा की गोद में बैठ गया। उसके चेहरे पर थोड़ी-सी चमक आ गई थी। उसे लगा अब जल्दी ही संकेत भी वापस घर आ जाएगा।

दूसरे कमरे में महाडिक काकू प्रतिभा से कह रही थीं, “कम से कम पानी तो पी लो। तुमने काफी देर से पानी नहीं पिया है। यदि तुमको कुछ हो गया तो सौरभ और भाऊ की ओर कौन देखेगा?”

जनाबाई ने उसी कमरे में प्रवेश किया। प्रतिभा तुरंत उठ कर उनकी ओर दौड़ पड़ी। वह झुककर जनाबाई को प्रणाम करने ही जा रही थी कि उन्होंने उसे गले से गला लिया। प्रतिभा अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई। किसी अपने के सामने आंसुओं को बहाकर उसे राहत महसूस हो रही थी। जनाबाई ने भी उसे रोने से नहीं रोका। वह उसकी पीठ पर प्रेम से धीरे-धीरे हाथ फेर रही थीं।

समान ध्रुवों में विकर्षण होता है, विज्ञान का यह सिद्धांत यहां काम नहीं कर रहा था। प्रतिभा पढ़ाई में होशियार थी और जनाबाई खेती-किसानी की विशेषज्ञ थीं। दोनों ही अपने परिवार के प्रति समर्पित थीं। दोनों ही स्वभाव से शांत और कम बोलने वाली थीं।

“बस आता(बहुत हो गया)” जनाबाई के शब्दों ने जैसे प्रतिभा पर जादू कर दिया। उसने रोना बंद कर दिया लेकिन नीचे देखती रही। जनाबाई ने उसका सिर उठाया, उसकी आंखों में देखा और पूछा, “तुम चाहती हो कि संकेत घर वापस आए? वह पंढरपुर में है। वह भगवान की पूजा करेगा और वापस आ जाएगा।”

‘संकेत पंढरपुर में है...संकेत पंढपुर में है....’ इन शब्दों ने प्रतिभा के भीतर एक आशा की किरण जगाई और वह ऊर्जा से भर गई। वह प्रभु विट्ठल के चित्र की ओर दौड़ गई, अपने दोनों हाथ जोड़े और जोर-जोर से रोने लगी।

जनाबाई उसके पास गईं, उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया, उसकी आंखों में देखा और पूछा, “क्या तुम्हें भगवान पर भरोसा नहीं है?”

प्रतिभा कुछ नहीं बोली। उसने सहमति में सिर हिला दिया।

जनाबाई ने उसके आंसुओं को अपने नउवारी (नौ गज की महाराष्ट्रियन साड़ी) के छोर से पोंछा। “ईश्वर हमारी परीक्षा ले रहा है। तुम्हें क्या लगता है मुझे दुःख नहीं हो रहा है? तुम्हें मालूम है कि मैं संकेत को कितना प्यार करती हूं। मुझे बताओ लोग मेरे और संकेत के बारे में क्या कहते हैं?” उन्होंने पूछा।

प्रतिभा कुछ कह नहीं पा रही थी। उसने बस यही बात पूछने का प्रयास किया. “क्या वह पंढरपुर में है?”

“पहले मुझे बताओ लोग मेरे और संकेत के बारे में क्या कहते हैं,” उसने फिर से पूछा।

प्रतिभा ने जनाबाई की ओर देखा और कहा, “सब लोग कहते हैं वह आपकी तरह दिखता है, इसलिए आप उसे बहुत प्यार करती हैं। पर वह पंढरपुर में है, है न? वह कब वापस आएगा?”

जनाबाई ने स्थिति को सामान्य बनाने के लिए उसकी चिंता को कम करने का प्रयास किया। “केवल संकेत ही क्यों, हम सभी की देखभाल भगवान विट्ठल करते हैं। हम सभी उसकी छत्रछाया में रहते हैं। तो फिर भगवान संकेत की चिंता क्यों नहीं करेंगे?  करेंगे या नहीं?”

प्रतिभा ने अपना चेहरा अपनी सास की गोद में छिपा लिया और फिर से रोने लगी। जनाबाई ने कुछ नहीं कहा, पर उसे प्रेम से थपथपाती रहीं। उन्होंने भगवान विट्ठल के चित्र की ओर देखा और पूरे भक्तिभाव से प्रार्थना की कि उनके परिवार को इस मुसीबत से बाहर निकाले। वह भी अपने आंसुओं पर नियंत्रण नहीं रख पा रही थीं। लेकिन वह इस बात को लेकर सतर्क थीं कि उनके कारण प्रतिभा और अधिक परेशान न हो जाए। इसलिए उन्होंने अपने पल्लू से मुंह दबा लिया।

विष्णु भांडेपाटील भी अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पा रहे थे। एक ओर उन्हें अपने प्यारे पोते के खोने का दुःख था, तो दूसरी ओर उन्हें अपने बेटे का असीम दुःख देखा नहीं जा रहा था। वह इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझ पा रहे थे कि उनका बेटा इस समय किस मनःस्थिति से गुजर रहा है, भले ही वह अपना दुःख आंसुओं या शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं कर रहा हो। अन्य कई पुरुषों की ही तरह सूर्यकान्त को भी इस बात का वरदान नहीं मिला था कि वह अपना दुःख आंसुओं के जरिए बहा पाता।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह