Kurukshetra ki Pahli Subah - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 7

(7) सारा संसार घर मेरा

यज्ञ के स्वरूप की अवधारणा स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण यज्ञ की गतिविधियों को पूरी समष्टि से जोड़ रहे थे। आखिर पृथ्वी पर मनुष्य एक दूसरे से संबंधित हैं और कोई एक मनुष्य पृथक तथा एकाकी नहीं रह सकता है। 

श्री कृष्ण ने कहा, "अर्जुन!मनुष्य यज्ञों द्वारा देवताओं को उन्नत करें और वे देवतागण मनुष्यों की उन्नति करें। "

अर्जुन सोचने लगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचमहाभूत हैं। सूर्य और चंद्र भी सृष्टि के जीवंत देव हैं। धरती के लिए वर्षा और शीत आवश्यक है तो धूप भी उतनी ही जरूरी है। वन तो जैसे हमारी धरती के वातानुकूलन के लिए अपरिहार्य हैं। पंचमहाभूत तो हमारे द्वारा खुली आंखों से देखे जा सकने वाले देव तत्व हैं। जब पांडवों को हस्तिनापुर से अलग खांडव वन का इलाका राज्य के लिए दिया गया था, तो युवराज युधिष्ठिर ने निर्देश दिया था कि वन क्षेत्र को क्षति न पहुंचाई जाए। फिर भी वन का कुछ क्षेत्र नष्ट होने से अर्जुन व्यथित हो गए थे। पर्यावरणीय तत्वों का ध्यान रखते हुए ही पांडवों ने नई राजधानी खांडव क्षेत्र में बनाई थी और उसे इंद्रप्रस्थ का नाम दिया था। 

अर्जुन ने श्री कृष्ण का वह चमत्कार सुन रखा था, जब श्री कृष्ण ने अपनी कनिष्ठ उंगली पर गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। श्री कृष्ण, गौ, प्रकृति और धरती की रक्षा के लिए कृत संकल्प रहे हैं। अर्जुन ने सोचा, इस यज्ञमय कार्य के माध्यम से श्री कृष्ण पंचमहाभूतों के संरक्षण पर ही बल दे रहे हैं। उदाहरण के लिए अगर हम जल संरक्षण करते हैं तो यह जल तत्व या वरुण देव को भेंट होगी। अगर हम वन संरक्षण करते हैं तो यह पर्यावरण संरक्षण के रूप में वायु देव को भेंट होगी। जनमानस में श्री कृष्ण की अत्यधिक लोकप्रियता का कारण भी यही है कि वे जनसाधारण के हित की सोचते हैं और उनसे जुड़े विषयों और समस्याओं को प्राथमिकता देते हैं। 

श्री कृष्ण कह रहे हैं, "यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले व्यक्ति श्रेष्ठ हैं। "अर्जुन भावविभोर हो गए। अद्भुत है श्री कृष्ण की जीवन दृष्टि। केशव की दृष्टि में तो यह सारा संसार ही विराट पूजा स्थली है और हम लोग जन- कल्याण के लिए अपने साधनों को अर्पित करने के बाद शेष जो हमें प्राप्त हो गया, उसे भगवान का भोग स्वरूप समझकर स्वीकार करें और ग्रहण करें। 

स्वयं अर्जुन राष्ट्र की युवा पीढ़ी के आदर्श हैं। द्वापर युग के गिने-चुने महानतम धनुर्धरों में उनकी गणना होती है। श्री कृष्ण ने उनकी ओर संकेत करते हुए कहा, "महान मनुष्य जैसा आचरण करते हैं, अन्य लोग भी उनका अनुकरण करते हैं। अर्जुन मैं स्वयं लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता हूं। तुम्हें भी महानता और वीरता का आचरण करना होगा। न जाने पांडव पक्ष के कितने योद्धाओं को तुमने धनुर्विद्या सिखाई है। तुम उनके आदर्श हो क्या वे तुम्हें इस तरह युद्ध से हटा हुआ देखकर उत्साहित होंगे?"

अर्जुन सोच में पड़ गए। वासुदेव इस युद्ध में मुझसे प्रभावी नेतृत्व और निर्णायक योगदान की अपेक्षा रख रहे हैं और मैं बदले में अपने हथियार डालने  की सोच रहा हूं। 

श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "अपने अंतर्मन से संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पित करके आसक्ति के त्याग, फलों में आशा रहित भाव, संताप रहित भाव रखकर स्वयं को अकर्ता मानते हुए युद्ध करो। "

अर्जुन ने पूछा, "आपके दिव्य ज्ञान से मेरे ज्ञान चक्षु खुल रहे हैं प्रभु, और न जाने कितने जन्मों से मेरी आत्मा पर अज्ञानता की जो परतें जमी हुई थीं, वे एक-एक कर निकल रही हैं। प्रभु आपकी बातें अत्यंत प्रेरक हैं। इंद्रियां स्थूल शरीर से श्रेष्ठ है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और बुद्धि से भी श्रेष्ठ आत्मा है। लेकिन वह बाधक तत्व क्या है भगवन? जो मन, बुद्धि आत्मा विवेक इन सभी के संतुलन को भंग कर देता है और मनुष्य को पापकर्म की ओर उन्मुख कर देता है?"

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "काम या अनंत अतृप्त कामनाएं जो ज्ञान, विवेक, बुद्धि सभी पर अज्ञानता का पर्दा डाल देता है। "