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फादर्स डे - 40

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 40

बुधवार 29/12/1999

प्रतिभा यंत्रवत काम कर रही थी। सौरभ बिना किसी जिद के चुपचाप सिर नीचे करके नाश्ता कर रहा था। विष्णु भांडेपाटील भोजन का डिब्बा लेकर भोर के ऑफिस के लिए रवाना हो चुके थे। संकेत के गायब होने के बाद से सूर्यकान्त का कामकाज में बिलकुल मन नहीं लग रहा था। ऑफिस की सारी जिम्मेदारी विवेक भांडेपाटील और शेखर देशमुख ने इतनी अच्छी तरह से संभाल ली थी कि कामकाज संबंधी कोई भी परेशानी सूर्यकान्त तक पहुंच ही नहीं पाती थी।

सूर्यकान्त के हाथ एक पुराना फोटो लगा। मित्रमंडली के साथ संकेत को लेकर वह गणपतिपुळे गया था। फोटो देखकर उसका मन खिन्न हो गया। ‘अब यदि अच्छे परिणाम आने में और देर हुई तो खुद की सहनशक्ति समाप्त हो जाएगी इसका एहसास उसे होने लगा था...आगे का जीवन जीना बहुत दुष्कर हो जाएगा...हे भगवान...विट्ठला...कोई चमत्कार दिखाओ...’

और ईश्वर ने चमत्कार दिखा दिया। प्रतिभा के स्कूल की कुछ शिक्षिकाएं उससे मिलने के लिए घर पर आई थीं। कुछ औपचारिक वार्तालाप के बाद प्रतिभा के वेदना का बांध अपनी सहेलियों के सामने एक बार फिर फूट पड़ा। मन में दबाकर रखा हुआ दुःख भरभराकर बाहर आ गया।

“इतने दिन बीत गए, बिना रुके, बिना थके प्रयास कर रहे हैं लेकिन मेरा संकेत मिल ही नहीं रहा है। अब तो मुझे बहुत डर लगने लगा है...संकेत का चेहरा नजरों के सामने से जाता ही नहीं...बस उसी का ख्याल में रहता है...मेरे संकेत को किसी ने कहीं... ”

वेदना की असहनीय हो चुकीं लहरें ह्रदय के बांध को तोड़कर पूरे वेग से आंखों में लहराने लगीं और आंसू का आकार लेकर हिचकियों के साथ सहेलियों के साथ बह निकलीं। सहेलियों ने उसे समझाया, सांत्वना दी। प्रतिभा थोड़ी शांत हो गई है, यह जानकर एक टीचर ने धीमी आवाज में सलाह दी, “प्रतिभा मैडम...मुझे लगता है कि आप स्कूल में आना शुरू कर दें। काम में आपका मन रमेगा। बुरे विचारों से पीछा छूटेगा। मन स्वस्थ और शांत हो जाए तो सबकुछ ठीक हो जाएगा।”

बाकी शिक्षिकाओं ने भी उसकी इस बात का अनुमोदन किया लेकिन प्रतिभा का उत्तर साफ था, “जब तक मेरा संकेत घर वापस नहीं आ जाता मुझे कहीं नहीं जाना है और कुछ करना भी नहीं है।”

सभी शिक्षिकाएं इसी बात को बार-बार अलग-अलग तरीके से उससे कह रही थीं।

“स्कूल में आओगी तो मन शांत होगा। संकेत को खोजने का काम पुलिस कर ही रही है। प्रतिभा अब तुम अपने आपको संभालो, अपनी थोड़ी चिंता करो। अरे..खुद की तरफ तो देखो...तुम्हारा रंग-रूप कैसा हो गया है। तुमने अपनी क्या हालत बना रखी है।”

“अरे...सौरभ की ओर ध्यान नहीं देना है क्या? तुम ही अगर इस तरह रोती-बिलखती बैठी रहोगी तो सौरभ की ओर कौन ध्यान देगा ?”

“मैडम...खुद की तरफ देखें जरा...पुलिस अपना काम करेगी। सब ठीक होगा। आप कृपया स्कूल में आना चालू कर दें...हमारी बात मानें...आप स्कूल में आएं।”

“हां...कल से वह स्कूल आएगी।”

शालन के साथ चाय की ट्रे लेकर आ रहीं जनाबाई ने जाहिर कर दिया। प्रतिभा ने रोनी सूरत बनाकर जनाबाई की तरफ देखा।

“आई....पर....मैं?”

“यदि तुम बीमार पड़ गईं तो सूर्यकान्त संकेत के लिए भागदौड़ करेगा या तुम्हारी देखभाल करेगा? इस भागदौड़ में अपने सौरभ की हालत कैसी हो गई है? तुम कल से स्कूल जाना शुरू करो। घर और सौरभ की ओर ध्यान देने के लिए मैं और शालन हैं कि नहीं ?”

प्रतिभा ने को प्रतिउत्तर नहीं दिया।

रात को भोजन के समय विष्णु भांडेपाटील, शामराव, सूर्यकान्त, संजय, शेखर और विवेक ने भी प्रतिभा को स्कूल जाने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने यह भी कहा कि स्कूल जाना ही उचित होगा। पास खड़ी प्रतिभा कुछ नहीं कह रही थी। गर्दन नीचे करके उदास चेहरे से सबकुछ सुन रही थी। उसका मन किसी भी काम करने को, कहीं भी जाने को तैयार नहीं था।

गुरुवार -30/12/1999

प्रतिभा ने भारी मन से स्कूल जाने के लिए तैयार हुई। स्कूल में सभी ने उसका बड़े प्रेम, बड़े अपनापे के साथ स्वागत किया। कम जिम्मेदारियां दी गईं। हर कोई उसको सांत्वना दे रहा है, धीरज के दो बोल रहा था। प्रतिभा को यह बात खूब समझ में आ रही कि संकेत का इंतजार करने के साथ-साथ उसे बाहरी दुनिया से भी संबंध बनाए रखना जरूरी है। जिम्मेदारियों में मुंह मोड़कर भागने से काम नहीं चलने वाला। जो संकट सामने उपस्थित है, उससे भागना तो कायरता ही होगी। जिंदगी भर तो जिम्मेदारियों से, हालात से भागते रहना संभव नहीं होगा। दुनियादारी तो निभानी ही होगी। उसने विद्यार्थियों को पूर्ववत पढ़ाना शुरू कर दिया। लेकिन आज पढ़ाते समय वह आनंद, वह रुचि नहीं थी। कुछ तो कमी रह रही थी। दिन स्कूल में शांति से गुजर गया।  रिसेस में स्कूल की छह विद्यार्थिनी प्रतिभा के सामने पेसेज में आकर चुपचाप एक कतार में खड़ी हो गईं। न नमस्ते, न गुडमॉर्निंग। सबकी नजरें जमीन में गड़ी हुई थीं। प्रतिभा ने एक विद्यार्थीनी के पास जाकर प्रेम से पूछा,

“क्या हो गया बेटा...”

इतना सुनना था कि वह हिचकियां लेकर रोने लगी। प्रतिभा ने उसे अपने पास खींच लिया, ममता से सिर पर हाथ फेरा और उसे चुप कराया। पर वह कुछ बोल नहीं पाई, बस प्रतिभा से लिपट कर खड़ी रही।

दूसरी ने उत्तर दिया,

“मैडम हम संकेत को उसकी इंग्लिश स्कूल से अपने स्कूल लेकर आती थीं। उसको वहां से यहां लाना हमको बहुत अच्छा लगता था। वह हमारे साथ खूब खेलता था। हम लोग मौज-मस्ती करते हुए यहां तक आते थे। उसके गाल कितने अच्छे हैं, गोल-गोल, नरम-नरम। हम उसके गालों पर जोर से पप्पी देते थे वो उसको पसंद नहीं था। गाल पोंछते हुए वह आपके पास दौड़ के जाता था और हम उसको चिढ़ाकर खूब हंसते थे...मैडम... संकेत को एक बार स्कूल लेकर आइए न ...मैडम हमें उसकी बहुत याद आती है। एक बार लेकर आएं उसको....एक बार...”

इतना कहते-कहते बाकी विद्यार्थिनों ने भी रोना शुरू कर दिया। एक के पीछे एक-एक रोने-सिसकने लगीं। इन दुःखी बाल मनों को समझ पाना प्रतिभा के लिए मुश्किल काम था। उसकी आंखें भी भर आईँ। कौन-किसको धीरज बंधाए?

यह दृश्य देखकर वहां मौजूद हर किसी की आखों में पानी भर आया। स्कूल में अश्रु दिन जैसा वातावरण निर्मित हो गया था। हर किसी की पलकों पर संकेत की यादों के आंसुओं की झालर झूल रही थी। गुमे हुए संकेत के वापस आने की पक्की उम्मीद विद्यार्थियों के बाल मन में थी। स्कूल के कर्मचारी भी संकेत की वापसी की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे। स्कूल के विद्यार्थी, शिक्षकगण, कर्मचारीवर्ग-सभी ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे,

“हे भगवान....संकेत जहां भी हो वहां से उसे घर जल्दी भेजें। संकेत को सुरक्षित रखें।”

रात को प्रतिभा ने आंसू भरी आंखों से स्कूल में जो कुछ हुआ उसके बारे में संकेत को बताया। रोकर अपना मन हल्का कर लिया। चपाती का टुकड़ा तोड़कर सब्जी से लगाया। कौन-सा पिता पेट भर खा सकता? कौन-सी मां को सामने परोसी गई थाली का खाना अच्छा लगता? विष्णू, जनाबाई, विवेक, शेखर, शामराव और शालन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोला जाए। सामने थाली में भोजन रखा हुआ था। यंत्रवत एक-एक ग्रास मुंह में जा रहा था,गले के नीचे उतारा जा रहा था।

‘संकेत क्या खा रहा होगा? कहां रह रहा होगा? ठीक से खा रहा होगा या भूखा रह रहा होगा? मेरे बच्चे पर अत्याचार तो नहीं हो रहा होगा? कोई उसके साथ मारपीट तो नहीं कर रहा होगा? कहां सो रहा होगा? मेरे बच्चे की हालत कैसी होगी?’

सूर्यकान्त चुपचाप भोजन कर रहा था। भोजन प्रत्येक ग्रास के साथ दुःख भी लील रहा था। भीगी आंखों के किनारे से उसने प्रतिभा और सौरभ की तरफ देखा। उसकी नजर विष्णु और जनाबाई की ओर फिरी। सभी नजरें नीची करके चुपचाप खाना खा रहे थे। एक अनकही वेदना सबके चेहरों पर पसरी हुई थी।

सूर्यकान्त का गला भर आया। जोर से रुदन फूटने का डर सताने लगा। उसने झट से पानी का ग्लास उठाया और ओठों से लगा लिया। रुंधे हुए गले के कारण पानी गले से नीचे आसानी से उतर नहीं रहा था। उसे एक उबकाई आई। खांसी शुरू हो गई। जनाबाई उठीं, लेकिन विष्णु ने इशारा करके उन्हें बिठा दिया। सूर्यकान्त पानी का ग्लास हाथ में लेकर तुरंत उठ कर निकल गया। प्रतिभा और जनाबाई की नजरें मिलीं। एक स्त्री की भावना को दूसरी ने तुरंत समझ लिया। जनाबाई की नजरों ने जो कुछ कहा, प्रतिभा की नजरों ने ठीक वैसा ही सुन भी लिया। मन के भावों को समझने के लिए नजरों की आवश्यकता होती है और पुरुष के मन को पढ़ने के लिए स्त्री के पास पारखी नजर होनी चाहिए। प्रतिभा उसी क्षण सूर्यकान्त के पीछे हो ली।

सूर्यकान्त वॉश बेसिन के पास नहीं खंबे से टिककर खड़ा था। पानी का ग्लास टेढ़ा हो गया था, उसमें से पानी गिरता चला जा रहा था। सूर्यकान्त ने अपना चेहरा दोनों हाथों से ढांक रखा था। प्रतिभा समझ चुकी थी कि अब भीतरी वेदनाओं का महामेरु ढहने को तैयार है। वह उसके एकदम पास गई। उसका हाथ अपने हाथों में लेकर बोली,

“....जी को हल्का होने दें। जितना मन करे, रो लें। आपके लिए रोना बहुत जरूरी है। इतना दुःख कितने दिनों तक भीतर ही भीतर दबाए रखेंगे? मन के भीतर जो कुछ दबा के रखा है, सब बह जाने दें... ”

सूर्यकान्त ने अपने चेहरे से हाथ तो हटाया नहीं, लेकिन एक सिसकी जरूर निकल गई। प्रतिभा अपने पति, अपने प्रेमी को चुपचाप, निर्विकार भाव से देखती रह गई। जज़्बाती हो चुका पति और भावनाशून्य पत्नी एक अंधकार भरे भविष्य में अपने कलेजे के टुकड़े संकेत की खोज के लिए भावनात्मक चेष्टाएं कर रहे थे। रात की नींद से मानो दुश्मनी हो गई थी। पृथ्वी के चारों ओर फिरने वाले ग्रह-नक्षत्रों की तरह ही उनके मन-मस्तिष्क में विचार लगातार घूमते रहते थे। अच्छी-बुरी यादें झलक दिखलाकर निकल जाती थीं।

सूर्यकान्त को डर लग रहा था कि संकेत को खोजने में जितनी अधिक देरी होगी, उतना ही उसकी सकुशल वापसी मुश्किल होती जाएगी। अपराधियों की टोलियों द्वारा छोटे बच्चों को भगाकर विदेशों में बेच डालना, हाथ-पैर तोड़कर भीख मंगवाने वालों का रैकेट जैसी कितनी ही ह्रदयविदारक घटनाएं सूर्यकान्त को याद आ गईं। कल तक ये घटनाएं दूसरों के साथ होती थीं, पर अब उसकी आंच उसके अपने जीवन तक पहुंच गई थी।

सूर्यकान्त की नजरों के सामने से संकेत की एक-एक चीज, उसके साथ बिताया गया प्रत्येक क्षण किसी चलचित्र की तरह उसके सामने से गुजरने लगा था। संकेत का जन्म, उसकी मुस्कान, मस्ती, धूम, गिरना-पड़ना, जिद, खेलना, बोलना, रूठना, प्यार करना, खाना-पीना, स्कूल जाना, लड़ना, भागते हुए आकर उससे लिपट जाना...याद करने के लिए क्या कुछ कम था. जैसे किसी कुएं के लबालब भरे रहने की वजह उसके भीतर फूटने वाले झरने होते हैं, ठीक उसी तरह सूर्यकान्त नाम का यह कुआं लबालब भरा हुआ था। उसके भीतर भांडेपाटील परिवार के प्रेम के, ममता के, अपनापे के स्नेह के झरने झर रहे थे। संकेत की यादों का झरने...जितने सुखद उतने ही पीड़ादायक भी थे...यादें निश्चित ही सुखकारी होती हैं, पर उनका परिणाम दुःख ही देता है।

स्कूल जाने से पहले तक प्रतिभा ठीक थी, लेकिन अचानक एक विचार उसके मन में आ गया।

‘संकेत के अपहरण की घटना की औरों की तरह कहीं उसको भी आदत तो नहीं पड़ती जा रही? आज वह दूसरे लोगों की ही तरह इतना सहज व्यवहार कैसे कर रही थी, मानो कोई अजनबी हो?  उसका दिन इतना सामान्य और भावनाशून्य होकर कैसे बीत गया?’

मातृत्व की अदालत में प्रतिभा आरोपी की तरह खड़ी थी। सवालों के जवाब देना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा था। दोनों कानों पर हाथ रखकर जोर-जोर से रोया जाए-ऐसा प्रतिभा की इच्छा हो रही थी लेकिन ऐसा न होकर नर्म-मुलायम तकिए पर उसके आंसुओं का अभिषेक होता रहा। बाहर, रात्रि के आकाश में अनगिनत सितारों की झालर लहरा रही थी और इधर रात की गोद में, मुलायम तकिए पर अनगिनत आंसुओं का अभिषेक चल रहा था। बाजू के कमरे में सो रहे सूर्यकान्त की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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