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फादर्स डे - 18

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 18

गुरुवार, 02/12/1999

संकेत को गुम हुए आज चार दिन हो गए।

नीरा नदी निरंतर मंथर गति से बह रही थी। दो सिपाही नदी के किनारे चलते हुए आपस में बात कर रहे थे। वे गुमे हुए बच्चे के मामले में किसी सुराग की तलाश में थे।

“हम न जाने यहां कितनी ही बार आए हैं...”

“क्या ये संभावना है कि बच्चा नदी में डूब गया हो, या किसी ने उसे नदी में धक्का दे दिया हो?”

“नहीं, बॉडी नदी के अंदर चार दिनों तक नहीं रह सकती...”

“यह सही है। इस तर्क को माने सर को बताना होगा। लेकिन, वे सही भी कहते हैं कि किसी जगह पर बार-बार जाने से कभी-कभी हम उन बातों पर भी गौर कर पाते हैं, जिन्हें पहले कभी नहीं सोचा होता है।”

“मैं भी मानता हूं। यह मामला अब बेहद संवेदनशील मुद्दा बन गया है। आज, इसको लेकर अपने एक स्थानीय अखबार में एक रिपोर्ट भी छपी है।”

“हां, माने सर उसको लेकर काफी परेशान थे।”

दोनों सिपाही नदी के किनारे पर दूर तक चलते चले गए लेकिन घटना से संबंधित ऐसी किसी भी चीज ने उनका ध्यान नहीं खींचा, जिसका उल्लेख किया जा सकता हो।

प्रतिभा अपने बेटे के खूबसूरत चेहरे की तारीफ करने से खुद को रोक नहीं पा रही थी। वह संकेत के तीसरे जन्मदिन पर खींचे के फोटो को देख रही थी। उसे याद आया, ‘वह अपने जन्मदिन के उत्सव को लेकर कितना उत्साहित था! हमने कई लोगों को आमंत्रित किया था। उत्सव में शामिल होने वालों में ज्यादातर तो उसके दोस्त ही थे। उन दिनों सूर्यकान्त अपने कामकाज को लेकर काफी व्यस्त था। जिस दिन जन्मदिन का केक काटा जाना था, उस दिन भी पूरी रात साइट पर ही रुकना पड़ा था। इसीलिए संकेत ने सौरभ, पायल, पराग और अपने दादा-दादी-विष्णु और जनाबाई के साथ मिलकर ही केक काटा था। हमने उसी दिन नया कैमरा खरीदा था। संकेत उस नए कैमरे से खुद फोटो खींचना चाहता था, लेकिन कोई भी उसके हाथों में इतनी महंगी चीज देना नहीं चाहता था। लेकिन रो-धोकर उसने मनमुराद पूरी कर ही ली थी। हमने अपने नए कैमरे से बहुत सारी फोटो खींची थीं। संकेत तो जैसे सातवें आसमान में उड़ रहा था।’

प्रतिभा अपने बच्चे के चेहरे पर फैली हुई मधुर मुस्कान में ही खोई हुई थी...बेटा आ जाओ...और अपनी मुस्कान एक बार फिर मुझे दिखाओ... मेरे बच्चे वापस आ जाओ...

शिरवळ बस डिपो में बहुत सारे यात्री बस की प्रतीक्षा में खड़े हुए थे। उनमें से कुछ बड़बड़ा रहे थे, “दो तो बज गए...बस को अब तक आ जाना था।” उसी समय बस आ पहुंची। उसका दरवाजा धड़ाक से खुला। चार लोग उसमें से उतरे। यात्री पांचवे आदमी को उतरते देख कर चौंक गए। तीन यात्री बस में चढ़ तो गए लेकिन उस पांचवें आदमी को देखते ही रहे। बाकी दो ने अपनी यात्रा की योजना बदल दी थी। उन्होंने तय किया कि वे पांचवे के साथ जाएंगे। ‘रंग-रूप तो भगवान की देन होती है। लेकिन क्या काले रंग का इंसान इतने काले कर्म करता है?’

प्रतिभा वर्तमान में नहीं थी। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि आखिर वह करना क्या चाहती है। वैसे भी, वह वर्तमान में कैसे जी सकती थी जब उसका लाड़ला संकेत चार दिनों से घर वापस न लौटा हो? वह निर्विकार भाव से पूरे घर को ताक रही थी। वह सोच रही थी, ‘मैंने न जाने कितने भगवानों को हार-फूल चढ़ाए, धूप-अदरबत्तियां जलाईं, उनके सामने दीए भी जलाए; पर किसी ने भी मेरे बेटे की रक्षा नहीं की। मुझे सभी देवी-देवताओं की तस्वीरों और मूर्तियों को हटा देना चाहिए। मुझे उन्हें नीरा नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। यदि उन्हें मेरी, मेरे परिवार की, मेरे संकेत की चिंता नहीं है, तो मैं भला उनकी चिंता क्यों करूं? मेरे साथ ही ऐसा अन्याय क्यों?’ इन्हीं विचारों के आवेग में वह उस कोने की ओर चल पड़ी, उसने सभी देवी-देवताओं की स्थापना की थी। सबसे पहले उसकी नजर पड़ी भगवान कृष्ण पर। उनके चेहरे पर चिरपरिचित आकर्षक मुस्कान थी। चित्र के एक हिस्से में भगवद्गीता का एक श्लोक लिखा हुआ था और दूसरी ओर बालक कृष्ण को अपने पिता के सिर पर रखी बांस की टोकरी में आराम कर रहे थे। चित्रकार ने जेल की सींखचों के पीछे खड़े शोकाकुल माता-पिता देवकी और वासुदेव को भी उकेरा था।

अचानक एक विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा। उसे याद आया कि भगवान कृष्ण की माता को अपनी सात संतानों को मृत्युमुख में जाते हुए देखना पड़ा था, वह भी अपने भाई कंस के हाथों उनका नाश हुआ था। और, उसे अपने आठवें पुत्र श्रीकृष्ण के वियोग का असीम दुःख भी उठाना पड़ा था। यदि दुनिया को बनाने वाले और उनकी माता ही नियति के अनुभवों से वंचित नहीं रह पाईं, तो मुझे शिकायत करने का क्या अधिकार? वह नीचे बैठ गई, अपने हाथ जोड़े और आंखें बंद करके क्षमायाचना की। उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे।

शेखर गहरे रंग का, ऊंचा-पूरा नौजवान था। उसका व्यक्तित्व आकर्षक था। जब वह गुजर रहा था, तो कुछ ने उसे आगे बढ़ने के लिए रास्ता दे दिया, तो कुछ उसके पीछे-पीछे हो लिए। वह उनमें से कुछ को जानता था, बाकी सारे उसे पहचानते थे। आज, उसके साथ किसी ने भी हंसी-मज़ाक नहीं किया, न ही उसने किसी के साथ। जो लोग उसके पीछे-पीछे चल रहे थे, वे सभी साई विहार में चल रहे नाटक के पटाक्षेप की प्रतीक्षा कर रहे थे।

शेखर बस स्टैंड से साई विहार की दिशा में करीब 12 मिनट तक पैदल चला। वह कुछ पल को ठहरा। उस समय दोपहर के 2.30 बज रहे थे।

जितने भी लोग साई विहार में उस वक्त जमा थे, सबके दिल की धड़कनें थम गईं, जब उन्होंने पांच दिनों के अंतराल के बाद शेखर को घर वापस आते हुए देखा। सभी की नजरें उसी पर टिक गईं। सबको इसी बात की उत्सुकता थी कि वह संकेत के बारे में क्या बताता है। सभी उसके हुलिये को लेकर भी उत्सुक थे क्योंकि संकेत को स्कूल से लेकर जाने वाले आदमी के बारे में अजंलि टीचर ने जैसा वर्णन किया था, वह शेखर से मिलता-जुलता था। लोग डरे हुए भी थे; कि क्या उसके आगमन से भांडेपाटील परिवार में और अधिक परेशानी तो खड़ी नहीं हो जाएगी?

संकेत के बारे में सबसे पहले प्रतिभा ने ही उससे पूछा। “क्या तुम्हें मालूम है संकेत कहां है?”

शेखर अपनी बहन के नजदीक गया मानो वह उसे कुछ खास बात बताना चाहता हो। भाई-बहन की नजरें एक पल को मिलीं। शेखर अपनी बहन से अधिक देर तक अपनी बहन की आंखों में नहीं देख पाया, उसने नजरें नीची कर लीं।

“संकेत कहां है? क्या तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हारा भांजा कहां है ? तुम कैसे मामा हो ?” प्रतिभा आगे कुछ बोल ही नहीं पाई। शेखर ने उसका हाथ अपने हाथों में लिया और उसे पास में ही रखी कुर्सी पर बैठने में मदद की।

विष्णु ने इशारों में ही सूर्यकान्त को कुछ बताया। सूर्यकान्त धीरे-धीरे शेखर की ओर बढ़कर उसके कंधों पर हाथ रखा। शेखर तुरंत मुड़कर अपने जीजाजी को कसकर गले से लगा लिया। उसने कांपती हुई आवाज में ‘सॉरी’ कहा। सूर्यकान्त ने उसे सोफे पर बिठाया और खुद भी उसकी बाजू में बैठ गया।

“कशाला सॉरी? काय झालं?”(सॉरी किस बात की, क्या हुआ?)

“संकेत..आपला संकेत”( संकेत...अपना संकेत...)

“संकेत चं काय?”(संकेत के बारे में क्या?)

“वह चार दिनों से लापता है...इस मुश्किल की घड़ी में मैं आपके साथ नहीं था. मैं उसे खोजने में मदद नहीं कर सका, और, इस समय मेरे घर से दूर रहने ने परिवार की परेशानी को और अधिक बढ़ा दिया... ”

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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