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फादर्स डे - 22

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 22

सोमवार, 06/12/1999

शिरवळ की सबसे शानदार इमारत-साई विहार इन दिनों घर-घर में सबसे अधिक चर्चा का विषय बनी हुई है।

सुबह के 11.30 बजे हैं। भांडेपाटील के घर का टेलीफोन बजता है। पति के निर्देशानुसार प्रतिभा रिसीवर उठाती है।

“हैलो...”

“पिल्लू पाहिजे न तुला?”( तुम बच्चे को वापस चाहती हो न?)

“कोण बोलते?”(कौन बात कर रहा है?)

“तुमचा मुलगा माझ्या कड़े आहे...एक तासात एक लाख रुपए द्या...मुलगा संध्याकाळी देतो...”(तुम्हारा बेटा मेरे पास है...एक घंटे के भीतर मुझे एक लाख रुपए दो, बेटा शाम तक वापस मिल जाएगा।)

“कुठे पैसे द्यायचे?”(पैसे कहां लाकर देना है?)

“पत्ता लिहून घ्या.” (पता लिख लो)

“एक मिनट…”

प्रतिभा ने सूर्यकान्त की ओर देखा. संजय एक डायरी और बॉल पॉइंट पेन लेकर आ गया।

“हां, आता बोला”(हां, अब बताओ)

“खंबाटकी घाट जवळ, डाव्याबाजूला रस्तेच्या कड़ेला, टेलीफोन ची एक खोली आहे, तिकड़े पैशे ठेवा। आणि घरी गेल्यावर संध्याकाळी मुलला मिळेल...आणि पोलिस ला कळवू नका।” (खंबाटकी घाट के पास, बांई ओर रोड के किनारे एक टेलीफोन बूथ है। पैसे वहां रख कर वापस चले जाना। तुमको तुम्हारा बच्चा शाम को मिल जाएगा...पुलिस को मत बताना)

“हैलो...हैलो...मेरा संकेत कैसा है? मुझे उससे बात करनी है..केवल एक मिनट के लिए..प्लीज...”

टेलीफोन कट गया। रिसीवर प्रतिभा के हाथों से छूट गया। सूर्यकान्त ने उसे नजदीक रखे सोफा पर बिठाया। वह पूरी तरह से अपने ही ख्यालों में गुम हो गई थी, शून्य में ताक रही थी, किसी से भी नजरें नहीं मिला रही थी।

साई विहार में मौजूद सभी लोगों ने इस बात से राहत महसूस की कि संकेत जिंदा और सुरक्षित है और वापस आ जाएगा लेकिन वे कुछ डरे हुए भी थे...क्या अपहरण करने वाला बच्चे को लौटाने के बहाने से सूर्यकान्त को तो नुकसान नहीं पहुंचाएगा?

अंततः, डर पर आशा की विजय हुई...

भांडेपाटील परिवार किस अनुभव से गुजर रहा था इससे पुलिस वालों को कोई लेना-देना नहीं था। वे बस इस बात को जानते थे कि अपहरण करने वाले ने एक सप्ताह बाद फिरौती के लिए फोन किया है, इसका मतलब यह है कि वह या तो निहायत मूर्ख है या अत्यंत चतुर। वह चाहे जिस भी तरह का हो, उसके लिए अब दूर भाग के जाना संभव नहीं होगा।

अपहरणकर्ता को धर दबोचने के मकसद से साई विहार में पहले से ही सातारा से दो पुलिस वाले आ चुके थे। उन्होंने अपनी मुख्य शाखा से कुछ और लोगों को मदद के लिए बुला लिया। उन्होंने इंसपेक्टर माने को इस नए घटनाक्रम के बारे में सूचित कर दिया।

बिना देरी किए इंसपेक्टर माने अपने स्टा के साथ साई विहार में पहुंच गए।

पुलिस वालों को इस बात का पूरा भरोसा था कि अपहरणकर्ता आज पकड़ लिया जाएगा और मामला सुलझ जाएगा। उन्हें पता था कि आगे जांच-पड़ताल, थर्ड डिग्री टॉर्चर, जुर्म कबूली, सबूत इकट्ठा करना, गवाहों के बयान, मामले की चार्ज शीट फाइल करना और अदालत का फैसला...इन सब औपचारिकताओं का सामना करना ही पड़ेगा।

पुलिस आगे की कार्रवाई की योजना बना ही रही थी कि कमरे में प्रेमजी भाई पटेल, उनके भाई शिवलाल पटेल, रफीक़ मुजावार और पंचायत समिति के सभापति नितिन भारगुड़े पाटील ने तेजी से प्रवेश किया। पुलिस दल को उनका इस तरह से जबर्दस्ती भीतर आ जाना कुछ अच्छा नहीं लगा। लेकिन वे उनसे कुछ कह नहीं सकते थे, क्योंकि वे सभी गांव के सम्मानित नेता थे।

सूर्यकान्त ने 500 रुपए के दो बंडल अपनी आलमारी से निकाले और उन्हें लाल रंग की ब्रीफकेस में रखा। तय यह हुआ था कि वे सभी लोग बताए गए स्थान पर शिवलाल पटेल की वैन में जाएंगे। संजय, नितिन और रफीक़ वैन में उनके साथ रहेंगे। परिवार के बाकी सदस्य और मित्र मंडली साई विहार में जमा हो गई और सभी ने संकेत की सुरक्षा और उसकी घर वापसी की प्रार्थना करना शुरू कर दिया था।

शिरवळ पुलिस चौकी और सातारा से पहुंचे पुलिस बल से सामान्य वेशभूषा में थे, वे जल्दबाजी में थे, इसलिए वे यह तय नहीं कर पा रहे थे कि सूर्यकान्त के मिशन में कौन साथ देगा, और क्यों। उन्होंने योजना बनाई कि वे लोकेशन पर कुछ देर पहले पहुंच जाएंगे ताकि सूर्यकान्त के वहां पहुंचने से पहले ही उस जगह की अच्छी तरह से जांच-पड़ताल कर लेंगे। वे अपनी योजना को पूरी तरह से सुरक्षित बनाना चाहते थे ताकि अपराधी इस बार उनके चंगुल से बच कर भाग न सके। इसीलिए इस बार इस मिशन के लिए उन्होंने वर्दी न पहनना ही उचित समझा।

कुछ ही पलों में पुलिस दल ने साई विहार से रवानगी डाल दी, सूर्यकान्त और उसकी टीम ने लाल ब्रीफकेस के साथ घर से बाहर निकल गई। यह सबकुछ टेलीफोन आने के मुश्किल से आधे घंटे के भीतर हो गया। उनके मन में तो आशा थी, लेकिन दिमाग में भय। ‘क्या अपहरणकर्ता पैसा पाने के बाद संकेत को छोड़ देगा? कहीं अपने वादे से मुकर तो नहीं जाएगा?’पैसा उठाने के लिए कितने लोग आएंगे? क्या वे हम पर हमला तो नहीं बोल देंगे?

वैन नेशनल हाई वे नंबर 4 पर भागी जा रही थी। खंबाटकी घाट शिरवळ से 12 किलोमीटर की दूरी पर था। आमतौर पर वहां पहुंचने में 15 मिनट से ज्यादा का वक्त नहीं लगता है।

इससे पहले की सूर्यकान्त की वैन शिरवळ परिसर से बाहर निकलती, गुमे हुए बच्चे के खोज अभियान को लेकर आगे की कार्रवाई की चर्चा गांव-भर में होने लगी। सभी लोगों ने शिरवळ और सातारा पुलिस दल और सूर्यकान्त की टीम को साई विहार से बाहर निकलते हुए देखा। एक से दूसरे तक बात पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ अतिउत्साही लोग अपनी-अपनी बाइक और स्कूटर पर इन लोगों का पीछा करने निकल पड़े, वे जानना चाहते थे कि होने क्या वाला है।

15-16 पुलिस वाले अपराधी को पकड़ने के लिए तैयार थे। जैसे-जैसे वे लोकेशन के पास पहुंचते जा रहे थे, उनकी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। उनकी कारें और वैन पूरी गति से आगे बढ़ती जा रही थीं।

सूर्यकान्त और उसके दोस्त जिस जगह पर टेलीफोन बूथ है, उस स्थान के नक्शे पर विचार विमर्श कर रहे थे। वे यह भी कह रहे थे कि उन्हें पैसे सौंपने से पहले संकेत की कहां है-इस बारे में सतर्कता से जांच करनी होगी क्योंकि समय खराब चल रहा है। सूर्यकान्त के कानों पर सबकी बातें आ रही थीं, पर किसी पर भी ध्यान नहीं दे रहा था। वह तो अपने ख्यालों में अपने बेटे के साथ ही था। ‘एक बार मेरा बेटा मुझे मिल जाए, फिर मैं उसके साथ बहुत सारा समय गुजारा करूंगा। अब मैं उसे अपना प्यार दिखाना चाहता हूं।’

अचानक रफीक़ चीख पड़ा। संजय, जो सूर्यकान्त के बाजू में बैठा था, बोला, “भाऊ...सूर्यकान्त अवचेतन से बाहर आया, तेजी से भाग रही वैन को ब्रेक मारा और चिल्लाया, संकेत, संकेत, संकेत....”

वैन को अचानक ब्रेक मारने के कारण वैन के टायरों के सड़क पर घिसने की तेज आवाज आई और वैन रुक गई। रफीक़ बोला, “या अल्लाह !!!” नितिन पसीने से नहा उठा। आसपास के पेड़ों पर बैठे परिंदे डर के मारे दूर उड़ गए। क्या हो गया यह जानने के लिए हर कोई वैन से नीचे उतरने लगा। क्या वैन का टायर फट गया? क्या अपहरण करने वाले ने कोई जाल तो नहीं बिछाया था?

सूर्यकान्त भी ड्राइविंग सीट से नीचे उतर आया। उसने अपनी बाजू वाली सीट पर नजर दौड़ाई...लाल ब्रीफकेस सुरक्षित था...

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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