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फादर्स डे - 47

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 47

सोमवार 07/02/2000

बेलसरे ने अमजद की पीठ पर हाथ फेरा, एक हाथ से उसकी ठुड्डी को पकड़कर चेहरा ऊपर किया, अमजद की घबराई हुई आंखों में अपनी आंखें डालकर, तेज आवाज में पूछा,

“क्या रे, तेरा निकाह हो गया क्या?”

अमजद ने अपना सिर दाएं-बाएं हिलाकर नहीं में जवाब दिया।

“ठीक है, तो अब चल पुलिस स्टेशन, हम सब मिलकर तेरा मेकअप करते हैं...तेरा ये चेहरा इतना सुंदर बना देंगे कि तू खुद भी अपने आपको पहचान नहीं पाएगा...चलो बारात सजाओ रे...दुल्हे की बहन और जीजा को भी साथ ले चलो।”

लोबो ने स्थानीय पुलिस वालों को निर्देश दिया,

“दो-तीन लोग इसके घर पर नजर रखो। कौन आता है, कौन जाता है, इसको सावधानी से देखो और तुरंत पुलिस चौकी में खबर करो। दो-तीन लोगों को अमजद की कर्म-कुंडली निकालने में लगाओ और उसका बहनोई क्या करता है, बहन का चाल-चलन कैसा है, इसकी भी जानकारी लो।”

दो गाड़ियों में भरकर पूरी बारात पुलिस चौकी पहुंची। बहन-बहनोई को बाहर बेंच पर बिठाकर पुलिस वाले अमजद को भीतर के कमरे में ले गए। बेलसरे ने अमजद को सिर से पांव तक देखा। उसके चारों ओर एक चक्कर लगाया और फिर ठीक उसके सामने आकर खड़े हो गए। अचानक बेलसरे ने अमजद का दांयां हाथ पकड़कर पीठ के पीछे ले जाकर मरोड़ा। अमजद दर्द से चीख उठा।

“संकेत को उठाने में इसी हाथ का इस्तेमाल किया था न? अब इस हाथ को भूल जाओ...ये हाथ मुझे दे दे अमजद...”

बेलसरे उसका हाथ मरोड़ते रहे और अमजद का दर्द बढ़ता गया। बेलसरे ने धीरे-धीरे उसके हाथ को ढील देना शुरू किया। हाथ छोड़ दिया और खुद सामने की कुर्सी पर जाकर बैठ गए। इशारा पाते ही रमेश और लोबो बाजू में आकर खड़े हो गए। यह सब सूर्यकान्त और रफीक़ दूर से देख रहे थे। पुलिस ने अब मानसिक शतरंज की बिसात बिछाई।

“बोल रे...संकेत कहां है?”

“तेरे साथीदार और कौन-कौन हैं?”

“संकेत को लेकर दिल्ली गया था क्या?”

“किसके कहने पर संकेत का अपहरण किया?”

“तेरा एक दोस्त हमारे हाथ लग गया है। उसने सब कबूल कर लिया है। हम केवल तेरे मुंह से सुनना चाहते हैं...चल फटाफट बता दे...”

“संकेत को छोड़ने के लिए एक लाख रुपए लिए थे। क्या किया उन पैसो का?”

“जीजा को दिए या बहन को?”

“देख...सबकुछ सच-सच बताना...इस सूर्यकान्त को केस वापस लेने के लिए हम समझा लेंगे...नहीं तो किडनेपिंग के केस में दस-बारह साल जेल में पत्थर फोड़ने पडेंगे...माथे पर क्रिमिनल का लेबल लग जाएगा...”

अमजद शेख पागलों की तरह आंखें फैलाकर देख रहा था। किसी दूसरे ग्रह का आदमी उससे बात कर रहा है और जो कुछ कहा जा रहा है वह उसके सिर के ऊपर से बाउंसर की तरह जा रहा है, कुछ ऐसे ही भाव अमजद के चेहरे पर थे। सवालों के जवाब में अमजद के मुंह से बीच-बीच में केवल इतना ही निकल रहा था,

“मैं...मैं नहीं जानता साब...साब कुछ नहीं किया है मैंने...मैं कुछ नहीं जानता...मुझे कुछ भी नहीं पता साब...”

बेलसरे का इशारा पाते ही लोबो बाहर निकल गया। थोड़ी ही देर में पानी के ग्लास और चाय के कप लेकर आ गया। सभी ने चाय पी। बेलसरे ने चाय का एक कप अमजद के सामने सरकाया, “ले चाय पी ले। थोड़ा फ्रेश हो जाएगा। दिमाग के बंद दरवाजे खुलेंगे और तेरा बंद मुंह भी खुल जाएगा।”

अमजद की इच्छा तो नहीं थी, लेकिन बेलसरे ने चाय का कप जबर्दस्ती उसके हाथ में थमा दिया। सूर्यकान्त ने चाय के लिए मना कर दिया। उसे बहुत गुस्सा आ रहा था।

‘इसकी मेहमाननवाजी करने के बजाय, चाय-पानी देने के बजाय, साले को पकड़कर मारना चाहिए। आखिर कितनी देर ये अपना मुंह नहीं खोलेगा...पुलिस वालों ने ढील दे रखी है...इतनी देर में उसके साथियों ने संकेत के साथ कुछ बुरा-भला कर दिया तो...?’

सूर्यकान्त बेलसरे के पास गया।

“इस तरह सवाल पूछ कर क्या होगा? वह कुछ उगलने वाला थोड़े ही है? लातों के भूत बातों से नहीं मानेंगे....”

बेलसरे अचानक अपनी जगह से उठ खड़े हुए और अमजद को एक जोरदार थप्पड़ लगाया। अमजद बिलबिला उठा। उसके गाल पर हाथ फेरते और होश में आते तक तो रमेश देशमुख ने उसको एक जोर की लात जमा दी। पुलिस की ओर से इतनी मार खाने के बाद भी अमजद की एक ही कैसेट बज रही थी,

“मैंने कुछ नहीं किया साब...मैं नहीं जानता ये संकेत कौन है...मैंने कुछ नहीं किया साब...सच बोलता हूं जी...”

मोज़ेस लोबो भीतर आते हुए एकदम उत्साह से बोला,

“इसकी बहन और बहनोई ने सब कुछ कबूल कर लिया है...सर इसी ने संकेत को उठाया है...चलिए हमें संकेत को लेने के लिए जाना है....मैं गाड़ी निकालता हूं....स्टार्ट करके आपकी राह देखता हूं...”

कमरे के भीतर श्मशान शांति पसर गई। सभी अमजद शेख के चेहरे की ओर देख रहे थे। सभी की निगाहें इतनी तीक्ष्ण थीं मानो अमजद का शरीर भेदकर आरपार हो रही थीं। सबको यही लग रहा था कि कम से कम अब तो यह बदमाश अपने मन में रखा हुआ, छुपाया हुआ सबकुछ बोल डालेगा। लेकिन नतीजा शून्य था।

गुस्से से भरे हुए बेलसरे और रमेश को अपनी ओर आता देख कर अमजद ने सीधे उनके पैरों में लोट लगा दी। हिचकियां दे-देकर रोने लगा।

“साब मत मारो...साब...मैंने कुछ नहीं किया है साब...मैं कुछ नहीं जानता...संकेत को छुआ तक नहीं....मैं तो उसको जानता तक नहीं....साब...”

अमजद बहुत देर तक बेलसरे के पैरों को पकड़कर रोते रहा। हिचकियां ले-लेकर उनसे मिन्नतें करता रहा,

“साब मेरे को कुछ नहीं मालूम....साब मैं बेगुनाह हूं....साब मजदूर आदमी हूं...जी मैंने कुछ भी नहीं किया जी...मैं बेगुनाह हूं साब....”

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार/ ©प्रफुल शाह

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