Kurukshetra ki Pahli Subah - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 2

(2) मन की दुविधा

भगवान कृष्ण तीव्र गति से रथ को चलाते हुए उसे मुख्य युद्ध क्षेत्र की ओर आगे बढ़ाते हैं। 

कौरव सेना का नेतृत्व इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त पितामह भीष्म कर रहे थे। 

भीमसेन के नेतृत्व में पहला दल पहले ही रवाना हो चुका है जिसमें द्रोपदी के पुत्र, साथ ही अभिमन्यु, नकुल, सहदेव और अन्य वीर हैं। मध्य वाले दल में पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न, महाराज विराट, जयत्सेन, पांचाल राजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा थे। इसके ठीक पीछे मध्य भाग में ही श्री कृष्ण और अर्जुन का रथ था। अपार सैन्य समुद्र के बीच में स्वयं राजा युधिष्ठिर थे और अनेक राजा लोग चारों ओर से उनके रथ को सुरक्षा के लिए घेरे हुए थे। वासुदेव ने आज सुबह की युद्ध मंत्रणा में इसी बात पर बल दिया था कि हर स्थिति में महाराज युधिष्ठिर को थोड़ी भी क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। वीर योद्धा सात्यकि अपनी उपस्थिति की अलग ही अनुभूति करा रहे थे। सैन्य बल के पिछले भाग में वीर क्षत्रदेव और ब्रह्म देव थे। 

थोड़ी ही देर में दोनों सेनाएं आमने सामने खड़ी हो गईं। युद्ध शुरू होने के समय जब श्री कृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख फूंका तो घोर गर्जना हुई। इसकी भीषण ध्वनि को सुनकर कौरव योद्धाओं के मन में भारी भय व्याप्त हो गया। जब अर्जुन ने अपना प्रसिद्ध देवदत्त शंख बजाया तो श्रीकृष्ण ने ताड़ लिया कि अर्जुन के मन में वैसा उत्साह नहीं है, जैसी वे अपेक्षा कर रहे थे। इसी बीच अर्जुन ने सारथी बने हुए श्री कृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाने की प्रार्थना कर दी। अर्जुन युद्ध की इच्छा से दुर्योधन के पक्ष में उपस्थित सभी योद्धाओं को देखना चाहते थे। 

श्री कृष्ण दोनों सेनाओं के मध्य भाग में रथ को ले आए लेकिन शत्रु सेना में भी अपने ही सगे संबंधियों और मित्रों को देखकर वीर योद्धा अर्जुन भावुक हो गए। उन्होंने श्री कृष्ण से कहा कि उनका गांडीव धनुष हाथ से गिर रहा है। मन भ्रमित है। वे खड़े नहीं हो पा रहे हैं। राज्य के लिए अपने ही सगे संबंधियों को मारना, चाहे वे आततायी ही क्यों न हों, उनके लिए संभव नहीं है। ऐसा कहकर अर्जुन धनुष और बाण का त्यागकर रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ गए। आज सुबह से अर्जुन का आश्चर्यजनक व्यवहार देखकर श्रीकृष्ण को इस बात की आशंका पहले से ही थी। कल संध्या की मंत्रणा में अर्जुन को राजनैतिक प्रश्नों का तो समाधान मिल गया था, लेकिन बात स्वजनों की थी और इसीलिए अर्जुन मोहग्रस्त हो गए। यह श्रीकृष्ण के सम्मुख भी एक विचित्र स्थिति थी। विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर और पांडवों के शीर्षस्थ योद्धा अर्जुन ने संशय और मोहग्रस्त होकर अपने हथियार रख दिए थे। श्री कृष्ण ने उन्हें समझाना प्रारंभ किया। यह महाभारत युद्ध का ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता के इतिहास का एक महत्वपूर्ण क्षण था। आज श्री कृष्ण अर्जुन को वह उपदेश देने जा रहे थे जो आने वाले युगों- युगों तक संशय और मोह की स्थिति में अपना स्पष्ट कर्त्तव्य पथ चुनने के लिए मनुष्यों का मार्गदर्शन करता रहेगा। 

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए उत्साहपूर्वक और प्रेरक वाणी में यह कहना शुरू किया- "हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न स्वर्ग को देने वाला है। तुम एक श्रेष्ठ वीर योद्धा हो। हृदय की दुर्बलता त्यागकर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। "

श्री कृष्ण ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ अर्जुन से कहना शुरू किया, 

हे अर्जुन; यह युद्ध का समय है। इस निर्णायक अवसर पर तुम्हें क्यों मोह हो रहा है? ऐसा मोह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा किया जाता है, न इससे स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है और न इससे व्यक्ति को ख्याति ही मिलती है। तुम्हारे जैसे वीर पुरुष को यह नपुंसकता शोभा नहीं देती है। तुम्हारे हृदय की दुर्बलता तुम्हारे कर्तव्य पर हावी हो रही है। इस दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए निश्चय होकर खड़े हो जाओ। 

अर्जुन अपना मन बना चुके थे। उन्होंने वासुदेव कृष्ण के सामने अपने तर्कों को रखते हुए कहा कि वे भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे आदरणीय संबंधियों, गुरुओं और राजपुरुषों से युद्ध कैसे करेंगे? न जाने इस युद्ध का परिणाम क्या होगा और वंदनीय गुरुजनों को मार कर राज्य पाने से तो अच्छा है कि मैं  अपना शेष जीवन भिक्षाटन करके व्यतीत कर दूं। हे वासुदेव! इस युद्ध को जीतकर और धरती पर निष्कंटक राज्य, धन-धान्य, संपत्ति, स्वामित्व को पाकर भी मैं उस निदान को प्राप्त नहीं कर सकूंगा जो स्वजनों की मृत्यु का कारण बनने के कारण मेरे अंतर्मन की पीड़ा को दूर कर दे। मैंने अपना अभिमत आपसे प्रकट किया है। अब आप इस स्थिति में मेरा मार्गदर्शन करें। 

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "हे अर्जुन! तू उन लोगों की चिंता करता है, जो चिंता के योग्य नहीं हैं। यह तो ज्ञानी और विचारकों की भाषा नहीं है। एक ज्ञानी मनुष्य तो जो जीवित हैं उनकी मृत्यु को लेकर तर्क- वितर्क में नहीं डूबता या जिनके प्राण चले गए हैं, उनकी मृत्यु के संबंध में समीक्षा नहीं करता। "

अर्जुन ने प्रश्न किया, "हे प्रभु!क्या ये प्रश्न हमारे चिंतन की परिधि से इसलिए बाहर हो गए हैं कि मनुष्य का जीवन स्थाई नहीं है। "

श्री कृष्ण ने समझाया, "नहीं अर्जुन! चिंतन प्रक्रिया से इस प्रश्न को बाहर रखने का कारण जीवन का अनिश्चित और अस्थाई होना नहीं है बल्कि यह वास्तविकता है कि हम सब न सिर्फ वर्तमान काल में इस पृथ्वी पर हैं बल्कि आने वाले कल में भी हमारा अस्तित्व रहेगा। अतः किसी के अस्तित्व को लेकर शोकमग्न हो उठना अनुचित है। "

अर्जुन ने अपना संदेह रखते हुए कहा, "हे केशव! अगर हमारा अस्तित्व यथार्थ है, तो वह क्या है जो बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था के बाद इस शरीर का होता है? क्या हमारे शरीर का समापन यथार्थ नहीं है?"

श्री कृष्ण ने स्पष्ट जानकारी देते हुए कहा, "इन अवस्थाओं के बाद शरीर का विसर्जन होता है, आत्मा का नहीं और आत्मा को एक नवीन शरीर की प्राप्ति होती है। फिर इस नवीन शरीर में आत्मा की सक्रियता, फिर ऐसी अवस्थाएं और फिर देह के समापन के बाद एक नया शरीर….. यह प्रक्रिया तब तक चलती है अर्जुन!जब तक मनुष्य मोक्ष की पात्रता प्राप्त नहीं कर लेता है। "

अर्जुन के सामने यह एक विलक्षण दार्शनिक ज्ञान है, जो नए सिरे से उनके सामने विभिन्न संबंधों, कर्तव्यों और लक्ष्यों को पुनः निर्धारित और परिभाषित करने में सक्षम है। अर्जुन सोचने लगे तो इस युद्ध भूमि में न मैं किसी को मार पाऊंगा, न कोई मेरे द्वारा मारा जाएगा क्योंकि इस आत्मा को मारा जाना संभव नहीं है। घोर रक्तरंजित युद्ध में भी नहीं। 

अर्जुन के मन की बात ताड़ते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "जब इस आत्मा का जन्म नहीं होता तो यह मरेगी कैसे? और फिर इसका दोबारा जन्म भी कैसे होगा? यह आत्मा सदा रहने वाली है, सनातन है, पुरानी है और शरीर के मारे जाने पर भी इसका नाश नहीं होता। "

अर्जुन:जी भगवन!

श्री कृष्ण :"अच्छा यह बताओ अर्जुन, कल तुमने जो वस्त्र पहने थे क्या तुमने आज भी उन्हीं वस्तुओं को धारण किया हुआ है?"

अर्जुन: नहीं प्रभु!आज मैंने उन पुराने वस्त्रों को बदलकर नए वस्त्र धारण किए हैं। 

श्री कृष्ण:" तो वही स्थिति हमारी आत्मा की भी है। वह भी एक देह के समापन पर इस पुराने वस्त्र को त्याग कर पुनः जन्म होने पर दूसरे नए वस्त्र रूपी देह को धारण करती है। "