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मेरे माथे का चंदन


कोई क्यों लिखता है ? अगर वह नहीं लिखता तो क्या हो जाता ? या कि , लिखना उसका व्यसन है ,शौक है ,अनिवार्यता है , प्रतिबद्धता है ,उसकी उँगलियों , उसके विचार या भावनाओं की खुजली है ? ये या इन जैसे तमाम यक्ष प्रश्न आपके , हम सबके मन में उठ सकते हैं | इनके उत्तर भी अलग - अलग हो सकते हैं | जैसे कोई क्यों लिखता है , मैं क्या जानूँ , यह तो वह जाने कि वह क्यों लिखता है | हाँ , एक बात तो तय है कि अगर वह नहीं लिखता तो प्रत्याशित या अप्रत्याशित कुछ भी नहीं होता | अगर वह दावा करता है कि उसकी लेखनी की धार से , कलम की ताक़त, शब्दों की ज्वाला से किसी व्यक्ति या समूह में भावनाओं का ज्वार - भाटा उठ खड़ा होगा तो उसकी इस बात में भी दम नहीं है | हाँ , राख में दबी किसी आग या चिंगारी को ऐसे लेखन बढ़ा अवश्य सकते हैं | नि:संदेह उसका लेखन “सपोर्टिंग” तत्व हो सकता है, लेकिन किसी क्रान्ति या आन्दोलन की नींव, कतई नहीं | जैसे ; ” कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता ,एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों ! ” दुष्यंत कुमार के इस शेर को अपने निजी जीवन में आचरण करते हुए कम लोगों को पाया गया है बल्कि इसे एक हथियार के रूप में मजदूर, राजनीतिक दल और छात्र यूनियन में ज्यादातर लोगों को उछालते मैंने देखा है | अब भला दुष्यंत तो हैं नहीं कि उनसे पूछा जा सके कि इसे लिखने का उनका मंतव्य भक्ति या वीर रस कालीन कवियों की तरह आगे की पीढ़ियों को उनकी हौसला अफ़जाई के लिए संदेश देना था या समकालीन लोगों के लिए विरोध और क्रान्ति का साहित्यिक हथियार देना था ? इसी सदर्भ में यह भी हो सकता है कि ‘स्वान्तः सुखाय ‘ के लिए लिखे गए इस शेर को भाषण की धार देने के लिए , प्रगतिशीलता का आवरण पहनाने के लिए चुन लिया गया हो और आम पाठक के लिए संकल्प या आचरण की कवि की मूल भावना का तेवर ही बदल दिया गया हो ! लेकिन पाठकों विनम्रता से कहना ठीक रहेगा कि ध्यान रखिये , आप स्वतंत्र हैं अपनी अलग राय रखने के लिए , अपने अलग विमर्श के लिए |

आपके संज्ञान में होगा कि संत कवि तुलसीदास ने भी अपनी विश्वविख्यात अमर कृति “रामचरित मानस “ में कहा है –
“राम भगति भूषित जियँ जानी , सुनहहिं सुजन सराहि सुबानी ||
कवि न होऊँ नहिं बचन प्रबीनूं | सकल कला सब विद्या हीनू ||”
वे कहते हैं , सज्जन गण इस कथा को अपने जी में राम की भक्ति से भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे | मैं न तो कवि हूँ , न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ , मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित
हूँ | इस बात को आगे वे फिर-फिर कहते हैं कि “कवि बिवेक एक नहिं मोरे | सत्य कहहूँ लिखि कागद कोरे | ”.... और यह भी कि , “ कवि न होऊं . नहिं चतुर कहावऊं ,मति अनुरूप राम गुण गाऊँ | ” तुलसी की यह सरलता थी , महानता थी या उनका वाक् चातुर्य कि उन्होंने रामचरित मानस की शुरुआत में ही स्पष्ट कर डाला था कि,
“नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् ,
रामायणे निगदितं क्वचितन्यतोअपि|
स्वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा ,
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति “|| 7 ||
इसलिए कुछ अपवाद छोड़कर स्वान्तः सुखाय के निमित्त लेखन की बात तार्किक लगती है और अगर यह स्वान्तः सुखाय का लेखन जगत हिताय सिद्ध हो तो क्या कहने ! शायद इन्हीं पृष्ठभूमि में मैंने भी लेखन को अपनाया है |मैं जब छठवीं कक्षा में था तो मेरे पिताजी ने मेरी हिन्दी और अंग्रेज़ी को मजबूत बनाने के लिए मुझे समाचार पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकीय या किसी साहित्यिक लेख ,कविता को नक़ल करने ,अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित किया |प्रोत्साहित ही नहीं लगभग अनिवार्य कर दिया था और मुझे याद है कि वे उन्हें जांचना भूलते नहीं थे | साहित्य और लेखन की ओर यह मेरा पहला झुकाव था जो आगे चलकर मेरी दिनचर्या में सम्मिलित हो गया | नौवीं तक जाते जाते मैं अपने पिताजी के साहित्यिक ,धार्मिक और विधि सम्बन्धी लेखों की साफ़ प्रतियां (कार्बन सहित)बनाने में सिद्धहस्त हो चला था | मुझमें साहित्यिक ऊर्जा का स्त्रोत पैदा करने और बढ़ाते रहने ही नहीं बल्कि मेरी हस्तलिपि सुन्दर बनाने में भी उनका पूरा योगदान था | आज भी मेरी हस्तलिपि देखकर लोग हतप्रभ हो जाया करते हैं , ऎसी कि मानो छपी हुई हों | मिशन स्कूल में पढ़ता था और मेरे पितामह ने मुझे जबरन संस्कृत भाषा दिलवा दिया था | संस्कृत और गणित से मानो मेरी दुश्मनी थी | फलस्वरूप मैं नौवीं कक्षा में फेल हो गया और परिजनों के क्रोध का शिकार बना | अल्पायु में ही एक क्रांतिकारी धार्मिक संगठन (आनन्द मार्ग ) से जुड़ जाने के कारण शिखा और सूत्र से पहले ही दूरी बन चुकी थी अब कटुम्ब की धरोहर संस्कृत से भी मैंने दूरी बना लेने का ऐलान कर दिया | गणित से पीछा छुड़ाना असम्भव था क्योंकि वह अनिवार्य विषय था | उसी साल गणित में ज्यामिति और टिग्रामेंट्री भी शामिल हो चली थी जिसने मेरी अक में दम कर दिया था | भला हो श्री एस.एन.शुक्ला का जिन्होंने मुझे इस वैतरिणी से किसी तरह पार कराया | हाँ, तो मेरी इन “उपलब्धियों” से मेरे पिताजी को जाने क्यों इस बात का एहसास होने लगा कि लड़का नालायक ही निकलेगा और उन्होंने इंटर में जाते ही मुझे टाइपिंग और शार्ट हैण्ड राईटिंग सीखने के लिए कह दिया | इस सलाह के साथ कि आगे चलकर उनके साथ कचहरी में टाईपराईटर लेकर बैठूँगा तो कम से कम रोजी रोटी चलती रहेगी | मैंने आपदा को अवसर में बदलना शुरू कर दिया और इंटर करते करते मैं शार्टहैंड राइटिंग और टाइपिंग में पारंगत हो गया |स्पीड बढाने के लिए एक बार फिर बड़े बड़े साहित्यकारों के छपे लेखों को मैं टाइप तो करता ही , आत्मसात भी करता चला गया | और हाँ , अब मैं अपनी छोटी छोटी बाल रचनाएं और पिताजी के आलेख हस्तलिपि में नहीं बल्कि उसी टाइपिंग स्कूल के टाइप मशीन पर टाइप करके समाचार पत्र -पत्रिकाओं को भेजने भी लगा था| पहले बच्चों के पृष्ठ पर और फिर आगे चलकर साहित्यिक पन्नों पर मेरी रचनाएं छपने लगी थीं | वह उन्नीस सौ साठ से सत्तर का दशक था |उन दिनों समाचार पत्रों के साप्ताहिक अंक भरपूर साहित्यिक सामग्री लेकर आते थे और मेरा कौतूहल बना रहता था कि इस अंक में मैं छप रहा हूँ क्या ? इससे भी दुगुनी खुशी उस पन्द्रह या बीस रूपये के पारिश्रमिक को पाकर हुआ करती थी जो उन दिनों मनीआर्डर से आया करता था | पिताजी के लेखों के साथ उसी अंक में मेरी रचनाओं का छपना और लोगों द्वारा उनका पढ़ा जाना मुझे पुलकित कर जाता था |
इंटर में मेरी साहित्यिक गतिविधियों ने मुझे विद्यालय की छात्र पत्रिका के सम्पादन का दायित्व सौंपा | मैं जब अपनी विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए गया और मैंने हिन्दी साहित्य को एक विषय के रूप में चयनित किया तो हिन्दी के प्राध्यापक मेरी साहित्यिक सक्रियता से परिचित हो चुके थे | नियति ने एक बार फिर मेरे जीवन में टर्निंग प्वाइंट लिया | परास्नातक हिन्दी साहित्य से करने की मेरी प्रबल इच्छा को पिताश्री ने पूरी नहीं होने दिया और मुझे एल.एल.बी. की नीरस पढाई में तीन साल बर्बाद करने पड़े | वे मुझे न्यायाधीश या विधि प्रवक्ता के रूप में देखना चाहते थे | उसी बीच में विश्वविद्यालय परिसर में किसी युवती के रूप यौवन ने मेरे पुरुष को झकझोर दिया और मेरी भावनाओं ने शेर – ओ - शायरी और उटपटांग कविताओं से डायरियों को भरना शुरू कर दिया |अब मैं राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में छपने लगा था |
लेखन मेरी दिनचर्या बनती जा रही थी और कैरियर मुझे विपरीत दिशा में ले जाना चाहता था | वर्ष 1976 में विधि की डिग्री लेकर विधि की उच्च शिक्षा (एल.एल.एम.) में दाखिला नहीं पा सका और कोई विकल्प नहीं देखकर मैंने वकालत की शुरुआत कर दी | कचहरी मेरे मन को रास नहीं आती और प्रतिदिन अपने परमात्मा से वहां से मुक्त करने की याचना करता रहता | उसी बीच वर्ष 1977 में आकाशवाणी में अपनी सेवाएं देने का बुलावा आ गया और मानो भगवान विष्णु द्वारा नदी में मगरमच्छ द्वारा गजराज के पकड़े गये पैर को मुक्ति मिल गई | एक और रोचक बात बताना चाहूँगा कि आकाशवाणी की सेवा के लिए हुए साक्षात्कार में प्रख्यात लेखिका शिवानी ने जब मेरा परिचय जाना तो उन्होंने यह टिप्पणी करते हुए मेरी प्रतिभा को चमक दे दी कि ‘ हाँ,हाँ आपको तो बहुत पढती रही हूँ |’ आकाशवाणी, जिसके लिए वरिष्ठ कवि डा.बुद्धिनाथ मिश्र कहते हैं कि “ आकाशवाणी में वही अधिकारी टिक सकता था या जी सकता था जिसमें कविता और संगीत (कला) में इतनी अभिरुचि हो कि इसे ही ओढ़े बिछाये | ”
संतोषजनक साहित्यिक उपलब्धियों के साथ मैंने अपनी सेवा की शुरुआत कबीर के इस संदेश के साथ की ;
“कबीर नन्हा होइ रहो जैसे हल्की दूब |
बड़े पेंड़ सब गिर गए, दूब दूब की दूब || ”
सौभाग्यशाली था कि इलाहाबाद , आज का प्रयागराज , मेरा कर्मक्षेत्र बन गया | उन दिनों आकाशवाणी के बहाने कविवर सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, रघुपति सहाय फिराक़ गोरखपुरी, राम कुमार वर्मा, इलाचंद्र जोशी ,पंडित विद्यानिवास मिश्र ,डा.मधुकर गंगाधर सदृश महान साहित्यकारों का सानिध्य मिला |पन्त जी तो आकाशवाणी आकर घंटों बैठा करते थे और इलाचंद्र जोशी मेरे सहकर्मी और मित्र निखिल जोशी के पिता होने के नाते अक्सर मिला करते थे | महादेवी जी और फिराक़ गोरखपुरी आकाशवाणी नहीं आया करते लेकिन महादेवी जी अपने घर पर रिकार्डिंग अवश्य करवा लेती थीं | श्री नर्मदेश्वर उपाध्याय प्रोड्यूसर के साथ एकाधिक बार उनका दर्शन लाभ हुआ | इस तरह साहित्य मेरी चेतना का प्रमुख माध्यम बनता चला गया | मेरे प्रिय कवि , साहित्यकार श्री हरिवंश राय ‘बच्चन’ उन दिनों इलाहाबाद छोड़ चुके थे और दिल्ली शिफ्ट हो गए थे लेकिन इलाहाबाद में उनकी ढेर सारी यादें अब भी यत्र - तत्र बिखरी पड़ी थीं | उन्हों में से एक रोचक याद उनके बचपन और स्कूली शिक्षा से भी जुड़ी थी , जिसके बारे में उनके सहपाठी पंडित देवकीनन्दन पाण्डेय, वैद्य ने मुझे जब बताया और जिसे मैंने जब ‘बच्चन’ जी को पत्र द्वारा बताया तो वे अचंभित हो गए | वे उस घटना का विवरण अपनी लोकप्रिय आत्मकथा में भी नहीं दे पाए थे इसलिए उनका कौतूहल बन गया कि किसने उस दास्तान को अभी तक अपने मस्तिष्क में सुरक्षित बनाये रखा है | उनका लिखा वह लम्बा चौड़ा पत्र आज भी मेरी फाइलों में पड़ा हुआ है |
ऐसे ही परिवेश में मैंने अपने साहित्यिक लेखन की शुरुआत की थी | मुझे अनेक बड़े और स्थापित साहित्यकार और सम्पादक ने प्रोत्साहन दिया किन किन का नाम लूँ मैं ? मैंने कोशिश की है कि मैं अपने स्वान्तः सुखाय के निमित्त लिखे गए साहित्य में जूही के फूल जैसा सुगंध बिखेर सकूं जिससे वह मानव जगत के स्वस्थ और सार्थक मनोरंजन का कारण बन सके | जूही पुष्प , जो आकार में बहुत छोटा हुआ करता है , लेकिन खुशबूदार बहुत होता है ..गुलाब के मानिंद बल्कि उससे भी ज़्यादा | मेरा यत्र – तत्र, बहुआयामी लेखन तो बहुत हुआ किन्तु पुस्तकें मेरी देर से छपनी शुरू हुई हैं |साहित्यकार श्री दयानन्द पाण्डेय ने मुझे “तिकड़म तिवारी “ उपनाम देकर मुझसे स्थानीय ( गोरखपुर के ) साप्ताहिक पत्र में नियमित कालम लिखवाये तो महान साहित्यकार पंडित विद्यानिवास मिश्र ने उसी “तिकड़म तिवारी “ से नवभारत टाइम्स के राष्ट्रीय संस्करण में कालम लिखवाया | श्री नवीन जोशी ने दैनिक हिन्दुस्तान के उ.प्र. प्रदेश संस्करण में “ अपने शहर में ” नामक सचित्र कालम लिखवा कर मुझे यश दिलाया | पुस्तकें कम आने की एक वज़ह यह भी है कि मैं पुस्तक प्रकाशन की संख्या और उन पर मिलने वाले पुरस्कारों में नहीं बल्कि अपने पिताजी की ही तरह उन पुस्तकों की गुणवत्ता और सार्थकता के लिए ज़्यादा सम्वेदनशील बना रहा | मेरी प्रसारण सम्बन्धी पुस्तक “भारत में ग्रामीण एवं कृषि प्रसारण “ , लघुकथा संग्रह “कब आएगी नई सुबह “, संस्मरण “सांप ,सीढ़ी, ज़िंदगी “और “अद्भुत और अद्वितीय ” , काव्य संकलन “काव्य किसलय “आदि की साहित्य प्रेमियों ने भरपूर प्रशंसा की है | हो सकता है आप इन पंक्तियों को आत्म प्रशंसात्मक समझें लेकिन मैं इसे आवश्यक समझता हूँ क्योंकि अब किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व किंवा आलोचना की निष्पक्षता संदिग्ध हो चली है | अपनी दो टूक बातें करने और प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहने के कारण ख़ासतौर से जाने क्यों मेरे व्यक्तित्व और लेखन ने कम समय में अनेक “व्हाइट कालर” निंदकों की संख्या तैयार कर ली है | वे मेरे लेखन की कम , मेरी व्यक्तिगत खिंचाई करने में ज्यादा रूचि लिया करते हैं | लेकिन उनका यह रूप भी मुझे भाता है और मैं उन्हें स्वीकार करता रहता हूँ | अवसर मिला तो मैं उन्हें लिपिबद्ध भी करूंगा | मेरे इस अभिमत की भी एक वज़ह है जिसे मैं इस घटना से बताना चाहूँगा |
महात्मा बुद्ध जब बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद पहले - पहले अपनी पत्नी यशोधरा से मिले तो यशोधरा ने उनको प्रणाम करने के बजाय उनका आलिंगन कर लिया था | बुद्ध ने तो उसे शालीनता से स्वीकार कर लिया लेकिन उनके शिष्यों को यह प्रसंग अच्छा नहीं लगा क्योंकि उन सभी की दृष्टि में उनका ऐसा करना सन्यास धर्म का सरासर उल्लंघन था | उनसे जब उनके शिष्यों ने इसके बारे में पूछा तो उन्होंने निर्विकार भाव से कहा कि महाप्रेम में छोटे - छोटे प्रेम घुल-मिल जाते हैं | अपने आलोचकों और प्रशंसकों की प्रतिक्रियाओं को मैं इन्हीं भाव से लेता रहता हूँ | इन सभी के होने की न तो कोई गुदगुदी होती है और न दुखबोध | मुझे पूरा विश्वास है कि जीवन की अंतिम सांस तक लेखन मेरे माथे का चन्दन बनकर समाज में अपनी सुगंध और शीतलता बिखेरता रहेगा |